Sunday, December 18, 2016

संतोष श्रेयांस की कविताएं

शुक्रगुजार हूँ दिल्ली 

  ( एक )

बेमेल शब्दों के बीच
जैसे शब्द खो देते हैं अर्थ
अपनी प्रासंगिकता
ढेर सारे शब्दों के बीच भी
महसूस करते हैं अटपटा
बिलकुल तन्हा
मैं महसूस करता हूँ दिल्ली में

जैसे माँ समझ लेती है
बच्चों की तोतली भाषा के अस्फुट
आधे-अधूरे शब्दों के अर्थ
मेरा शहर समझता है मुझे कुछ यूँ
कि होते हुए विदा
भर्रा आये गले से नकले
आधे-अधूरे शब्दों की संवेदना में
गमगीन हो जाता है शहर
मेरी नम आँखों की तरह I
 ( दो )

मैं शहर के साथ बड़ा होता रहा
और शहर मेरे साथ
दुनिया में इससे बेहतर कोई दूसरी जगह
मुझे मालूम नहीं थी
शहर को भी मुझसे अजीज
शायद कोई और नहीं था I

उम्र के साथ
बढती ही गयी हमारी घनिष्ठता
और इतनी बढ़ी
कि लोग देने लगे ताना
कुछ नहीं होगा इससे
जबतक नहीं छूटेगा शहर
‘होम-सिकनेस’ हो गया है इसे
यह शब्द किसी खतरनाक बीमारी
या अपराध की तरह
उच्चारित किया जाने लगा था I

घर और लोगों के तानों
और अपनी बेकारी से त्रस्त
रोटी-रोजगार के जुगाड में चल पड़ा दिल्ली

दो पुश्तों को जन्म दे चुकी
घर के खूंटे पर जन्मी गाय
जैसे बार-बार हूँफती है
भाग आती है पगहा छोडाकर
देखती है बेबस निगाहों से मुड-मुड़कर
बेच दिए जाने के बाद
अनजान लोगो  द्वारा ले जाते हुए बलात
महसूस कर रहा था मैं
गाड़ी खुलने की प्रतीक्षा में
परिजनों से करता वार्तालाप

मैं शहर से विदा हो रहा था
और शहर मुझमे बसता जा रहा था बेपनाह I

 ( तीन )
             
दिल्ली की जो चीज मझे बहुत भायी
यहाँ की चिकनी, चौड़ी, जगमगाती सड़कें,
बला की खूबसूरत अप्सराओं सी हसीनायें
और भीड़-भाड वाली ब्लू-लाइन बसें.
जिसमे बैठने से अच्छा लगता था खड़े होना
क्योंकि इसमें चाहे-अनचाहे प्राप्त होता था
कमसिन-कंचन बालाओं का सुखद स्पर्श
उम्र का तकाजा था शायद ...

प्यार करने के बेपनाह मौके थे यहाँ
हमारी ही तरह प्रेमातुर लड़कियां भी
और प्रेमानुकुल पर्याप्त जगह भी
बुद्धा गार्डेन, रोज गार्डेन, कालिंदी कुंज,
डियर पार्क जैसे कई और पार्क
जहाँ पेंड और झाड के घने झुरमुटों
और सुरंगनुमा झाडियों के अलोते में
कई-कई जोड़े एक साथ
एक दूसरे के पीठ भर की ओट में
खुल्लम-खुल्ला कर सकते थे प्यार

वलेंटाइन-डे के अलावा
रोज-डे, किस-डे, हग-डे, जैसे प्रेम-दिवसों की
एक श्रृखला होती है इसके साथ
यहीं आकर पता लगा पहली बार 

कामदेव के वाणों से अभिसिक्त
कार्तिक में जैसे हमारे गाँवों-शहरों में
हर जगह देखे जा सकते हैं
कुत्ते-कुत्तियाँ कामक्रीड़ा में रत
इन अवसरों पर इन पार्कों में
जो पार्क कम जंगल ज्यादा लगते हैं
विभिन्न मुद्राओं में चुमते-चाटते
आलिंगनबद्ध प्रेमक्रीडा में रत
देखे जा सकते हैं प्रेमी युगल

 वैसे इस महानगर में रहना भी

किसी जंगल में रहने से कम नहीं है
धीरे-धीरे बाद में पता लगा I
  ( चार )
सुना तो था

कि बड़ा छोटा नहीं होता कोई काम
पर जो हमारे शहर में संभव नहीं रहा कभी
काम और प्यार में शर्मो-हया की यह दीवार
यहीं आकर टूटी
शुक्रगुजार हूँ दिल्ली!

यहाँ कोई राजा नहीं
सामंत या जमींदार भी नहीं
सभी मजदूर हैं हमारी तरह
मध्ययुगीन दासों की तरह
फॉर सेल का लगाये इश्तिहार
हर वक्त बिकने को तैयार

फर्क बस इतना
कि अब कोई आका नहीं है
खुद ही अपनी बोली लगा सकते हैं
खुश हो सकते हैं, जश्न मना सकते हैं
खुद को ऊँची कीमत पर बेच
किसी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हाथों I
             
  ( पांच )
यहाँ किसी के पास

ना समय है, ना संवेदना, ना दीन-ईमान
जमुना की तरह ही सूख गया है
यहाँ लोगों के आँखों का पानी

यहाँ बस होड है और हड़बड़ी
सबसे आगे सबसे जल्दी पहुँचने की

पछुआ हवाओं के प्रभाव में
श्रेष्ठता सिद्ध करने की यह हवश
हमारे शहर का भी
अब बदलने लगी है मिजाज
पर जमुना की तरह
सूअरों का सैरगाह नहीं बना है
अभी गंगा का छाडन भी I

( छह )
मेरी आँखों में

जैसे बसता है माँ का संसार
और मेरा, माँ की आँचल में
दिल्ली में होने के बावजूद
मुझमे बसा रहा मेरा शहर
और मैं शहर में.

दूर होने के बावजूद
महसूस करते रहे एक दूसरे को
सिद्दत से

मेरी ही तरह
मेरे शहर को भी रहता है इंतजार
मेरी छुट्टियों का.
महानगरीय जीवन से उबा, उकताया
जब लौटता हूँ अपने शहर
ताजा हवा का झोंका
और मिट्टी की सोंधी खुशबू
गहरी नींद से जगा देते हैं
देते हुए थपकी
बता देते हैं
शहर का सरहद आ गया है पास

खेतों में फूली आलसी-सरसों
मदमाती मंजरियों की बयार
पपीहे की पी-हू पी-हू, कोयल की मधुर तान
गेहूं की बाली संग झूमती सरसों की कतार
ऐसे सब रहते हैं मेरे स्वागत को बेताब
जैसे कोई सजनी किये सोलह श्रृंगार
मन में उमंग लिए पिया मिलन को बेक़रार

मुझे शहर का और शहर को मेरा    
रहता है इंतजार

 ( सात )

इच्छाओं, मह्त्वकांक्षाओं और जिम्मेदारियों को
पूरा करने की कोशिश में
धीरे-धीरे बसता गया दिल्ली में
और दिल्ली के तौर-तरीके मुझमे

दिल्ली जैसे महानगर में पलायन कर आये
हमारे जैसे छोटे शहर के लोगों को
महानगरीय जीवन और सुविधाओं के बरअक्स
अब अपना शहर कबाड़ी सा दिखता है
मध्ययुगीन सभ्यताओं का जीवित अवशेष
जहाँ कुछ नहीं बचा रहने लायक
विकास की कोई सम्भावना नहीं बची

यद्यपि
हमने कुछ नहीं दिया शहर को
उतना भी, जितना शहर ने हमें दिया
बावजूद इसके
शहर ने हमें कभी नहीं दिया उलाहना
हमपर कभी नहीं जताया एहसान



जैसे हम जता लेते हैं
कि शहर में हमारे जैसा कोई नहीं हुआ
और कोस लेते हैं
कि अब भी नहीं बदला शहर

कि कितना समय है यहाँ लोगों के पास
लगाने को चौकड़ी और करने को बकवास.  

 ( आठ )

अब जब हम भूलने लगे हैं शहर को
हमारे जैसे कुछ पुरानी स्मृतियों से
मुक्त होने लगा है शहर भी
और ठीक हमारी ही तरह
उसे भी उब होती है हमारी उपस्तिथि से
जब हम कोसते हैं शहर को

शहर भी सोंचता है
जो कर सकते थे आशियाने को रौशन
बना गए उजाड
जहाँ मारे जाते हैं गरियाये जाते हैं
जो ना बख्शता है उन्हें इज्ज़त
ना देता है मान
छुपाये अपनी पहचान
वहीँ जला रहें हैं दिया
कर रहें हैं उसी का गुणगान

अब शहर भी याद नहीं रखना चाहता
हमारे पलायन की तारीख
हमारी पहचान.

( नौ )
 मेरे दादा को आज भी जानते हैं

दस-बारह गांव जवार के लोग
इस शहर में आये मेरे पिता को भी जानते हैं
शहर के अन्य कई मुहल्लों के लोग
कवि होने की वजह से मुझे भी जान गए हैं
शहर के कई गणमान्य, प्रतिष्ठित लोग
कई बार तो मै इतरा लेता हूँ इस बात पर 
कि अब मुझे
मेरे पिता कि वजह से नहीं जानते लोग

दिल्ली आकर खो गया है मेरा नाम
गुम हो गयी है मेरी पहचान
यहाँ लोग मुझे मेरे नाम से नहीं जानते
नम्बरों से पहचानते हैं

मोहल्लेवाले मकान नम्बर से जानते हैं
पार्किंगवाला गाड़ी नम्बर से पहचानता है
बैंकवाले खाता संख्या से पहचानते हैं



टेली-मार्केटिंग की सुरीली आवाजवाली बालाएँ
मोबाइल नम्बर से पहचानती हैं
अब तो दोस्तों से भी पूछने पर
कि कैसे किया फोन
कहते हैं यूँ ही टिप-टाप करते हुए मोबाईल
अनायास दिख गया था तुम्हारा नम्बर

दिल्ली आने के पहले
सचमुच पता नहीं थी
नम्बरों की इतनी अपरम्पार महिमा .

 ( दस )
 ऐसा कभी नहीं हुआ अपने शहर में

कि दिन चढने तक सोये रहें हों चादर तान के
कितना भी बंद कर लें खिडकी-दरवाजे
किसी भी सुराक से चली ही आती है
एक टुकड़ा धूप लानत भेजती

किसी दिन अगर ना निकले धूप
और सोये रहे अनठिया के
तो चले आते हैं मेजर चाचा
चाहरदीवारी के बाहर से ही पुकारते
काऽऽऽ रे... संतोषवाऽऽऽऽऽ
किसी दिन ना आये मेजर चाचा
तो चला आता है बरजेसवा
अरे का हो काका आज मुह ना देखऽईबऽ

चाहे सूरज किसी दिन भूल जाये उगना
इन सबसे चाहे छूट भी जाये पीछा
तो नहीं छोड़ते उज्जड दोस्त
गली के मुहाने से ही चले आते हैं
चीखते-चिल्लाते, शोर मचाते
काऽऽऽ रे... कविया जीयत बाड़े नू
अभी ले अईले काहे ना रोड पर

सचमुच स्तब्ध रह गया था मैं
इस समाचार से
कि कालकाजी स्थित एक फ्लैट में
भूख से बेहाल, अचेत, मरणासन्न स्तिथि में
मिलीं दो युवा बहने
और साकेत में दुर्गन्ध की शिकायत मिलने पर
जब पुलिस ने तोडा एक घर का दरवाजा
लगभग संड चुकी अपनी माँ के शव के साथ 
महीनो से रह रही थी उसकी विक्षिप्त पुत्री
पड़ोसियों को जिसकी कोई भनक तक नहीं थी

सचमुच...
उस दिन से बहुत डर गया हूँ
दिल्ली से ...! • 


संतोष श्रेयांस

जन्म 16 अप्रैल 1971।  सम्पूर्ण शिक्षा दीक्षा आरा में ही हुई। रोजगार हेतु कुछ वर्ष दिल्ली प्रवास। पढ़ने की अभिरुचि के तहत दसवीं से ही कहानियां और उपन्यास खासकर प्रेमचंद शरतचंद्र, शिपुजन सहाय, बैंकिं चन्द्र, रविंद्रनाथ। खूब पढ़ा। लेकिन लेखन की शुरुआत अनायास कविता से हुई कैसे नहीं पता। 1990 से छिट पुट होती रही।  नौकरी की तैयारी और घर में विरोध से लेखन प्रक्रिया कभी धीमी कभी स्थगित होती रही। पर कविता भीतर भीतर पकती रही।

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