Monday, January 2, 2017

कविता के नामवरी प्रतिमान : कितना अर्थ, कितना अनर्थ - सुशील कुमार

[ यह समालोचना कोलकाता से प्रकाशित पत्रिका 'लहक' (संपादक-निर्भय देवयांश) के अंक दिसंबर- जनवरी , 2017 में प्रकाशित हुई है। ] -सुशील कुमार 
  जब भी हिंदी आलोचना का निष्पक्ष आधुनिक इतिहास लिखा जाएगा तो डॉ. नामवर सिंह सबसे कम लिखकर सबसे अधिक प्रसिद्धि पाने वाले एक छद्म मार्क्सवादी, सत्ता के सर्वदा समीप रहने वाले और अपने वैचारिक अंतर्विरोधों-स्खलनों से हिंदी कविता में कवियों को बनाने-गिराने वाले एक अत्यंत विवादित समालोचक के रूप में जाने जाएंगे। अपने 60 वर्षों से अधिक आलोचना-समय में केवल 15-20 वर्ष ही नामवर जी का स्व-लेखन काल कहा जा सकता है, जिसे उन्होंने आज तक भुनाया है, चर्चा में कहीं आया है कि उनकी अंतिम कृति “नए कविता का प्रतिमान” है, जिसे  हिंदी अकादमी का सम्मान पाने के पूर्व नियोजित उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन्होंने लिखा था। (इस सच्चाई का कोई प्रमाण तो नहीं दिया जा सकता पर जे.एन. यु. में उनके छात्र रहे एक वरिष्ठ और कई युवा समालोचकों और करीबियों ने बातचीत के क्रम में यह सूचित किया है..खैर।) उसके बाद की उनकी सभी कृतियाँ वाचिक, संदिग्ध, फ़र्जी और पूर्व के रिपीटेशन हैं।  वे कहीं विमर्श हैं तो कहीं आख्यान , कहीं तुष्टीकरण हैं तो कहीं गैर साहित्यिक कथन और व्यक्तिगत स्तुति-भजन। उनमें आलोचना कहीं नहीं है। पर इन वर्षों में श्री सिंह ने कथित रूप से जो बड़ा काम किया, वह है - अपनी विद्वत्ता का टंटा खड़ाकर सत्ता के सहयोग से दिल्ली में रहते हुए अपने पक्षधरों का एक बहुत बड़ा स्कूल तैयार करना, जिसमें वे सारे मिडियोकर कवि-लेखक-आलोचक हैं जिन्होंने कविता के नए प्रतिमान की आड़ में कविता की स्वाभाविक धारा की दिशा को बदल दिया। उसे तरह-तरह से मान्यता प्रदान की गई। अब समय आ गया है कि कविता के नए प्रतिमान का पुनर्पाठ और पुनर्मूल्यांकन किया जाए। यह जानना जरूरी हो गया है कि वक्त के किस तकाजे के तहत, किन आवश्यकताओं को महसूस करते हुए नामवर सिंह ने कविता के नए प्रतिमान की रचना की । उन प्रतिमानों को गढ़ने की सामग्री कहां से ली गई? उनकी प्रासंगिकता थी? कल या आज उन प्रतिमानों को सही ठहराने वाले वे कौन से लोग हैं, उनके स्वयं का रचनावृत्त और लेखकीय चरित्र क्या रहा है? उन प्रतिमानों की आड़ में किन कविताओं को तवज्जो मिली? इसका कुफल क्या कविता की बनक और उसके भविष्य पर पड़ा ? सच्चे कवियों और असली कविताओं को उन प्रतिमानों ने कैसे और क्यों दरकिनार किया ? – ऐसे बहुत से महत्वपूर्ण और ज्वलंत सवाल हैं, जिनका उत्तर पाना सुधी पाठकों के लिए तब और भी बहुत जरूरी हो जाता है, जब नामवर जी के नब्बे साल पूरे होने पर उनके कुनबा के लोगों ने उनके नाम का डंका फिर बहुत जोर से बजाना शुरू कर दिया है।

        डॉ. नामवर सिंह कृत आलोचना-पुस्तक 'कविता के नए प्रतिमान' (1968 ) में भूमिका के बाद जो पहला निबंध दृष्टिगत है, उसका नाम है – कविता क्या है’’। इसके पुनर्पाठ के पूर्व नामवर जी की आलोचना के भाषा-विवेक, उसकी दुर्बोधता और अभिव्यक्ति-चातुर्य में निहित पांडित्य-प्रदर्शन की चर्चा करना आवश्यक प्रतीत होता है। मसलन, आप इस पुस्तक के किसी भी पाठ से गुजरेंगे तो आपको सहज ही महसूस होगा कि उन्होंने हर जगह विचार-वितंडा का ऐसा मकड़जाल बुनने का प्रयत्न किया है कि उसे पढ़कर पाठक किसी निश्चित निष्कर्ष पर पहुंचने के बजाए उनकी अध्ययनशीलता और पांडित्य का कायल हो जाए । यही उनकी आलोचना का ध्येय है। इसलिए भी वे आलोचना में जटिल भाषा और अबूझ शैली का इस्तेमाल करते हैं। विषय का प्रत्याहरण कर मूल पाठ से पाठकों को भटकाकर उनके समक्ष नाना प्रकार के अनावश्यक उदाहरणों को रखते हैं, सधे लहजे में गप-शप करते हैं और भांति-भाँति के विचारों के भंवरजाल में फंसाते दिखते हैं। पाठ में निष्कर्ष और मूल बातें बहुत थोड़े में होती हैं। लेकिन निरर्थक दलीलें बहुत अधिक होती हैं। किताब के दोनों खंडों में (और परिशिष्ट में भी) उनकी उक्त अभिव्यक्ति-शैली और आलोचकीय भाषा के संबंध में यह बात सत्य और अनुभव करने के योग्य है। मेरा मानना है कि अगर कविता के अपने प्रतिमान निर्धारित हो सकते हैं तो आलोचना के भी अपने प्रतिमान निर्धारित होने चाहिए।  संप्रेषणीयता का गुण केवल कविता का ही नहीं, आलोचना के  लिए भी उतना ही महत्वपूर्ण है, जो रचना से पाठक को जोड़ता है। लेकिन ऐसी आलोचना किस काम की, जो संप्रेष्य नहीं हो ? विचार में पारदर्शिता का अभाव और अत्यधिक उलझाव होने के कारण नामवर जी की भाषा के साथ उनके निबंधों का जो स्वरूप पाठकों के सामने आता है, वह उनकी आलोचना को संप्रेषणीय बिल्कुल नहीं बना पाता। इसे डॉ. नंदकिशोर नवल ने नामवर जी के रूपगत व वस्तुगत प्रतिमानों की  द्वन्द्वात्मक दृष्टि और वैचारिक ढांचा को न समझ पाने की पाठकों की अक्षमता माना है जो बचाव पक्ष में दिया गया अतार्किक बयान भर प्रतीत होता है क्योंकि द्वंद्व तो पाठ्य-विषय में होना चाहिए, न की लेखक की अभिव्यक्ति में। ( हिन्दी आलोचना का विकास/पृष्ठ- 343) यह नामवर सिंह की आलोचना का पहला और बड़ा दुर्गुण कहा जाएगा। आप किसी भी दूसरे समकालीन आलोचक के विचारों में इतनी जटिलता और वाक्य-बोझिलता महसूस नहीं करेंगे, जितनी नामवर जी ने अपने पांडित्य-प्रदर्शन को दृष्टिपथ में रखकर 'कविता के नए प्रतिमान' में किया है।
        अपने पहले पाठ 'कविता क्या है' में डॉ. नामवर सिंह ने अपनी बात भारतीय कविता के पूरे फलक पर न रखकर केवल एक काल-खंड की कविता यानी  'नई कविता' पर की है, उसी के कवियों को अपने विश्लेषण और व्याख्या के दायरे में लाया है और उसीसे पूरे कविता-परिदृश्य को देखने का प्रयत्न किया है। नई कविता का आरंभ तो 1951 में दूसरे तारसप्तक से हुआ और आन्दोलन के रूप में इसका अंत 1959 में ही तीसरे तारसप्तक के समाप्ति के साथ हो गया। केवल उन्नीसवीं सदी के छठे दशक की कविता पर बात कर अपने निबंध में उन्होंने एक ओर छायावादी कवियों को आड़े हाथों लिया है, तो दूसरी ओर कई कवियों-आलोचकों को, और श्री विजयदेव नारायण साही जी के इस वक्तव्य से सहमति व्यक्त करते हुए अपने निबंध को समाप्त कर दिया कि "समूची नई कविता को ठीक-ठीक देखने के लिए नई कविता के प्रतिमान की जरूरत नहीं है , बल्कि कविता के नए प्रतिमान की जरूरत है ।" यहाँ संवेदना के साथ केवल काव्यानुभूति को कविता का मुख्य लक्ष्य न मानकर उन्होंने उसे सृजनात्मकता से जोड़ने पर बल दिया है जो कोई नई बात नहीं है। पर कथन को इतना घुमाकर रखा गया है कि यहाँ इसका उद्देश्य पाठक को यह भान कराना है कि कोई नई स्थापना उनके सम्मुख रखी जा रही है। वास्तव में पूरे आलेख का मूल यही है कि वे 'नई कविता' की काव्यानुभूति की बनावट में आए परिवर्तन को लक्ष्य करना चाहते हैं और इसके निमित्त कविता के नए प्रतिमान बनाना चाहते हैं। आप ध्यान से देखें तो पता चलता है कि निबंध के निष्कर्ष को मात्र अपने प्रतिमान की अनिवार्यता पर लाकर स्थिर कर दिया गया है। पूरे निबंध में सर्वश्री जगदीश गुप्त, लक्ष्मीकांत वर्मा, डॉ. नगेंद्र, गिरिजाकुमार माथुर, अज्ञेय, विजयदेव नारायण साही और शमशेर की चर्चा इस रीति और नीति से की गई है कि नामवर उनमें से उनकी किन बातों से सहमत हैं और किन से असहमत, उसके खुलासा से बचते हुए अंत में सीधे कविता के नए प्रतिमानों की जरूरत पर जा पहुँचते हैं ताकि उनका निज प्रयोजन सिद्ध हो सके । कविता क्या है, इस संदर्भ में रामचंद्र शुक्ल ने भी निबंध लिखा था और वह निबंध भले ही मुक्तिबोध की नई कविता पर लिखे गए कई निबंधों की तरह समकाल से संपृक्त और उतना नवाचारी न हो, पर नामवर सिंह के निबंध से तो कई मायनों में बेहतर है जो कविता की जमीन को समझने में पाठक की सहायता करता है । उसे पढ़कर पाठक संतुष्ट हो सकते हैं। उसमें काव्यवस्तु के अर्थ-ग्रहण से लेकर बिम्ब-ग्रहण, मनुष्य की भावसत्ता से उसका तादात्म्य, कवि की सौंदर्य-दृष्टि, काव्यभाषा, अलंकार, रस-निरूपण और कविता के प्रयोजन पर डॉ. शुक्ल ने जो बात आगे रखी है, उससे कविता का एक खाका अवश्य पाठक के मन में बनता है और पाठक की समझ भी विकसित होती है । (यहाँ उस पर विस्तार से चर्चा करना लेख का वर्ण्य-विषय नहीं।) उसी प्रकार, मुक्तिबोध ने 'नई कविता' की रचना-प्रक्रिया, उसके आत्मसंघर्ष, भावबोध, उसकी अंत:प्रकृति, सौन्दर्यानुभूति, सामाजिक दृष्टि, उसकी पार्श्वभूमि और सृजनात्मकता के क्षणों पर जितनी बहुमूल्य बातें अपनी आलोचना में कही हैं, वे  पाठकों को कविता के स्थापत्य की बारीकी से जोड़कर उसके अंदर 'नई कविता' की एक परिपक्व समझ को उत्पन्न करने में सक्षम हैं, जबकि नामवर सिंह के इस निबंध की खामी यह है कि कविता क्या है, इस विषय पर पाठक अपना कोई सुचिंतित विचार नहीं बना पाते। यह नामवर जी की आलोचना का प्रज्ञा-दोष ही कहा जाएगा, जहाँ आप पाएंगे कि एक ओर नामवर सिंह जहाँ खुद कोई ठोस बात करने से बचते रहे हैं, वहीं नई कविता के कई आलोचकों-कवियों के विचारों को उद्धृत कर उनसे ही उनकी आपसी काट भी करवाते नज़र आते हैं और इस खेल में स्वयं साफ़ निकल आते हैं! यही उनकी आलोचना-प्रतिभा है जिस पर उनके नुमाइंदे फक्र महसूस करते हैं और उनकी आलोचना को द्वन्द्वात्मक आलोचना कहते हैं।  पर सच यह है कि आलोचना 'कविता क्या है', डॉ. नामवर सिंह को कहीं नहीं ले जाती।
    इस निबंध में कविता के प्रतिमानों की जरूरत और उसका प्लेटफार्म तैयार करते हुए डॉ. नामवर सिंह जो अगला निबंध लिखते हैं, उसका नाम भी 'कविता के नए प्रतिमान' ही है। यह पुस्तक का तीसरा अध्याय है। ध्यान देने की बात है कि यह किताब 1968 में आई थी, जबकि नई कविता का आंदोलन 1959 में ही समाप्तप्राय हो चुका था। नामवर सिंह चाहे जितनी बात बनाएँ, इस पुस्तक का मुख्यत: नई कविता की प्रवृत्तियों से ही संबंध है, यह उसके बाहर नहीं गई है या बाद के संस्करणों में उसका परिवर्द्धन नहीं किया गया है। नई कविता-धारा के अंत होने के बाद के 50 वर्षों के अनन्तर कविता के स्वभाव और उसकी संरचना में जो बदलाव दृष्टिगत हुए हैं, उनकी विवेचना नामवरकृत 'कविता के नए प्रतिमान' को सामने रखकर नहीं की जा सकती। (क्यों? इसका उत्तर आपको समसामयिक सामाजिक -राजनीतिक परिवेश के अध्ययन में मिलेगा।)
        1974 में इस किताब के द्वितीय संस्करण की भूमिका के साथ परिशिष्ट के अंतर्गत 'अँधेरे में: पुनश्च' शीर्षक से एक नया निबंध जोड़ा गया है। बाकी, प्रतिमानों को तो यथावत ही रखा गया । अब तक के बदले हुए परिदृश्य में प्रतिमानों की उपादेयता या उसकी पुनर्समीक्षा पर बात नहीं की गई है। इसलिए इसका पुनर्पाठ समीचीन प्रतीत होता है।
        प्रसंगात , हम जानते हैं कि छायावादी कविताओं में भावबोध प्रबल था, जबकि प्रगतिशील कवि राजनीतिक चेतना और सामाजिकता के आग्रही थे। यहाँ विषय व्यापक और जनाकीर्ण होने के कारण उसमें संप्रेषणीयता अधिक थी। इसके उलट, तारसप्तक के कवियों में बौद्धिकता और वैयक्तिकता का आग्रह अधिक था। तारसप्तक के अधिकांश कवि पहले प्रयोगधर्मी थे। उनमें रूप और शिल्प के स्तर पर नए प्रयोगों, नए मूल्यों और मानवीय सम्बन्धों के नए समीकरणों की चिंता अधिक थी जिसका परिणाम हुआ - कविता में संकीर्णता, दुरूहता और दुर्बोधता। इसकी कोख से द्वितीय तारसप्तक में नई कविता का जन्म हुआ। यह स्वाधीन भारत का पहला कविता-आन्दोलन था जिसमें सामाजिक-आर्थिक संघर्ष प्रगतिवाद की तरह नहीं था। यहाँ एक हद तक पाश्चात्य  'न्यू पोएम्सका भी प्रभाव देखा जा सकता है। स्वाधीन भारत से जनता को जो नई आशाएं, उम्मीदें जगी थीं और लोगों ने जिंदगी की बेहतरी के जो सपने देखे थे, उनसे देश में पहले आम चुनाव (1952 ) के बाद मोह-भंग हो गया, जिसकी अभिव्यक्ति नई कविता में हुई । आमचुनाव के बाद भी जनजीवन में सुधार नहीं हुआ, बल्कि नई तरह की समस्याएँ उत्पन्न होने लगीं तो कविता नए मानवीय संबंधों की तलाश की ओर बढ़ने लगी। वास्तव में जीवन के नकारात्मक भाव, यथा; कुंठा, संत्रास, निराशापन, अजनबीपन, परायापन, अपने को मिटा देने और आत्महत्या की प्रवृत्ति आदि से नई कविता का जन्म हुआ,  जिसमें प्रगतिवाद का विरोध और राजनीति का बहिष्कार शामिल था। वह श्रमिक और प्रोडक्टिवमानव की जगह लघुमानव का हिमायती बन गया। लघुमानव, अर्थात निचले तबके और अति साधारण जीवन जीने वाला मनुष्य। लेकिन अपनी घोर वैयक्तिकता और दुर्बोधता, जिसमें विचारों की सघनता और बौद्धिकता अधिक थी, के कारण वह अपने पाठक खोने लगी। संप्रेषणीयता के अभाव में धीरे-धीरे (छठे दशक के अंत तक) इसका समापन हो गया। यह नामवर सिंह की बड़ी गलती है कि नई कविता की इसी पृष्ठभूमि से उपजी काव्य-चेतना को ध्यान में रखकर कविता के प्रतिमान गढ़ने की कोशिश की क्योंकि कविता की यह प्रवृत्ति कविता के समन्वित प्रभाव से विमुख, अनुभवहीन और नवोन्मेषी थी जिसकी उदात्तता भरोसेमंद नहीं कही जा सकती। हालाकि, इस लेख को पढ़ते हुए यह महसूस होता है कि यह अन्य लेखों की अपेक्षा कम बोझिल और कम जटिल है। कह सकते हैं कि सुपाठ्य है। इस पाठ में जिन कवियों और लेखकों को डॉ. नामवर सिंह ने मुख्यतः उद्धृत किया है, वे हैं- सर्वश्री नागेश्वर लाल, कुंवरनारायण, आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी , सियारामशरण गुप्त , आचार्य रामचंद्र शुक्ल, पंडित हजारी प्रसाद द्विवेदी , केदारनाथ सिंह, मुक्तिबोध, अज्ञेय और डॉक्टर रामविलास शर्मा। अपनी बातों को रखने के बावत वह लिखते हैं कि "नई कविता की आलोचना में प्रायः पुराने प्रतिमान क्यों इस्तेमाल किए गए, यदि इसकी जांच की जाए तो साफ मालूम होगा कि जिन्हें हम 'पुराने प्रतिमान' कहते हैं ,वह वस्तुतः पुराने 'संस्कारहैं। इसलिए इन प्रतिमानों की चर्चा करने से पहले इन संस्कारों का विश्लेषण बहुत जरूरी है। जब तक इन संस्कारों को न तोड़ा जाएगा, नए प्रतिमानों के प्रस्तुत होने पर भी वास्तविक मूल्यांकन में वे परोक्ष रूप से दखल देते रहेंगे।"
        वस्तुस्थिति यह है कि नामवर सिंह छायावादी संस्कारों को पुराने संस्कार मानते हैं। उनके अनुसार, यह बद्धमूल संस्कार है । उनका कहना है कि काव्यगत बद्धमूल संस्कार और नए सृजन के बीच अंतर के आधार पर उन्होंने कविता के नए प्रतिमान बनाने की कोशिश की। यहाँ उन्होंने आचार्य रामचंद्र शुक्ल और डॉ. रामविलास शर्मा को अपने तर्क और तथ्य से छायावादी विचारों का पोषक घोषित करने का उपक्रम किया। उनका यह भी कहना है कि "इतिहास की यह एक विडंबना ही है कि छायावाद का विरोध करके भी आचार्य शुक्ल आधुनिक हिंदी के काव्य-पाठक के संस्कार को बहुत-कुछ छायावादी रुचि से संवलित कर गए जिसे 'छायावाद का पतन' जैसी पुस्तक भी न तोड़ सकीं।" इसी को वे मुक्तिबोध और निराला की काव्य-स्वीकृति में विलंब का कारण मानते हैं। वे नए प्रतिमानों को निर्धारित करते समय कविता में अंतर्निहित रोमांटिक संस्कारों का आत्मविश्लेषण करते हैं और डॉ. रामविलास शर्मा को टारगेट करते हुए उनकी कविता संबंधी धारणा को स्थूल और सपाट बताते हैं। निबंध के पश्च भाग में डॉ. रामविलास शर्मा के काव्य विवेक को भाषा और बिंबों की प्रशंसा करने वाला कहते हुए उन्हें काव्य विषयक गुणग्राही सिद्ध करने का प्रयत्न किया गया है । अपने कथन को आगे विस्तार देते हुए वे कहते हैं कि "जो आलोचक कविता में अर्थवान शब्द की समस्त संभावनाओं की खोज किए बिना ही एक सामान्य या वक्तव्य संदेश के आधार पर किसी कविता पर मूल्य-निर्णय देने का दावा करता है, वह कविता का आलोचक नहीं है, ना होगा" । इस प्रकार शुक्ल जी और रामविलास जी की कविता की समझ पर सवाल उठाते हुए नामवर सिंह ने अपने तर्क के समर्थन और अहंकार में आधुनिक अंग्रेजी कवि इलियट का नाम लेकर कविता की स्वकीयता, स्वायत्तता,और सापेक्ष स्वतंत्रता की स्थापना पर विशेष बल दिया है। अंग्रेजी कवि इलियट के बरअक्स वे निबंध को अपने इस वक्तव्य से समाप्त करते हैं कि "रोमांटिक कवि-आलोचक जहां 'भावुकता' और 'सहृदयता' की मांग करते रहे, आधुनिक कवि ने समझदारी की मांग की थी।" इस निबंध में प्रतिमान पर बात करने के बजाय कविता के पुराने संस्कारों को तोड़ने के बहाने आचार्य रामचन्द्र शुक्ल और डॉ. रामविलास शर्मा की काव्य-दृष्टि को अनुपयोगी साबित करने में ज्यादा श्रम किया गया प्रतीत होता है। लेकिन ध्यान देने वाली बात यह है कि रामचंद्र शुक्ल 1941 में ही दिवंगत हो गए थे, और नई कविता आई 1951 में, या उसके बाद। नामवर सिंह कविता की जिन प्रवृत्तियों के आधार पर प्रतिमान बनाना चाहते हैं, वे स्वातंत्र्योत्तर भारत की है। इन प्रवृत्तियों  में मुख्यतः कुंठा, संत्रास, निराशापन, अजनबीपन, परायापन, अपने को मिटा देने और आत्महत्या की प्रवृत्ति, जैसे मनुष्य के टूटने और उसके बिखरने का विचार-प्राबल्य का समय-बोध लक्षित हुआ है। अतएव इन नए विचारों-संस्कारों का प्रतिफलन शुक्ल जी में खोजना कितना उपयुक्त होगा, यह विचारणीय सवाल है ? हां, यह बात अलग है कि नामवर जी का कबीर विषयक मत शुक्ल जी के छायावादी सोच का दोष है, पर इसकी व्याख्या का असली श्रेय आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी को जाता है, न की उनको। अतएव किसी काल-विशेष के सापेक्ष पूर्ववर्ती समालोचकों की बात न कर उनकी कविता संबंधी धारणाओं को अपने वर्तमान के संदर्भ में  आकलित कर उन्हें पूरी तरह ध्वस्त करना नामवर सिंह के पूर्वाग्रह को दर्शाता है।
        जहाँ तक रामविलास शर्मा के काव्य विषयक गुण-ग्राहकता पर प्रश्न-चिन्ह खड़ा करते हुए डॉ. नामवर सिंह ने उन्हें 'आस्थावादी' और बिम्बों के प्रशंसक माना है, वहां एक सीमा तक नामवर जी से सहमति हो सकती है। डॉ. रामविलास जी का प्रयाण-वर्ष 2000 है। डॉ. रामविलास शर्माजी को  अपने बिम्ब-धारणाओं पर तत्कालीन परिप्रेक्ष्य में पुनर्विचार करना चाहिए था। लेकिन उनकी आलोचना 'नई कविता और अस्तित्ववाद' की स्थापना को अपने प्रतिमान की चर्चा के क्रम में खारिज करने का उनका यह सही प्लेटफॉर्म नहीं है। सबसे विचित्र बात तो यह है कि नामवर सिंह ने कविता की जड़ता तोड़ने के एवज में जिन नए प्रतिमानों की वकालत की है, उनका नाम तक इस निबंध में नहीं लिया है। हाँ, आगे के पाठों के शीर्षक से पता चलता है कि काव्यभाषा, सृजनशीलता, सपाटबयानी, विसंगति, विडंबना, अनुभूति की जटिलता, प्रामाणिक अनुभूति, ईमानदारी, तनाव, परिवेश, मूल्य आदि ही इनके मुख्य प्रतिमान हैं। यहाँ यह व्यक्त करना जरुरी है कि हिंदुस्तान की 'नई कविता' का परिवेश यूरोप के 'न्यू पोयम्स' से अलग था। नई कविता में विचार-बोध आयातित नहीं था, इसमें आजादी के बाद की घनघोर निराशा और अपनी जमीन की सरकार से स्वप्न-भंग का परिदृश्य था। इसमें औद्योगीकरण से पनपे शोषण के कारक और विश्व-युद्धों की अमानवीयता से उपजी कुंठा नहीं थी, बल्कि अपने ही देश के विफल शासन-तंत्र और गौरवमय सामाजिकार्थिक स्थिति के पतन की वेदना थी। इसको परखने के नामवर सिंह की नई आलोचना के टूल्स उनके अपने नहीं हैं और न ही उसकी प्रकृति देशज है। यह बिलकुल आयातित है बल्कि कहें, नकल है।  डॉ. एफ. आर. लिविस की पत्रिका "स्क्रूटिनी" के विचार-तत्व का अविवेकी हिंदी संस्करण है, जिसका उदय मार्क्सवादी आलोचना के विरोध में हुआ था। लिविस एक प्रतिक्रियावादी रूपवादी समीक्षक थे। द्वितीय संस्करण की भूमिका में डॉ. नामवर सिंह अपना बचाव करते हुए इस पर तर्क देते हैं कि "चौथे दशक का अंत होते-होते 'स्क्रूटिनी' संप्रदाय की 'नई आलोचना' ने अंग्रेजी शिक्षित समुदाय में मार्क्सवादी आलोचना को परास्त करके अपनी विजय पताका फहरा दी। सवाल यह है कि इस वैचारिक संघर्ष में मार्क्सवादी आलोचना की पराजय क्यों हुई? निश्चय ही इसके अनेक सामाजिक कारण थे। किन्तु क्या इस पराजय के बीज स्वयं उस समय की मार्क्सवादी आलोचना में नहीं थे ? क्या यह सच नहीं कि तत्कालीन मार्क्सवादी आलोचना साहित्यिक कृति को उसके सामाजिक उत्स के साथ एकाकार करने पर विशेष बल दे रही थी? यदि उस समय की मार्क्सवादी आलोचना ने साहित्य की सापेक्ष स्वतंत्रता को ध्यान में रखते हुए उसकी स्वकीयता को कुछ भी सम्मान दिया होता तो 'स्क्रूटिनी' को वह सफलता न मिलती। किन्तु ऐसा लगता है कि मार्क्सवादी आलोचना ने, ख़ास तौर से हिंदी में, न उस इतिहास से कुछ सबक लिया और न स्वयं अपने स्वातंत्र्योत्तर दशक से।" - इस स्पष्टीकरण में नामवर जी की वाकपटुता गौर करने के लायक है। किस तरह तत्कालीन भारतीय मार्क्सवादी आलोचना अपनी साहित्यिक कृतियों को उसके सामाजिक उत्स के साथ एकाकार करने पर विशेष बल दे रही थी, इसका खुलासा उन्होंने किताब में कहीं नहीं किया। अगर यह केवल बाहर की बात थी तो भारतीय कविता के सन्दर्भ में इसे लाने का औचित्य क्या था? सचमुच वह नामवर जी के रूपवादी झुकाव की कमजोर दलीलें हैं।
        मध्यकालीन भारत में जो सामाजिक वर्जनाएँ थीं, उससे भी इस तर्क का कोई संबंध नहीं। उस काल का संत-साहित्य अद्वितीय है और वह समय मार्क्स के बहुत पहले का है।
        नई समीक्षा के रूपवादी प्रवर्तक मार्क्सवादी आलोचना को स्थूल समाजशास्त्रीय रीति से आबद्ध मानते हैं। उनको समाज की अधिरचना में जन-संघर्ष और जीवन का द्वंद्व इसलिए नहीं भाता क्योंकि वह एक ऐसी आजादी के पक्षधर हैं जिसमें भोगवाद से देहवाद तक की यात्रा करने की खुली छुट हो, जहां मन घोर वैयक्तिक और अराजक हो, जहां श्रम-सौंदर्य की अनदेखी की जाए। सृजन में यह यात्रा बाहर से अंदर की ओर नहीं होती, बल्कि अंदर से बाहर जाती है। इनकी प्रकृति आत्मबद्ध, सामाजिक संवेदना से कटी हुई, स्वार्थी, उच्छृंखल, कायर, डरपोक, और पलायनवादी होती है। ये दिन-दुनिया से निहायत ऊबे हुए अकर्मण्य लोग होते हैं। जाहिर है, हमारी सांस्कृतिक विरासत ऐसी कभी नहीं रही। देखने वाली बात यह भी है कि कविता में सापेक्ष स्वतंत्रताकी वकालत कर नामवर जी ने समग्र काव्यानुभव के लिए एक खुलापन अभीष्टको जो वैचारिक समर्थन प्रदान किया, उससे हिंदी की आधुनिक कविता में रूपवादी रुझानों को आगे विकसित होने में बहुत बल मिला। हालाकि इन प्रतिमानों को गढ़ते वक्त उनकी मनसा कविता को रूपवाद की ओर धकेलने की नहीं रही होगी, पर हुआ यही, जो उनकी घोर अदूरदर्शिता का प्रमाण है।
        साहित्येतिहास के सुधी पाठक गौर करेंगे कि हमारे देश की काव्यात्मक प्रवृत्ति बाहर की काव्यात्मक प्रवृत्ति से अलग रही है।  जैसा कि ऊपर भी कहा जा चुका है,  भारतीय परिदृश्य में  शासन-तंत्र की विफलता और राजनीतिक दुश्चरित्रता से उपजी मनोदशा ही थी जो प्रयोगवाद, नई कविता के आन्दोलन के रास्ते होते हुए नकारवाद तक चली गई और जितनी तेजी से आई, उतनी तीव्रता से बिला भी गई क्योंकि इनमें जीवन के प्रति नितांत अविश्वास, अनास्था और तनाव का विचार-बोध था। अगर नई कविता (मुक्तिबोध को छोड़कर) उतनी समृद्ध और शक्तिवती होती तो लोग उसे 1960 के बाद ही भूलने नहीं लग जाते ! आज भी नई कविता और उसके आत्मसंघर्ष में केवल मुक्तिबोध ही अपनी ठाट में खड़े दिखते हैं क्योंकि उनकी नई कविता उन नकारात्कताओं से उपजी काव्य-जड़ता को तोड़ने वाली प्रवृत्तियों का वरण करती है। नामवर जी के तर्क में आए विषय, यथा; छायावाद का बिम्ब-मोह, सच से पलायनवृत्ति और इतिवृत्तात्मकता का प्रसंग तो हमें समझ में आता है, पर भारतीय परिवेश के तत्कालीन सामाजिक-साहित्यिक सरोकार की उनकी कटु आलोचना क्या तात्पर्य है? कविता के नए प्रतिमान का मूलाधार ही उनके द्वारा कविता की स्वकीयता, स्वायत्तता और सापेक्ष स्वतंत्रता को माना गया है। उसे कविता की समझदारी कही गई है जो पाश्चात्य नई समीक्षा की नकल मात्र है। बड़े ही गैर-जिम्मेवाराना तरीके से अपनी मिट्टी और अपने देश के साहित्यिक-सांस्कृतिक संघर्ष को बिना दृष्टिपथ में रखे नामवर जी ने नई कविता की पाश्चात्य-प्रवृत्तियों को फलित करने के अति-उत्साह में अपने प्रतिमान की मूल अवधारणा - 'सापेक्ष-स्वतन्त्रता' को कविता में आगे किया । इससे खराब, लद्धड़, गद्यात्मक, उबाऊ, जीवन से कटी हुई कविताओं की न केवल जमीन तैयार हुई, बल्कि उसे मान्यता भी मिली । कविता की वस्तु कमजोर होने के कारण वह स्वतः अपना अस्तित्व उसके रूप में बटोरने ममें अग्रसर होने लगी । इस प्रवृत्ति के हावी हो जाने के कारण कवि का सारा श्रमइस वक्त कविता की कहन और शिल्प-शैली को विकसित करने में जाया हुआ।
        आप पूरी किताब से गुजरकर भी स्पष्ट नहीं हो पाएंगे कि कविता की स्वकीयता, स्वायत्तता और सापेक्ष स्वतंत्रता का वास्तव में भारतीय संदर्भ है क्या ? अगर भारतीय कविता के विकास में उसकी स्वकीयता, स्वायत्तता और स्वतंत्रता खतरे में थीं तो उनको अपने पाठों के अंदर नामवर सिंह को खुलकर बात रखनी चाहिए थी। फिर "सापेक्ष" शब्द तो मात्रात्मक और आनुपातिक है। इसलिए प्रतिमान निर्धारित करते हुए उन्हें यह भी बताना चाहिए था कि यह स्वतन्त्रता कविता में किस प्रकार की और कितने परिमाण में होनी चाहिए। अगर कविता को सापेक्ष मुक्ति चाहिए थी तो आखिर किन बंधनों से ? और उन बंधनों पर किन-किन मार्क्सवादी कवियों-आलोचको ने बल दिया और क्योंकर दिया, फिर उसके क्या दुष्परिणाम हुए आदि, आदि - कई ऐसे सवाल हैं, जिनके विश्लेषण से वे अपने प्रतिमान-निर्धारण में बचते रहे हैं। ये  "कविता के नए प्रतिमान" में अनुत्तरित हैं, और रहेंगे भी , क्योंकि उन्हें जिस "रूपवादी समीक्षा और खुलापन अभीष्ट" को यहाँ लाना था, उसको स्थापित करने के पीछे कुछ तो उलटा-सीधा तर्क जुटाना ही था !
        किताब के चौथे अध्याय में  रस के प्रतिमान की प्रसंगानुकूलता और पाँचवें  अध्याय में मूल्यांकन की समस्या - छायावादोत्तर कविता पर बात की गई है। संस्कृत के प्राचीन आचार्यों; भरत, आनंदवर्धन, अभिनवगुप्त, मम्मट, पंडितराज जगन्नाथ आदि ने काव्य-रस पर जो बहुमूल्य कार्य किए, उनकी पहली ठोस और महत्वपूर्ण आधुनिक कृति आचार्य रामचंद्र शुक्ल की 'रस मीमांसा' है। कोई भी समालोचक उस पर बात किए बिना अपने संदर्भित विचार को आगे नहीं बढ़ा पाता। (यह शुक्ल जी की काव्य-रस स्थापना की सफलता है।) मसलन, उनके बाद रस-सिद्धांत के नए विचारक डाक्टर नगेंद्र हुए। उन्होंने भी शुक्ल जी को संदर्भित कर इसमें नए आयाम जोड़े। लेकिन डॉ. नामवर सिंह जब कविता में रसात्मक बोध की बात करते हैं तो अवधारणा को पाश्चात्य नई समीक्षा के टूल्स (बिना भारतीय संदर्भ में उसकी उपयुक्तता के) से जांच-बीच करते नजर आते हैं। वे आचार्य शुक्ल के काव्य-रस विषयक निबंधों की चर्चा के क्रम में 'शब्द शक्ति निरूपण' में रस की अर्थ-मीमांसा पर विशेष बल देते हैं और काव्य के मूल्यांकन के लिए प्रतिमान के रूप में उसकी प्रसंगानुकूलता के संबंध में एक बहुत ही अस्पष्ट और भ्रामक धारणा बनाते हैं कि बिना अर्थ-मीमांसा के यह संभव नहीं। पर अर्थ-मीमांसा का सही संदर्भ नहीं रखते, न ही पूरी तरह उसे खोलते हैं, केवल नई कविता, जिसका अधिकतम कालखंड 1951 से 1960 तक का ही है, की बात करते हैं। यह इस निबंध का बड़ा दोष है।
        अपने दोनों अध्यायों रस के प्रतिमान की प्रसंगानुकूलताऔर मूल्यांकन की समस्या - छायावादोत्तर कविता - में डॉ. नामवर सिंह ने डॉ. नगेंद्र के रस –सिद्धांत की पुनर्व्याख्या उसे खारिज करने के उद्देश्य से की है जो उनके कुचिंतन की पराकाष्ठा है। इस विषय को लेकर वे इतने दुराग्रही दिखते हैं कि 'नई कविता' के रस में अर्थ-मीमांसा की खोज करते हुए डॉ. नगेन्द्र के 'रस-सिद्धांत' की व्यापक आलोचना केवल छायावादी रोमानी संस्कारोंसे पगी उनकी आत्मग्रस्तता के आधार पर कर देते हैं और शब्दार्थ-मीमांसा के 'बौद्धिक' व्यापार के श्रम-साध्य पथ से गुजरने का परामर्श भी देते हैं। वे देश-काल-परिस्थिति से सम्बद्ध कर इस विषय पर विचार नहीं करते ,जबकि कविता और उसकी आलोचना इन बंधनों से मुक्र्त नहीं हो सकती । यहाँ नामवर जी की स्थापना पर पाश्चात्य समीक्षा का अविवेकी प्रभाव स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। उनकी व्याख्या का कोई ठोस आधार और सबूत लेख में नहीं है। हम कह सकते हैं कि आचार्य शुक्ल की बात करते हुए उनकी कृति 'रस मीमांसा' संबंधी विचार-परम्परा को अर्थ-मीमांसा की दिशा में आगे बढ़ाना नामवर जी द्वारा किया गया एक कुपाठ है। वे बलात सिद्ध करते हैं कि 'अर्थ-मीमांसा के बिना 'रस' अपूर्ण ही नहीं, बल्कि निरर्थक है। यह रस का वस्तुत: कविता के संदर्भ में नीरसीकरण है।
        यह सही है कि रामचंद्र शुक्ल ने 'रस मीमांसा' के विभिन्न अध्यायों में रस के साधारणीकरण, भाव, विभाव, शब्द-शक्ति, ध्वनि आदि का विशद विश्लेषण किया है। लेकिन नामवर जी काव्य-रस को परोक्ष रूप से केवल नई कविताके रस से जोड़कर उसकी अर्थ-मीमांसा की बात करते हैं और उसका बीज शुक्ल जी की स्थापना में होने का कुतर्क भी करते हैं। प्रसंगवश रस के पुनरुद्धार अथवा पुनर्व्याख्या संबंधी नगेन्द्र जी के लेखन को नामवर जी द्वारा आत्मपरक कहना कहीं से उपयुक्त नहीं प्रतीत होता। रस की चिंताओं का मूल संबंध तो हमारी अनुभूति या ह्रदय-भाव से है जो कभी बदलता नहीं, केवल उसकी अभिव्यक्ति के ढंग बदलते हैं। लेख में मन-मस्तिष्क के विचार-तत्व और बौद्धिकता पर अतिरिक्त बल और छिपे हुए आग्रह 'रस' को नीरस करते हैंशुक्ल जी ने तो 'रस-मीमांसा' में इसके विश्लेषण की जो पद्धति बनाई है, उसके मूल में मुख्यतः 'भाव' और 'विभाव' ही हैं। वहाँ मानव-मन के बुद्धि-पक्ष पर बल नहीं रहा है। शुक्ल जी 'विभाव' नामक निबंध में कहते हैं कि "कवि-कर्म-विधान के दो पक्ष होते हैं - विभाव पक्ष और भाव पक्ष। कवि एक ओर तो ऐसी वस्तुओं का चित्रण करता है जो मन में कोई भाव उठने या उठे हुए भाव को और जमाने में समर्थ होती हैं और दूसरी ओर उन वस्तुओं के अनुरूप भावों के अनेक स्वरूप शब्दों द्वारा व्यक्त करता है। एक विभाव पक्ष है, दूसरा भाव पक्ष। कहने की आवश्यकता नहीं कि काव्य में ये दोनों अन्योन्याश्रित हैं, अत: दोनों रहते हैं। जहाँ एक ही पक्ष का वर्णन रहता है वहाँ भी दूसरा पक्ष अव्यक्त रूप में रहता है।"   लेकिन नामवर सिंह ने रस के आस्वाद की प्रक्रिया को नई कविताके अर्थ-मीमांसा से जोड़कर उसके सहज प्रवहण को जटिल और विकृत करने का काम किया है।
        ऊपर नई कविताकी प्रवृत्तियों की चर्चा की जा चुकी है। आप खुद महसूस करेंगे कि नई कविता में बौद्धिकता, संकीर्णता, दुरूहता और दुर्बोधता अन्य कालखंडों की कविता की अपेक्षा अधिक परिलक्षित होती  है जो कविता से आमजन के कटने का एक प्रमुख कारण है । वास्तव में कविता के प्रति अरुचि की मूल वज़ह उसमें विचार-तत्व और उसकी अंतर्वस्तु का संघनित और जटिल होना रहा है। यह आम तौर पर कविता के बजाए गद्य में होता है। पर नामवर जी सरल रसबोध को केवल सस्ती भावुकता, सीधी इतिवृत्तात्मकता और कोरी उपदेशात्मकता का पर्याय मानते हैं। वे कहते हैं कि "जहाँ रसबोध इतना सपाट हो, जटिल राग-बोध वाली बहुत सी नई कविताओं का उपलब्धि की सीमा से बाहर रह जाना स्वाभाविक है “ (पृ सं - 58)  इसका अर्थ हुआ कि वे कविता की संरचना और उसके भाव को दुर्बोध बनाने का ही उपक्रम कर रहे हैं।
        अगले पाठ "मूल्यांकन की समस्या: छायावादोत्तर कविता " में भी उन्होंने नई कविता का पक्ष लेते हुए डॉ. नगेन्द्र के रस-बोध सम्बन्धी समझ पर प्रश्नचिन्ह खड़ा किया है। नई काव्य-प्रवृत्तियों के प्रति उनकी अतिशय आग्रहशीलता के मूल में मैथिलीशरण गुप्त, निराला, पन्त, महादेवी , बच्चन, नगेन्द्र आदि की अनुभूति को सन 36 वाली कहकर नई कविता के कवियों यथा; रघुवीर सहाय, गिरिजाकुमार माथुर आदि के काव्य-रस की व्याख्या करनी है जो उनके अनुसार, तत्कालीन वास्तविकता को देखने के लिए 'विजन' तैयार करता है। उन्हें नई कविताके बाहर के कवियों की उदात्तता अतिचेतनवादी दिव्य अनुभूतियों से युक्त " और '"कलात्मक सिद्धि शिल्प का अतिसरलीकृत रूप' लगती है। उनके इस मोहपाश ने कविता के रस का आस्वाद बिगाड़ कर उसके सहज प्रवाह को कुंद करने में अहम भूमिका निभायी है। सबसे बड़ी बात यह है कि कविता के लिए वे रस का जो नया प्रतिमान गढ़ते हैं, उसे लेकर स्वयं संतुष्ट नहीं, आशंकित दिखते हैं। उन्हें अपने कहे पर भरोसा नहीं, क्योंकि अपना निकष निबंध के अंत में वे इस रूप में रखते हैं – “काव्य के इन मूल्यों को कोई चाहे तो अपने तोष के लिए रसनाम भी दे सकता है” (पृ सं – 65) । रस की इस संशयपूर्ण पूर्वाग्रही विवेचना से कवियों और कविता के पाठकों में नामवर जी ने जो भ्रम फैलाया है, उसका कार्य-कारण स्पष्ट है- वही नव्य समीक्षा पद्धति के उपकरण, जिसके सहारे उन्होंने कविता के नए प्रतिमानों को गठित करने का प्रयत्न किया है।
        काव्य-रस के अर्थ-मीमांसा का प्रश्न कविता की अंतर्वस्तु और उसके रूप से अलग नहीं किया जा सकता। नई कविताकी प्रवृत्तियों से काफी आगे निकल चुकी आज की कविता के रस भी उसी के अनुरूप कविता में संचरित हैं। जब आज के संदर्भ में नई कविताही प्रासंगिक नहीं रही तो उसके रस कैसे प्रासंगिक रहेंगे ? लेकिन नामवर जी ने अब तक इन अप्रासंगिकताओं पर अपना कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया, जिससे समझा जा सकता है कि उनके अंदर का आलोचक नई कविताके बाद ही मर गया। गोया कि, काव्य-रस को छायावादी संस्कारों से मुक्त कर किसी दूसरी धारा से आबद्ध करना उसकी गति और विकास को उस दिशा में मोड़ना है। रस के प्रति यह आग्रह कविता में एक अराजक स्थिति को पैदा करता है। वस्तुत: रस के  प्रतिमान बनाने के यत्न में नामवर जी ने उनकी जो नई व्याख्या प्रस्तुत की है , वह रसनहीं है, पर उसे रस से जबरन जोड़ दिया गया है। यह नई समीक्षा के कलावाद की बानगी है। सच तो यह है कि काव्य-रस का चाहे जितना पुनरुद्धार किया जाए, वह प्रतिमान के रूप में तभी स्वीकृत किया जाएगा, जब कविता की भाव-सत्ता को कमजोर, कुंठित या विरूपित न करे। काव्य-रस के प्रतिमान की प्रसंगानुकूलता के बहाने डॉ. नामवर सिंह ने रस का एक साँचा और खाका बनाकर अपनी जिस मूल्य-मूढ़ता का परिचय दिया है, वह कविता को सीधे रूपवाद की ओर धकेलती है। यह अति उत्साह में रस की समृद्ध परंपरा को बिना कार्य-कारण बताए तोड़ने के कारण जितना घटित नहीं हुआ, उससे अधिक पाश्चात्य प्रवृत्ति को भारतीय परिवेश में ढाले बिना उसे अपनाकर कविता को आधुनिक बनाने के उपक्रम में हुआ क्योंकि परंपरा और मिथक अपनी ही जमीन के नए प्रगतिशील विचारों से टूटते हैं, न कि उधार के मूल्यों-आदर्शों से।
        डॉ. नामवर सिंह कविता के प्रतिमानों की चर्चा को आगे बढ़ाते हुए छठे और सातवें अध्यायों में कविता के बजाए आलोचना के प्रतिमान की ओर मुखातिब हो जाते हैं, जिसका कोई तुक और तर्क नहीं है। इसे विषय का विचलन ही कहा जाएगा क्योंकि इसकी सोद्देश्यता साफ़ नहीं। रामधारी सिंह दिनकर की कृति 'उर्वशी' पर मूल्यों के टकराव को लेकर उसकी आलोचना के प्रसंग में एक छोर पर वे रामविलास शर्मा को खड़ा कर देते हैं तो दूसरी ओर  मुक्तिबोध को, और इस अंतर को केवल भाषा-बोध का अंतर न मानकर मूल्यबोध का अंतर मानते हैं। वे कहते हैं कि दोनों तारसप्तक के ही कवि हैं और प्रगतिशील विचारधारा से संबद्ध भी , फिर भी काव्य बोध में इतना अंतर ! “ कविता के मूल्यांकन में सुसंगत मूल्य प्रणालियों के अंतर को वह मूल्यों का टकराव समझते हैं जो उनके विचार में 'सार्थक और प्रसंगानुकूल मूल्यों के विकास' की संभावना के द्वार खोलती है। साथ ही, मूल्यों की टकराहट की दिशा में मुक्तिबोध के मूल्य को अपेक्षाकृत ठीक मानते हैं । सच पूछिए तो 'कविता के प्रतिमान' में इस पाठ की आवश्यकता ही नहीं थी। 'उर्वशी' कृति पर हुए विमर्श को विवाद का नाम देकर उसे लक्ष्य करने से कविता के नए प्रतिमान निर्धारित करने में क्या सहूलियत होगी, यह पाठ के किस कोण को समझने में सहायक होगा, इसका कोई योगदान नहीं दिखाई देता। मूल्यबोध को व्यक्त करने का तरीका भी बिलकुल बेजा है। कहने का मतलब है कि बात काव्य के अभिलक्षण पर न कर काव्यालोचना पर कर सारे गुड़ को इन दोनों पाठों में गोबर कर दिया गया है । किस -किस का मूल्यबोध विकासशील है और किन- किन में रचनात्मक संभावना है, इन स्थापनाओं से कविता के प्रतिमान का कोई लेना-देना नहीं होता। शुद्ध अकादमिक शैली में, जो उबाऊ भी कम नहीं है, नामवर जी कविता की आलोचना में मूल्यों के टकराव को गति देना चाहते हैं जो यहाँ न कहीं से प्रासंगिक लगती है, न उपयोगी। इन मूल्यों के टकराव में कौन से मूल्य आगे आते हैं अथवा कैसे वे कविता के प्रतिमान बनते हैं , इस पर निबंध में कोई विश्लेषण या वर्णन प्रस्तुत नहीं है।
        इसी प्रकार, अगले पाठ में मुक्तिबोध द्वारा प्रसाद की कृति 'कामायनी' पर किए गए पुनर्मूल्यांकन को एक उदाहरण के रूप में प्रस्तुत कर नामवर सिंह ने यह देखने का प्रयास किया है कि कामायनी को ही यह गौरव प्राप्त है कि उस पर सबसे अधिक आलोचना प्रकाशित हुई है। फिर विविध आलोचनाओं के मध्य अपनी जानकारी से पाठकों को अवगत कराते हुए मुक्तिबोध की बात करते हैं और कहते हैं कि मुक्तिबोध ने पहली बार 'कामायनी ' को एक ऐसी विशाल 'फंतासी' के रूप में देखने का प्रस्ताव किया जो "कलाकार की विधायक कल्पना द्वारा जीवन की पुनर्रचना" है। उस 'फैंटेसी' में निहित जीवन-मूल्यों की समीक्षा करते हुए नए मूल्यों की व्याख्या की मूल्यपरक विवेचना की गयी है। यहाँ भी जोर और बहस कविता के प्रतिमान पर नहीं, वरन समकालीन साहित्य के पुनर्मूल्यांकन की 'आलोचना-दृष्टि' पर है ।
        संक्षेप में, यह विषय से भटकाव और विषयांतर होना है। कामायनी हमारे लिए मूल्यवान ग्रन्थ क्यों है, इसकी विशदता से चर्चा न कर मुक्तिबोध की आलोचना-दृष्टि पर विचार करना प्रतिमान के निष्कर्षों से बाहर जाकर साहित्यालोचन के अन्य सिद्धांतों की ओर गमन करना है, जिससे मूल पाठ से हमारा ध्यान विचलित होता है। यह तो नामवर जी का विषय से विचलन कहा जाएगा। कहना न होगा कि इन दोनों पाठों से गुजरते हुए पाठकों को कविता के नए प्रतिमानों पर आगे की कोई जानकारी हासिल नहीं होती है, पाठों में 'उर्वशी' विवाद और 'कामायनी' के मुक्तिबोध संबंधी पुनर्विचार पर अपने पांडित्य और विद्वता को प्रदर्शित करना ही यहाँ नामवर जी का मुख्य ध्येय है जो पाठ के परिवर्द्धन में कतई सहायक साबित नहीं होता।
        अगला पाठ 'तारसप्तक: इतिहास की आवृत्ति' में नामवर जी तीसरे सप्तक के रूप में 1959 में एक चक्र पूरा हो जाने का उल्लेख करते हुए बीस वर्षों की पीढ़ी का मूल्यांकन करते हैं । अगर तीनों सप्तकों के कवियों की कृतियों पर ध्यान दिया जाए तो एक मुक्तिबोध ही नई प्रतिभा के ऐसे धनी कवि और आलोचक मिलते हैं जिन्होंने 'नई कविता' के भीतर कविता में जान फूंकी। नामवर जी के इस कथन से लगभग सभी सहमत होंगे कि "मुक्तिबोध की जागरूकता का प्रमाण है कि नई कविता की आंतरिक असंगतियों के विरुद्ध संघर्ष करते हुए कहीं भी उन्होंने कुछ प्रगतिवादी आलोचकों की तरह, नई कविता के विरोधी छायावादी-उत्तरछायावादी संस्कारों वाले जड़ आलोचकों एवं कवियों का साथ नहीं दिया। इस दृष्टि से उनके जीवन-काल के अंतिम दिनों में लिखा हुआ 65 पृष्ठों का लंबा निबंध 'समीक्षा की समस्याएं', जो 'नई कविता का आत्मसंघर्ष ' निबंध नाम से पुस्तक में संकलित है, ऐतिहासिक दस्तावेज है।" - अगर एक क्षण के लिए 'तार सप्तक' से मुक्तिबोध को अलग करके देखा जाए तो सृजन और जीवन में कला के संघर्ष का कोई सुघड़ सच्चा साहित्य वहाँ नजर नहीं आता। नेहरू युग का प्रभा-मंडल खत्म होने के बाद नवलेखन का सौंदर्य-रुझान बिना सृजनात्मक विद्रोह के मुक्तिबोध को छोड़कर लगभग हर कवि में बेजान ही साबित हुए, जिनमें केवल ऐतिहासिक युगबोध लक्षित किया जा सकता है, साहित्यिक चैतन्य युगबोध नहीं। अतएव कविता का प्रतिमान अपने छायावादी संस्कारों से मुक्त होने के बाद तारसप्तक की कविता या नई कविता 'युग-संशय' , 'अस्वीकार', 'कुंठा' , 'आत्मान्वेषण', 'प्रयास की सामूहिकता", 'साहसिकता', 'राहों के अन्वेषी' आदि नव-मूल्यों से संस्कारित होकर अपने को खड़ा न रख सकी। इन अभिलक्षणों के आधार पर कविता के नए प्रतिमान गढ़ने में नामवर जी ने जो अति उत्साह दिखाया, वह आगे चलकर युग की जड़ता को तोड़ने में नाकाम ही साबित हुआ। दीगर है कि जो कविता समय के बहाव में लिखी जाती है, वह उसकी जड़ता नहीं तोड़ पाती। वह उसके सम्वेग में बह निकलती है जिसका तात्कालिक प्रभाव तो प्रभूत और गहन होता है। पर सच यह है कि युग की जड़ता तोड़ने के लिए उसके अगले छोर पर कवि को खड़ा होकर उनमें उन परिवेशगत मूल्यों का संस्कार करना पड़ता है, जो जीवन को बचाने के पक्ष में खड़ा हो, न कि समय की कुंठा से आत्मग्रस्त हो जाए। यह प्रगति मुख्यतः मुक्तिबोध में ही देखा गया वर्ना नई कविता के अधिकतर कवि 'नए' के नशे और आत्मान्वेषण में युगबोध के संक्रमण के शिकार हो गए थे। इसलिए टिक नहीं पाए। नामवर जी का यह कहना कि पुनर्मुद्रण के ऐतिहासिक सन्दर्भ में तार सप्तक ने अपने प्रकाशन का औचित्य प्रमाणित कर दिया, एक विवादास्पद बयान है क्योंकि औचित्य का दारोमदार केवल मुक्तिबोध की आलोचना और कविता को ही जाता है, और सब तो काल की आंधी में धूमिल ही हो गए।
इस तरह इन आठ अध्यायों में पुस्तक का पहला खंड समाप्त हो जाता है। दूसरे अध्याय में काव्यभाषा, सृजनशीलता, सपाटबयानी, विसंगति, तनाव, विडंबना, प्रामाणिक अनुभूति, परिवेश, मूल्य, आदि प्रतिमानों की चर्चा की गई है।               इस तरह आपने देखा कि कविता के नए प्रतिमानों में हर जगह निश्चयात्मक बुद्धि का अभाव पाया गया है। वे जब भी आलोचना का कोई विचार-तत्त्व प्रतिमान में लाते हैं तो दो-चार लेखक-कवियों को उद्धृत करते है और उससे एक विचार-शृंखला बनाते हैं। एक ओर तो विचार उनके अपने नहीं होते, या तो वे पाश्चात्य चिंतकों से लेते हैं या फिर भारतीय भावभूमि पर सृजित लेखकों के विचार को अपनाते हैं, तुलनात्मक दृष्टिकोण का लाभ पाठक को नहीं मिल पाता है क्योंकि किसी निकष पर नहीं पहुँच पाते हैं। विचारों का प्रतिफलन नहीं कर पाते। मूल्यांकन की पद्धति में काफी उलझाव होता है। सब कुछ पाठक पर छोड़ देते हैं जिससे पाठक के मन में प्रतिमानों को लेकर कोई निश्चित आकार नहीं बन पाता है। इसलिए इन्हें सही तौर पर प्रतिमान भी नहीं कहा जा सकता । प्रतिमान को तो पाठक और आलोचक का मत हासिल होना चाहिए।
            दूसरे खण्ड के पहले आलेख में नामवर जी ने काव्यभाषा और सृजनशीलता पर बात की है। इस आलेख में वे डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी, तार सप्तक के कवियों और डॉ. देवराज के मतों के बीच काव्यात्मक भाषा और काव्याभास भाषा के बीच भेद करने में अपने आलोचकीय विवेक की बात करते हैं और विजयदेव नारायण साही का जगह- जगह उल्लेख भी करते हैं। फिर मुक्तिबोध की काव्यभाषा का महत्त्व बताते हुए कहते हैं कि इसमें एक रीतिबद्ध भाषा की चमक, लालित्य, प्रसन्नता आदि गुण भले ही न हों , वह प्राणशक्ति असंदिग्ध है जो सृजनशीलता की अनिवार्य शर्त है। भाषा की प्राणशक्ति का संबंध भाषा के नाटकीय प्रयोग से है और कहना न होगा कि मुक्तबोध की प्राणवान काव्यभाषा उनके प्राणवान कथ्य की प्रतिध्वनि है। स्पष्ट है की सृजनशीलता को किसी नुस्खे अथवा कुछ नुस्खों से बांधना असंभव है।“  क्योंकि काव्य भाषा की विशेषता के संदर्भ में साही के मत का उल्लेख करते हुए वे कहते हैं कि सृजनशीलता आसान रास्ता छोड़ कर नए रास्ते तैयार करती है जो शब्दों को परिपाटीग्रस्त अभिव्यक्ति और बाजारू अभिव्यक्ति, इन दोनों खतरों से बचाकर  जीवित अभिव्यक्ति बनाती है।  इसीलिए वह सृजनशीलता है।  इस प्रकार काव्यभाषा में कथ्य और सृजनशीलता के गुण को समाविष्ट कर नामवर सिंह ने  कविता का नया प्रतिमान बनाने का प्रयत्न किया है, लेकिन काव्याभिव्यक्ति की भाषा को कवि कैसे उपार्जित करेगा, उसे अर्जित करते हुए उसकी सीमाएं क्या होगी, कविता की भाषा किन प्रवृत्तियों के कारण रूपवाद की ओर मुड़ती है, कथ्य की निर्मिति में काव्य-भाषा कैसे और कहाँ चूक जाती है, ये सभी प्रश्न उनके लेख में अनुत्तरित हैं। यहाँ भी सापेक्ष स्वतंत्रता की अनिवार्यता पर बल तो दिया गया है पर उसके मूल्यांकन की सीमाएं और दिशाएँ तय नहीं की गई है। सच तो यह है कि कविता की भाषा कवि उसकी अंतर्वस्तु के अंतरसंघर्ष से प्राप्त करता है । एक ही कथ्य पर एक समय के एकाधिक कवियों की काव्य भाषा कैसे अलग होती है – नामवर जी ने इस मूलभूत प्रश्न पर विचार करने की जरूरत नहीं समझी।  इन प्रश्नों का उत्तर आपको मुक्तिबोध की आलोचना में मिलेगा क्योंकि वहाँ कवि कविता के आत्मसंघर्ष में किन-किन कारकों से जूझता है और उसके क्या काव्यफल होते हैं, इसकी विस्तार से चर्चा की गई है। नामवर जी कविता में अन्वेषण को सृजनशीलता का पर्याय मानते हैं, किसी नए शब्द की खोज को नए अनुभव-खंड अथवा वास्तविकता के किसी नए पहलू की खोज मानते हैं जो इस निबंध की मुख्य अवधारणा कही जा सकती है। लेकिन यह नया शब्द हमें किस अनुभव-खंड की ओर ले जाएगा, वह अनुभव कितना व्यक्ति या समाज के काम आएगा, साहित्य में नवीनता का यह अंध-आग्रह, जो सोद्देश्य न हो, कहीं न कहीं हमें कविता की उस अनजान-अतल खोहों में ले चलने का उपक्रम है जहाँ भाषाई-चमत्कृति और जादूपन हो, जो जीवन से कट जाए और कलावाद की विशिष्ट अनुभूति से सिक्त हो जाए – इसकी प्रबल संभावना बनती है। अतएव बिना इन सवालों की जांच के काव्यभाषा का यह प्रतिमान बहुत अधूरा और कविता के लिए खतरनाक रास्ते को अख्तियार करता है।
           इसी प्रकार अगले निबंध काव्यबिम्ब और सपाटबयानी में कविता में सपाटबयानी के आग्रह गद्य-सुलभ जीवंत विन्यास को पुनः प्रतिष्ठित करने का प्रयास कहा गया है जिसके मार्ग में उनके अनुसार बिम्बवादी रुझान निश्चित रूप से बाधक बन रहा है, क्योंकि काव्यभाषा के लिए भी प्रायः बिम्ब-योजना हानिकारक सिद्ध हुई है। बिम्बों के कारण कविता बोलचाल की भाषा से अक्सर दूर हटी है, बोलचाल की सहज लय खंडित हुई है, वाक्य-विन्यास की शक्ति को धक्का लगा है, भाषा के अंतर्गत क्रियाएं उपेक्षित हुई हैं, विशेषणों का अनावश्यक भार बढ़ा है और काव्य-कथ्य की ताकत कम हुई है। “ दीगर है कि उन्होंने सपाटबयानी को कविता का प्रतिमान बनाते हुए बिम्बों के नकारात्मक प्रभावों पर गहराई से तो बात की है पर उनमें जो बिम्ब आते हैं उस पर बहस नहीं की गई है।सपाटबयानी की कविता पूरी तरह बिंबों से खाली नहीं होती।  यह सपाटबयानी समय के आतंरिक यथार्थ को व्यक्त करते हुए कवितापन की सीमा का अतिक्रमण न करे, लेख में  यह विषयगत नहीं हुआ। इसकी फलश्रुति यह हुई कि अशोक वाजपेयी, विष्णु खरे और उदय प्रकाश जैसे कैरियारिस्ट कवियों ने कविता के नाम पर कहानी और लद्धड़ गद्य रचकर कविता के गौरव को गिराने का काम किया ।  यह किसी से छिपा नहीं है। कविता के अत्यधिक सपाट होने से उसकी अधिरचना और लय पर क्या प्रभाव होंगे, इससे पाठकीय रूचि किस हद तक प्रभावित होगी और कविता में बिम्ब के नहीं रहने के क्या-क्या  सकारात्मक नकारात्मक प्रभाव हो सकते हैं, इत्यादि अहम प्रश्नों से बचते हुए पाठ में केवल कुछ कवियों-लेखकों  यथा; केदारनाथ सिंह, रघुवीर सहाय, श्रीकांत वर्मा, नागार्जुन, त्रिलोचन आदि के कवितांशों के द्वारा यह स्थापना दी  गई है कि बिना बिम्ब के भी कम अच्छी कविताएँ नहीं लिखी जा सकती। कविता में बिम्ब-रचना सदैव वास्तविकता को मूर्तन ही नहीं करती , कभी-कभी वह वास्तविकता का अमूर्तन भी करती है। इसे आत्मसात करना कठिन है ।
   स्थापना में  बिम्ब के अनुप्रयोग के प्रभावों का तो विशद विश्लेषण हुआ है, पर सपाटबयानी के गुणात्मक और मात्रात्मक  निगेटिविटीपर कोई चर्चा उपलब्ध नहीं की गई है। यह इस निबंध का बड़ा दोष है। वस्तुतः बिम्ब संबंधी डॉ. एफ़ आर . लिविस की स्क्रूटनी पत्रिका में बिम्ब और गतिमयता’ (इमेज एंड मूवमेंट) से नामवर जी का उधार लिया हुआ प्रवचन है, जो कहीं से ठोस और तार्किक नहीं लगता। अगर उन्होंने सपाटबयानी की सीमाओं का तार्किक मूल्यांकन किया होता तो यह लिविस की स्थापना के आगे की स्थापना कहलाती । उनपर स्क्रूटनी पत्रिका की नव्य-समीक्षा का इतना सम्मोहन था कि उस जादू से वे मुक्त न हो सके और कविता का नया रूपवादी प्रतिमान रच दिया । यह लेख भी पूर्व के लेखों की तरह अधूरा और विभ्रम-पोषी है।
     काव्य-भाषा और सपाटबयानी के बाद नामवर जी ने काव्य-संरचना को कविता का नया प्रतिमान बनाया है। उनका कहना है की छोटी कविताएं मूलतः प्रगीतात्मक ही होती है और लंबी कविताओं की संरचना नाटकीय । प्रायः प्रगीत अनुभूति प्रधान होती है जबकि लंबी कविताएं यथार्थपरक। उदाहरणस्वरूप, अज्ञेय की लंबी कविता असाध्य वीणाका उदाहरण देकर उसे प्रगीत ही माना गया है जिसमें छोटी सी कथा भी है और नाटकोचित संवाद भी। किन्तु भावबोध के स्तर पर पूरी कविता अनुचिंतात्मक है और संरचना भी वर्तुलाकार। इस प्रकार नन्द किशोर नवल जी के शब्दों में, नामवर जी ने काव्य संरचना पर स्वतंत्र रूप से विचार नहीं किया है और काव्यानुभूति तथा काव्य-संरचना में द्वन्द्वात्मक संबंध निर्दिष्ट किया है।
     यहाँ ताज्जुब की बात यह है कि लयात्मकता और प्रगीतात्मकता का गुण तो कविता का विशिष्ट गुण है और कला में नाटकीय भाव पैदा करना केवल कथ्यात्मक संवाद पर ही निर्भर नहीं होता, यह कवि की क्षमता पर निर्भर करता है। इसमें कवि कितना सफल हो पाता है, यह भी कवि के आत्मसंघर्ष का हिस्सा  है।  आप महसूस करेंगे कि वर्तमान में अधिकतर कवियों की कविता से प्रगीतात्मकता गायब है, वह इतनी नाटकीय दिखाई देती है कि उससे ऊब और क्षोभ पैदा होती है। अतएव इनमें अंतर्द्वंद्व की जगह संतुलन ज्यादा अनिवार्य  प्रतीत होता है। प्रगीतात्मकता छायावादी प्रवृत्ति है और नाटकीयता आधुनिक, प्रगतिशील प्रवृत्ति। जिस तरह काव्य-बिम्ब और सपाटबयानी में भी अंतर्विरोध की अपेक्षा संतुलन की बात कविता के विकास के लिए सहज और ज्यादा तार्किक लगता है, उसी प्रकार लय-प्रगीत-गुण के साथ नाटकीयता भी अंतर्द्वंद्व की जगह पर नामवर ने इनके संतुलन पर कोई बात नहीं की है। 
           कविता का अगला प्रतिमान नामवर जी ने “विसंगति और विडम्बना” को माना है। इस पर आचार्य नन्द किशोर नवल जी का मत है कि नामवर जी निश्चित विचारधारा और जीवन-मूल्यों में आस्था रखने वाले आलोचक हैं । वे विसंगति और विडम्बना को यथार्थ चित्रण के लिए आवश्यक  समझते हैं, पर जीवन के प्रति सीनिकल अप्रोचका पक्ष समर्थन नहीं करते । ( हिन्दी आलोचना का विकास/पृष्ठ- 344) कविता के छायावादी मिजाज को तोड़ने के लिए जीवन के यथार्थ को सामने लाने के लिए वे “विसंगति और विडम्बना” वाली कविताओं का पक्ष लेते हैं जो भावावेश को संयत करे और कथ्य में गहराई, प्रौढ़ता और सघनता लाए। दरअसल नवल जी नामवर जी की कृपा से आलोचक बने रहे। “आलोचना” पत्रिका के सह-संपादक रहे। सब जानते हैं कि वे अभिजात यानि नकली मार्क्सवादी हैं, सुविधाभोगी सत्ता के तंत्र मे शामिल।
     स्व. डॉ॰ सुरेन्द्र चौधरी ने यह आरोप लगाया है कि “विसंगति और विडंबना” को जब नामवर सिंह समकालीन इतिहास की मूल लाक्षणिकता के रूप में प्रस्तुत करने लगते हैं तो वह विसंगति और विडंबना को गहरे अर्थ से काटकर फ्राइवालस बना देते हैं। बुर्जुआ सौंदर्यशास्त्र से लड़ने के क्रम में जिन रूपवादी औजारों की सहायता नामवर सिंह लेते हैं, कहीं न कहीं उन औजारों के खुद ही शिकार हो जाते हैं। डॉ॰ चौधरी ने खुद ही लिखा-‘‘कविता के मूल्यांकन में संरचनावादी दृष्टि कहां मार्क्सवादी सौंदर्यशास्त्र से टकराती है, इसे जानना हो तो नामवर की यह पुस्तक महत्वपूर्ण उदाहरण बन सकती है। जिस तरह हीगेलियन द्वंद्ववाद विचारों की गत्यात्मकता पर आश्रित है और कालचाप से आपकी प्रत्यवस्थाएं निर्मित कर उन्हें एक उच्च संश्लेष में बदल लेता है, उसी तरह नामवर का संरचनावादी दृष्टिकोण भी एक कल्पित पूर्णता का संश्लेष बनकर रह जाता है जिसका इतिहास, अनुभव और मानवीय कार्य व्यापारों तथा भावनाओं के मूर्त विश्व से कोई सीधा संबंध नहीं है। कविता के नए प्रतिमानवस्तुतः प्रतिमानों की भीड़ है जिसमें सही प्रतिमान दबा पड़ा रह जाता है।’’ (खंड 1, पृ. 213)
नामवर जी ने कविता के जिस पांचवें प्रतिमान का विवेचन किया है, वह है अनुभूति की जटिलता और तनाव । इस प्रतिमान की भी लगभग वही स्थिति है। वे कहते हैं कि “नई कविता आज यदि द्वंद्व या तनाव को काव्य के प्रतिमान के रूप में प्रतिष्ठित करना चाहती है तो वह हिन्दी आलोचना के गौरवशाली परंपरा को ही आगे बढ़ा रही है।“ लेकिन नई कविता में जो अनुभूति की जटिलता और तनाव है, जो द्वंद्व है वह मध्यमवर्गीय कुंठा-संत्रास का प्रतिफल है, यह आजादी से स्वप्न-भंग  की परिणति है।  इसमें जीवन का भौतिक द्वन्द्ववाद और संघर्ष नहीं है। लेकिन बहुत बुद्धिमत्ता से नामवर जी ने अज्ञेय की अपेक्षा  मुक्तिबोध द्वारा निरूपित तनाव को मान्यता देकर पाठ के दोष से बचने का उपक्रम किया है।
     मार्क्सवादी आलोचक सुरेन्द्र चौधरी की जीवन-पर्यंत उपेक्षा इसलिए हुई है क्योंकि  वे नामवर के रूपवादी विचारों के खासे विरोधी थे। मार्तंड प्रगल्भ ने अपने ब्लॉग पर लिखा है कि कविता के नए प्रतिमानमें इतिहास के अदृश्य रह जाने के कारण नागार्जुन, त्रिलोचन, केदार और सुमन जैसे दूसरे कवि प्रतिमानों के निर्माण से गायब हैं। कविता के नए प्रतिमानका परिप्रेक्ष्य निश्चित रूप से मुक्तिबोध हैं लेकिन परिवेश और मूल्यमें जिस इतिहास को दिखाने की कोशिश नामवर सिंह कर रहे थे, वह उन्हीं के शब्दों में अपूर्ण है और जिसकी क्षतिपूर्ति अंधेरे में पुनश्चनामक अध्याय भी नहीं कर पाया। डॉ॰ चौधरी ने यह भी बताया है कि नई कविता के अनुभव-संसार की वर्गीय संरचना को लक्ष्य करते हुए मुक्तिबोध ने जो कुछ भी लिखा, उसके बावजूद उनकी भावधारा अपनी विचारधारा से संगत न हो पाई। कला के तीसरे क्षण वाला उनका सिद्धांत उनकी अपनी काव्य प्रक्रिया का अंतर्विरोध भी है। ‘‘कला के जिस तीसरे क्षण को वे संपूर्ण रचनात्मक क्षण सिद्ध करते हैं, क्या वह आत्मपूर्ण तात्कालिकताका पर्याय नहीं है। क्या यह आत्मपूर्ण तात्कालिकता सारे कला सत्य को अपने भीतर की परिस्थितियों में या परम स्थिति में फ्रीज नहीं कर देती? सारे विकास को अपने भीतर ही नहीं समेट लेती? यह इतिहास का निषेध है और बर्गशैनियन गुणात्मक काल संरचना से मुक्तिबोध की भावधारा पीडि़त रही। इससे इनकार नहीं किया जाना चाहिए।’’ (खंड 1, पृ. 209)
     कविता के छठे प्रतिमान के रूप में ईमानदारी और प्रामाणिक अनूभूति की बात की गई    है। मानवीय चारित्रिक अभिलक्षण की चर्चा जब कविता की आलोचना में की जाती है तो इनके गुणवत विशेषण-पद सामान्य से विशिष्ट होकर प्रस्तुत होते हैं। आप देखेंगे कि इन मानवीय गुणों में ज्यादा ज़ोर काव्यालोचना में ईमानदारी और साहसपर दिया गया है जिसका मूलार्थ यहाँ क्रमशः ऑनेस्टीऔर एडवेंचरन होकर सिन्सिएरिटीऔर करेजहोता है। नामवर सिंह जी के इस विचार से हमें सहमत होना चाहिए कि ईमानदारी (सिन्सिएरिटी) का अभिप्राय साहित्येतिहास के विभिन्न कालों में भिन्न-भिन्न प्रकार से लिया गया है जैसे, छायावादी काल में ईमानदारी का अर्थ है आत्मानुभूति। छायावादोत्तर काल ने इसे बदल कर नीयतकर दिया, प्रगतिशील साहित्य में ईमानदारी वर्ग-चेतनामें बदल गई जबकि प्रयोगधर्मी कविताओं के लिए प्रामाणिक अनुभूतिको ही इसका पर्याय माना गया। सातवें दशक के बाद ईमानदारी का मतलब कवि के परिवेश के विसंगति-बोध और यथार्थ-बोध से हो गया। नामवर जी के लेखकीय चरित्र संबंधी उपर्युक्त कालगत वर्गीकरण से यह महसूस होता है कि जैसे-जैसे कालक्रमानुसार कविताओं की प्रवृत्तियां बदलीं, वैसे-वैसे कवियों की ईमानदारी और लेखकीय चरित्र के मानदंड भी बदले। साहस का अर्थ भी अब कविता में उस जोखिम से लिया जाता है जो रचना- प्रक्रिया के दौरान कवि अपने सृजन में उठाता है। ईमानदारी की महत्ता और जोखिम उठाने की बात समकालीन कविता में फिर से शिद्दत से महसूस की जाने लगी है। वस्तुतः ईमानदारी का अर्थ समकालीन कविता में कवि के उस सचेतनता-सावधानी से है जिसमें परिवेशगत आंतरिक यथार्थ की खोज कवि द्वारा अपनी सृजन-प्रक्रिया में वस्तुपरकता से आत्मपरकता की ओर यात्रा करने के क्रम में की जाती है। इसमें उससे जो चूक होती है, वही कविता के उस अनुपात में असफल होने का कारण भी बनती है। इसलिए इन काव्येतर मूल्यों की प्रासंगिकता समकालीन कविता में आज भी बनी हुई है जिस पर गंभीर कवियों का ध्यान जरूर जाना चाहिए। जो कवि सृजन में ईमानदारी और साहस को ठीक से नहीं बरतते, उनकी कविता में वस्तुगत यथार्थ उस तरह आत्मगत नहीं हो पाता जिसकी पाठक अपेक्षा करते हैं, न ही बिना जोखिम के कवि अपने रचना-समय की जड़ता तोड़ पाता है। लेकिन नामवर जी ने जिस भीरुता और कपट से इन साहित्यिक प्रतिमानों का अवगाहन किया है, वह कविता को ऊंचाई प्रदान करने के बजाए उनके व्यक्तित्व के ऊपर ही प्रश्नचिन्ह खड़ा करती है क्योंकि अब तक उनके किए-धरे के विचलन से यह स्वस्पष्ट है।  नामवर सिंह के कविता-प्रतिमानों का बचाव करते हुए नंद किशोर नवल कहते हैं कि उन्होंने किसी प्रतिमान का विवेचन स्वतंत्र रूप से नहीं किया। वह रूपगत प्रतिमानों का विवेचन वस्तु के सापेक्ष के रूप में करते हैं और वस्तुगत प्रतिमानों का विवेचन रूप के सापेक्ष। इस द्वंद्वात्मक मूल्यांकन को वे मार्क्सवादी मूल्यांकन मानते हैं। इसी तर्क से कविता की स्वकीयता (ऑटोनोमी ) और सापेक्ष स्वायत्तता को सही सिद्ध करने की जिद करते हैं और उनके प्रतिमानों को विकसित मार्क्सवादी अवधारणा के अंतर्गत लाते हैं।
     इस प्रकार, नामवर सिंह ने कविता के नए प्रतिमान में मार्क्सवाद के वस्तुगत प्रतिमानों से लिविस के रूपवादी प्रतिमानों की अंतर्द्वन्द्वात्मक समीक्षा कर बिना भारतीय परिवेश को समझे रूपवादी स्थापनाओं को प्रतिस्थापित किया है, जो अपने आवरण और कलेवर में तो प्रगतिवादी–नवोन्मेषी कविता की वकालत करता है, पर पक्षधरता के अंतर्विरोधों का खुला दस्तावेज़ साबित होता है। इन संशयग्रस्त प्रतिमानों को आज की कविता में नकारने की जरूरत है। इसके लिए हमें कविता के लोकधर्मी प्रतिमानों का अवगाहन करना होगा।   
संपर्कसहायक निदेशक, प्राथमिक शिक्षा निदेशालय, स्कूली शिक्षा एवं साक्षरता विभाग, एम डी आई भवन, धुर्वा, रांची – 834004 मोबाईल ( 0 90067 40311 और 0 7004 353 450 )

            
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2 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (03-01-2017) को "नए साल से दो बातें" (चर्चा अंक-2575) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    नववर्ष 2017 की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. गंभीर विचारणीय एवं संग्रहणीय प्रस्तुति।
    फुरसत में पढ़ेंगे जरूर ....
    सार्थक प्रस्तुति हेतु आभार

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