वह पुराना तरीका है एक आदमी को मारने का
अब एक समूह का शिकार करना है
हत्यारे एकदम सामने नहीं आते।
उनके पास हैं कई-कई चेहरे
कितने ही अनुचर और बोलियाँ
एक से एक आधुनिक सभ्य और निरापद तरीक़े।
ज़्यादातर वे हथियार की जगह तुम्हें
विचार से मारते हैं
वे तुम्हारे भीतर एक दुभाषिया पैदा कर देते हैं"
-धूमिल
बीसवीं सदी के अंत का वह आखिरी हत्यारा विचार है बाज़ारवाद जिसने इक्कीसवीं सदी की दहलीज़ पर सामाजिक-राजनीतिक और आर्थिक चिंतन के सर्वाधिक बलशाली प्रत्यय के रुप में हमारे चौबारों में दस्तक दिया है। बाज़ार को हत्यारा विचार इसलिये कहा गया है क्योंकि इसके हिमायतियों ने बड़े सुनियोजित तरीके से समूची दुनिया में एक भ्रमपूर्ण विचार स्थापित करने का उपक्रम किया है कि संसार से गरीबी, भूख़, ज़हालत और विषमता मिटाकर उसे समृद्ध, स्वतंत्र, उत्तर-आधुनिक बनाने का एकमात्र तरीका बाज़ार है। मगर ऐसा कहते हुए, जैसा कि अब हम महसूस कर रहे हैं बाज़ारवाद के समर्थकों ने इस सदी के शुरुआत में बीसवीं सदी का सबसे बड़ा झूठ हमारे सामने ला खड़ा किया है।
जिन्होंने साम्राज्यवाद की आसूरी बाँहें अपनी आँखों के समक्ष दुनिया में फैलते देखी है उनका अब मानना है कि वस्तुत: यह एक नये प्रकार का साम्राज्यवाद है जिसके क्रियाशीलन मुख्यत: आर्थिक हैं और जो समुदाय, संस्कृति, और राष्ट्र की सार्वभौमिकता को कमज़ोर करने के लिये मनुष्य के इर्द-गिर्द एक कपटपूर्ण मायावी संसार की रचना करता है जिसके मकड़जाल में उत्तर-आधुनिक होती समूची पीढ़ी कमोवेश फँस चुकी है। इस मायालोक के कई-कई नाम और रुप हैं, एक से एक मनमोहक और लुभावने, जैसे- इनफॉरमेशन हाईवे, साईबर-स्पेस, सर्फिंग, लिबरलाईजेशन, ग्लोबलाईजेशन, ग्लोबल सिटीजन्स आदि, आदि। बाज़ार के रुप और प्रकृति पर ग़ौर करते हुए यहाँ मुझे कवि शमशेर की ये पंक्तियाँ याद आ रही हैं जिसे यहाँ देना लाज़िमी होगा -
इल्मों-हिक़मत, दीनो-इमां, हुस्नो-इश्क
जो चाहिए कहिए, अभी बाज़ार से ले आता हूँ।
यानी कि बाज़ार की मूल अवधारणा ही है कि संसार की हर चीज़ खरीदी और बेची जा सकती है। पूरी धरती को ही यह बाज़ार के रुप में प्रस्तुत करती है। यह एक ऐसा सर्वग्रासी विचार है जिसके अंतर्गत सिर्फ़ वही वस्तु दुनिया में बचेगी जो बिक सकती है। इसलिये मनुष्य जीवन के नितांत व्यक्तिगत विषय, यौन-अभिरुचियों से लेकर प्रेम, अंतरंगता, यश और ईमान भी अब बाज़ार का हिस्सा बन रहे हैं। साहित्य से संवेदना तक इसका प्रसार हो चुका है। बाज़ार के द्वारा आदमी की संवेदना को जीवन में नहीं, चीज़ों पर केंद्रित किया जा रहा है। तभी तो आज का आदमी, आदमी को नहीं चीज़ों को जुटाने की जुगत में लवलीन है ! मार्क्स ने सही कहा था - "पूँजीवाद उपभोक्ता वस्तुओं के प्रति ऐसी आसक्ति रचता है जहाँ संसार में वस्तुएँ ही प्रेरक तत्त्व बन जाती है और जीवित मनुष्य केवल आर्थिक श्रेणियाँ भर बनकर रह जाते हैं। मानवीय संबंधों में जो कुछ ठोस और स्पंदनशील है, वह भाँप बनकर उड़ जाता है और बेज़ान चीज़ें सबसे महत्वपूर्ण होकर बची रह जाती है।"
बाज़ार के बीजगणित को समझने के लिये बाज़ार के उद्भव और विकास की कहानी जानना ज़रुरी है। आखिर वे कौन सी परिस्थितियाँ और कारक हैं जिसने विकास और आधुनिकता के नाम पर बाज़ार जैसी एक पूर्ण मिथ्या अवधारणा को अंतर्राष्ट्रीय फलक पर इतनी हवा दी है ? इतिहास बताता है कि पश्चिमी राष्ट्रों की संस्कृति उद्योगों से उद्भूत संस्कृति रही है। वहाँ की परंपराएँ औद्योगिक क्रांति के प्रभाव में पहले ही नष्ट हो चुकी है और जो शेष बची थी उसे दो विश्व युद्धों ने तहस-नहस कर दिया। दूसरे महायुद्ध के बाद साम्यवाद, शीतयुद्ध, एशिया-अफ़्रीका में उभरता राष्ट्रवाद, उपनिवेशों की समाप्ति के कारण संसाधनों की कमी, श्रम - बाज़ार की बढ़ती कीमत, हड़ताल, तालाबंदी, छात्र-आंदोलन और पेट्रोल की बढ़ती कीमत के साथ उर्जा का गहराता संकट पूँजीवादी औद्योगिक व्यवस्था के लिये भयावह सिद्ध हुए। इन स्थितियों में एक नयी व्यवस्था जिसमें उत्पादन की नयी प्रणाली हो, नये संसाधन आयें और वैकल्पिक उर्जा के स्रोत खोजे जायँ, की आवश्यकता पर बल दिया क्योंकि पूँजीवादी और साम्यवादी दोनों ही तरह के देश आर्थिक मंदी के दौड़ से गुज़रने लगे थे। फलत: इसका समाधान हुआ इलेक्ट्रॊनिक्स, डिजिटल-शोध , चिप्स, कंप्युटर के क्षेत्र में की गयी खोजो, प्रयोगों और इनकी बढ़ती उपयोगिता में। इस तरह उत्तर-औद्यौगिक की नींवें पड़ी जिसके उदर से भूमंडलीकरण का प्रादुर्भाव हुआ। उल्लेखनीय है कि इसके विचार और संरचना के फैलाव में सूचना-संचार क्रांति का विशिष्ट योग है। साथ ही सोवियत संघ और पूर्वी योरोप में साम्यवादी विचारों को 'सेटबैक' लगने के कारण विश्व का राजनीतिक संतुलन पूँजीवादी राष्ट्रों के पक्ष में एकतरफ़ा हो गया। विचारधारा के टकराव के स्थान पर साम्यवाद और पूँजीवाद , दोनों एक-दूसरे के निकट आ गये जो एक प्रकार से साम्यवादी सिद्धांतों का पराभव भी कहा जा सकता है, परिस्थितिजन्य ही सही पर सच है। अस्तित्व की रक्षा के लिये, लगता है उनमें एक प्रकार का संगम (कनवर्जेंस) हो गया। ऐसे हालात ने बीसवीं सदी के अंत में उभरने वाले भूमंडलीकरण की ठोस पूर्व-पीठिका तैयार की। गौरतलब है कि आज रूस बाज़ार की अर्थव्यवस्था का पोषक, - अब एक पूँजीवादी राष्ट्र का नाम रह गया है जो मार्क्सवाद को तिलांजलि देकर रूसी राष्ट्रवाद पर गर्व करता है। आठ बड़े राष्ट्र ( जिसमें रूस भी शामिल है) का समूह, जिसे 'गिरोह' कहना ही अधिक उपयुक्त होगा, जी-8 के नाम से पूरी दुनिया में मशहूर है। यही पूरी दुनिया के लिये अर्थव्यवस्था की दशा और दिशा भी तय करता है। विश्व-स्तर की आर्थिक संस्थाएँ आई.एम.एफ., वर्ल्ड बैंक और डब्ल्यु.टी.ओ. इनके मुखौटे हैं जिसे पहनकर ये साम्राज्यवादी राष्ट्र आर्थिक उदारवाद के नाम पर तीसरी दुनिया के देशों पर अंतर्राष्ट्रीय व्यापार की शर्तें लादते हैं और उनका शोषण करते हैं । विरोध का स्वर उठने पर ये इन देशों पर तरह-तरह के आर्थिक प्रतिबंध लगाकर उनकी आर्थिक दशा चरमरा देने को भी तत्पर रहते हैं और उनके विकास की रीढ़ ही तोड़ देते हैं। इस तरह शोषण के लिये खुली छूट का नाम 'उदारीकरण'और 'खुलापन' है। गौर से देखें तो यह समूचा खेल भी राष्ट्र-राज्य की पारम्परिक शक्तियों द्वारा नहीं, बल्कि उसके ही अंदर मौजूद चंद ' पावरफुल' मल्टीनेशनल कंपनियों ' के द्वारा ही खेला जा रहा है जिसके आसूरी आगोश में पूरी दुनिया आती जा रही है। अगर हालात यही रहे तो वह दिन दूर नहीं जब विकसित देशों की संप्रभूता इन्हीं मुट्ठीभर मल्टीनेशनल्स के हाथों में आ जायेगी, यानि चंद धनाधीशों का राज़ पूरी धरती पर होगा। ये सरफ़िरे लोग दुनिया को कहाँ ले जायेंगे, बुद्धिजनों को इस पर विचार करना चाहिए।
हमारे देश में विज्ञान और प्राद्यौगिकी की धीमी विकास का होना स्वाभाविक है।क्योंकि हमारा देश कृषि आश्रित अर्थव्यव्स्था पर टिकी है। लेकिन इस अर्थव्यवस्था की अपनी जीवन-शैली है,अपनी परम्पराएँ हैं।उनसे नि:सृत लोककला और् संस्कृतियों में रमते हुए लोग यहाँसाधारण किंतु सुखद और पवित्र जीवन जीते हैं। बारत के बाज़ार के रुप में खुल जाने पर साम्राज्यवादी राष्ट्र अपने ईलेक्ट्रॊनिक्मीडिया के माध्यम से हमारे परिधानों, साज-सज्जा, खान-पान, तथा भाषा यानि संपूर्ण परंपरागत जीवन-शैली पर हमला बोल रहे हैं। भविष्य में यह हमला और भी कई गुणा तेज होने की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता।इस हमला में साम्राज्यवादियों का अमोघ हथियार संचार है। बाज़ार संचार का उपयोग कर ही हमारे उपर डोरे डालती है। यहाँ मैं 'युगतेवर' के संपादक श्री कमल नयन पाण्डेय जी एक आलेख के बहुमूल्य विचार से खा़सा इत्तेफ़ाक रखता हूँ जो संचार माध्यमोंके बाज़ारवादी भूमिका को निम्न रुप में प्रस्तुत करता है- "संचार विविध समाचारों,संदेशों,सूचनाओं,विविध मनोरंजक कार्यक्रमों को आम आदमी तक पहुँचाता है।ये समाचार, संदेश, सूचना,मनोरंजक कार्यक्रम व विज्ञापन कैसे हों ,ये वे शक्तियाँ तय करती हैं जिनके आधीन संचार होता है।कहना न होगा कि आज प्राय:संचार बाज़ार की कठपुतली बन चुका है।ऐसे में संचार उन्हीं विषय-वस्तुओं को लेकर आम आदमी तक ,श्रोता-दर्शक तक पहुँच रहा है जिससे बाज़ार का हित सिद्ध हो सके।बाज़ार का हित-सिद्धि तभी संभव है, जब उपभोक्तावादी मन:स्थिति का सृजनहो। ज्ञातव्य है कि बाज़ार को ग्राहक मनुष्य चाहिए।भोगवादी मनुष्य चाहिए। ग़ैरज़रुरी साधनों का क्रयाकांक्षी मनुष्य चाहिए। ऐसे उपभोक्तावादी ग्राह्क मनुष्य का सृजन तभी संभव है जब मानव-समाज से, विचार, सहानुभूति, संवेदन,सरोकार, प्रेम,दया,करुणा, ममता, परस्परता बेदखल कर दिया जाय। आज संचार के ज़रिये बाज़ार यही कर रहा है।
"बाज़ार हल्ला बोलकर कभी हमला नहीं करता। वह संचार के ज़रिये धीरे से मनुष्य की चेतना में घुसता है।उसका आदमीनामा तय करता है। चुँकि संचार बाज़ार का हित - साधक है, इसलिये संचार बाज़ार के मुताबिक मनुष्य के सोच, सपने, धारणाएँ,विश्वास, दृष्टिकोण,तय करता है। कहना पड़ेगा कि बाज़ार ने संचार को इस आशय से तैनात किया हैकि वह नैतिक,और विचारशील मनुष्य की ज़गह भोगवादी ग्राहक-मनुष्य तैयार करे।त्याग की संस्कृति को अपदस्थ कर भोग की संस्कृति स्थापित करे।लोकवादी प्रेरक नायकों को विलोपित करे।सामाजिक सरोकार एवं परस्परता के बरअक़्स आत्मकेंद्रित भोगवाद को महिमामंडित करे।आज संचार इसी अपकृत्य में मशगूल है।"
कमलनयन पाण्डेय जी के उपरोक्त विचार-विथियों से संचार की नीयत का साफ़ पता चल जाता है।किंतु सवाल है कि संचार की इस भूमिका का सूत्रधार कौन है? उत्तर स्पष्ट है-वही मल्टीनेशनल्स जिससे हमारी सरकारें और इस देश की नवधनाढ्य कंपनियाँ विकास का नारा देकर गँठजोड़ करती है। सरकार में जो लोग होते है वे बाजा बजाते हैं समाजवाद का पर उनके सिर पर पर पूँजीवादियों का हाथ होता है।इसलिये संचार बाज़ार के इशारे पर काम करता है।
Samajwad vichardhata lupt ho chuki hai .
जवाब देंहटाएंDas capitalism ko must kiya ja raha hai
ukt prastuti de spast hai
विचारपूर्ण आलेख ....
जवाब देंहटाएंvidwataa poorn vivechan .
जवाब देंहटाएंhttp://bulletinofblog.blogspot.in/2014/05/blog-post_28.html
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