बुधवार, 5 मार्च 2014

रूपवाद और हिंदी कविता

ब डा.नामवर सिंह की विवादित आलोचन-पुस्तक `कविता के नये प्रतिमान´ के रुपवादी रुझानों की तीव्र भर्त्सना होने लगी तो पुस्तक के द्वितीय परिवर्धित संस्करण की भूमिका में इसका स्पष्टीकरण देना उनकी मजबूरी हो गयी। पर उससे बात बनी नहीं। वह वात बनकर रह गयी। भूमिका में उनके दिये स्पष्टीकरण को पढ़कर किसी असावधान कवि-पाठक को भ्रम हो सकता है कि हिन्दी कविता में मार्क्सवादी आलोचना पद्धति के विकास की दिशा में उनके द्वारा नवाचारी प्रयोग किये गये हैं और इससे नयी समीक्षा-पद्धति को बल मिला है। पर कोई यदि उसकी तह में जाकर देखे तो उनका गाना वही पुराना लगता है अर्थात उनका झुकाव जिन रुपवादी प्रवृतियों की ओर पहले था, उन्हीं के समर्थन में यहाँ तर्क जुटाये गये हैं। `सापेक्ष स्वतंत्रता´ ,`स्वायत्तता´( ऑटोनॉमी) और 'अस्मिता´ (आइडेन्टिटी) के वाग्जाल में फँसाकर और जेरमी हॉथॉर्न और लीविस जैसे पश्चिमी चिंतकों के विचारों को उद्धृत कर वे आधुनिक भारतीय काव्य-चिंतन में जिस रूप-तिरस्कार की बात करते हैं और देशज आलोचना पद्धति को स्थूल समाजशास्त्रीय आलोचना की संज्ञा देते हैं उसकी जड़ें इस देश में न है,न कभी थी। वे उधार ली गयी और कागजी बातें हैं जिसकी फलश्रुति यह हुई कि स्वातंत्र्योत्तर भारत में काव्य के नये प्रतिमान के नाम पर लद्धड़ गद्यात्मक कविता और किताबी कविता लिखने वाले कवियों की बड़ी फौज खड़ी हो गयी जिनकी कविताएँ पढ़कर कविता के प्रति जनमानस का रुचिभंग हुआ। स्पष्ट है कि उन रचनाओं को जनता का स्नेह और समर्थन नहीं मिला। इसके लिये मुझे उन कवियों के उदाहरण गिनाने की भी जरुरत नहीं, बल्कि यह पाठक को स्वयं महसूस होता है। इसलिये इस आलोचना-श्रेणी का विरोध भी इसके उद्भवकाल से ही प्रारंभ हो गया और प्रबुद्ध हिन्दी-प्रेमीगण इसे हिन्दी में मार्क्सवादी आलोचना पद्धति का विकास नहीं, प्रत्युत जनवादी कविता से विमुखीकरण के तौर पर देखने लगे जो विचार और सोचने की संपूर्ण प्रक्रिया को जीवन और जनता से काटकर उन रुपवादी आग्रहों की ओर मोड़ती है जो सृजनात्मकता की ओट में मात्र सपाटबयानी और भाषाई जादूगरी का नमूनाभर प्रतीत होती है। इस कृत्य का एक और परिणाम भी अब सामने है कि राजेंद्र यादव जैसे अलेखक-साहित्यकार साहित्य से कविता की मुक्ति की बात उठाने लगे हैं और 'कविता बनाम कथा' जैसा विवाद खड़ाकर उसके पक्ष में अपनी थोथी दलीलें भी दे रहे हैं। 



पर जो जनपद के कवि हैं और सच्चे कवि हैं उनको नामवर जी के इन बनावटी प्रतिमानों की कभी जरुरत महसूस नहीं हुई। उन्होंने उनकी बातों पर न तब ध्यान दिया और न अब ध्यान देते हैं। उन्होंने अपने आस-पास के जनजीवन, लोग, घटित घटनाएँ और प्रकृति को गौर से देखा और जो कुछ महसूस किया उसे बस पन्नों पर उतार दिया सहज-सुबोध शैली में। और रुप उसमें स्वयं आकर बैठ गया । यह काव्य-अंतर्वस्तु का विलक्षण गुण है जो ज्ञानेंद्रियाँ खुद ग्रहण करती हैं और भाषा भी तदनुरूप अपने को रच लेती है। इसीलिये मुक्तिबोध, नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल, त्रिलोचन और विजेंद्र की कविताएँ (उपेक्षाओं के कारण) भले ही देर से दृश्य में आयीं पर लगातार वहाँ ठहर कर उनके पाठकों का कंठहार बन रही हैं और उनकी काव्यानुभूतियाँ हिन्दी आलोचना में रुपवादी प्रतिमानों को खारिज़ करते हुए जनवादी काव्य-विवेक भी स्थापित कर रही हैं, या कहें कि ‍ रुपवादी रुझानों के विरुद्ध और उसके समानांतर हिंदी काव्याकाश में एक नयी कवितालोचना-परंपरा का अभ्युदय हो गया है, जिसका मूलाधार सर्वसाधारण का भोगा हुआ वह सत्य है जिसे हम इन्द्रियबोध के स्तर पर ग्रहण करते हैं। यहाँ यह अंकित करना समीचीन है कि यह परम्परा लोकधर्मी काव्यालोचना परंपरा है जिसका प्रसन्न विकास हमें डॉ. रमाकांत शर्मा की आलोचना-दृष्टि में मिलता है।  उनके संपादन में हाल में ही एक नयी आलोचना-कृति `प्रतिमानों की प्रासंगिकता´ आयी है जिसके अंतिम दो आलेख भी उन्हीं के द्वारा जे.एन.यू. के तत्वावधान में दिये गये व्याख्यानों के अंश हैं।




`काव्य-संप्रेषण और इंद्रियबोध´ शीर्षक से प्रस्तुत अपने पहले आलेख में नामवरी प्रतिमान `सपाटबयानी´ से असहमति जताते हुए काव्य की संप्रेषणीयता को अक्षुण्ण रखने के लिये डा. रमाकांत शर्मा ने कविता में ऐन्द्रिक बिंबों के रचाव पर बल दिया है जो बकौल समालोचक, `बिना सच्चे जीवनानुराग के कविता में उतार पाना संभव नहीं हो पाता।´



"इंद्रियबोध बिम्ब रचने में सहायक होता है और कविता को अमुर्त होने से बचाते हुए उसे बड़े संसार से जोड़ता है।....काव्यबिम्ब अगोचर (अप्रत्यक्ष) को गोचर (प्रत्यक्ष) और अमूर्त को मूर्त बनाकर प्रस्तुत करता है। अपनी भावनाओं को मूर्त रुप देने के लिये कवि विशेष रुप-व्यापार सूचक शब्दों का प्रयोग करता है। चित्र विधान करता है। ये जीवनधर्मी चित्र-बिम्ब ही कविता में प्राण फूँकते हैं।" आगे वे कहते हैं- "रुप और शब्द के बिना न तो संसार की सत्ता संभव है, न साहित्य की। कविता के लिये सिर्फ़ विचार ही नहीं, चित्रमय कल्पना की भी आवश्यकता होती है। कविता के कलात्मक सौंदर्य का गहरा संबंध मनुष्य के इंद्रियबोध से है। विचार के भाव में पंख लगने चाहिए और भावों के साथ इंद्रियबोध की तरलता रहनी चाहिए। वस्तुत: जिसे हम `रूप´ कहते हैं वह संवेदन-प्रक्रिया का ही रूपायन है। अगर ऐसा नहीं है तो बकौल केदारनाथ अग्रवाल `कलम की चोंच को शब्दों की समाधि पर घिसना है। जिन्दगी को जीना नहीं रुपोश बनाना है।´ 



यह विचार कवियों के लिये अत्यंत महत्वपूर्ण है। यहाँ कविता में बिम्ब के जबरन घुसपैठ से परहेज की बात भी बताई गयी है। अगर कवि का लक्ष्य स्पष्ट न हो तो चित्रात्मकता हर बार अंतर्वस्तु का प्रकटीकरण नहीं कर पाती, क्योंकि वह बिम्ब का रुपाकार नहीं ले पाती। नतीजा, कोरी वाग्विदग्धता का शिकार हो जाती है। इससे कविता का अनिष्ट होता है। रामचंद्र शुक्ल जी को सप्रमाण रखते हुए डा. शर्मा की यह मूल्यवान स्थापना है कि "विचार और दर्शन यदि कविता में सीधे-सीधे उतर आते हैं तो कविता का सौंदर्य नष्ट ही होगा। वह बोझिल और उबाऊ हो जायेगी। लेकिन वे ही अनुभव का हिस्सा बनकर जब संवेदनात्मक औए इंद्रियबोधात्मक रुप में प्रस्तुत होते हैं तब प्रभावी, विश्वसनीय और आत्मीय हो उठते हैं। इस तथ्य की उपेक्षा के कारण ही समकालीन कविता का अधिकांश हिस्सा पटरी से उतरा जान पड़ता है।´´


हिन्दी में सपाटबयानी को कविता का प्रतिमान मानकर जिन कवियों ने अपनी रचनाओं में वक्र-भाषा का प्रयोग किया और तनाव और जीवन के विरुपण पर ही अपने लेखन को केंद्रित रखा, उनकी रचनाएँ इतनी जटिल और दुर्बोध हो गयी कि वे जनमानस में उतर नहीं पायीं अर्थात कविता की नीरसता और उबाऊपन ने उसकी पाठकीयता को बुरी तरह प्रभावित किया। रघुवीर सहाय, श्रीकांत वर्मा इत्यादि की कविताएँ हमें कहीं नहीं ले जाती क्योंकि वहाँ भाषाई जादूपन ही अधिक है। इसलिये डा. रमाकांत शर्मा जी का मत है कि भावबोध को अनिवार्यत: इंद्रियाबोध ही होना चाहिए। अनुभव, कल्पना और माध्यम की अंत:क्रिया ही अच्छी रचना को जन्म दे सकती है।, - डा. रमाकांत - "यहाँ यह कहना अप्रासंगिक नहीं होगा कि उद्भावना में अनुभव बेहतर ढंग से ढलकर प्रत्यक्षीकृत होता है। यही वह भूमि है जहाँ कविता संगीत और चित्रकला के करीब होती है। इनका संतुलन ही रचना को संभाल-सँवार सकता है। रुप और वस्तु का द्वंद्वात्मक संबंध रचना के आस्वाद को बढ़ाता है।


"दरअसल, खतरा 'रुप' या 'इंद्रियबोध' से नहीं है। रुपवाद और इंद्रियबोधवाद से है। इंद्रियबोधवाद का सोच पश्चिम की देन है। इसने नवरीतिवाद का मार्ग प्रशस्त किया है। इंद्रियभोगवाद की अंतिम परिणति प्रकृतवाद में होती है। अत: इससे बचने की आवश्यकता है। हमारे आलोचकों को भी मुक्त-मनीषा का परिचय देना चाहिए। इधर पश्चिम का आतंक उन पर छाने लगा है। कथ्यबोध और गुणबोध ही कविता को `काव्यराग` का दर्जा प्रदान करते हैं। ऐसी कविताएँ केवल रुप नहीं निहारती, बल्कि हृदय की आहट सुनती है।"


दूसरे व्याख्यान में आलोचना के साथ कविता के अ‍ंतर्द्वंद्व और अंतर्संबंध को रेखंकित किया गया है। कविता में आलोचना की भूमिका, उसकी टकराहटें, उसकी सामंजस्य की उपयोगिता, खराब आलोचना के कारण, उसके स्वस्थ विकास के निमित्त किये जाने वाले उपाय और काव्यालोचना के दायित्व की विशद चर्चा यहाँ हुई है। इस आलेख में निहित विचार-श्रृखलाएँ आलोचना की स्वस्थ परम्परा की स्थापना के फलितार्थ बहुमूल्य सुझाव देते हैं जो आलोचना-कर्म के गुण-दोष को परखने में हमारी बुद्धि को सजग और चेतस बनाते हैं। कहा जा सकता है कि इन दोनों संभाषणों के बहाने डा.शर्मा ने एक तरह से हिन्दी कविता और उसकी आलोचना-विधा पर गहराई से विचार-मंथन करते हुए कविता के सही प्रतिमान तलाशे हैं और उसकी आलोचना के श्रेष्ठ मानदंड रचे हैं जिस पर चिंतनशील पाठक और कवियों को गंभीरता से मनन करना चाहिए। जहाँ एक ओर यह हमें सच्चा कवि बनने की राह बताता है वहीं दूसरी ओर उस लोकधर्मी आलोचना-परम्परा से जोड़ता है जिसकी जड़ें इस देश की माटी में है। प्रसन्नता इस बात से होती है कि समीक्षक ने कहीं भी पश्चिमी विचारों को उधार लेकर काव्य-मूल्यों की सृष्टि नहीं की है। बल्कि अपनी आँखों देखा-परखा, और स्वयं के द्वारा अनुभूत।


रमाकांत जी की समग्र आलोचना-दृष्टि के मूल में वह समय और लोक है जिसे जनपदों में कवि अपने आस-पास घट रही चीज़ों के इंद्रियबोध से ग्रहण करता है। इनके विचार हमें निरा किताबी होने से बचाते हैं। मार्क्सवाद की भी सही ज़मीन यहाँ मिलती है। वे जगत और प्रकृति को बुर्जुआ नेत्रों से नहीं देखते। इसलिये उनकी दृष्टि प्रकृति-सौंदर्य के साथ श्रम-सौंदर्य पर टिकी रहती है। वे इसके संश्लेषण(या कहें योग) को कविता का जीवन समझते हैं। वे कविता में समाज, प्रकृति, जीवन-जगत और लोक की गतिकी और द्वंद्व के पक्षधर हैं और उसके भीतर समाविष्ट क्रियाशील बिम्बों को कविता का रचक मानते हैं पर यह सही है कि उसका प्रत्यक्षीकरण कविता में बिना सघन जीवनानुभव के संभव नहीं हो पाता। मात्र कला को ही सर्वस्व मानकर जो इसकी अनदेखी करते, वहाँ पाठक को रिझाने के लिये कवि को भाषा-शिल्प और भावबोध की जगह विचारबोध का सहारा लेना पड़ता है जो जीवन के ठीक करीब नहीं होता और इसलिये वह रचना रुपवादी प्रवृति की ओर मुड़ी होती है। यही कारण है कि उनकी रुपवादियों से कभी पटी नहीं और नामवर सिंह जी (जो उनके गुरुवर भी हैं ) के कविता के नये प्रतिमानों के रुपवादी झुकाव के कारण नकार दिया, हालांकि 'आधुनिक साहित्य की प्रवृतियाँ', 'इतिहास और आलोचना', और 'छायावाद' जैसी आलोचना-कृति के रचने तक वे नामवर जी के साथ और उनके पक्ष में खड़े लगते हैं। पर नामवर जी की आलोचना दृष्टि में बाद में हुए मौलिक परिवर्तन (रैडिकल चेंज) से खीझकर डा. शर्मा ने अपने हाथ खड़े कर दिये और समानांतर उस आलोचना-परम्परा को अर्थवत्ता और सूझ-समझ प्रदान किया जो जनता के साहित्य का सच्चा हिमायती है। यह करते हुए रुपवादी रुझान के विरुद्ध उनका अपना ठोस वैचारिक आधार रहा है जो उन्हें जनवादी आलोचना के शीर्ष पर बैठे आलोचको की पंक्ति में ला खड़ा करता है। पर रुपवाद का मायाजाल भी बड़ा प्रबल होता है क्योंकि वह सच्चाई को बड़ी चतुराई से ढक लेता है, इस कारण उनको उपेक्षा का शिकार भी होना पड़ा है। इसके लिये डा.शर्मा के ही शब्दों में, 'वह ज़मीन की धूरी से धुरी हुई `विदूषक मुहावरे´ का प्रयोग करता है।'


नामवरकृत 'कविता के नये प्रतिमान' पर अपने विचार रखते हुए प्रसिद्ध जनवादी समीक्षक डा. जीवन सिंह ने कहा है कि 'यह कृति वैचारिक विचलन का ऐसा दस्तावेज है जो नाम परिगणन के अलावा कहीं से भी यथार्थवादी कला के पक्ष में खड़ा दिखाई नहीं देता। कदाचित स्वाधीनता प्राप्ति के बाद के छठे दशक में परिमल ग्रुप के सबसे बड़े पैरोकार विजयदेव नारायण साही के तत्कालीन रुपवादी एवं विभ्रमकारी साहित्य-चिंतन की यह अदृश्य और गहरी छाया नामवर सिंह जी के इस रुपांतरित चिंतन पर बहुत स्पष्ट है। कविता के नये प्रतिमान के नाम पर यहाँ जो प्रतिमान और निकष सामने निकलकर आये हैं, उनके उपर-पश्चिम की 'नयी समीक्षा' और हिन्दी के परिमलीय चिंतन की इतनी गहरी छाप है कि आज़ादी के बाद के हिन्दी साहित्य-चिंतन में इन प्रतिमानों की चर्चा विवादों के क्रम में जितनी हुई, उतनी वाद और संवाद के क्रम में नहीं, आचार्य रामचंद्र शुक्ल और डा. रामविलास शर्मा के साहित्य-चिंतन पर भी विचारकों और पाठकों की असहमतियाँ कम नहीं हैं, पर इनके यहाँ चिंतन-परम्परा की जो कंसिस्टेंसी और विश्वसनीयता है, वह नामवर जी के परवर्ती-चिंतन में इतनी कम है कि उसने यथार्थवादी साहित्य-चिंतन में विभ्रम और भटकावों को ज्यादा ताकत प्रदान की है। इसका परिणाम यह हुआ कि यथार्थवादी साहित्य-चिंतन के पक्ष में उनकी भूमिका महाभारत के भीष्म और द्रोणाचार्य जैसी शायद न चाहते हुए भी हो गयी।" अत: देखने वाली बात यह है कि इसी प्रभाव में नामवर जी ने बड़े कवियों को दरकिनार कर छोटे और मँझोले कवियों को आगे किया। पर उतनी ही खड़ी यह भी सच्चाई है कि इस`वामपंथ अवसरवाद´ को समय ने भी उसी तरह आज दरकिनार कर दिया है।


'कृति ओर' अंक-21, पृष्ठ 12 पर डा. रमाकांत शर्मा ने इन नये प्रतिमानों की अच्छी खोज-खब्रर ली है। वहाँ बिन्दुवार इन तथाकथित प्रतिमानों के गुण-दोषों की विवेचना की गयी है और यह बतलाया गया है कि कैसे और किन कारणों से ये काव्य-प्रतिमान कालक्रम में अप्रासंगिक हो गये। लेकिन पहले यह जानना जरूरी है कि ये नये प्रतिमान हैं कौन-कौन से। ये हैं- सपाटबयानी, विसंगति, विडम्बना, तनाव, सृजनशीलता (भाषा की), अनुभूति की जटिलता, नाटकीयता और ईमानदारी(क्यों?) और प्रामाणिकता। श्रम, प्रकृति-सौंदर्य और संघर्ष के क्रियाशील बिम्ब इंद्रियबोध से रुपाकार ग्रहण करते हैं जबकि ऊपर के प्रतिमानों का मूल संबंध मानव-मन और वहाँ उत्पन्न विचारों से हैं, यहाँ वस्तुगत भावबोध आत्मगत नहीं हो पाता, खाली आत्मग्रस्तता ही रह पाती है। निश्चय, ये कलावादी कविता के प्रतिमान हैं जहाँ जीवन और लोक का स्थान वह नहीं होता जो होना चाहिए। इसलिए सिर्फ़ चाक्षुष सच्चाई का बयान करती है, जो सच्चाई का एक पहलूभर हो सकता है,उसका सर्वांग नहीं। उसकी तह में पैठे अंतर्विरोध, संचेष्टा और संवेग का वहाँ भान नहीं होता। फलत: जिन कवियों को इन प्रतिमानों के आधार पर प्रस्तुत किया गया, उसकी सूची से नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल, त्रिलोचन (पश्चात-परम्परा में विजेंद्र) जैसे कवि बाहर हो गये। यह मध्यमवर्गीय बुर्जुआ सोच-शैली की देन हैं जो आजादी के बाद के नवधनाढ्य समाज, जो पाश्चात्य-संस्कृति और विचार-मात्र को ही विकास का मानक मान बैठे थे और जिनका अनुभव छिछला था, जो परतंत्र भारत में भी अंग्रेजीयत के पोषक थे, जिनमें भारतीयता का नितांत अभाव था।


परिणाम भी सामने आया। रुपवादी चिंतन से निकले विचार-बोध से रची कवितायें केंद्र में आने लगी और कविता के सच्चे साधक कुछ समय के लिये हाशिये पर चले गये। पर समय सब का बराबर हिसाब कर देता है। जब इन कविताओं से पाठकों के मन में घोर वितृष्णा पैदा होने लगी और साथ ही उपेक्षित कवि भी हिम्मत न हारकर दृढ़ता से अपने रचना-कर्म में प्रवृत रहे तो फिर लोकधर्मी और जनवादी कविताओं के दिन बहुरने शुरु हुए जिससे कविता के रूपवादी रुझानों को गहरा झटका लगा, ठीक वैसे ही जैसे रीतिकालीन कवियों को रूप की अतिशयता के बावजूद आज नकार दिया गया है क्योंकि वह जनसामान्य के जीवन-संघर्ष और द्वंद्व की रचना नहीं थी और राजदरबारी कलात्मकता व रुझानों से प्रेरित थीं । 


एक बात और, डा. नामवर सिंह जी ने बड़ी ही वाकपटुता से इन प्रतिमानों को मान्यता देते हुए बार-बार यत्र-तत्र अपने संभाषणों में कहा है कि वे कोई निष्कर्ष नहीं दे रहे हैं क्योंकि शायद उन्हें हमेशा ही यह बोध हुआ है कि ऐसा करते हुए कहीं न कहीं कविता और कवियों के साथ अन्याय हो रहा है। अत: सब बात कहते हुए भी किसी बात की जिम्मेवारी अपनी आलोचना में उसके प्रतिमानों के बारे में अपने उपर नहीं ली जो साहित्य में गहरी और महीन चाल है। जवाहर लाल विश्वविद्यालय, नई दिल्ली के प्रथम पुनर्नवा पाठ्यक्रम में दि. 14 अक्तूबर, 1993 को उन्होंने भाषण देते हुए कहा कि "किसी सिद्धांत का सहारा लेकर यदि कविता को जाँचेगे तो खतरे हैं। चूक हो सकती है। गलतियाँ हो सकती है।....निष्कर्ष के रुप में मैं यही कहूँगा कि कुलमिलाकर मैंने आपको कोई निष्कर्ष नहीं दिया है। आपको कोई 'केनन' नहीं दिया है। मैंने सिर्फ़ यह कहना चाहा है कि कविता के परख के जो निकष हैं, वह चाबी नहीं है कि हम आपको दे दें कि ताला खोल लीजिएगा। यह हस्तांतरित नहीं किया जाता। अर्जित किया जाता है। हर पाठक अर्जित करता है। यह टिकट 'नॉन ट्रांसफरेबल' है। फिर भी हमलोग ट्रांसफर कर दिया करते हैं । कविता का निकष 'नॉन ट्रांसफरेबल' होता है। हर पाठक, हर सहृदय पाठक स्वयं अर्जित करता है। और वह जजमेंट अपना हुआ करता है। दूसरों की दी हुई चाबी से खोले जाने वाले कमरे और होते हैं और ताले भी और हुआ करते हैं। कविता वह ताला है जिस ताले में हर आदमी किसी दूसरे की दी हुई चाबी नहीं लगाता है। बल्कि खुद अपने-आप खोलता है। अर्थ, रस भावबोध प्राप्त करके और अपना जजमेंट देता है कि मुझे ऐसा लगता है कि हर जजमेंट इस मामले में निहायत इंडीभिडुअल (व्यक्तिगत) होता है । और उस जजमेंट में, अपनी साधना में जितनी ताकत होती है उतनी ही उसको सामाजिक स्वीकृति प्राप्त होगी।´´


पर मसला यह है कि अगर नामवर जी कविता के विषय में इतने ईमानदार, सहृदय और उदार रहे हैं तो फिर 'कविता के नये प्रतिमान ' रचने की क्या प्रासंगिकता है, और अगर रच भी दिया तो कैसे वे बड़े कवियों को उसमें लाना भूल गये। उनके काव्य-सौष्ठव की व्याख्या से क्यों परहेज किया गया और सिर्फ़ भूले ही नहीं, बल्कि रुपवाद को प्रश्रय देने और अपने किये को उचित ठहराने के लिये निरंतर विचलित करने वाले स्पष्टीकरण भी देते रहे हैं, जिससे उनके आलोचना-कर्म के प्रति हिंदी-प्रेमियों में‍ आशंकायें दिनानुदिन गहनतर होती चली गयी। हिंदी के आधुनिक काल मे‍ उनके रुपवादी झुकाव की त्रासद स्थिति यह रही है कि कविता की एक धारा सहज और संश्लिष्ट न होकर दु्र्बोध और जटिल हो गयी।( ध्यान देने की बात है कि संश्लिष्टता भाव की होती है और जटिलता भाषा की होती है) तब कविता को रुपवाद के खतरों से बचाने के लिये कविता की दूसरी, और लोकोन्मुख काव्यालोचना परम्परा पर काम करना अवश्यंभावी लगने लगा जिसके प्रमुख अग्रधावकों में से डा. रमाकांत शर्मा भी हैं जिनसे जनवादी और लोकोन्मुख धारा के कवियों को उपेक्षा के अंधकार में विलीन होने से रोका जा सका हैं और जनपदों, दूर-दराज के इलाकों से आने वाले कवियों के भीतर फिर से आगे आने की आशा जगी हैं और फिर से वे चर्चा के केंद्र में आने लगे हैं।

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