अपने लेख के बारे में डा. अजित प्रियदर्शी अपने टाइमलाइन पर फेसबुक में लिखते हैं -
"लहक पत्रिका के जुलाई -सितम्बर 2016 अंक मेंउदय प्रकाश और उनके नक्शेकदम पर चलने वाले समकालीन कहानीकारों की कहानियों में सेक्स की छौंकऔर रूढ़िबद्ध फार्मूलेपन पर काफी बेबाकी से लिखा हैमैंने।इस आलेख से विवाद खङा होने की संभावना तो हैही।उदयप्रकाश के अंधभक्तों को आँख खोलकर इसे पढ़ना जरूर चाहिए...
"भारत में 1991 में अपनाई गई
नयी उदारवादी आर्थिक नीति से भूमंडलीकरण की शुरूआत हुई। किन्तु इसका व्यापक प्रभाव
इक्कीसवीं सदी के शुरूआती वर्षों में दिखाई देने लगा। बड़ी पूँजी से खड़ी
बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने भारतीय बाजार पर कब्जा करना शुरू किया। ऐसी कम्पनियों
ने अपने उत्पादों के विज्ञापन के लिए खूब पैसा खर्च किया। उन कम्पनियों ने अपने
उत्पादों के विज्ञापन से आगे बढ़कर विज्ञापन-युद्ध, विज्ञापनवाद, बाजारवाद और उपभोक्तावाद को काफी बढ़ावा दिया। भारत के स्थानीय बाजार क्रमशः
कमजोर हुए और विश्वबाजार की मजबूत कम्पनियों ने स्थानीय सामानों व स्थानीय बाजारों
पर कब्जा जमाना शुरू किया। उपभोक्तावादी मानस का निर्माण करने में सफल कम्पनियों
ने क्रमशः उपभोक्ताओं की आवश्यकताओं को भी तय करना शुरू कर दिया। देश में आवारा
पूँजी की बेरोकटोक आमद होने लगी। आवारा पूँजी से लैश बाजार ने मीडिया और सत्ता को
खरीदना शुरू कर दिया। बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के पैसे पर चलने वाले मीडिया की
मार्फ़त बाजार हमारे घरों और दिलोदिमाग में घुस गया। विलासिता व उपभोग की सामग्री
से बाजार पट गये। उन सामानों को पाने के लिए लोग अत्यधिक अधीर हो गये। स्वार्थपरता,
सम्बन्धहीनता, संवेदनहीनता और भागमभाग ही व्यक्ति का चरित्र बन गया।
नयी सदी के ऐसे बदले हुए समय में हिन्दी के
युवा कथाकारों ने अपनी कहानियाँ लिखी। उन्होंने बदलते हुए समय, समाज तथा व्यक्ति को अपनी कहानियों का विषय
बनाया। पिछली सदी के अन्तिम दो दशकों के कहानीकारों ने नये यथार्थ को ‘आख्यान’ के रूप में रचा। अस्सी के दशक में उदय प्रकाश ने अपने समय
की वास्तविकता को विस्तृत आख्यान के रूप में लिखा और प्रायः लम्बी कहानियाँ लिखी।
उन्होंने ‘रामसजीवन की प्रेमकथा’,
‘पॉलगोमरा का स्कूटर’, ‘वारेन हेस्टिंग्स का साँड़’, ‘मोहनदास’, ‘और अन्त में
प्रार्थना’ जैसी लम्बी कहानियाँ
लिखी। उदय प्रकाश ने बदलते समय व समाज के जटिल यथार्थ को समूची जटिलता में
अभिव्यक्त करने के लिए लम्बे आख्यानों का सहारा लिया। लेकिन वास्तव में उन्होंने
भूमंडलीकरण, बाजारवाद,
उपभोक्तावाद और साम्प्रदायिकता की नयी हकीकतों
के गहन विश्लेषण व विमर्श से आख्यान को बोझिल कर दिया। उनकी कहानियाँ वास्तविकता
का आख्यान भर नहीं रह गईं बल्कि वास्तविकता का विमर्श बन गईं। समाज की वास्तविकता
के प्रति निहायत बौद्धिक दृष्टिकोण की अभिव्यक्ति के कारण उदय प्रकाश की कहानियाँ
विमर्शात्मक हैं। यानी उनकी कहानियाँ बौद्धिक पाठकों के लिए हैं, सामान्य पाठकों के लिए नहीं। सामान्य पाठकों को
उनकी कहानियों का विमर्शात्मक स्वरूप उबाऊँ लगने लगता है।
उदय प्रकाश ने अपने समय के जटिल और हाहाकारी
यथार्थ को अपने तईं खास सनसनीखेज़, मारक और मोहक कथा
युक्तियों के सहारे अपनी लम्बी कहानियों में उकेरा। उदय प्रकाश के समकालीन और बाद
के अनेक प्रतिभाशाली कथाकार उनकी कथा युक्तियों के प्रभाव से मुक्त न रह सके। मसलन,
”थके-हारे कॉमिक कथानायक की पस्ती और टूटन उदय
प्रकाश की कहानी ‘मोहनदास’ की ही चारित्रिक मुद्रा नहीं है, वह अखिलेश की ‘अंधेरा’ के नायक का कॉमिक
चेहरा बन जाता है या पंकज मित्र के ‘क्विज़ मास्टर’ की हरकतों में
प्रकट हो उठता है। मनोज रूपड़ा की कहानी ‘साज़-नासाज़’ का बूढ़ा कथानक या
उनकी ‘टावर ऑव साइलेंस’ का पारसी बूढ़ा रोमिंगटन दस्तूर अपनी हताशा में
क्या उदय प्रकाश के लड़ते-हारते पॉल गोमरा और मोहनदास से चारित्रिक तौर पर भिन्न
हैं?.... ‘संघर्षरत किन्तु पराजय की
नियति के शिकार’ कथा चरित्रों की
सृष्टि करने वाले उदय प्रकाश की कथा-शैली का प्रभाव युवतर कथाकारों पर भी दिखाई
देता है। मिसाल के तौर पर नीलाक्षी सिंह की कहानी ‘उस शहर में चार लोग रहते थे’ में औद्योगिक क्रान्ति और मॉल्थस का संदर्भ जिस बौद्धिक
कौशल के साथ कथात्मक वास्तविकता को उद्घाटित करने के लिए इस्तेमाल किया गया है,
वह उदय प्रकाश की ‘वारेन हेस्टिंग्स का साँड़’ के ऐतिहासिक संदर्भों और उससे जुड़े विमर्श-प्रयोग की याद
दिलाता है। यह बौद्धिक चमत्कार पैदा करने की हसरत ही है कि नीलाक्षी सिंह ‘एक था बुझवन’ जैसी सुन्दर कहानी में हिप्पोकैंपस का सन्दर्भोंल्लेख कर
कथा-अनुभव की अनावश्यक व्याख्या करने की कोशिश करती हैं। अपने संश्लिष्ट आख्यानों
से उदय प्रकाश ने बार-बार पाठकों को हैरान किया है लेकिन अचरज न होता अगर ‘टावर ऑव साइलेंस’ या ‘उस शहर में चार
लोग रहते थे’ के लेखक का नाम
उदय प्रकाश होता।“ (जयप्रकाश,
कहानी की उपस्थिति, पृष्ठ-121-22, साहित्य भण्डार, इलाहाबाद,
प्रथम संस्करण : 2015) जयप्रकाश ने सही लक्ष्य किया है कि सनसनीखेज़ तथा विमर्शात्मक
कथायुक्तियों को ग्रहण करने और ‘संघर्षरत किन्तु
पराजय की नियति के शिकार’ कथानायकों का
सृजन करने में उदय प्रकाश का प्रभाव उनके समकालीन तथा बाद के अनेक प्रतिभाशाली
कथाकारों के लिए एक ‘मैनरिज़्म’
या रीतिवाद या कथारूढ़ि बन गया। यह मैनरिज़्म
हिन्दी कहानी के बहुआयामी, बहुरंगी विकास
में बाधक बन गया।
उदय प्रकाश ने भूमंडलीकरण के दौर में तेजी से
बदलते यथार्थ के जटिल आयामों को पकड़ने के लिए ‘दीर्घ आख्यान’ को अपनाया। उन्होंने सूक्ष्म विश्लेषण व विमर्श के रंग में रँगी बौद्धिक
कहानियाँ लिखी। जादुई यथार्थवाद, सनसनीखेज़ और चमत्कारिक
कथा-युक्तियों को अपनाने के कारण उनकी कहानी कला सहज सम्प्रेष्य किस्सागोई की कला
की बजाय जटिल उलझावों की तरफ अग्रसर हुई। उनके प्रभाववश अनेक युवा कथाकार दीर्घ
आख्यान के खास साँचे-ढाँचे में ढली-गढ़ी हुई कहानियाँ लिखने लगे। बौद्धिक विमर्श,
विश्लेषण और उबाऊँ ब्यौरों से भरी कहानियों से
सामान्य पाठक को ऊब तथा अरुचि होने लगी। कहानी अब ‘एक गम्भीर बौद्धिक विधा’ (बकौल कुँअरपाल सिंह, अक्षरपर्व, सितम्बर 2005)
बन गई। आम लोगों के जीवन से लेखक की बढ़ती दूरी
के कारण उसके पास जीवन-अनुभवों की कमी साफ़ दिखाई देने लगी। इस कमी को ढँकने के लिए
युवा कथाकारों ने अपनी कहानियों में कलात्मक कौशल, नये-नये प्रयोग और मनमोहक भाषा-शैली का सहारा लेना शुरू
किया। लेकिन तमाम कलात्मक कौशल व नये-नये प्रयोगों के बावजूद कहानियों में
जीवन-प्रसंग, जीवन-रस, जीवन-संवाद और असली मुद्दों से जूझते हाड़-मांस
के चरित्र गायब होते गये। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि हिन्दी कहानी से जीवन-रस
सूखता चला गया। पिछले पन्द्रह साल के चर्चित कथाकारों, यथा-कुणाल सिंह, पंकज सुवीर, विमलचन्द पाण्डेय,
रवि बुले, नीलाक्षी सिंह, वंदना राग, मनीषा कुलश्रेष्ठ,
मो0 आरिफ, मनोज कुमार पाण्डेय,
चंदन पाण्डेय, अनुज, उपासना, प्रत्यक्षा, गीताश्री आदि की कहानियों
में जीवन से गहरे जुड़े कथ्य की बजाय कथा-शिल्प के नये प्रयोगों के प्रति
रूझान अधिक बढ़ा है।
ऐसा नहीं है कि युवा कथाकार पीढ़ी के लिए आदर्श,
सुपर स्टार और चर्चा में बने रहने को आतुर स्मार्ट
कथाकार उदय प्रकाश की कहानियों में झोल नहीं है। उदय प्रकाश ने अपनी कहानियों
(खासकर लम्बी कहानियों) में जटिल यथार्थ और भूमंडलीकरण के दुष्प्रभावों के सघन
चित्रण, विश्लेषण के नाम पर कहानी
विधा को ‘समकालीन वास्तविकता का
उपनिवेश’ (जयप्रकाश, कहानी की उपस्थिति, पृ0 147) बना दिया।
उन्होंने कहानी को एक बौद्धिक विधा या विश्लेषणात्मक निबन्ध या विमर्शात्मक आख्यान
जैसा बना दिया। कहानी विधा से जीवन रस, जीवन के चित्र-चरित्र और उनकी धड़कनें गायब करके उन्होंने सिर्फ चिंतातुर
नैरेटर एवं उबाऊँ नैरेशन से कहानी विधा को शुष्क बना दिया। विवरणात्मकता, सूचनात्मकता, अखबारीपन तथा तात्कालिकता से भरी-पूरी उनकी कहानियों में ‘यथार्थ का आतंक’ साफ देखा जा सकता है। विश्लेषण, विवरण और विमर्श प्रधान कहानियों की शुष्कता को ढँककर
दिलचस्प, सनसनीखेज़ व मसालेदार
बनाने के लिए उन्होंने ‘खुला सेक्स’
का चटखारेदार चित्रण किया तथा चमत्कार व जादुई
यथार्थवाद का सहारा लिया। ‘छतरियाँ’,
‘वारेन हेस्टिंग्स का साँड़’, ‘रामसजीवन की प्रेमकथा’, ‘पीली छतरी वाली लड़की’ तथा ‘पॉल गोमरा का
स्कूटर’ आदि कहानियों को इस
संदर्भ में देखा जा सकता है।
प्रायः जीवन से कटी हुई स्मार्ट कहानियाँ लिखने
वाले स्मार्ट कथाकार उदय प्रकाश ने कहानी को मसालेदार एवं सनसनीखेज़ बनाने के लिए
सेक्स का खुला चित्रण किया है। उन्होंने सेक्स के चित्रण में खूब मजा लिया है।
लगता है मानो उनके कथा पात्र सेक्स कुंठा के शिकार हों। शायद कथाकार उदय प्रकाश
खुद सेक्स कुंठा के शिकार हों। भद्दे-भद्दे चटखारे भरे संवाद ‘सेक्स को बाजारू’ स्तर पर ला देते हैं। लगता है कि बाजार का दबाव कहानीकार को
ऐसा करने के लिए मजबूर कर रहा है। इस संदर्भ में उनकी कहानियों से कुछ उद्धरण
प्रस्तुत हैंः ”आशा मिश्रा के
अंडरबियर से निकलती हुई बियर की बोतल का शॉट और छाती में बियर उलटते ही आशा मिश्रा
के स्तनों का झाग में रूपान्तरण इतना प्रभावशाली था कि..... इस विज्ञापन के
प्रिव्यू सर्वे के दौरान कम्पनी ने पाया था कि बीस सेकेन्ड के इस विज्ञापन को
देखते हुए हर दस में से सात पुरूषों ने, जिनका आयुवर्ग 15 से 60 वर्ष का था, ‘मास्टर बेट’ की इच्छा का
प्रभाव स्वीकार किया था।“ (‘पॉल गोमरा का
स्कूटर’), “विश्व सुन्दरी ने उसे
वियाग्रा की गोली दी, जिसे निगल कर
उसने उसके स्तन दबाये।” “ठीक से सहलाओ!
पकड़कर! ओ.के.!“, ”मुँह में ले लो
लोल... माई लोलिट्”, “राहुल के हाथ
उसकी (अंजली की) जींस की जिप को खोल चुके थे।.... अंजलि की आँखें अधमुँदी हो गई
थीं।... उसका चेहरा अंगारों की तरह दहक रहा था।... जितनी गहरी प्रतिहिंसा की
तीव्रता के साथ राहुल... प्रत्याघात करता, वह देखता कि अंजलि की आँखें किसी तृप्ति से सच में मुँद गई हैं और उसके होंठों
पर एक हल्की-सी स्मित की रेखा खिंच गई है....। ‘आह! आह!” (‘पीली छतरी वाली
लड़की’)।
उदय प्रकाश की लम्बी कहानी ‘वारेन हेस्टिंग्स का साँड़’ की मोना ठाकुर एक रात में तीन अंग्रेज
अधिकारियों के साथ हमबिस्तर होती है और लेखक चटखारे लेकर उसका निर्लज्ज वर्णन करता
है। आनन्दातिरेक में मोहिनी ठाकुर के मुँह से निकले शब्द किसी पोर्न फिल्म के
संवाद लगते हैं : “टेक मी, होल्ड मी, आयम कमिंग। कम ऑन जस्ट डू इट। डू इट।” उदय प्रकाश जैसे पुरूष कथाकारों द्वारा सेक्स
के चटखारेदार वर्णन के संदर्भ में शालिनी माथुर के आलेख ‘मर्दों के खेला में औरत का नाच’ (तहलका, 6 जनवरी 2014)
का यह अंश उद्धृत करना पर्याप्त होगा : “मर्दों के इस खेला में पुरूषों को आनन्द देने
के लिए औरतों की एक ऐसी पोर्न छवि गढ़ी गई है जो पूर्णतया यौनीकृत है। उसमें न
चेतना है, न हृदय, न मन और न भावना। यह पोर्न की क्लासिकल
सेडोमेसोचिस्ट छवि है। इन औरतों को यौनिक वस्तु होने, कष्ट पाने और अपमानित होने में आनन्द आता है।”
उदय प्रकाश अपनी कहानियों में अंग्रेजी के शब्द
ठूँसकर उसे असहज बना देते हैं। अंग्रेजी के पूरे-पूरे वाक्य अच्छी अंग्रेजी न
जानने वाले पाठक के लिए असम्प्रेष्य हो जाते हैं। अपनी लम्बी कहानियों में वे
भूमंडलीकृत दुनिया की सच्चाइयों को दर्शाने के नाम पर अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, मानवशास्त्र, दर्शनशास्त्र, भौतिकशास्त्र,
रसायनशास्त्र और इतिहास की तमाम जानकारी परोसते
हैं और इस क्रम में कहानी को ‘लोकल की बजाय
ग्लोबल’ कर देते हैं। उन्हें यह
समझना चाहिए कि सूचनात्मक और विमर्शात्मक ज्ञान बघारने के लिए कहानी नहीं लिखी
जाती। क्योंकि ऐसे ज्ञान के लिए कोई व्यक्ति विश्लेषणपरक और विमर्शात्मक आलेख पढ़
लेगा। सूचनात्मकता, विमर्शपरकता और
तथ्यात्मक ब्यौरों से वे कहानी को अक्सर उबाऊँ बना देते हैं। उनकी अधिकांश लम्बी
कहानियों में सूचनात्मक ब्यौरों की भरमार है। समकालीन विमर्श, सूचनात्मक ब्यौरों और जटिल यथार्थ के अंकन के
नाम पर ‘तात्कालिकता का आतंक’
उदय प्रकाश की लम्बी कहानियों को अनावश्यक
विस्तार दे देता है। इस कारण उनकी लम्बी कहानियाँ अक्सर उबाऊँ हो गई हैं।
तात्कालिकता के दबाव में उन्होंने ‘सूचनाप्रधान
कहानियाँ’ लिखा है। उनकी लम्बी
कहानियाँ प्रायः अनेक असम्बद्ध घटनाओं, सूचनाओं और तथ्यों का कोलॉज बन जाती हैं। उनकी कहानियों के अधिकांश पात्र
मध्यवर्ग के हैं और पर्याप्त शिक्षित लगते हैं। इसलिए आम आदमी तथा उनकी
भाषा-शैली-संवाद उनकी कहानियों में सिरे से गायब हैं। उनकी अधिकांश कहानियाँ
पाठकों से संवाद स्थापित करने में नाकामयाब हैं।
सूचनाओं तथा तथ्यात्मक ब्यौरों के आधार पर ‘दीर्घ आख्यान’ रचने वाले उदय प्रकाश का गहरा असर उनके समकालीन और बाद के
चर्चित कथाकारों पर साफ देखा जा सकता है। सूचनात्मक तथा तथ्यात्मक ब्यौरों के
विवरण, विमर्शात्मक ढंग व
विश्लेषण के आधार पर दीर्घ आख्यान गढ़ना युवा कथाकार पीढ़ी की सबसे बड़ी
विशेषता/कमजोरी है। यह विशेषता एक तरह के ‘मैनरिज़्म’ की तरह बीस साल
से हिन्दी कहानी को जकड़े हुए है। इस मैनरिज़्म से अलग हटकर लिखी गई कहानियाँ
अत्यल्प हैं। नयी सदी की अनेक लम्बी कहानियाँ पूरी तरह भाषण हो गई हैं, जिनके लगभग 50 पन्नों में कोई संवाद या नाटकीय द्वन्द्व देखने को नहीं
मिलता। आज की अधिकांश लम्बी कहानियों में बड़बोलापन और शब्द-स्फीति बहुतायत में
मिलती है। कहानी में अगर कहीं संवाद होते भी हैं तो वे प्रायः अनौचित्यपूर्ण व
कृत्रिम होते हैं। कहानियों के पात्रों की बातें-बहसें प्रायः जमीन से कटी हुई और
कोरी किताबी होती हैं। अधिकांश कहानियों में पाठकों को अपने आसपास के जीवन्त पात्र
और उनकी जीवन्त बातचीत नहीं मिलती। हेमिंग्वे ने एक जगह एल्डॉस हक्सले ;।सकंने भ्नगसमलद्ध की आलोचना करते हुए कहा है
कि उसके ‘पात्र’ केवल ‘पात्र’ हैं, ‘मनुष्य’ नहीं। यही बात आज के अधिकांश युवा कथाकारों के कथा-पात्रों
के बारे में कही जा सकती है। युवा कथाकारों के कथा-पात्रों में ‘लुम्पेनिज़्म का तत्त्व’ एक रुढ़ि की तरह दिखाई देता है।
आज हिन्दी के युवा कथाकारों के ऊपर यथार्थ या ‘सतही यथार्थ’ का ऐसा आतंक छाया हुआ है कि वह यथार्थ के नाम पर कहानी में
सूचनात्मकता, तात्कालिकता,
पत्रकारिता या महज रिपोर्टिंग की भरमार कर देता
है। इसके बावजूद अधिकांश कहानियों में देशकाल-वातावरण अमूर्त और पेचीदा हो जाता
है। सूचनात्मकता और ब्यौरों की भरमार वाली कहानी में पाठक (अमूर्त) से सम्बोधन की
कमी खटकती है। कहानीकार प्रायः पाठक से संवाद नहीं स्थापित कर पाता। कहानी प्रायः
अमूर्त पाठक को सम्बोधित करके नहीं लिखी जाती। कहानीकार पाठक को ‘सहभोक्ता’ बनने के लिए भी निमंत्रित नहीं करता। इसलिए अब कहानी का
पाठक केवल ‘आस्वादक’ के पायदान पर पटक दिया गया है। आज की अधिकांश
विमर्श आधारित कहानियाँ निरावेग बौद्धिक बुनावट में कथाकार के अपने रचे गये संसार
के भीतर सिमट कर रह जाती हैं। विमर्शों के ढाँचे-खाँचे में लिखी गई अधिकतर
कहानियों में समाज के आन्तरिक हलचलों व जमीनी अन्तर्विरोधों का पता नहीं चलता।
क्योंकि अधिकांश युवा कथाकारों का आम जनता से कोई गहरा रिश्ता नहीं रहा। इस कारण
आम जनता की तकलीफ़ों व जीवन संघर्षों से उनका जुड़ाव भी नहीं दिखता। इस जुड़ाव के
अभाव में युवा कथाकार अधिकांशतः आत्मकेन्द्रित नैरेशन, चालू विमर्शों के सैद्धान्तिक लटकों-झटकों तथा सतही
तौर-तरीकों से आकड़ों, तथ्यों व मीडिया
की जानकारियों से काम चलाते हैं। उन्हें न तो गाँव या शहर के सामान्य औरत-मर्दों,
किसान-मजदूरों, दलित-आदिवासियों की ज़िन्दगी की सच्चाई पता है, और न ही वे जानने-समझने-महसूस करने की जरूरत
समझते हैं।
आम जनता से अलग-थलग होकर प्रायः एकाकी जीवन
जीने वाले हिन्दी के युवा कथाकारों के बीच ज़मीनी सच्चाई या यथार्थ से बचकर कल्पित
यथार्थ या विमर्श द्वारा थोपी हुई हकीकत दिखाने का प्रचलन खूब बढ़ा है। पंकज मित्र
की कहानी ‘पड़ताल’ में आज के उपभोक्तावादी समाज में वस्तुओं
द्वारा इंसानियत की हत्या को बिल्कुल फार्मूला ढंग से लिखा गया है। रवि बुले की
कहानी ‘लापता उर्फ नत्थू उर्फ
दुनिया न माने’ में निकट इतिहास
के एक चर्चित संदर्भ को सीधे-सीधे उठा लिया गया है। प्रदीप दलवी के मराठी नाटक ‘मी नाथुराम गोड्से बोलतोय’ के हिन्दी अनुवाद के बहाने भारतीय राजनीति में
मौजूद घटिया अवसरवाद और हिन्दू ध्रुवीकरण की अखबारी ब्यौरों को रचने वाली यह कहानी
अखबारी बोरियत से बच नहीं सकी है।
आज हिन्दी के अधिकांश युवा कथाकार अपनी
कहानियों में नाटकीय ढंग से ‘कथार्थ’ या कथागत सच्चाईयाँ बुनते हैं। ऐसे नाटकीय व
कृत्रिम ढंग से वे कहानी में अप्रत्याशित मोड़ देते हैं कि कहानी के साथ-साथ
चरित्रों का स्वभाविक विकास नहीं हो पाता। कथार्थ और कथा-पात्र गढ़े हुए लगने लगते
हैं तथा व्यावहारिक दुनिया की सच्चाई से दूर छिटक जाते हैं। आज के चालू विमर्शों
के खाँचों में ‘फैशनेबल कहानियाँ’
खूब लिखी जा रही हैं। इस संदर्भ में युवा
कहानीकारों की कुछ कहानियों की समीक्षा करना ठीक होगा। निदा नवाज़ की कहानी ‘और सुबह हो गई’ (बयाँ, अक्टूबर-दिसम्बर,
2015) एक फार्मूला कहानी है।
पहले ही पन्ने पर नमुदार हाजी रशीद द्वारा हलीमा के ऊपर बुरी निगाह डालने के समय
ही पाठक को पता चल जाता है कि यह बूढ़े के हवस की शिकार लड़की की कहानी है। आशुतोष
की कहानी ‘रामबहोरन की अनात्मकथा’
(तद्भव, अंक 23) नौकरी की बाट
जोहते एक बेरोजगार युवक की संघर्ष कथा है। विषयवस्तु नया नहीं है और प्रस्तुति में
भी नयापन नहीं है। कथाकार चाहे इसे ‘अनात्मकथा’ कहना चाहे लेकिन
यह नैरेटर या कहें कि आशुतोष की ‘आत्मकथा’ बन गयी है। किसी पात्र को केन्द्र में रखकर
त्रासद स्थितियों को क्रमशः खोलना और उन स्थितियों के प्रभावों को परखना उदय
प्रकाश की कहानी-कला है। वे पात्रों पर परिस्थितियों के प्रभाव के प्रति इस कदर
प्रयोगवादी हैं कि, बकौल प्रो.
विश्वनाथ त्रिपाठी, ‘पात्र पीड़क’
कथाकार हैं। युवा कथाकार आशुतोष ‘रामबहोरन की अनात्मकथा’ कहानी के स्थापत्य में बहुत कुछ उदय प्रकाश को अपना रोल
मॉडल बनाते दिखते हैं।
आज हिन्दी कहानी के अधिकांश युवा कथाकार यथार्थ
के नाम पर सूचनात्कता से निर्मित ब्यौरों के दबाव में कहानियाँ लिख रहे हैं।
प्रतिवर्ष लिखी जा रही हजारों कहानियों में से अधिकांश कहानियाँ एक तरह के
मैनरिज़्म या रीतिवाद की शिकार हैं। यह भी सच है कि, तमाम सूचनात्मकता के बावजूद, युवा कहानीकार अपनी कहानियों में अपने समय को ठीक ढंग से
परिभाषित नहीं कर रहे। युवा कथाकर अपने समय के भीतर रहते हुए जीवन स्थितियों के
घात-प्रतिघात से पैदा होने वाली अन्तर्ध्वनियों को सुनने और सिरजने से प्रायः चूक
जाते हैं। इसका कारण यह है कि आज के अधिकांश युवा कहानीकार सूचना-तंत्र और मीडिया
का सहारा लेकर कमरे में बैठकर केवल सूचना व कल्पना का सहारा लेकर कहानियाँ लिखते
हैं। दूरबीन से देखे गये धुँधले यथार्थ या सतही यथार्थ को कथार्थमें ढालने के कारण
कहानी के कथ्य और कथाभाषा में नीरसता व कृत्रिमता का आना स्वाभाविक है। सूचना
तंत्र से उठाये गये ब्यौरों से कभी-कभी ‘कालावधि का भ्रम’ भी खड़ा हो जाता
है।
कालावधि का भ्रम एक अच्छी कहानी का कमजोर पक्ष
साबित होता है। युवा कथाकार आशुतोष ‘दादी का कमरा‘ (‘मरें तो उम्र भर
के लिए’ कहानी-संग्रह में संकलित,
भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली से प्रकाशित) लम्बी कहानी में लगभग ‘90 के बाद से उभरे भूमंडलीकरण और बाजारवाद की
गिरफ्त में गाँव व शहरों के घरों में आये परिवर्तनों को लक्ष्य करते हुए लिखते हैं
: ”बच्चों के मनोरंजन के लिए
अब दादी के कमरे में मौजूद कंचे, ताश के पुराने
पत्ते, वह बूढ़ा हारमोनियम,
रंग-बिरंगे कपड़ों से बनायी गयी पुतरियाँ बेकार
हो गयी थीं। उनकी जगह मोबाइल, आईपॉड ने ले ली
थी। दादी के सुबह के भजनों को ‘रंगोली’ ने और रात की लोरियों को ‘चित्रहार’ ने बेरंग और उदास कर दिया था।“ (पृष्ठ 37) कहानीकार द्वारा
इस उल्लेख के पीछे परिवार के भीतर पैदा हो रहे सांस्कृतिक संकट को व्यक्त करना है।
लेकिन सूचना क्रान्ति के वर्चस्व के क्रम में दूरदर्शन पर ‘रंगोली’ और ‘चित्रहार’ का समय ‘80-‘90 का समय है। मोबाइल, आइपॉड की दस्तक
मध्यवर्गीय परिवारों में उसके काफी बाद में हुई। ‘90 के आसपास तक तो दूरदर्शन को अपदस्थ कर केबिल आपरेटरों के
जरिए तमाम देशी-विदेशी चैनलों का आक्रमण मध्यवर्गीय घरो ंमें हो चुका था। कहानी के
ब्यौरों में कालावधि का यह भ्रम कहानी को कमजोर बना देता है। नीरस और ठूँठ गद्य के
उबाऊँ नैरेटिव तथा अनेक औचित्यहीन, अवांछित प्रसंगों
के कारण यह कहानी अवांछित रूप से लम्बी हुई है।
आज की हिन्दी कहानी से ‘किस्सागोई’ का रोचक तत्त्व
गायब हो चला है। युवा कहानीकारों की अनेक कहानियाँ मात्र सूचनाओं के संजाल में
फँसकर रह गई हैं। उनमें संवेदनात्मकता और किस्सागोई अनुपस्थित होते जा रहे हैं।
सूचनाआें के संजाल में किस्सागोई का दम तोड़ना दुखद है। क्योंकि किस्सागोई में
ज़िन्दगी के डिटेल्स रोचक ढंग से उपस्थित किये जाते हैं। ज़िन्दगी के सच्चे डिटेल्स
के बगैर कोई खूबसूरत कहानी या आख्यान नहीं रचा जा सकता। कहानी में दिलचस्प
किस्सागोई या ज़िन्दगी के सच्चे डिटेल्स हमेशा जीवन के महीन अनुभवों से पैदा होते
हैं, न कि सतही सूचनात्मक
ब्यौरों से। विचारधारा, विमर्शों तथा
सूचनात्मकता से घिरे इस कथा-समय में दिलचस्प नैरेटिव व किस्सागोई का सम्मोहन काफी
हद तक गायब हो गया है। आज के अधिकांश युवा कथाकारों में ‘इनफॉर्मेशन फ्लडिंग’ की प्रवृत्ति औचित्यहीनता की सीमा तक दिखाई देती है। एक
कहानीकार का दायित्व और उसका उद्देश्य घटना को सूचना के रूप में उपस्थित करना
मात्र नहीं होता वरन् उसका कार्य सूचना की आन्तरिक तहों में चल रहे खेल को प्रकट
करना होता है। लेकिन आज की हिन्दी कहानी में सूचना व ब्यौरों का अम्बार दिखाई देता
है और इस कारण कहानियों का आकार काफी बढ़ जाता है। सूचनात्मक ब्यौरों को काफी
मात्रा में इस्तेमाल करते जाने तथा ‘दीर्घ आख्यान’ रचने के लिए
सूचनात्मक नैरेटिव को शैतान की आँत की तरह खींचते जाने से कहानी में रोचकता व
पठनीयता का संकट खड़ा हो जाता है। आरम्भ में एक रोचक कहानी से पाठक का जो
संवेदना-तंत्र झंकृत होता है, वह शुष्क नैरेटिव
की खींचतान में क्रमशः मृत होता चला जाता है। चेख़व ने कहानी में निरर्थक ब्यौरों
से बचने की सलाह देते हुए यह कहा था कि ‘अगर कहानी के किसी हिस्से में दीवार पर बंदूक टँगी हुई दिखाई गई है तो उसे
दूसरे हिस्से में चलते हुए जरूर दिखा देना चाहिए।’ हिन्दी में ‘लम्बी कहानी’
नाम की बला ‘हंस’ संपादक राजेन्द्र
यादव ने चलाई थी, जिसकी चपेट में
धीरे-धीरे अधिकांश पत्रिकाओं के सम्पादक आते गये।
नयी सदी की युवा कहानीकार पीढ़ी का कथा लेखन एक ‘स्टीरियो टाइप’ सा हो रहा है। आज युवा कथाकार नारी विमर्श, दलित विमर्श, आदिवासी विमर्श जैसे चर्चित विमर्शों और बाजार की माँग को
ध्यान में रखकर कहानी लिखते हैं। ‘हंस’, ‘तद्भव’, ‘कथादेश’, ‘बयाँ’ आदि पत्रिकाओं और उनके पसंदीदा लेखकों की फौज
ने पिछले बीस साल से एक खास तरह का ‘विमर्शवादी यथार्थवाद’ खड़ा कर रखा है।
इन पत्रिकाओं ने विमर्शवादी-पूर्वग्रहों, सपनों, निष्कर्षों-को आधार बनाकर
लिखी गई कहानियों को बढ़ावा दिया। फलतः हिन्दी में दलित विमर्श, स्त्री विमर्श, अल्पसंख्यक विमर्श, आदिवासी विमर्श और भूमंडलीकरण विमर्श के नाम पर थोक मात्रा में फार्मूला
कहानियाँ सामने आईं। चेले पालने वाले और दरबार लगाने वाले संपादकों ने कुछ
कहानीकारों की खूब चर्चा की और जेबी आलोचकों से उनकी प्रशंसा कराई। इसका नुकसान यह
हुआ कि अनेक बेहतरीन कहानियों की चर्चा तक नहीं हुई।
प्रचलित विमर्शों के नाम पर पिछले पन्द्रह-बीस
सालों से एक खास ढंग से कहानी को गढ़ा जा रहा है और खास ढ़ाँचे में यथार्थ को
उपस्थित करने या गढ़ने वाले कहानीकारों को ही तवज्जो दिया जा रहा है। पंकज मित्र,
कुणाल सिंह, मनोज कुमार पाण्डेय, मो0 आरिफ, चन्दन पाण्डेय, विमलचन्द पाण्डेय, रवि बुले, वन्दना राग,
मनीषा कुलश्रेष्ठ, गीता श्री आदि ने एक खास विमर्शवादी ढाँचे में ढ़ली कहानियाँ
लिखी और संपादकों ने इन्हें काफी हाईप दिया। संपादकों ने इन कहानीकारों की बार-बार
चर्चा करके इन्हें चर्चित बनाया। यह भी ध्यान देने की बात है कि कुणाल सिंह,
चंदन पाण्डेय, वंदना राग आदि अनेक युवा कहाकारों ने भूमंडलीकरण को
सकारात्मक रूप में अपनी कहानियों में दर्ज किया। भूमंडलीकरण की विद्रूपताओं के
विरूद्ध इनके यहाँ प्रतिरोध की चेतना दिखाई नहीं देती।
नई सदी के युवा कहानीकारों के विषय-चयन में एक
खास किस्म की विशिष्टता, चर्चा में रहे
विमर्शों की छाप और अतिरंजित यथार्थ का असर देखा जा रहा है। नीलाक्षी सिंह की
कहानी ‘परिंदे का इंतजार सा कुछ’
और वंदना राग की कहानी ‘यूटोपिया’ एक ही तरह की
फार्मूला कहानियाँ हैं। इन कहानियों में एक जैसा फार्मूला है- दंगा, रेप तथा मुस्लिम लड़के व हिन्दू लड़की के प्रेम
का चर्चित अखबारी फार्मूला। उमाशंकर चौधरी की कहानियों पर फिल्मों, टेलीविजन सीरियलों और विज्ञापनों के संवादों,
लटके-झटकों, गीतों और कहानी के हिट फार्मूलों का पर्याप्त असर दिखाई
देता है। उनकी ‘ललमुनियाँ’
कहानी में टेलीविजन सीरियलों के असर को देखा जा
सकता है। बाजार की माँग के कारण उनकी कहानियों में स्त्री के साथ ही उसके
अंतःवस्त्र आ जाते हैं। शायद बोल्ड विज्ञापनों से उन्हें यह प्रेरणा मिली हो। उनकी
‘छुटकी’ कहानी जो बड़ी बोल्ड दिखती है मगर उसकी नायिका
अन्ततः आत्महत्या कर लेती है। उपासना की लम्बी कहानी ‘एगही सजनवा बिनऽऽ ए राम!’ (तद्भव, अंक 28, अक्टूबर’13) में नायिका के देह-चित्रण में और औरतों के ठेठ बोलचाल में
यौनभाषा का मसालेदार इस्तेमाल किया गया है। गीताश्री की ‘प्रार्थना के बाहर’ (हंस, अगस्त,
2009) महानगर में किराये पर
रहने वाली रचना और प्रार्थना दो लड़कियों की कहानी है। इस कहानी में यौन प्रसंगों
में संवाद फूहड़ हो गये हैं। इसमें शराबखोरी और ग्रुप सेक्स की तरफ साफ इशारा है।
प्रार्थना का अनेक लड़कों के साथ शारीरिक सम्बन्ध बनाने का उल्लेख, खराबखोरी और ग्रुप सेक्स, कंडोम और एबार्शन आदि का चटखारेदार वर्णन कहानी
को सनसनीखेज़ बनाने के चर्चित नुस्खों की तरह इस्तेमाल किया गया है। यह एक सामान्य
फार्मूला कहानी है। गीताश्री की एक अन्य कहानी ‘डाउनलोड होते हैं सपने’ (हंस, मार्च 2016)
नोएडा के एक स्लम बस्ती में देह व्यापार में
शामिल औरतों व लड़कियों की कहानी है। यह कहानी बोल्ड यौन प्रसंगों से भरी है।
नैरेटर (सुमित्रा) का यह आत्मकथन मानो किसी पुरूष की यौन अभिव्यक्ति लगती है : ”ये सुधा आंटी भी न! बहुत जल्दी रहती है उसे नयी
लड़कियों की सील खुलवाने की।“ गीता श्री बाजार
और सम्पादक की माँग के अनुसार ही शायद यौन-प्रसंगों का चटखारेदार वर्णन करती हैं
और ऐसे वर्णन में पुरूष की भाषा-शैली का इस्तेमाल करती हैं।
आज के युवा कहानीकारों की अधिकतर कहानियों में
अखबारी सूचनात्मकता का अम्बार और विमर्शात्मक आलेख जैसी विशेषतायें मिलती हैं।
अनेक कहानियाँ नैरेटर के संस्मरणों या डायरी के रूप में लिखी जा रही हैं। आज की
अधिकांश लम्बी कहानियाँ बेकार के घुमावों व लफ्फाज़ी का शिकार हो जाती हैं। लेखक
कथानक की गति को सायास धीमा कर देता है फिर विवरण को खूब फैलाता है। इस तरह
कहानीकार कथानक को खींचतान कर ‘लम्बी कहानी’
बना देता है। चंदन पाण्डेय की कहानी ‘शहर की खुदाई में क्या कुछ मिलेगा’ और कुणाल सिंह की ‘इतवार’ कहानी के कथारहित
शिल्प में लगातार पाठक को उलझाये रखने के बोझिल ढंग को ही ‘नया शिल्प-प्रयोग’ की तरह पेश किया गया है। लम्बी कहानियों का यह शिल्प पाठकों के लिए उलझाऊ,
उबाऊ और अपठनीय हो जाता है। नीलाक्षी सिंह की
लम्बी कहानी ‘साया कोई’
(तद्भव, आख्यान पर एकाग्र अंक 24, अक्टूबर-दिसम्बर,
2011) में सूचनाओं व स्थितियों
का बखान और आख्यान तो खूब है मगर संवाद नगण्य हैं। इसमें जो संवाद हैं वे
अनौचित्यपूर्ण व कृत्रिम हैं। नैरेशन में रोचकता की कमी है। इस आख्यान के वर्णन,
विवरण के बीच पात्र सकुचे-सहमे से हैं। यहाँ
सूचनाओं, घटनाओं का तिथिवार बखान
और चरित्रों के सन्दर्भ में कथाकार के बखान को मिलाजुलाकर ‘कहानी’ कहने का ढंग ‘कहानी’ विधा का अतिक्रमण है। यहाँ लम्बी कहानी की शक्ल में बखान/ आख्यान लिखते हुए
कहानीकार नैरेशन में शुष्कता, उबाऊँपन और
वर्णन-स्फीति या बड़बोलापन से बच नहीं सकी हैं। भरा-पूरा कथानक व जीवन-अनुभवों के
अभाव को पूरा करने के लिए कथाकार कई बार कथानक और घटनाओं को अनेक चक्करदार घुमावों
में ले जाता है। तब वह कहानी में शब्द-स्फीति, वर्णन-स्फीति और निरर्थक ब्यौरे को ठूँसकर दीर्घ आख्यान बना
देता है और कोई स्वनामधन्य सम्पादक अपनी चर्चित पत्रिका में उसे ‘लम्बी कहानी’ के रूप में प्रकाशित कर देता है। ‘तद्भव’ (अंक 18) में छपी नीलाक्षी सिंह की कहानी ‘ऐसा ही... कुछ भी’ ऐसी ही एक लम्बी कहानी ;घ्द्ध है। आशुतोष की लम्बी कहानी ‘मरेंं तो उम्र भर के लिए’ में बुंदेली लोककथा के शिल्प में फिल्मी अंदाज में प्रेम और
राजनीति के अपराध्ीकरण की फिल्मी, अतिरंजित,
अयथार्थ या फार्मूला कहानी बुनी गई है।
नयी सदी के अनेक युवा कथाकार समकालीन विमर्शों
के खाँचे में ढालकर या विमर्शों के स्वप्नगत यथार्थ को दिखाने के नाम पर बिल्कुल
बनावटी और अयथार्थ कहानियाँ लिख रहे हैं। कुछ युवा कथाकार सरोकारविहीन, नैतिकताविहीन, मूल्यविहीन, ‘लुम्पैनिज्म’ वाले कथा-पात्र
गढ़ रहे हैं। मिसाल के तौर पर कुणाल सिंह की ‘साइकिल कहानी’ में युवा लड़का एक विधवा, जो रिश्ते में
लड़के की चाची है, से प्रेम का ढोंग
करके बाकायदा उसे विजित करके संभोग करता है। संभोग के वक्त उस विधवा की आँखों में
आँसू है जबकि युवा नायक खुश है। साइकिल के साथ उस स्त्री को को प्रतीकित करना
आपत्तिजनक है। कहानी में असंवेदनशील व अमानवीय नायक ग्लोरीफ़ाई हुआ है। बुरी
परिस्थितियों को ही सारा दोष मढ़ देने से कथाकार ‘परिस्थितिवाद’ के रूप में यथार्थ का चित्रण करने लगते हैं। मनीषा कुलश्रेष्ठ की कहानी ‘खरपतवार’ मल्टीनेशनल कम्पनी में काम करने वाले एक शादीशुदा व्यक्ति
का एक अनजान सी लड़की से शारीरिक सम्बन्ध, गर्भपात और बाद में संभोग के वक्त लड़की की मौत की अखबारीपन से युक्त सनसनीखेज
कहानी है। इस कहानी में लड़की की असामान्य मौत के प्रति उस व्यक्ति का कोई जवाबदेही
न अनुभव करना एक तरह का मूल्यविहीन, नैतिकताविहीन, जिम्मेदारीविहीन ‘परिस्थितिवाद’ है जो यहाँ यथार्थवाद के नाम पर परोसा गया है। इस कहानी को ‘सनसनीखेज खबर-कथा’ कहने से गुरेज नहीं होना चाहिए। इसी तरह पंकज मित्र की
कहानी ‘पड़ताल’ एक हत्या की पड़ताल की फाइल में दर्ज
पोस्टमार्टम की तहकीकात तथा चश्मदीद गवाह की भूमिका आदि के रूप में बयाँ की गई है।
यह कहानी क्राइम-थ्रिलर कहानी है। अनुभव और संवेदना की बजाय यह कहानी दिमाग से
उपजी है।
आज स्त्री विमर्श, दलित विमर्श और भूमंडलीकरण विमर्श के नाम परोसी गई अनेक
कहानियाँ बिल्कुल बनावटी, अस्वाभाविक,
फार्मूलाबद्ध और उबाऊँ हैं। भालचन्द्र जोशी की
लम्बी कहानी ‘चरसा’ (कथादेश, दिसम्बर’16) पढ़कर मुझे बड़ी
खिन्नता का अनुभव हुआ। इस कहानी में जातीय दलन का बदला लेने के लिए दलित नायक
प्रेम के नाम पर सवर्ण जाति की औरत के शरीर का इस्तेमाल करता है। अगर यह दलित युवक
का अस्मिताबोध भी है तो क्या उसकी पराकाष्ठा अथवा परिणति यह होनी चाहिए। दलित
प्रतिशोध करें, उनका हक है।
लेकिन ऐसी प्रतिशोध भावना, जिसमें प्रेम के
नाम पर ब्राह्मण लड़की का भोग करके उसे जूठन बनाया जाय, दलितों को उनके दलित विमर्श और अस्मिता विमर्श को किसी
आदर्श व सभ्य समाज की तरफ नहीं ले जायेगा। नीलाक्षी सिंह अपनी लम्बी कहानी ‘टेक बे त टेक न त गो’ में भूमंडलीकरण व आर्थिक उपनिवेशीकरण के दौर में दुलारी के
माध्यम से बाजार के विस्तारवादी प्रवृत्ति के प्रतिरोध के साथ-साथ स्त्री के
पुरूषवादी उपनिवेशीकरण का प्रतिरोध दर्ज करती हैं। भूमंडलीकरण, आर्थिक उपनिवेशीषण और स्त्री विमर्श जैसे
परस्पर अलग-अलग विमर्शों को एक साथ साधने के चक्कर में यह कहानी विमर्शों की कहानी
बन जाती है और अपनी स्वाभाविकता खो देती है।
युवा कथाकारों की अनेक कहानियाँ लेखकीय मंतव्य
को साधने के चक्कर में अस्वाभाविक हो जाती हैं। नित नये-नये विमर्शों की
सैद्धान्तिक माँग, सूचना क्रान्ति
और फिल्मों का प्रभाव, तात्कालिक घटनाओं
और मीडिया के दबाव में आकर युवा कहानीकार अक्सर पत्रकार व चिंतक की भूमिका में आ
जाता है। चंदन पाण्डेय की कहानी ‘परिंदगी है कि
नाकामयाब है’ में पाँच-छह
हत्यायें करायी जाती है। शायद कहानीकार ने पाठक को अत्यधिक भावुक बनाने के लिए और
कहानी में भय की सृष्टि के लिए ऐसा किया है। वंदना राग की ‘यूटोपिया’ कहानी के अंत में
नायक जिससे बचपन से प्यार करता है उससे बलात्कार करके बर्बरतापूर्वक मार डालता है।
कहानी का यह अंत स्वाभाविक नहीं लगता। नीलाक्षी सिंह की लम्बी कहानी ‘बाद उनके...’ (तद्भव, अंक 30) में मिस कौशिकी सक्सेना, एक आदमी और बूढ़े व्यक्ति की अंतरंग किन्तु गोल-मोल बातों,
दार्शनिक जैसे संवादों के सहारे संक्षिप्त सी
कहानी को खूब-खूब खींचा गया है। अलग-अलग तीन शख्सियतों और गड्डमड्ड व्यक्तित्वों
को लेकर रचा गया उहापोह वाला आख्यान अन्ततः वहीं पहुँच जाता है, जहाँ से आख्यान शुरू हुआ था। जवान आदमी और बूढ़ा
आदमी मिसेज सक्सेना से क्रमशः अपनी ज़िन्दगी का अतीत बयाँ करते हैं। लेकिन मिसेज
सक्सेना की ज़िन्दगी अनकही रह जाती है। लच्छेदार भाषा-शैली में उबाऊ नैरेटिव,
निष्प्राण कैरेक्टर, ठहरी और उलझी हुई बातों के रेशों से बुना गया आख्यान कोई
असर नहीं छोड़ पाता। यहाँ प्रेम अनजाना, अनकहा, कृत्रिम और रसहीन सा है।
अधिकांश युवा कहानीकार ‘कहानी’ के फॉर्म को लेकर
गम्भीर नहीं हैं। एक तरह की हड़बड़ी, आपाधापी में युवा
कहानीकार कहानियाँ लिख रहे हैं। वे कहानी के फॉर्म पर, सिंटेक्स पर, शब्दों के चुनाव पर परिश्रम नहीं करते। किसी भी कहानी को पढ़ते समय कहानीकार को
पहचान पाना मुश्किल हो गया है। एक ही तरह की कहानियाँ सब लिख रहे हैं। कहानी के
संवादों में प्रायः कहानी का कोई ‘लोकेल’ नहीं पता चलता। कहानीकार को जो बात संकेतों में
कह देनी चाहिए, उसके लिए वह
नैरेटिव और संवादों का लम्बा सिलसिला चलाता है। संस्मरण, आत्मकथा और विचारपरक निबन्ध को प्रायः कहानी बना दिया जाता
है। युवा कहानीकारों की भाषा सामान्य लोगों की बोलचाल की भाषा नहीं है। कई
कहानीकारों की कथाभाषा और संवादों में अंग्रेजी शब्दों की बहुतायत है। चंदन
पाण्डेय, रवि बुले की कई कहानियों
में जो भाषा है, उसे ‘हिंग्लिस’ कहा जा सकता है। चंदन पाण्डेय की ‘सिटी पब्लिक स्कूल’ और ‘शहर की खुदाई में क्या
कुछ मिलेगा’ कहानियों में
पूरे-पूरे संवाद तक अंग्रेजी में है। चंदन पाण्डेय की ‘सिटी पब्लिक स्कूल’ के लड़के-लड़कियों से हम अपने आपको आईडेंटिफाई नहीं कर पाते, उनसे खुद को जोड़ नहीं पाते। आज के युवा कथाकार
मनुष्य की आन्तरिक पड़ताल की बजाय बदलते दौर का आब्जर्वेशन अधिक करते हैं। कुणाल
सिंह और चंदन पाण्डेय जैसे युवा कथाकारों में युवाओं के भीतर के लुम्पेन एलीमेंट
या लुच्चागिरी या लफंगई को ग्लैमराइज करने की प्रवृत्ति दिखाई देती है।
आज के अधिकांश युवा कहानीकारों का आम जनता से
दूरी बन गई है। उनके पास कहानी कहने के लिए जीवनानुभव या जीवन की अनुभूत या जगबीती
सच्ची सामग्री के रूप में कथावस्तु तथा जीवन से जुड़े जीवन्त संवाद की कमी साफ नज़र
आती है। ऐसे में वह कहानी के लिए कल्पना का अतिशय प्रयोग करता है, छद्म या बनावटी यथार्थ का सहारा लेता है,
विमर्श के ढाँचे में सच परोसता है या सेक्स
परोसता है। युवा कहानीकार मनोनुकूल यथार्थ या छद्म यथार्थ के ब्यौरों का खूब
इस्तेमाल करता है लेकिन कहानियों में प्रायः घटना, चरित्र और आशय की सानुपातिकता शिथिल हो जाती है। सूचनात्मक
ब्यौरों की भरमार, तात्कालिकता का
दबाव, चालू विमर्शों का असर,
जीवन्त भाषा-शैली और संवादों की कमी, उबाऊ नैरेटिव, आत्ममुग्ध वर्णनात्मकता से भरपूर ‘दीर्घ आख्यान’ के भटके हुए रास्ते से आज की कहानी को लौटा पाना असम्भव नहीं है किन्तु कठिन
अवश्य है। जीवन की हलचल से ‘राह भटकी’
आज की कहानी परिदृश्य में मो0 आरिफ (‘चूक’) पंकज मित्र (‘द इवेण्ट मैनेजर’), संदीप मिल (‘कोकिलाशास्त्र’),
शिवेन्द्र (‘ए घुटरू! ए घुटरू! कहनी कहो न’) की अच्छी कहानियाँ उम्मीद की तरह सामने आती हैं।
ग़जब का लिखा है,आँखें खोलने के लिए।वाकई में विमर्श करने को करता है मन क़ि आखिर हम अपनी भावी पीढ़ी को क्या कथा साहित्य देने को व्याकुल हैं।बेहद दुर्भाग्यपूर्ण समय से गुजर रहे हैं।लेकिन अभी भी कई कथाकार है जिनका लेखन पढ़ने को उत्साहित करता हैं।
ReplyDeleteग़जब का लिखा है,आँखें खोलने के लिए।वाकई में विमर्श करने को करता है मन क़ि आखिर हम अपनी भावी पीढ़ी को क्या कथा साहित्य देने को व्याकुल हैं।बेहद दुर्भाग्यपूर्ण समय से गुजर रहे हैं।लेकिन अभी भी कई कथाकार है जिनका लेखन पढ़ने को उत्साहित करता हैं।
ReplyDeleteयह लेख मैंने पूरा पढ़ लिया है। लेकिन यह समझ नहीं आया कि सेक्स का छौंक लगाकर कहानीकार क्या ग़लती करता है। सेक्स हमारे जीवन का यथार्थ है, सच्चाई है तो फिर उसका वर्णन क्यों नहीं होना चाहिए। अजीब संघी समझ है यह कि सेक्स का ज़िक्र भी ’सेक्स कुण्ठा’ हो जाता है।
ReplyDeleteएक सबसे बड़ी बात से पूरी तरह सहमत हूँ किकहानी में कहानी तत्व पूरी तरह गायब है आज जबकि पहले कहानी एक मुकम्मल कहानी होती थी आज तो जहाँ चाहे छोड़ देते हैं बिना किसी मुकम्मल अंत के तो सोचने वाली बात है वो कहानी कैसे हुई ?तभी आज की कहानी कोई प्रभाव नहीं छोड़ती और लंबे समय तक यादभी नहीं रहती
ReplyDeleteएक सबसे बड़ी बात से पूरी तरह सहमत हूँ किकहानी में कहानी तत्व पूरी तरह गायब है आज जबकि पहले कहानी एक मुकम्मल कहानी होती थी आज तो जहाँ चाहे छोड़ देते हैं बिना किसी मुकम्मल अंत के तो सोचने वाली बात है वो कहानी कैसे हुई ?तभी आज की कहानी कोई प्रभाव नहीं छोड़ती और लंबे समय तक यादभी नहीं रहती
ReplyDeleteआपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि- आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (01-10-2016) के चर्चा मंच "आदिशक्ति" (चर्चा अंक-2482) पर भी होगी!
ReplyDeleteशारदेय नवरात्रों की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ-
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'