Thursday, April 2, 2020

लहक अंक 33 में कवि विजेंद्र का डॉ कर्ण सिंह चौहान की टिप्पणी पर प्रतिक्रिया

"मार्क्सवाद और रामविलास शर्मा की श्रद्धा -भक्ति मार्का मूल्याङ्कन द्धति" आलोचक कर्ण सिंह चौहान ने " लहक" तेतीस में मेरी मार्क्सवादी आस्था को अनेक नकरातमक शब्दों से विभूषित किया है। मैं उनके प्रति आभार व्यक्त करता हूँ। यही नहीं मेरा समग्र काव्य पढ़े बिना ही मेरी सृजन धर्मिता पर भी उन्हों ने अनेक प्रश्न चिन्ह लगाये हैं। उसके लिए भी मैं उन्हें धन्यवाद देता हूँ। उनके और मेरे रिश्ते दशकों से बहुत आत्मीय रहे हैं। उनकी मार्क्सवादी आस्था और उनके सृजन के कारण मैं उनका सम्मान करता रहा हूँ। लेकिन उन्हों ने मुझ पर जो मार्क्सवादी " कट्टरता और अंधभक्ति " के आरोप लगाये हैं उनका भी में स्वागत करता हूँ। मेरी मार्क्सवादी आस्था पर उनके तीखे प्रहारों के बावजूद मेरी आस्था वही है। क्योंकि मुझे सर्वहारा के पक्ष में पूँजीवाद से उसे मुक्त कराने और लड़ने का और कोई दर्शन दिखाई नहीं देता। और मार्क्स को खंडित कर कर्ण ने कोई सार्थक विकल्प भी नहीं सुझाया। बहुत सारी बातें मैं पिछले दो दिन से मार्क्सवादी दर्शन की मौलिकता, महत्व और गतिशीलता के बारे में कहता रहा हूँ। कर्ण मुझे मार्क्सवादी कैद में ही रहने दें। भक्ति भाव तो ऐसा ही होता है। गीता में कहा गया है , " श्रद्धावान लभते ज्ञानं " . ख़ैर। वैसे जिस दर्शन को हम मानते हैं उसे एक बार ही पढके छोड़ नहीं देना चाहिए। हमें आत्मालोचन भी करते रहना चाहिए। और उस दर्शन को बार-बार पढ़ते रहना भी जरुरी है। जिस दिन मुझे मार्क्सवादी दर्शन और उसका सौन्दर्य-शास्त्र अप्रसांगिक लगेगा मैं अपनी वैचारिक निष्ठां पर पुनर्विचार जरुर करूंगा। यह मैं मानता हूँ कि प्लेटो से लेकर मार्क्स तक पश्चिम में अनेक दर्निशिक हुए है, उन सबका भी योगदान दान है। मार्क्स ने माना है कि उसने उन सभी को आत्मसात करके ही कुच्छ अपनी बातें कही है. यह भी कि मार्क्स पूर्ण ज्ञान का दावा नहीं करता। क्योंकि चीजें विकसित होती हैं. मेरा विनम्र आग्रह है चौहान से कि अपने पूर्वआग्रहों को त्याग कर आज के सन्दर्भ में फिर से मार्क्स और उसके समृद्ध सौन्दर्य-शास्त्र को पढ़ें . मुझे आश्चर्य हुआ यह जान कर कि चौहान मार्क्सवाद को एक "विचार " भर मानते हैं। जबकि वह एक सर्वसमावेशी , समृद्ध और विकासशील भरा-पूरा दर्शन है। विचार और दर्शन में फर्क होता है। यह मैं कह चूका हूँ। इस पर आगे भी विमर्श हो सकता है। यह भी बता दूँ कि दुनिया के अधिकांश महान कवि मार्क्सवादी थे। अगर मार्क्सवादी न होते तो वे इतने महान कवि नहीं होते। मिसाल के लिए जर्मन के दो कवि हैं। एक रिल्के और दूसरे बर्टोल्ट ब्रेख्त। रिल्के भाववादी और आत्मनिष्ठ हैं। जबकि ब्रेख्त मार्क्सवादी। आज विश्व ब्रेख्त को ही बड़ा कवि मानता है। रिल्के को लोग भूल चुके हैं। तुर्की के नाजिम हिकमत , रूस के मायकोवस्की , वियतनाम के तो हु , फिलिस्तीन के महमूद दरवेश , स्पेन के लोर्का , और चिली के पाब्लो नेरुदा आदि मार्क्सवादी होने के ही कारण महान कवि होने का गौरव अर्जित कर सके। विचारधारा को कवि अपनी रगों का रक्त बनाकर ही उसे रचना में गहन चिंतन के रूप में ढालता है। मैं सक्षम औए समर्थ कवि की बात कर रहा हूँ। मेरी कट्टरता और अंध-भक्ति के चक्कर में कर्ण ने रामविलास शर्मा को भी घसीट लिया है। यह न केवल अनुचित है। बल्कि मानवीय भी नहीं हैं। शुक्ल जी के बाद अगर हिंदी में कोई शिखर आलोचक है तो वह रामविलास शर्मा। उनके सृजन का परिमाण इतना है कि उसे परखने के लिए कई जन्म लेने पड़ेंगे । वह एक साधक और महान आलोचक हैं। ऐसे लोग सदियों में कभी पैदा होते हैं। बल्कि ऋषि तुल्य। गोष्ठी ,लोकार्पण अर्थहीन दुनियादारी से ऊपर उठे हुए। एकबार उनसे जब आगरा में मिला तो कहा कि विजेन्द्र सागर से उपकुलपति पद का प्रस्ताव आया है। लेकिन मैंने मना कर दिया। वहां काम नहीं कर पाउँगा। कर्ण का कहना है , "दुःख की बात तो यही है कि हिंदी के समर्थ आलोचक और चिन्तक ( मार्क्सवादी -अपनी तरफ से जोड़ रहा हूँ ) रामविलास शर्मा ने न केवल इस श्रद्धा -भक्ति मार्का मूल्याङ्कन की शुरुआत की , बल्कि उसे स्थापित भी किया। एक बार जिस कवि को अपने पाले का मान लिए तो उसके सारे अन्तर्विरोध और न्यून्ताएं तिरोहित हो गई। जिस लेखक को विरोधी मान लिया तो उसके साहित्य में कुछ भी उत्कृष्ट हो ही नहीं सकता। यहाँ भी कर्ण ने कोई ऐसा उदहारण नहीं दिया जिस से रामविलास शर्मा का दुराग्रह प्रमाणित हो सके। ये हवाई बातें हैं। सिर्फ अपने को सुर्खिओं में बनाये रखने के लिए। लोग जाने कि कोई है जो रामविलास शर्मा को चुनौती दे रहा है। लेकिन काम करके उस स्तर का अगर चुनौती दी जाये वह उचित होगा। अन्यथा ऐसी बातों से भ्रम फैलता है। और आलोचना का स्तर भी गिरता है। मेरा रामविलास शर्मा से दशकों तक संपर्क रहा है। और अंत तक रहा -जब वह आगरा छोड़ कर दिल्ली चले आये थे। शुक्ल जी के बाद रामविलास शर्मा ही महान मार्क्सवादी आलोचक तो हैं ही। वह एक नेक इंसान भी थे । उनके पास बैठ कर हम अपनों तुच्छताओं को भूलते थे । उनकी सब कृतियों का उल्लेख तो संभव नहीं है। लेकिन उन्हों ने भारतेंदु , प्रेमचन्द , महावीर प्रसाद द्विवेदी , निराला , रामचंद्र शुक , परम्परा का मूल्यांकन और नई कविता और अस्तित्ववाद , भाषा और समाज , भारतीय संस्कृति और हिंदी प्रदेश ( दो खंड ) आदि पुस्तकों रची हैं. क्या उनमे भी उनकी कट्टरता , अंध भक्ति-भाव दिखाई देता है? अगर कर्ण में साहस था तो रामविलास शर्मा का खंडन कर कोई कृति क्यों नहीं लिखी ? अब तक क्या करते रहे.? आज वह नहीं हैं तो उन पर ऐसे ओछे और अनर्गल आरोप लगाना नैतिक अपराध ही है। रामविलास शर्मा ने उन्हीं की तीखी आलोचना की है जो जनविरोधी हैं। या फिर भाववादी होकर चीजों को परखते हैं। मैं मानता हूँ कोई भी लेखक सीमाओं से परे नहीं होता। लेकिन किसी लेखक में इतना अधिक सकारात्मक होता है कि हम उसकी सीमाओं को भूल जाते हैं। ध्यान रहे जब हम किसी बड़े या छोटे लेखक की आलोचना करें तो सप्रमाण हो। दूसरे हर लेखक का अपना दृष्टि कौण होता है। लेकिन एक बड़ा आलोचक अपनी दृष्टि का भी अतिक्रमण करता है। रामविलास शर्मा ने ऐसा किया है। बहुत कम लोग जानते होंगे। उन्होंने अपने सबसे बड़े विरोधी धुर दक्षिण पंथी और उनके तीखे आलोचक अज्ञये पर लिखते हुए कहा है , " इस परिस्थिति में जडाऊ कविता का महत्व स्पष्ट है। अनुभूति सच्ची होगी तो कविता अपने आप रच जाएगी। ....सच्ची अनुभति तलाशने वाली नई कविता से यह जड़ाऊ कविता ज्यादा टिकाऊ है। इस क्षण-भंगुर संसार में कविता भी क्षण-भंगुर हो , यह आवश्यक नहीं। अमर न हो , कुछ समय के लिए टिकाऊ तो हो। अज्ञेय की कविता जडाऊ है और टिकाऊ भी " ( नई कविता और अस्तित्ववाद ,पेज , अठत्र) कर्ण आज " मुक्त-चिंतन " और "अस्मिता " की बात करते हैं। यह दोनों बातें हमें वर्ग-संघर्ष से भटकाती हैं। ये प्रत्यय हमें अस्तित्ववाद की याद दिलाते हैं। यह दर्शन भी " स्व" और " आत्मास्तित्व " पर बल देता है। लगता है हिंदी में मार्क्सवाद के विरुद्ध अस्तित्ववाद का पुनर्जन्म हो रहा है।विजेंद्र (क्रमश ): --------------------------------------- देखें " लहक " पत्रिका तेतीस , पेज , एक सौ चौबीस





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