गुरुवार, 2 अप्रैल 2020

लहक अंक 33 में कवि विजेंद्र का डॉ कर्ण सिंह चौहान की टिप्पणी पर प्रतिक्रिया

"मार्क्सवाद और रामविलास शर्मा की श्रद्धा -भक्ति मार्का मूल्याङ्कन द्धति" आलोचक कर्ण सिंह चौहान ने " लहक" तेतीस में मेरी मार्क्सवादी आस्था को अनेक नकरातमक शब्दों से विभूषित किया है। मैं उनके प्रति आभार व्यक्त करता हूँ। यही नहीं मेरा समग्र काव्य पढ़े बिना ही मेरी सृजन धर्मिता पर भी उन्हों ने अनेक प्रश्न चिन्ह लगाये हैं। उसके लिए भी मैं उन्हें धन्यवाद देता हूँ। उनके और मेरे रिश्ते दशकों से बहुत आत्मीय रहे हैं। उनकी मार्क्सवादी आस्था और उनके सृजन के कारण मैं उनका सम्मान करता रहा हूँ। लेकिन उन्हों ने मुझ पर जो मार्क्सवादी " कट्टरता और अंधभक्ति " के आरोप लगाये हैं उनका भी में स्वागत करता हूँ। मेरी मार्क्सवादी आस्था पर उनके तीखे प्रहारों के बावजूद मेरी आस्था वही है। क्योंकि मुझे सर्वहारा के पक्ष में पूँजीवाद से उसे मुक्त कराने और लड़ने का और कोई दर्शन दिखाई नहीं देता। और मार्क्स को खंडित कर कर्ण ने कोई सार्थक विकल्प भी नहीं सुझाया। बहुत सारी बातें मैं पिछले दो दिन से मार्क्सवादी दर्शन की मौलिकता, महत्व और गतिशीलता के बारे में कहता रहा हूँ। कर्ण मुझे मार्क्सवादी कैद में ही रहने दें। भक्ति भाव तो ऐसा ही होता है। गीता में कहा गया है , " श्रद्धावान लभते ज्ञानं " . ख़ैर। वैसे जिस दर्शन को हम मानते हैं उसे एक बार ही पढके छोड़ नहीं देना चाहिए। हमें आत्मालोचन भी करते रहना चाहिए। और उस दर्शन को बार-बार पढ़ते रहना भी जरुरी है। जिस दिन मुझे मार्क्सवादी दर्शन और उसका सौन्दर्य-शास्त्र अप्रसांगिक लगेगा मैं अपनी वैचारिक निष्ठां पर पुनर्विचार जरुर करूंगा। यह मैं मानता हूँ कि प्लेटो से लेकर मार्क्स तक पश्चिम में अनेक दर्निशिक हुए है, उन सबका भी योगदान दान है। मार्क्स ने माना है कि उसने उन सभी को आत्मसात करके ही कुच्छ अपनी बातें कही है. यह भी कि मार्क्स पूर्ण ज्ञान का दावा नहीं करता। क्योंकि चीजें विकसित होती हैं. मेरा विनम्र आग्रह है चौहान से कि अपने पूर्वआग्रहों को त्याग कर आज के सन्दर्भ में फिर से मार्क्स और उसके समृद्ध सौन्दर्य-शास्त्र को पढ़ें . मुझे आश्चर्य हुआ यह जान कर कि चौहान मार्क्सवाद को एक "विचार " भर मानते हैं। जबकि वह एक सर्वसमावेशी , समृद्ध और विकासशील भरा-पूरा दर्शन है। विचार और दर्शन में फर्क होता है। यह मैं कह चूका हूँ। इस पर आगे भी विमर्श हो सकता है। यह भी बता दूँ कि दुनिया के अधिकांश महान कवि मार्क्सवादी थे। अगर मार्क्सवादी न होते तो वे इतने महान कवि नहीं होते। मिसाल के लिए जर्मन के दो कवि हैं। एक रिल्के और दूसरे बर्टोल्ट ब्रेख्त। रिल्के भाववादी और आत्मनिष्ठ हैं। जबकि ब्रेख्त मार्क्सवादी। आज विश्व ब्रेख्त को ही बड़ा कवि मानता है। रिल्के को लोग भूल चुके हैं। तुर्की के नाजिम हिकमत , रूस के मायकोवस्की , वियतनाम के तो हु , फिलिस्तीन के महमूद दरवेश , स्पेन के लोर्का , और चिली के पाब्लो नेरुदा आदि मार्क्सवादी होने के ही कारण महान कवि होने का गौरव अर्जित कर सके। विचारधारा को कवि अपनी रगों का रक्त बनाकर ही उसे रचना में गहन चिंतन के रूप में ढालता है। मैं सक्षम औए समर्थ कवि की बात कर रहा हूँ। मेरी कट्टरता और अंध-भक्ति के चक्कर में कर्ण ने रामविलास शर्मा को भी घसीट लिया है। यह न केवल अनुचित है। बल्कि मानवीय भी नहीं हैं। शुक्ल जी के बाद अगर हिंदी में कोई शिखर आलोचक है तो वह रामविलास शर्मा। उनके सृजन का परिमाण इतना है कि उसे परखने के लिए कई जन्म लेने पड़ेंगे । वह एक साधक और महान आलोचक हैं। ऐसे लोग सदियों में कभी पैदा होते हैं। बल्कि ऋषि तुल्य। गोष्ठी ,लोकार्पण अर्थहीन दुनियादारी से ऊपर उठे हुए। एकबार उनसे जब आगरा में मिला तो कहा कि विजेन्द्र सागर से उपकुलपति पद का प्रस्ताव आया है। लेकिन मैंने मना कर दिया। वहां काम नहीं कर पाउँगा। कर्ण का कहना है , "दुःख की बात तो यही है कि हिंदी के समर्थ आलोचक और चिन्तक ( मार्क्सवादी -अपनी तरफ से जोड़ रहा हूँ ) रामविलास शर्मा ने न केवल इस श्रद्धा -भक्ति मार्का मूल्याङ्कन की शुरुआत की , बल्कि उसे स्थापित भी किया। एक बार जिस कवि को अपने पाले का मान लिए तो उसके सारे अन्तर्विरोध और न्यून्ताएं तिरोहित हो गई। जिस लेखक को विरोधी मान लिया तो उसके साहित्य में कुछ भी उत्कृष्ट हो ही नहीं सकता। यहाँ भी कर्ण ने कोई ऐसा उदहारण नहीं दिया जिस से रामविलास शर्मा का दुराग्रह प्रमाणित हो सके। ये हवाई बातें हैं। सिर्फ अपने को सुर्खिओं में बनाये रखने के लिए। लोग जाने कि कोई है जो रामविलास शर्मा को चुनौती दे रहा है। लेकिन काम करके उस स्तर का अगर चुनौती दी जाये वह उचित होगा। अन्यथा ऐसी बातों से भ्रम फैलता है। और आलोचना का स्तर भी गिरता है। मेरा रामविलास शर्मा से दशकों तक संपर्क रहा है। और अंत तक रहा -जब वह आगरा छोड़ कर दिल्ली चले आये थे। शुक्ल जी के बाद रामविलास शर्मा ही महान मार्क्सवादी आलोचक तो हैं ही। वह एक नेक इंसान भी थे । उनके पास बैठ कर हम अपनों तुच्छताओं को भूलते थे । उनकी सब कृतियों का उल्लेख तो संभव नहीं है। लेकिन उन्हों ने भारतेंदु , प्रेमचन्द , महावीर प्रसाद द्विवेदी , निराला , रामचंद्र शुक , परम्परा का मूल्यांकन और नई कविता और अस्तित्ववाद , भाषा और समाज , भारतीय संस्कृति और हिंदी प्रदेश ( दो खंड ) आदि पुस्तकों रची हैं. क्या उनमे भी उनकी कट्टरता , अंध भक्ति-भाव दिखाई देता है? अगर कर्ण में साहस था तो रामविलास शर्मा का खंडन कर कोई कृति क्यों नहीं लिखी ? अब तक क्या करते रहे.? आज वह नहीं हैं तो उन पर ऐसे ओछे और अनर्गल आरोप लगाना नैतिक अपराध ही है। रामविलास शर्मा ने उन्हीं की तीखी आलोचना की है जो जनविरोधी हैं। या फिर भाववादी होकर चीजों को परखते हैं। मैं मानता हूँ कोई भी लेखक सीमाओं से परे नहीं होता। लेकिन किसी लेखक में इतना अधिक सकारात्मक होता है कि हम उसकी सीमाओं को भूल जाते हैं। ध्यान रहे जब हम किसी बड़े या छोटे लेखक की आलोचना करें तो सप्रमाण हो। दूसरे हर लेखक का अपना दृष्टि कौण होता है। लेकिन एक बड़ा आलोचक अपनी दृष्टि का भी अतिक्रमण करता है। रामविलास शर्मा ने ऐसा किया है। बहुत कम लोग जानते होंगे। उन्होंने अपने सबसे बड़े विरोधी धुर दक्षिण पंथी और उनके तीखे आलोचक अज्ञये पर लिखते हुए कहा है , " इस परिस्थिति में जडाऊ कविता का महत्व स्पष्ट है। अनुभूति सच्ची होगी तो कविता अपने आप रच जाएगी। ....सच्ची अनुभति तलाशने वाली नई कविता से यह जड़ाऊ कविता ज्यादा टिकाऊ है। इस क्षण-भंगुर संसार में कविता भी क्षण-भंगुर हो , यह आवश्यक नहीं। अमर न हो , कुछ समय के लिए टिकाऊ तो हो। अज्ञेय की कविता जडाऊ है और टिकाऊ भी " ( नई कविता और अस्तित्ववाद ,पेज , अठत्र) कर्ण आज " मुक्त-चिंतन " और "अस्मिता " की बात करते हैं। यह दोनों बातें हमें वर्ग-संघर्ष से भटकाती हैं। ये प्रत्यय हमें अस्तित्ववाद की याद दिलाते हैं। यह दर्शन भी " स्व" और " आत्मास्तित्व " पर बल देता है। लगता है हिंदी में मार्क्सवाद के विरुद्ध अस्तित्ववाद का पुनर्जन्म हो रहा है।विजेंद्र (क्रमश ): --------------------------------------- देखें " लहक " पत्रिका तेतीस , पेज , एक सौ चौबीस





बुधवार, 7 मार्च 2018

डी एम मिश्र की गजलों की जनपक्षधरता और समकालीनता – सुशील कुमार

जनधर्मी तेवर के एक प्रतिनिधि गजलकार डी एम मिश्र की गजलों पर मेरा एक लेख " डी एम मिश्र की गजलों की जनपक्षधरता और समकालीनता " हिंदी साहित्‍य की गजल परम्‍परा पर विशेष दखल रखने वाली पत्रिका 'अलाव' संपादक वरिष्‍ठ गजलकार (रामकुमार कृषक जी ) के जनवरी -फरवरी 2018 अंक 51 में प्रकाशित आप मित्रों के अवलोकनार्थ - सुशील कुमार

मंगलवार, 20 फ़रवरी 2018

शब्द और काव्यभाषा - एक निबंध -सुशील कुमार

शब्द और काव्यभाषा
शब्द
भाषा का भाव से जो सम्बन्ध है, उस पर कवि-मन को लगातार काम करने की जरूरत है। शब्द  घिसते हैं, चलते-चलते उनके भाव पुराने और उबाऊ हो जाते हैं। इसलिए एक समय के बाद उक्तियाँ, मुहावरे आदि अभिव्यक्ति के ढंग में सन्निहित भाव को बदलना पड़ता है। इसके लिए नए शब्दों की आवश्यकता होती है। लेकिन उसे नवीकृत करते समय हमारी संचेष्टाओं में केवल बुद्धि-बल नहीं होना चाहिए, वह अनुभवगत,  सहज,  गाह्य और स्वाभाविक होना चाहिएशब्द का उद्गम-स्थल जब जीवन की क्रियाएँ न होकर केवल हमारा मन हो जाता है तो वे जटिल और बोझिल हो जाते हैं। भावार्थ की नवीनता के उद्देश्य से भाषा में शब्दों से किया गया नवाचार चेतना को जब कोई केवल विस्मित करने के लिए करता है तो उसकी रचना की भाषा   गुणग्राही नहीं होती कवि भाषा से बलात काम लेना चाहता है। इससे उसकी मूल संवेदना टूटकर बिखर जाती है और अर्थ खो देती है। इसी को हम भाषा का रूपवाद कहते हैं।
      शब्द एकाधिक वर्णो की अर्थपूर्ण ध्वनि या चेतनाभास है। भारतीय काव्य-शास्त्रों में भी उनके बहुविध अभिलक्षण बताए गए हैं। यहाँ उनकी पुनरुक्ति से मेरा कोई अभिप्राय नहीं। शब्द योगरूढ़, तद्भव, देशज, विदेशज आदि  कुछ भी हो या उनकी शक्ति अमिधा, लक्षणा अथवा व्यंजना में जैसे भी प्रयुक्त हो रही हो,  दरअसल वह काल की प्रवृत्तियों का वाहक होती है । उसमें उसका अपना एक मूल व्यक्तित्व होता है जो कविता में कवि और उसके लोक की स्थिति से प्रतिकृत होती है। जब तक हमारी शब्द-संवेदना का विकास नहीं होता,  हम किसी वस्तु या विचार की द्वंद्वात्मक स्थिति को उन शब्दों में व्यक्त नहीं कर सकते । यह संवेदना लोक की संवेदना होते हुए भी उससे ऊर्ध्व और कवि के लोकानुभव द्वारा उपार्जित होती है जो मूल संवेदना के अग्रगामी और परिष्कृत अर्थात उसकी पुनर्रचना होती है। अगर हम कविता में पूरी तरह वही नहीं व्यक्त कर पा रहे , जो सोच रहे तो समझिए कि चेतना में जो संवेदना जन्मी है ,शब्द अभी उसके अनुकूल निर्मित नहीं हुई हैं। इसलिए भाषा अभी कविता का सहचरी नहीं बनी है । ऐसी स्थिति में कवि को सयंम से काम लेना चाहिए। जब तक उसकी संवेदना शब्द-शक्ति के अनुरूप व्यक्त न हो रही हो या अभी शब्दों में ढलने की प्रक्रिया में हो , तब तक उसे केवल प्रतीक्षा और प्रयास करना चाहिए। ऐसा नहीं करना यह जल्दबाजी या अन्यमनस्कता कहा जाएगा । गर्भाधान शब्दों का पूर्ण होकर जन्म लेना जरूरी है। इसके बगैर शब्द चूक जाते हैं और कविता में दोष आ जाती है। यह भी देखा जाता है कि यदि समकालीन प्रवृतियों को हम अपनी रूढ़ शब्द-शक्ति से काम लेते हैं तो रूचि-दोष आ जाता है ।
संवेदना के नवीकृत करने का मतलब ही है: उस शब्द-सामर्थ्य को प्राप्त करना जो कालगत प्रवृति को कविता में ला सके। इसके लिए जरुरी है कि हमारी ऐंद्रिक क्षमता का विकास शब्द और संवेदना, इन दोनों स्तरों पर उसे समझने के लिए हो ।
      कविता में छायावाद के बाद ध्वनिबंद और छंद कमजोर हुए, पर लय, नाटकीयता और अंतर्वस्तु मजंबूत हुईं। इनमें प्रयुक्त शब्दों की समकालीनता का बड़ा महत्त्व है। अब में गेयता नहीं रही। कविता अब आलाप की नहीं, समझ की वस्तु हो गई। इसलिए एक विशेष प्रयोजनीय वस्तु भी हो गई है। यह जितना कला है , उतना ही साहित्य। जितनी अनुभूति है, उतना ही विचार-तत्व भी । हम जानते हैं कि समकालीन कविता की अनुभूति प्रामाणिक और सिद्ध होती है । इस स्थिति में केवल वही शब्द कविता को अर्थ दे सकते हैं, जिनमें समय के आतंरिक यथार्थ को गुनने की अपार क्षमता हो। इस कारण आधुनिक कविता में रूप और शिल्प से अधिक जोर उसकी अंतर्वस्तु पर है, जो शब्दों में ही मूर्त और व्यक्त होती है। कविता के इस शब्द-विज्ञान की बारीकी को बिना समझे कवि समय का बयान तो अपनी कविता में कर सकता है , पर समय से मुठभेड़ नहीं कर सकता । कविता जब तक अपने समय से द्वंद्वात्मकता में फलित नहीं होती, तब तक वह केवल सामान्य कविता ही हैं, काल को लांघने वाली कविता नहीं। वह अपने समय का गवाह नहीं बन सकती।
      कविता बड़ी-बड़ी कहन, प्रचलित मुहावरे , बड़े कंटेंट और भारी-भरकम शब्दों से कमजोर होती है। हम खुश होते हैं कि हमने बहुत कुछ कह दिया पर संवेदनाघात का शिकार होकर उसकी संभावना सीमित हो जाती है। वह जीवन-प्रसूत तुच्छ घटनाओं, उपादानों, उपकरणों, नए मुहावरों, टटके शब्दों और अनछुए हल्के बिम्बों से प्रभावी,  आकर्षक और पठनीय बनती है।
      यह कहना कि शब्द अमर होते हैं, बड़ी भूल है। शब्दों का भी जीवन होता है।  समय के साथ बूढ़े होते हैं,  मरते भी हैं। शब्द को जो ब्रह्म कहते हैं, ईश्वर मानते हैं , कहीं न कहीं वे राजसत्ता के पोषक हैं। उनकी आस्था अधिनायक तंत्र व बुर्जुआ सभ्यता से जनित शब्दों में है। वे शब्दब्रह्म और अव्यक्तोक्षर के वास्तविक अर्थ को नहीं जानते। वे लोकसत्ता और भावसत्ता की अवहेलना करते हैं। दरअसल यह विषय तनिक गूढ़ है जो हमें रहस्यवाद की ओर भी ले जाता है! अतएव इसका यहाँ कोई वरेण्य नहीं। असली शब्द मिथकीय विश्वास नहीं है। वह तो वर्णमाला का समुच्चय मात्र है और  विशुद्धतः मनुष्य की खोज है। वर्णमाला से जो अक्षर बनते हैं, वे ही शब्द को निर्मित करते हैं। यह दैवी नहीं, मानवीय है । सिक्के की तरह वे घिसते हैं, खपते हैं। अपना आकर्षण और अपनी अर्थवत्ता खोते हैं , जैसे कि धरती को अब कोई 'वसुंधरा' और हवा को 'पवन' नहीं कहता । शब्द कब पुराने होते हैं?  उत्तर साफ़ है - वे वाचाल और लगातार प्रयुक्त होते-होते पुराने हो जाते हैं और आपके कपड़े की तरह सतत उपयोग से फट-चिट जाते हैं। इसलिए एक सजग कवि कविता में व्यवहार होने वाले शब्दों , मुहावरों के प्रति सदैव सचेत होता है। हर शब्द की अपनी भंगिमा, अपना रूप होता है। उससे कवि का भी व्यक्तित्व निर्धारित होता है । फिर कवि के व्यक्तित्व से या कहें,  उसके भीतर उसके ही जीवन के अनुभव से शब्द-शक्ति निःसृत होती है। जो जितनी ईमानदारी और साहस के साथ अपनी करुणा और आक्रोश के संतुलन के बीच शब्दों का यथोचित प्रयोग करता है , वह उतना ही प्रभावपूर्ण तरीके से अपने को अभिव्यक्त कर पाता है। शब्द के पीछे असली शक्ति उसके प्रयोक्ता अर्थात कवि की अपनी होती है। उसके शब्द में केवल उसकी ध्वनि या अर्थ-भाव ही गुम्फित नहीं होते। इसलिए हर कवि के अपने प्रामाणिक शब्द होते हैं, जो उसके जीवन से उतरकर उसकी कविता में आकार लेता है और कवि के व्यक्तित्व का निर्माण करता है। इन्हीं शब्दों से कवि की पहचान होती है। पर उसकी पुनुरुक्ति से बचना भी कवि कि जिम्मेवारी है। किसी कवि के द्वारा बार-बार एक ही शब्दों के आने का अर्थ है कि उसकी भावसत्ता एकांगी हो गई है, भावसृजन में बहुलता को उसने खो दिया है यानि कवि का जीवन नए भावों को लाने में अक्षम हो रहा है और कवि के भीतर जीवन का बहना बंद हो गया है।
      शब्द का कविता की वस्तु के साथ चोली-दामन का संबंध है। वस्तुमयता के साथ उसकी रूपमयता भी अविच्छिन्न रूप से जुड़ी हुई है। शब्द लगभग इन्हीं के साथ चलते हैं। कोई शब्दकोश से देख-देखकर कविता में शब्द नहीं रख सकता। कला के इस सृजन-क्षण में अगर कवि कंटेंट को कविता में पूरी तरह प्रकट नहीं कर पाता है तो उसका रूप भी उसी अनुपात में अप्रकट रह जाता है। कवि का मन जब तक आत्मबद्ध रहता है , वह वस्तुगत और प्रकृतिगत नहीं हो पाता । इससे उसकी रचना जीवन की असली पुनर्रचना नहीं बन पाती। हमारे शब्द उतने ही समृद्ध होंगे , जितने हम अपने आस-पास के प्रति सजग औऱ उदार होंगे। जीवन की छोटी-छोटी और सूक्ष्म क्रियाओं में भी वस्तु और रूप गुप्त होता है, जो कवि के काम आ सकती है। इसका अवगाहन करना कवि का नैतिक दायित्व है। इन पर हमारा जितना ही ध्यान जाता है, उतना ही हमारे शब्द कविता में समृद्धि और गतिशील होते हैं और कविता की जमीन को उर्वर बनाते हैं
      जब समय बदलता है तो संस्कार, रुचियाँ और चुनैतियाँ बदल जाते हैं। इतिहास-बोध दायित्व-बोध में बदलने लगता है । आप देखेंगे कि छायावादी काल की कविता के शब्द बिलकुल वही नहीं हैं, जो उसके बाद के रहे हैं। तत्कालीन रुचि, संस्कार और चुनैतियों ने इनकी कहन शैली के साथ शब्दों के चुनाव में भी आमूलचूल परिवर्तन किया। कविता में पुराने से मोह-भंग और नए का स्वागत समय की केवल अभिरूचि नहीं, आवश्यकता भी सिद्ध हुई। छायावादोत्तर काल से लेकर 'नई कविता'  और प्रगतिवाद में कविता के जो नए शब्द आए , कविता में आप उसे आसानी से लक्ष्य कर सकते हैं। नवीन काव्यानुभूतियों और नवीन भावनाओं के उद्रेक से उपजे नवीन यथार्थ को व्यक्त करने वाले रुखड़े और भेदस शब्दों,  मुहावरे ने कविता को घेरना शुरू किया। संप्रति कोई भी कवितान्दोलन जारी नहीं है।  पर युगीन प्रवृतियों और इतिहास-बोध ने जिन नवीन अनुभवों से हमें प्रभावित किया है, उनका आत्मसातीकरण आधुनिक कविताओं में हो रहा और तदनुसार ही कविता के शब्द भी प्रयुक्त हो रहे। यहाँ केवल समकालीनता शब्द से हमारा काम नहीं चलता क्योंकि इसका दायरा वृहत्तर है जो भारतेंदुयुग से ही शुरू हो जाता है।
      अब तो जनपक्ष की कविताओं में भी दो तरह की प्रवृति का फाँक स्पष्ट रूप से नजर आता है। एक तरह के वे कवि-वर्ग हैं जो अनगढ़ता को कविता का सौंदर्य समझते हैं और कविता को लोकजीवन के करीब लाकर अपनी अन्तर्द्वंद्वात्मक स्थिति को कविता में व्यक्त करते हैं, जैसे नागार्जुन, त्रिलोचन, कुमार विकल आदि , जबकि दूसरे कवि वर्ग के लोग कविता से अभिजात्य सौंदर्य का काम लेते हैं जैसे उदय प्रकाश, अरुण कमल , आलोक धन्वा, एकांत श्रीवास्तव आदि । वे कविता को माँजकर, उसे परिष्कृत कर एक फैशन में सजाना चाहते हैं। उनके कवि सामाजिक कार्यकर्ता और कवि कम हैं,  कलाकार और काव्य-नायक अधिक हैं। इसी प्रवृति के अनुसार उनकी कविता में शब्द भी अपनी आभा बिखेर रहे। पर जब तक शब्द अपने द्वंद्वात्मकता के साथ परिवेश से नहीं आता, तब तक समय की लय, गतिकी और उसके मिज़ाज को पूर्णतः कविता में साकार नहीं कर सकता।
एक कवि के लिए शब्द मनुष्य की खोज होते हुए उसका अस्तित्व स्वतंत्र नहीं हैं। जब वह लेखक के व्यक्तित्व से साकार होता है, तभी वह रूप (ब्यूटी) , आकृति (शेप) और संवेग (मोमेंटम) को ग्रहण करता है। जो लेखक इस बात की गहराई को नहीं समझते , अपने व्यक्तित्व को पीछे करके वे शब्द के पीछे केवल पड़ जाते हैं। यह एक तरह की चूक है। मैं इसे एक उदाहरण से समझाता हूं । जब आप कोई कविता पढ़ते हैं तो आपके जेहन में सबसे पहले यह उत्कंठा होती है कि यह किस कवि की कविता है । जैसे ही आप धूमिल, रघुवीर सहाय, निराला या नागार्जुन की पंक्तियां याद करते हैं तो आप आपके सामने उस कवि का एक विराट व्यक्तित्व सामने आ जाता है। सचमुच में यही उस कवि का शब्द-व्यक्तित्व है , जिसे उसने अपने जीवन में कठिन परिश्रम, संघर्ष और अनुभव से अर्जित किया है। इसलिए शब्द का कोई निजी अस्तित्व अगर होता भी है तो कविता में उसका महत्व तभी है , जब वह कवि के व्यक्तित्व के साथ रूपांतरित हो जाता है। उस समय शब्द का व्यक्तित्व कवि के व्यक्तित्व के अनुसार अपने अर्थ बदल लेता है और यही कवि के शब्द-व्यक्तित्व की सफलता भी है। आप अनेक बड़े कवियों को उनके शब्द-व्यक्तित्व से पहचानते हैं। अगर आपको उनका नाम न भी बताया जाए तो आप उनकी कविताएं पढ़कर यह जानने लगते हैं कि यह उसी अमुक कवि की रचना होगी ! हालकि यह लेखन के सघन अनुभव का फल है जो कवि शनै: शनै: ही अर्जित करता है, कोई घुट्टी नहीं कि किसी को घोलकर पिला दिया जाए।
      आज विज्ञान के अंधानुकरण, सुविधापरस्ती और प्रकृति के असिमित दोहन वाले नव- औपनिवेशिक समय में लेखन का सबसे बड़ा संकट है - कवि के शब्द-व्यक्तित्व का संकट , क्योंकि कवि अपना व्यक्तित्व बिना उपार्जित किए ही रचनाओं को गुनने के चक्कर में पड़ जाता है। इस कारण उसकी रचनाओं में उसके व्यक्तित्व से सामंजस्य स्थापित नहीं हो पाता और एक अंतर साफ नजर आता है जो रचना की कमजोरी में तब्दील हो जाती है। अहम सवाल यहां यह है कि कवि कैसे अपने शब्द-व्यक्तित्व की निर्मिति और उन्नति करें । यह सवाल इसलिए अहम है , क्योंकि यह मात्र शब्द-साधना और परिश्रम से अर्जित नहीं की जा सकती। इसके पीछे कवि की प्रामाणिक अनुभूति, उसकी साहसिकता और उसके ईमानदार प्रयत्न का भी पूरा योगदान होता है। जब तक कवि अपने वास्तविक जीवन में शब्दों से संघर्ष नहीं करता , अपने जीवन के उस अंतरद्वंदात्मक की स्थिति में अपने को भलीभांति समायोजित नहीं कर लेता , तब तक शब्द कवि पर भारी पड़ता है और कवि बौना हो जाता है ।
काव्यभाषा
       साहित्येतिहास में काल का विभाजन बड़ा विभ्रमपूर्ण है, खासकर छायावादोत्तर काल से अब तक का काल जिसे सतही तौर पौर हम आधुनिक काल कहते हैं , इसमें हिन्दी कविता की एक साथ कई प्रवृत्तियाँ दृष्टिगं, एक धारा के भीतर भी कई अन्तर्धाराएँ प्रवहमान हैं जिसके लक्षण-विधान और भाषा-रूप की बनक पर हमारा ध्यान जाना चाहिए। इस वजह से आधुनिक काल-खंड की सभी काव्य-प्रवृतियाँ आधुनिक होती हुई भी समकालीन नहीं हैं। भाषा के प्रति सजग कवि अब यह महसूस करने लगे हैं जैसा ऊपर भी कहा गया है कि जो शब्दमुहावरे और  बिम्ब कविताओं में लगातार प्रयुक्त होते-होते अपनी अर्थवत्ता खोकर इतने रुढ़ हो गए हैं, अर्थात सिक्के की तरह चलते-चलते इतने घिस गए हैं कि उनको लेकर कविताओं में समकालीन टटका यथार्थ का अंकन उपयोगी नहीं साबित होता, उनके अन्यमनस्क उपयोग से कविताएँ कमजोर, रूढ़िग्रस्त और पाठकों की अरुचि का शिकार होने लगती हैं। आप देखेंगे कि कविता की (धूमिलोत्तर) भाषा साठवें दशक के बाद पहले की अपेक्षा अधिक प्रयोगधर्मी हुई है और निरंतर अपना स्वरूप बदल रही है (क्यों?)         इसका कारण इस तथ्य में समाहित है कि वैश्विक और भारतीय राजनीतिक-सामाजिकार्थिक परिदृश्य का गहरा प्रभाव प्रचलित भाषा पर पड़ा है।
      देश में काँग्रेस का लम्बा कुशासन, जनजीवन में व्याप्त भ्रष्टाचार और घोटाले, काला धन, सरप्लस पूँजी, बाबरी-ध्वंस, गोधरा-कांड, दक्षिणपंथ और वाम-राजनीति के कुत्सित रूप, नक्सलबाड़ी और उसके च्युत मूल्य, उत्तर-आधुनिकता, ग्लोबलाइजेशन, कवियों-लेखकों के असहिष्णुता-राग, जंगल-कटाई, प्राकृतिक संसाधनों का अनियंत्रित दोहन, पलायन और आदिवासी समस्याएँग्रीनहाउस इफ़ेक्ट, निरंतर टूटता परिवार, महिला-प्रताड़ना, निर्भया-कांडनैतिक अवमूल्यन, पुरस्कारों की राजनीति आदि-आदि घटित-लक्षित कई घटनाक्रम परिदृश्य में उभर कर आते हैं जिसने जनजीवन को मथकर रख दिया है। अतएव इनको अभिव्यक्त करने के लिए कवियों ने शिल्प के स्तर पर पुराने बिम्बों की जगह नए किस्म के बिम्बों का प्रयोग, कहन की अधिकाधिक यथार्थवादी (या सपाट) शैली और कविता में रुखड़ी भाषा (लोकल डायलेक्ट्स) के प्रयोग पर बल दिया जो सच को हु-ब-हु उगल सके। फलतः भाषा के प्रति सचेत और नए कवियों में उन शब्दों का प्रचलन कमतर होता गया जो समय के आंतरिक यथार्थ को व्यक्त करने में नाकाफ़ी साबित हुए। इन भाषाई संचेष्टाओं पर सबसे ज्यादा काम इक्कसवीं सदी के हिंदी कवियों ने किया है (क्यों ?) - उत्तर वही है - बदलता परिवेश, मूल्य और उसका संघनित बहुस्तरीय यथार्थ। अतएव यह कहना अतिशयोक्ति न होगा कि समालोचना के अंदर कथ्यऔर कथनमें संगति तभी आ पाती है जब कविता की काया में आलोचक प्रवेश कर उसकी काव्यभाषा का अवगाहन करता है और उसमें सृजन-तत्व को ढूँढता है। नई सदी के युवा कवियों की कविताओं को अगर सामने रखकर इस पर बात करें तो एक महत्वपूर्ण बात जेहन में यह आती है कि सृजन में कवि की काव्य-भाषा किस तरह काम करती है, यह बारीकी से देखने का विषय है जिस पर पुराने सोच और धाक के प्रबुद्ध समीक्षकों-आलोचकों ने अब तक उपेक्षा भाव ही बरता है। बिम्ब और प्रतीक-योजना काव्यभाषा की अब बाध्यता नहीं रही, यद्यपि यत्र-तत्र उसका प्रसन्न विकास देखने को मिलता है। इनकी कविताओं में बिम्ब भी बिंबवाद की सीमा को नहीं छू पाते, न ही कवि उसका कोई छद्म या विशिष्ट आलोक रचने की चेष्टा करते हैं बल्कि बिम्ब भी कविता की कहन को चित्र-छवियों की जगह अर्थ-छवियाँ प्रदान करते ही दिखते हैं जिससे उसके कथ्य को एक नया संवेग (momentum) मिलता है और वस्तु का रूप स्वतः दमक उठता है। इसे ईमानदारी और साहस के साथ अब समझने और स्वीकार करने की जरूरत है। लोकधर्मी काव्य-चिंतकों की यह स्थापना कि रूपवादी रुझान के कवि भाषा से बात भाषा से शुरू कर भाषा पर ही खत्म कर देते हैं और कविता की एक स्वायत्त दुनिया सिरजना चाहते हैं जिसका मूल्यों से, परिवेश की सामाजिक सार्थकता से कोई संबंध नहीं होता, की गहराई में जाकर पड़ताल करना आवश्यक हो गया है। 
      वस्तुतः परंपरावादी लोकधर्मी आलोचक-चिंतक नब्बे दशक के बाद से काव्यभाषा में निरंतर हुए बड़े बदलावों को कविता के रूपवादी चिंतन से जोड़ कर देखते हैं। अपने तर्क और विश्लेषण में वे अब तक परोक्षतः काव्यभाषा की बहस को कविता की अमूर्तनता की वकालत और काव्य-बिंबों की उपेक्षा कहकर कविता की मुक्ति और उससे जुड़े जेनुइन सवालों से बचते रहे हैं। पर यह गौर करने वाली बात है कि कई बार बिम्ब और चित्र भी अमूर्त होते हैं, खासकर उन रेखाचित्रों या कलाचित्रों की छवियों में, जिनमें अस्पष्ट भावबोध होने की वज़ह से वह अर्थ-गुम्फित या अर्थमयी होने से चुक गए हों। कई बार हमें कई पेंटिंग या चित्रों के भाव और अर्थ अबूझ लगते हैं। कुछ उन चित्रों को देखिए, चित्र में रंग-रेखाएँ तो दिखाई पड़ रहे लेकिन अगर उनमें अमूर्तनता है तो क्या उसे भी हम बिम्ब कहेंगे क्योंकि बिंब तो मूर्त होता है? अगर किसी वस्तु या विचार के प्रति मेरे मन में चित्र-छवियां बन रही हैं तो उन्हें मैं बिम्बात्मक कहूंगा। लेकिन जब किसी वस्तु या विचार को देखकर चित्र-छवियों की जगह अर्थ-छवियां बन रही है जिसे हमारा मस्तिष्क ग्रहण कर रहा है तो उसे बिम्बात्मक कैसें कहेंकविता में भी मूर्तनता का सवाल जितना इन्द्रियबोध से जुड़ा है, उतना ही मन से भी, बल्कि यूँ कहें कि हमारे ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों को भी मन-मस्तिष्क ही संचालित करता है। क्या कोई बेहोश या अचेत पड़ा व्यक्ति अपनी खुली आखों से रूप-रस-गंध-स्पर्श आदि का अनुभव कर सकता हैअतएव यह सक्रिय मन ही है, जो अनुभव कराता है, इंद्रिय तो माध्यम-भर है। इस कारण कविता में बिम्ब से अधिक जरूरी उसकी मूर्तमयता है। अमूर्तनता किसी भाव, विचार, रूप और वस्तु की या तो अपरिपक्व स्थिति हो सकती है या फिर सृजन में कला का जिया हुआ असफल क्षण, जिसे उस कवि के अलावा पूरा-पूरा कोई और न समझ सके (क्योंकि कविता में मूर्तनता लाने में असफल कवि की प्रत्यारोपित धारणा वहाँ पहले से मौजूद होती है) । इससे यह पता चलता है कि अमूर्तनता की काट सृजन की प्रमाणिक अनुभूति में है जो केवल बिम्ब-ग्रहण से ही संभव होगा, ऐसा आग्रह और हठ कविता को बिम्ब से बिम्बवाद की ओर ले जाता है।  अमूर्तनता कविता की कमजोरी है, इससे बचने का सहज मार्ग कविता की अंतर्वस्तु का वस्तुपरकता के आत्मगतता की ओर जाना है जो सदैव बिम्ब-विधायी हो, जरूरी नहीं। निष्कर्षतः परंपरावाद के अंध-समर्थकों द्वारा समकालीन कविता में काव्यभाषा की बहस को कविता की अमूर्तनता की वकालत करने और काव्य-बिंबों की उपेक्षा से जोड़ने का कोई तुक नहीं बनता, और यह कुतर्क खारिज करने योग्य है। आज की कविता को समझने के लिए जब कविता के परंपरागत लक्षण तुक, छंद, अलंकरण, उपमान, रस आदि शनैः शनैः विलुप्त हो चले हैं तो काव्य-भाषा ही सर्वाधिक महत्वपूर्ण आधार शेष रह जाती है जिसके सहारे कविता की आंतरिक बनक को बिना कविता के बाहर गए भी आसानी से समझा जा सकता है। यह बात अब पूरी तरह समझने के लायक है कि काव्यभाषा के प्रति आधुनिक दृष्टिकोण को कलावादी कहना इसकी सच्चाई को जानबूझ कर नकारना है। कविता कितनी मूर्त है या कितनी वायवीय, कितनी सपाट है या बिम्बात्मक, कितना जनवादी है, कितना अभिजनवादी या कला-उन्मुख, कितनी मध्यमवर्गीय संचेतना और कितना रचनात्मक आत्मसंघर्ष से युक्त है, कितना भाषाई सच हैं और कितनी वंचनाएँ, कितना आत्मगत है और कितना बाह्यगत ...इन सब उपादानों तक कविता में मात्र प्रयुक्त भाषा से ही हम प्रथमतः पहुँच सकते हैं। यह कवियों की रचना का जेनेटिक लक्षण भी कहा जा सकता है। काव्यभाषा को कविता का विश्वसनीय प्रतिमान न मानना एक तरह से रीतिकालीन या बुर्जूआ धारणा का भय-त्रास मात्र है जिस शंका के कारण आलोचना-सैद्धांतिकी भाषा की नब्ज पकड़ने के बजाए केवल कविता के कथ्य पर आधारित स्थूल मान्यता तक ही सीमित होती है जिसमें कथ्य के समाजशास्त्र के आधार पर काव्यभाषा के अभिलक्षणों की उपेक्षा हो जाती है जिससे अब सहमत होना शायद संभव नहीं, न समय की मांग ही है। मेरे विचार में, काव्यभाषा आलोचना की वह लेजर किरणहै जिससे सृजन के वस्तु और रूप में प्रवेशकर कविता का वास्तविक एक्स-रेकिया जा सकता है पर इसके लिए समीक्षकों-आलोचकों को भी उतना ही सहृदय, दृष्टि-सम्पन्न और पूर्वग्रह-मुक्त होना होना होगा। काव्य-भाषा से मुंह मोड़ना नव्य आलोचना पद्धति में एक तरह से स्थूल समाजशास्त्रीय रीति अपनाकर कविता-पांखी के नए, उगते पंख को जबरन कतरना, या कहें साहित्य के एक हठयोग जैसा है जिससे अब साहित्य का भला होना दूर की कौड़ी जान पड़ती है। हाँ, यह बात अलग है कि कुछ अज्ञेय, अशोक वाजपेयी, केदारनाथ सिंह अभिजनवादी कवियों ने उत्तर-आधुनिकता के प्रभाव में आकर कविता में काव्य-भाषा के जिन कलात्मक उपकरणों का उपयोग किया, परंपरा और मूल मानवीय रागात्मकता से अपने को अलग-थलग कर भाषा में संवेदना की आधुनिकी और नवता के नाम पर मन को विचलित करने और चौंकाने वाली कविताएं रची, उनमें जन कहीं मानवीय संघर्ष करता नहीं दिखता, वह तो बुर्जुआ वर्ग के शौक और मौज की कविताएं बनकर रह गई हैं, ( इसलिए वैसे रुचि के ही लोग उनका नाम लेते हैं ), पर वे लहक और विद्रोह की कविताएं नहीं जिसका इसका पता भी अंततः कविता में प्रयुक्त भाषा ही दे जाती है।
      कविता का इतिहास यह साफ तौर पर बताता है कि कविता के सृष्टि-काल से ही लोकधर्मिताकविताओं का प्रतिमान ही रहा है (चाहे नाम जो भी रहा हो)। परिवेश और युग-बोध के बदलने के साथ लोकधर्मी चिंतकों-आलोचकों को यह समझ लेना चाहिए कि सभ्यतासंस्कृतिभाषागत संरचनारूप और वस्तु में समय के साथ जो बदलाव आए हैं, उसको कविताओं में रेखांकित करने के लिए पुराने अभिलक्षणों के परित्याग के साथ-साथ अपनी रुढ़ धारणा और परम्परागत काव्य-भाषा में भी आमूलचूल सुधार की आवश्यकता है। इसलिए यह कहते हुए मुझे लेश-मात्र भी संशय नहीं कि जब तक काव्यभाषा का सृजनशीलता से अंतर्सबंध और उसकी आंतरिक बुनावट को पूर्वग्रह-रहित होकर नहीं समझा जाएगा, तब तक लोक की नई काव्य-प्रवृत्तियों पर सम्यक और ईमानदार समीक्षा सम्भव नहीं। कविताओं की भाषा उसके कथ्य या अंतर्वस्तु से बनती है, यह कविता के भावजगत का प्रत्यक्षीकरण करती है जो एक स्वतः प्रक्रिया है जिसमें कवि का अंतर्ज्ञान, उसके जीवनानुभव और उसकी मेधा-शक्ति अन्तर्भूत होते हैं।
      इसलिए काव्यलोचना में भाषा-विधान पर सेन्सर्स कतई सही नहीं।  कविता में यदि कथ्य ही अमूर्त्त हो और उसके सौंदर्य में जन की जगह अभिजन का पक्ष हो, तो इसका पता भी उस कविता की काव्यभाषा से चल जाता है। अगर कोई कवि अपनी भाषा को जनपद की लोक-भाषा से नहीं सींचता, परंपरा से उसे पोषित नहीं करता, स्थानीयता का चटक रंग नहीं ला पाता, देशज भंगिमा को प्रकट करने में सफल नहीं हो पाता, मध्यमवर्गीय कुंठा-लालसा से ग्रसित हो जाता हो, बंद कमरे में किताबी भाषा की जोड़-तोड़ से ही अपना काम चलाता हो तो इसके परीक्षण की कुंजी भी प्रथमतः और अंतोगत्वा कवि की काव्यभाषा ही है क्योंकि इनकी जड़ें वहीं मौजूद हैं जहां लोकधर्मी चिंतक जाना चाहते हैं। इसलिए काव्यभाषा को कविता के प्रतिमान का विपर्यय व पाश्चात्य नव्य-समीक्षा की फलश्रुति मानना और रूपवादी झुकाव का एक आयाम कहकर तिरस्कृत करना कविता की स्वायत्त दुनियामें अवांछनीय दखल जैसा प्रतीत होता है। युवा कवियों की नब्बे के दशक के बाद की कविताएं अपनी समकालीन काव्य-भाषा के गुण के कारण जितनी सहज है उतनी ही संश्लिष्ट भी, जो भावलोक और अनुगूँज की कई तहें रचती हैं, यह कविता के अंदर कोरा बौद्धिक विमर्श नहीं, बल्कि ऐंद्रिक सजगता को उकसाती है और काव्यभाषा अपनी पूरी संवेदना और काव्यानुशासन के साथ पाठक के हृदयाकाश में घर कर लेती है जो बिन बोले कविता की स्वायत्त दुनिया में सापेक्ष स्वतन्त्रता को उद्भासित करती है।

      हमें महसूस होता है कि क्षण भर के लिए कविता को अगर एक जीवित प्राणी मान लिया जाए तो रूप-संभार उसकी देह है, अंतर्वस्तु उसकी प्राण है और उसकी अस्थियाँ यानी ढांचा भाषा है ; और भाव है उसकी धमनियों में प्रवाहित रक्त। इसकी समष्टि ही कविताओं का गोचर या मूर्त रूप है। इसके सन्तुलन का अभाव कविता को निकृष्ट और बेजान कर देती है। इसमें एक तत्व का आधिक्य दूसरे की कमी का द्योतक बन जाता है। बाकी, लोकतत्व की व्याख्या तो कविता के अवतीर्ण होने के उपरांत की जाती है, पर नहीं भूलना चाहिए कि इसका संस्कार कविता के बीज-वपन में ही पड़ जाता है क्योंकि कविता जितना वैयक्तिक कर्म है, उससे अधिक एक सांस्कृतिक कर्म। इसका लोकरूप विश्वरूप का ही अवतार और उसकी व्यापकता है जिसके संतुलन को साधे बिना कवि हृदयस्पर्शी और जनोपयोगी सृजन नहीं कर कता । काव्य-भाषा की जड़ें भले ही परम्परा में गहरी धँसी हो, पर उसको खाद-पानी लोक या परिवेश से ही मिलता है। जिस कवि का परिवेश जीवन के यथार्थ और अंतर्द्वन्द्व से पगा हुआ नहीं, वह अपनी रचना में लोकधर्मिता और जनवाद के उस वागर्थ और क्षमता को नहीं उद्भासित कर सकता जो काव्य-भाषा की प्राण समझी जाती है ।
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