Thursday, October 13, 2016

कविता के मचान से लोक का शिकार – जनवादी कवि और मनुवादी कविता

[पत्रिका - लहक (संपादक: निर्भय देवयांश) के जुलाई-सितंबर अंक में प्रकाशित] - उमाशंकर सिंह परमार 
रीतिकाल के कवि ठाकुर बुन्देलखंडी का कहना था कि  “ढेल सो बनाय आय मेलत सभा के बीच लोगन कवित्त कीनों खेलि करि जान्यों है” ठाकुर का यह कथन कविता की रचना प्रक्रिया को लेकर था । आज भले ही ठाकुर की रचना प्रक्रिया हिन्दी कविता में द्वितीयक हो चुकी हो पर कविता के समक्ष रचनात्मक संकट कम नहीं हुए हैं । हर युग के अपने मूल्य होते हैं यदि हम कविता से लय , ताल , तुक , प्रवाह , ध्वन्यात्मकता , सन्तुलन , जैसे गुणों को बहिष्कृत कर रहे हैं तो कन्टेन्ट की युगीन उपादेयता से कोई समझौता नही हो सकता है कन्टेन्ट सामयिक व जनपक्षीय होना चाहिए । कविता से रीतिशास्त्रीय मूल्यों का निष्कासन कन्टेन्ट की कीमत पर हुआ था । कला के लिए कला के अतिशय कलावादी सिद्धातों को हिन्दी कविता ने आधुनिक काल मे सिरे से अस्वीकार किया है । इतनी छूट होने बावजूद यदि कवि अपनी कविता को समाज के उपेक्षित तबके और सदियों से संघर्षरत हाशिए का सवाल नही बना सकता तो मैं समझता हूं कविता लिखने की कोई जरूरत नही है । किसी समय संस्कृत के आचार्य  मम्मट ने कहा था “खराब कविता लिखना महापाप है” । सम्भव है ठाकुर और मम्मट के युग में भी खराब कवि रहे हों उन कवियों की पहचान भी की गयी हो लेकिन अच्छी कविता के साथ खराब कविता की युगलबन्दी चलती रहती है । यह सनातन समस्या है लेकिन मम्मट और ठाकुर खराब कविता को खराब कहने का साहस रखते थे पर आज की स्वजनवादी आलोचना के युग में ऐसा सम्भव नही है । यदि किसी ने खराब कविता को खराब कह भी दिया तो कवि इतना आत्ममुग्ध हो चुका है वह आलोचना पर ही सवाल खडा कर देता है  । अपनी कमजोरी सुनने का साहस व बडप्पन नही बचा है  खराब कविता की पहचान कला और कन्टेन्ट दोनो स्तरों पर की जानी चाहिए । कन्टेन्ट अनुभव की यथार्थ पुनर्रचना है । जब अनुभव काल की लौह सीमा को फाँदकर बडे अर्थसन्दर्भों का वाहक बनता है तो वहीं से कालजयी रचना उत्पन्न  होती है । मनुष्य की मनोरचना व सामाजिक इतिहास बोध को आपसी सामन्जस्य द्वारा परिस्थिति के अनुरूप व्याख्यायित करना एक सजग सृष्टा की पहचान होती है । कविता में मनुष्यता के मूलभूत तत्वों व प्रतीकार्थ चरित्रों  का आमेलन इसी प्रक्रिया के कारण होता है ।  कला और कथ्य का सामन्जस्य कवि के अनुभवों व उनके रचनात्मक द्वन्द से प्रादुर्भूत होता है किसी कवि में कला प्रभावी होती है तो किसी कवि में कन्टेन्ट प्रभावी होता है । जिस कवि में कला प्रभावी हो उसे हम कमजोर कन्टेन्ट के मामले में छूट नही दे सकते हैं । कन्टेन्ट कविता का मुख्य अभिकथन होता है कविता और कवि का पक्ष निर्धारित करता है । कन्टेन्ट यदि युगीन व प्रभावोत्पादक है तो हम कला के मामले कवि को बक्स सकते हैं कन्टेन्ट ही मूल शर्त है जो किसी कविता को कविता बना सकता है । कविता संज्ञा प्रयुक्त करने का आशय है कि हम कविता रचना की मूल भूत जरूरतों के साथ कन्टेन्ट को स्वीकार कर सकते हैं यदि ऐसा न हो तो ठाकुर का वही कथन “ढेल सो बनाय”  बाध्य होकर कहना पडेगा । कला और कन्टेन्ट की बहस बहुत पुरानी है हम इस पचडे में नहीं पडना चाहते हैं । कला वहीं तक स्वीकार्य जहां वह कथ्य का अपक्षय न करे और कन्टेन्ट वहीं तक स्वीकार्य है जब वह समस्याओं को पेशेवर अन्दाज में सरलीकरण न करे और लोक की मौलिक संरचनाओं को स्थापित मूल्यांकित करते हुए बहुजन समाज की चेतना की पडताल करे  । अधिकतर देखा जाता है कि कवि की जातीय अवस्थिति व उसके जातीय मूल्य कन्टेन्ट में घपलेबाजी कर देते हैं । मनुष्य का स्वभाव है कि वह कितना भी सामन्जस्यवादी होने का आवरण लपेट ले लेकिन अपने अवचेतन में उपस्थित सामन्ती आग्रहों से मुक्त नहीं हो पाता है । इसे हिन्दी का दुर्भाग्य कहें या कुछ और कि बडे बडे नामवर कवि इस दूराग्रह से उबर नहीं पाएं हैं । पुरस्कार जितना बडा बनाते हैं  कविता की गहराई व कविता का अभिकथन उतना ही सामन्ती आग्रहों में डुबो देता है । इस मामले में मैं राजेश जोशी और अष्टभुजा शुक्ला का नाम लेना चाहूंगा दोनो हिन्दी के बडे कवि हैं । राजेश जोशी में कन्टेन्ट प्रभावी होने की बात कही जाती है तो अष्टभुजा शुक्ल में कला प्रभावी होने की बात प्रचारित की जाती है । दोनो सवर्ण हैं ब्राम्हण है । राजेश जोशी सरकारी कर्मचारी हैं  तो अष्टभुजा संस्कृत के आचार्य हैं । राजेश जोशी को साहित्य अकादमी 2002 पुरस्कार से नवाजा गया तो अष्टभुजा शुक्ल को इफको द्वारा ग्यारह लाख का पुरस्कार 2016 में  प्राप्त हुआ है । राजेश जोशी घोषित रूप से जनवादी हैं तो अष्टभुजा शुक्ल घोषित रूप से लोकधर्मी कवि हैं । दोनों हिन्दी कविता में जनवादी मूल्यों के कवि कहे जाते हैं । और इनकी कविताएं भी बडे आलोचकों द्वारा बहु समीक्षित और बहुत प्रचारित हैं । दोनो के पक्ष में लिखना किसी भी आलोचक के लिए गर्व का विषय हो सकता है । यही कारण है पुरानी पीढी और नयी पीढी के युवा आलोचक  इन दोनो कवियों की गहरी पडताल नही कर सके और आज भी पूर्व निर्धारित आलोचकीय अभिमतों की मुकम्मल तर्कों द्वारा प्रतिस्थापना करके अपने आलोचकीय दायित्व की पुष्टि कर देते  हैं ।  हिन्दी आलोचना में पक्ष और विपक्ष का सामन्जस्य कम देखा जाता है । या यूँ कहिए कि पक्ष के बरक्स प्रतिपक्ष को जानबूझकर अनदेखा किया जाता है । आलोचक का दायित्व बस इतना रह गया है कि वह अपनी कलम से चापलूसी की सीमाओं का अतिक्रमण करते हुए कवि को कविता का  खुदा बनाकर स्थापित कर दे । राजेश जोशी हिन्दी कविता में जनवादी चेतना के कवि हैं । समरगाथा , एक दिन बोलेंगें पेढ , मिट्टी का चेहरा , दो पंक्तियों के बीच जैसे कविता संग्रह उनकी प्रतिबद्धता और पक्षधरता का प्रमाण हैं । राजेश जोशी ने राजनीति और कविता के बीच अन्तर को पाट दिया है । हलाँकि राजनीति और कविता सदा से ही परस्पर एक दूसरे से अन्तर्ग्रथित रहे हैं पर इस सन्निकटता के विरुद्ध भी आवाजें उठती रहीं हैं । राजनीति और कविता पृथक अवधारणाओं की वस्तु हैं । अलगाव लाजिमी है लेकिन जब मनुष्य के समस्त संकटों के मूल मे राजनीति ही स्थित हो तो जनवादी कवि कैसे राजनीति से अलग हो सकता है ? जाहिर है वह कविता का मौलिक तत्व अपने इतिहास से तलाशेगा और इतिहास सिद्ध मूल्यों में अपने समय की विसंगतियों की पहचान करेगा । कविता अपने समकाल में लोक की विस्तृत और यथार्थ समझ रखती है लोक की अराजकता व राजनैतिक फासीवाद से उपजे खतरों को कवि नकार नही सकता है राजेश जोशी ने भी नही नकारा है इसलिए राजेश जोशी बेहतरीन राजनैतिक समझ के कवि हैं उनकी कविता “जो अपराधी नहीं होंगें मारे जाएगें”  उनकी कविताई का दीप्यमान उदाहरण है । इस कविता को नकारना कठिन है उदारीकृत लोकतन्त्र द्वारा उत्पन्न नये खतरों को देखते हुए यह कविता किसी भी काल में हमेशा प्रासंगिक  रहेगी । लेकिन केवल राजनीति ही कविता नही है कविता के अपने कुछ मौलिक तत्व होते हैं जो उसे लोक की जमीनी संवेदनाओं से जोडते हैं । अतिराजनीतिक सक्रियता किसी भी कविता को कवित्व से रहित कर बैनरबाजी और पोस्टरबाजी की कटेगरी मे खडा कर देती है । राजेश जोशी के साथ भी यही हुआ है । उन्होने कविता कम लिखीं है पोस्टर अधिक बनाएं हैं उनकी कविता पोस्टरबाजी के कारण शुष्क और अनगढ हो जाती है कहीं कहीं मिथ्या व भावुक प्रलाप भी दिख जाता है ऐसा प्रतीत होने लगता कि जैसे कवि ने घटना को देख लिया और तुरत घर पहुँचकर भाषा का फर्जी वितंडा रच बैठा | संवेदना की कमी और भावुकता की थोथी पोस्टरिंग कविता को यथार्थ से दूर हटाकर मिथकीय गल्प के रूप मे ढाल देती है । उनकी एक कविता है “बच्चे काम पर जा रहे हैं” कोहरे से ढँकी सड़क पर बच्चे काम पर जा रहे हैं /  सुबह सुबह / बच्चे काम पर जा रहे हैं / हमारे समय की सबसे भयानक पंक्ति है यह /  भयानक है इसे विवरण के तरह लिखा जाना / लिखा जाना चाहिए इसे सवाल की तरह /  काम पर क्यों  जा रहे हैं बच्चे”?  इस कविता को पढकर कोई भी कह सकता है कि कवि ने इस कविता को वगैर किसी संवेदनात्मक दबाव के दुहराव के सहारे भाषा का जबरदस्त स्टंट खेला गया है । यदि काम पर जाना भयानक है तो एक बार भयानक शब्द का प्रयोग हो जाने के बाद स्थिति स्पष्ट हो चुकी है बार बार भयानक शब्द का आना कविता को जानबूझकर भयानक कहा गया सिद्ध कर देता है । भयानक शब्द यहाँ अतिपदत्व के दोष से ग्रसित है । और दोहराव कविता को कविता नही रहने देता बल्कि मिथ्या हाहाकर बना कर छोड देता है । राजेश जोशी में ऐसी समस्याएं बहुत हैं । कविता जब बैनर की तरह नारा बना कर लिखी जाएगी तो अतिशयोक्ति पूर्ण मिथ्या भाषा का छद्म तो दिखेगा ही ये कविता मध्यमवर्गीय विचारों से ग्रसित व्यक्ति का झूठा आलाप प्रतीत होती जिसमे संवेदना से अधिक ऊँची भाषायी क्रीडा को तरजीह दी गयी है । साथ ही देखने और अनुभूत करने की रचनात्मक प्रक्रिया गायब सी हो गयी है ।  राजेश जोशी जनवादी कवि हैं जनवाद के प्रति समर्पण होने के बावजूद भी “जन” का एक भी चरित्र उनकी कविता में दिखाई नही देता है । कोई भी कवि हो उसकी संवेदना तब तक नही सत्य प्रतीत होती जब तक उसका लोक कविता में उपस्थित नही हैं । कविता केवल युग का पता नही बताती कवि का भी पता बताती है राजेश जोशी की कविताओं से लोक गायब है । लोक की परम्पराओं असंगतियों विसंगतियों से मुठभेड करने वाले यथार्थ चरित्र व उनकी संवेदनाओं में उपस्थित अपने लोग भी गायब हैं । यदि भूल चूक बस कुछ उपस्थित भी हुआ है तो बैनरबाजी और भाषाई रगड से इतना विकृत कर देते हैं कि कविता जुमले की तरह मजाक बनकर रह जाती है ।  जन गायब है तो जनवादी कैसे हैं ? यह बडा सवाल है । जनवादी कविताओं में सर्वहारा का चरित्र न हो तो कोई बात नही हैं । चरित्र के अभाव का बचाव राजनैतिक बैनरबाजी कर लेगी पर सर्वहारा का विरोध तो कतई क्षम्य नही हैं । इस विषय में राजेश जोशी अपने निजी उच्चमध्यमवर्गीय संस्कारों से बच नही सके हैं उनकी कविता में कई जगह जन का विरोध है सर्वहारा का विरोध है ये विरोध सत्ता और शक्ति के परिरक्षण के लिए बुर्जुवा मानसिकता का दम्भ है देखिए उनकी कविता “शाशक बनने की इच्छा”  “फिर एक दिन परिंदों को एक दरवाजा दिखा / परिंदे उस दरवाजे से आने.जाने लगे / फिर एक दिन परिंदों को एक मेज दिखी / परिंदे उस मेज पर बैठकर सुस्ताने लगे / फिर परिंदों को एक दिन एक कुर्सी दिखी / परिंदे कुर्सी पर बैठे / तो उन्हें तरह.तरह के दिवास्वप्न दिखने लगे / और एक दिन उनमें / शासक बनने की इच्छा जगने लगी” | इस कविता में परिन्दे आम जन का प्रतीक हैं । कवि कहता है आम जन जब शनै: शनै: सत्ता की तरफ बढता है तो कवि को वह अनाधिकार चेष्टा लगता है वह परिन्दों को परजीवी भी सिद्ध कर देता है ।यह कविता सत्ता में आम जन की भागीदारी की मुखालफत करती है । ये मुखालफत उच्चसत्ता भोगी बुर्जुवा अभिजात्य वर्ग का तर्क है । यह समझना शाशक होना मात्र कुछ कुलीनों को ही शोभा देता है लोकातान्त्रिक मूल्यों के विरुद्ध और संवैधानिक आदर्शों के भी खिलाफ है । ये राजेश जोशी की निजी जातीय अवस्थिति का तकाजा है कि वो सर्वहारा के खिलाफ भी कविता मे राजनीति कर बैठते हैं । आलोचकों ने इस ब्राम्हणवादी चेतना को नही परखा है । राजेश जोशी की कविता और उनकी निजी चेतना की बुर्जुवा बनावट का सामन्जस्य और भी कई कविताओं में देखा जा सकता है | राजेश जोशी केवल सर्वहारा विरोध भर से सन्तुष्ट नही हैं वो बनी बनाई जाति व्यवस्था की टूटन और जातीय विखंडन से भी कराह उठते हैं । जाति व्यवस्था भारतीय सामाजिक संरचना का कटुतम पक्ष है । जाति की टूटन से फायदा लोकतन्त्र को है और जाति व्यवस्था के ऊँचे पायदान पर बैठे बुर्जुवा वर्ग को नुकसान होता है । क्योंकी उनसे सुख सुविधाओं का जन्मजात अधिकार छिनने लगता है । राजेश जोशी अपनी उच्चमध्यमवर्गीय जातीय चेतना से बाहर नही निकल सके उन्होने जनवादी होने के बावजूद भी खुद को डिक्लास नही किया इसलिए अपनी कविता “पाँव की नस” में निम्न जातियों को “पाँव की नस” कहते है । ऋग्वेद के पुरुष सूक्त मे भी तथाकथित शूद्रों की उत्पत्ति पैर से बताई गयी है । इसलिए पाँव की नस कहने में राजेश जोशी का कोई हाथ नही है उनकी अपनी सांस्कृतिक और जातीय मजबूरी है । हर एक ऊँची जाति अपने से निम्न जाति को पाँव के नीचे दबाकर रखने मे ही विश्वास करती है देखिए कविता  पाँव की नस  “खींच कर अपना हाथ उंगलियों से टोता हूं नस को / धीरे धीरे सहलाता हूंए दबाता हूं / जातियों के जन्म की कोई मनुवादी धारणा / कौंधती है दिमाग में / इतनी पीड़ा कि फूट पड़ती है हंसी और कराह एक साथ / ओह! पिण्डली की एक नस ने हिला कर रख दिया है /  मेरे पूरे वजूद को कितना असमर्थ कर दिया है इसने / पांव को उतार कर ज़मीन पर टिकाना भी नामुमकिन / कमबख़्त एक नस ने जरा सा ऐंठकर /  हर मुमकिन को कर दिया / नामुमकिन “ | इस कविता से राजेश जोशी के जातिवादी विज्ञान को बखूबी समझा जा सकता है । कवि की पीडा परिवर्तन के विरोध में है प्रतिरोध के खिलाफ है । पाँव की नस की पीडा कवि को परेशान कर देती है वह कराहने लगता है । यदि दलित मजदूर किसान अपना हक माँग रहे है़ तो इससे पक्षधर कवि को कराहना नही चाहिए बल्कि खुश होकर ऐसे सभी परिवर्तनों का स्वागत करना चाहिए । परन्तु राजेश जोशी  की सामाजिक संरचना मनु के विधान से जायी है वो क्यों नही कराहेगें इससे बडी जनविरोधी और क्रान्तिविरोधी कविता मैने कभी नही पढी है । जनवाद की जनविरोधी अभिव्यक्ति ही ऐसे कवियों की प्रतिक्रियादी ताकतों को बढावा देती है द्य विचार मन की रचना से भिन्न होकर मनोव्यथा का रूप भी धारण कर सकते है । कला एवं साहित्य में विचार आवश्यक है परन्तु जब विचार मनोव्यथा बन जाते हैं तो व्यक्ति के निष्कर्षों को भी प्रभावित करने लगते हैं । विचारधारा अनुभवों की अस्त व्यस्त श्रृंखलाओं को मुकम्मल खाँचा प्रदान करके तर्क के रूप में परिवर्तित करती है परन्तु जब विचार मनोव्यथा बन जाएं तो ऐसे किसी भी तर्क की निर्मिति कला और साहित्य के लिए आत्मघाती कदम होता है । राजेश जोशी जनवादी कवि हैं परन्तु वो अपनी ब्राम्हणवादी पौराणिक मनोवृत्ति से उबर नहीं पाए हैं । इसलिए उनका जनवाद ब्राम्हणवाद के साथ हिलमिल कर गजब तरीके से गुल खिला रहा है । यह गुल तब और मजेदार हो जाता है जब आलोचक इसमे अपनी आलोचना छौंका लगा देते हैं । ब्राम्हणवाद हमेशा मिथकों और मूर्तियों का समर्थक रहा है उसे अपनी ऊर्जा व फासिस्ट मनोवृत्ति के चतुदर्दिक सुरक्षा कवच मिथकों की साझेदारी ही उपलब्ध कराती रही है यही कारण है आज भी मूर्तियों के खंडन और स्थापना को लेकर तमाम साम्प्रदायिक दंगें हो रहे हैं । मूर्तियों ने इस देश में साम्प्रदायिकता का खूनी खेल खेला है । एक प्रतिबद्ध  मार्क्सवादी कभी भी मूर्तियों का निर्माण नही करता है न मूर्ति खंडन से विचलित होता है । परन्तु राजेश जोशी का मार्क्सवाद थोडा सा अलग है या कहिए जनवाद के एकदम विपरीत है वो मूर्तियों के खंडन का विलाप करते नजर आते हैं । मूर्ति सामन्ती प्रतीक हैं यदि पानी मे बहायी जा रहीं हैं तो इसमे रोने धोने जैसी कोई बात नही हैं पर उनकी कविता “यह समय” कुछ और कह रही है “यह मूर्तियों को सिराये जाने का समय है / मूर्तियाँ सिराई जा रही हैं / दिमाग़ में सिर्फ़ एक सन्नाटा है / मस्तिष्क में कोई विचार नहीं / मन में कोई भाव नहीं / काले जल में , बस मूर्ति का मुकुट / धीरे धीरे डूब रहा है” | मूर्ति को बहा देना मूर्ति के अस्तित्व को अस्वीकार कर देना है ये साहसपूर्ण कार्य मुकम्मल विचारधारा के वगैर नही हो सकता है पर इसमे राजेश जोशी “दिमाग में सन्नाटा” देखते हैं मन मे उदासीनता देखते हैं । यदि मूर्ति के अस्तित्व का नकार उनकी अपनी आईडियालाजी से मेल खाता तो उनका मन कतई उदासीन न होता । दर असल ये उदासीनता पौराणिक सामन्तवादी मूल्यों के टूटन की व्यथा है । जिसे कवि बचाकर रखना चाहता है पर समय उसे तोड रहा है । ऐसे मे कवि समय की आलोचना न करेगा तो क्या करेगा । राजेश जोशी की मनोव्यथा उन्हे पलायनवाद के स्तर पर खडा कर देती है । दर असल जब समय अपनी रफ्तार में बदलाव तय करने लगता है तब अतीत प्रेमी व्यक्ति अपने आप को असहाय पाता है । वह चाह कर भी परिवर्तन को रोक नही पाता है ।  ऐसी स्थिति में व्यक्ति की मनोरचना  किसी भी क्रान्ति के विपरीत हो जाती है । व्यक्ति परिवर्तनों से घबराता है डरता है भयभीत होता है वो परिवर्तनों को उस रूप मे स्वीकार नही करता जिससे नवीन चेतना व नव निर्माण के सपने देखे जा सकते हैं देखिए राजेश जोशी भी इसी ग्रन्थि का शिकार हैं उनकी कविता है “वृक्षों का प्रार्थना गीत”  आप भी पढें और परखें  “मत छुओ  हमे मत छुओ बसन्त / अब नहीं हो सकता  छुपम. छुपेया का खेल / तुम छुओ ‌और हम उड़ जाएँ / अन्तरिक्ष में / लुक जाएँ किसी नक्षत्र  किसी ग्रह उपग्रह / या तारे की आड़ में” | इस कविता में कवि वृक्षों के बहाने समूचे जगत को ही नकार बैठा है क्रान्ति से इतना त्रसित है कि वह क्रान्ति को भी अपने अनुरूप आकार दे रहा है । हर परिवर्तन को अपनी वर्गीय अवस्थिति में ढाल कर अपने अनुरुप व्यवस्था तय कर लेने की कल्पना करना पतनशील बुर्जुवा का मध्यमवर्गीय चरित्र है । इसे राजेश जोशी की इस कविता मे देखा जा सकता है । पहले तो कवि बसन्त से बचना चाहता है फिर बसन्त का स्पर्श भी उसे चाहिए तो केवल दूर आन्तरिक्ष और ग्रह उपग्रह मे बसने के लिए न कि इस धरती पर ठहरने के लिए । क्रान्ति से कवि इतना भयग्रसित है कि उसे अपना ब्राम्हणवादी साम्राज्य धसकता नजर आने लगा है । इसलिए वो इस लोक से पलायन करना चाहता है । पलायनवाद उच्चमध्यमवर्गीय बुर्जुवा का मौलिक चरित्र है । इस प्रवृत्ति से बहुत से कवि ग्रसित हैं । हिन्दी कविता की लोकधर्मी परम्परा को बचाए रखने के लिए भाषा की बैनरबाजी करने वाले कवियों व जनविरोधी समूहों की आलोचना करना चाहिए शिवादान सिंह चौहान आलोचक को साहित्य मन्दिर का द्वारपाल कहा करते थे वो इसलिए  कि आलोचक कविता मे गलत प्रवृत्तियों की पहचान करके सामन्ती व जनता के दिमाग को भृष्ट करने वाले साहित्य का प्रतिरोध करता है साथ ही आलोचक अपने दायित्व का निर्वहन करते हुए रचनाकारों को जनता की समझ और चेतना से जोडता है  । मगर आज आलोचना का आशय कुछ और हो गया है कवि और आलोचक के रिश्तों में स्वार्थपरकता और आत्ममुग्धता का खतरनाक कीडा प्रवेश कर गया है जिसे आजकल कवि कीर्तन जैसी स्वजनवादी आलोचना के रूप मे देखा जा सकता है । कवि को पुरस्कार मिलते ही उसके पीछे नवजात आलोचकों की भीड पछिया लेती है । विचारधारा और युगबोध को धता बताते हुए ऐन केन प्रकारेण पुरस्कृत कवि को कालजयी बताने का षडयन्त्र करने लगते हैं । जाहिर है ऐसे आलोचकों की संगत से कवि की सेहत और बन जाती है और वह आत्ममुग्धता की हदों को पार करता हुआ अहंकार की सीमाओं को तोडता हुआ खुद को अकाट्य समझ लेता है । यदि किसी ने कविता के खिलाफ बात की तो दुश्मनी और गाली गलौच तक की स्थिति आ जाती है । जबकि कविता प्रकाशित होने के बाद कवि की निजी वस्तु नही रह जाती है वह पाठक की हो जाती है । कोई प्रसंशा करता है कोई निन्दा करता है रचना अपनी जिन्दगी थकते हारते स्वयं जीने लगती है । रचना की इस जिन्दगी को देखने का अपना मजा है पर राजेश जोशी जैसे कवि को भी अपने ऊपर इतना गुमान है कि वो विपरीत आलोचकों को मच्छर की संज्ञा  से विभूषित कर देते हैं । ध्यान रहना चाहिए कि आलोचकों के कारण ही आपको साहित्य अकादमी मिला है । आप बडे कवि के रूप मे जाने जाते हैं इसके मूल  में आलोचक ही हैं अब आलोचकों से आप चाहते क्या हैं ? वो आपको ज्ञानपीठ की सिफारिश करें ? या नोबेल की सिफारिश करें ? आज की तिथि में जो भी आपके पास है वो आलोचकों की तर्क प्रक्रिया के कारण है शुक्र मनाईए वो आपके विपरीत नही गए है । कोई भी कवि हमेशा अच्छी कविता नही लिखता न उसकी सारी रचनाएं बुरी होती हैं । अच्छी रचना और बुरी रचनाएं हर कवि के पास होती है । अच्छी रचना की प्रसंशा होती है तो बुरी रचना की निन्दा भी होती है । दोनो होना भी चाहिए यदि सौ प्रसंशाओं के बीच एक नकारात्मक आलोचना हो जाए तो कवि को विफरना नहीं चाहिए जैसे राजेश जोशी विफर रहे हैं देखिए कविता “मुहावरे इसी तरह क्षमताओं का पूरा प्रयोग करने से / आदमी को रोकते हैं / और मच्छरों द्वारा कवियों के काम में पैदा की गयी / अड़चनों के बारे में / अभी तक आलोचना में विचार नहीं किया गया / ले देकर अब कवियों से ही कुछ उम्मीद बची है / कि वे कविता की कई अलक्षित खूबियों / और दिक्कतों के बारे में भी सोचें | इस कविता मे राजेश जोशी आलोचक को मच्छर की संज्ञा से विभूषित कर रहे हैं । यह सवाल आलोचना का नही है बल्कि कवि की आत्ममुग्धता का भीषण प्रदर्शन है । यदि आलोचक मच्छर है तो भयानक भयानक चिल्लाकर आँसू बहाने वाले कवि  गिरगिट और घडियाल होने चाहिए ।  नकारात्मक आलोचना की बर्दास्त क्षमता जिस कवि मे न हो उसे मैं बडा कवि कतई नहीं मान सकता हूं । इस कविता का मेरे द्वारा किया गया पाठ उनके एक प्रिय आलोचक ने मुझे बताया था । उनका दावा था कि राजेश जोशी भी इसी पाठ को स्वीकार करते हैं । यदि राजेश जोशी रचनात्मकता को वैयक्तिक दुश्मनी के रूप में देखते हैं तो यह खेद की बात है । यह कविता उनकी समूची कविताई पर सबसे बडा सवालिया निशान है ।
अष्टभुजा शुक्ल राजेश जोशी जैसै शहर वासी नही हैं जनपद के कवि कहे जाते हैं । अपने जनपद में ही रहते हैं । अष्टभुजा शुक्ल में लोक अपनी समूची सत्ता के साथ उपस्थित है लोकभाषा , लोकबिम्ब , लोककला , लोकछन्द  और लोक के गीतों में व्याप्त लय भी उनकी कविताई में देखी जा सकती है । उनकी कविता को काव्यशास्त्रीय  प्रतिमानों के आधार पर कविता कहा जा सकता है  । लोक से उपार्जित भाषा को कैसे काव्य भाषा में तब्दील किया जाता है ये अष्टभुजा शुक्ल से सीखा जा सकता है वो अपनी तरह के अनूठे कवि हैं जो छन्द ताल और तुक की संगीतमय संधियों के कारण त्रिलोचन की कविताई के अति निकट हैं  । अभी वर्ष 2016 का श्रीलाल शुक्ल सम्मान अष्टभुजा शुक्ल को दिया गया है । यह सम्मान इफको द्वारा दिया जाता है सम्मान की राशि ग्यारह लाख रुपये है । एक तरफ किसान आत्महत्या कर रहे हैं बुन्देलखंड सूखा और कर्ज के महाजाल मे उलझा है दूसरी तरफ किसानों द्वारा खरीदी गयी खाद के लाभांस पर ग्यारह लाख लुटाया जा रहा है तो जरूर कविताई में कोई बडी बात होगी । यह पुरस्कार एक उत्पादक व्यापारी संस्था द्वारा दिया गया है ।  कोई भी पूँजीवादी संस्था फ्री फोकट मे धन नही बाँटती इसके पीछे गम्भीर कारण होते हैं । दर असल यह उदारीकृत लोकतन्त्र का युग है आवारा पूँजी का एकमात्र लक्ष्य है जितना हो सके प्रतिमानों को बदलो । प्रतिरोध की धार कुन्द करो । उदारीकृत भूमंडलीकृत व्यवस्था में शोषण का भूगोल गाँव और जंगलों से होकर गुजरता है । जाहिर है जहां शोषण होगा वहीं प्रतिरोध की सम्भावनाएं होंगी । इसलिए लोकचिन्तन की मौलिक धारा प्रतिरोध को   कुन्द करने के लिए वैश्विक पूँजी हर स्तर पर नये नये कुचक्र रच रही है । प्रतिरोध का रेखांकन या तो साहित्य कर सकता है या मीडिया कर सकता है । मीडिया तो वैसे भी बडे पूँजीपति घरानों के हाथ में है अत: मीडिया से कोई आशा नहीं की जा सकती है । इसलिए कारपोरेट जगत की निगाह लोकधर्मी साहित्य पर ठिठक गयी है वह प्रतिरोध विहीन साहित्य को  बढावा देकर वैश्विक पूँजीवाद के मंसूबों को कामयाब करना चाहते हैं । इसलिए आजकल बडी बडी कम्पनियां या कारपोरेट पोषित संस्थाएं पुरस्कारों के बहाने कविता में प्रतिरोध विहीनता का नया प्रतिमान तय कर रहे हैं। अष्टभुजा शुक्ल की भाषा व लोक अपरूपों का गुम्फन देखकर कोई भी पाठक चमत्कृत हो सकता है । कोई भी उन्हे लोकधर्मी कवि कह सकता है । लेकिन लोक की अवधारणा व सैद्धांतिक संरचना के  बरक्स यदि अष्टभुजा शुक्ल को परखा जाय तो कहीं से भी वो लोकधर्मी नही ठहरते है । अष्टभुजा का लोक बिल्कुल वैसा है जैसा रोमैन्टिसिज्म की बनावटी भंगिमाओं में मिलता है । लोक का अर्थ आम जन है जिसमे उत्पादक व सत्ता सम्पत्ति और उसके स्वामी वर्ग का कोई अस्तित्व नही है । लोक महज भाषा और काव्य बनावट का सवाल नही है बल्कि वर्गीय दृष्टि का सवाल है । लोक रौमैन्टिसिज्म व अतीत की अवधारणाओं का आधुनिकीकरण नही हैं बल्कि वर्गीय संघर्षों के एतिहासिक प्रतिफलन का सवाल है । लोक केवल अपरुपों का भावुक रेखांकन नही है अपितु उपेक्षित शोषित समुदायों की पक्षधरता का सवाल है । वगैर डायलैक्टिक थ्योरी के लोक की कल्पना करना लोक के प्रति बुर्जुवा कुप्रचार का हिस्सा है । बुर्जुवा सत्ता सेवी साहित्यकारों ने लोक को सामन्ती अवधारणाओं से जोडने मे कोई कसर नही छोडी है अस्तु लोक के सम्बन्ध तमाम भ्रम आज आज भी जस के तस बने हुए हैं । बहुत से कवि हैं जो गाँव मे रहते हुए भी संघर्षों को अनदेखा करते हैं पूँजी द्वारा तयशुदा परिवेश के खिलाफ लिखना तो दूर वो रौमैन्टिसिज्म मे इतना डूब जाते हैं कि लोक की संकल्पना को ही ध्वस्त कर देते हैं । अष्टभुजा का शुक्ल का जनपद और लोक सामन्ती है । विचारधारा के अभाव ने उनकी कविताओं को व्यापक मन्तव्यों से हटाकर सामन्ती ब्राम्हणवाद का पोषक बना दिया है । राजेश जोशी बैनरबाजी और पोस्टरबाजी की आड में बुर्जुवा मूल्यों की स्थापना कर जाते हैं तो अष्टभुजा शुक्ल लोक की शक्ल मे ही लोक की माँद में घुसकर लोक का शिकार करने लगते हैं । देखिए अष्टभुजा शुक्ल की एक कविता “अभिशप्त” इस कविता में शुक्ल जी का सामन्ती नजरिया दूध की तरह सफेद दिखने लगता है । “कटीली झाड़ी को / कौन.सा अभिशाप / देंगे आप / सूअर को चींटी को / ढाल को आँसुओं को / आप / देंगे कौन सा अभिशाप” | वैभवशाली समुदाय कमजोर तबके की स्थिति को हमेशा भाग्य का खेल मानकर चलता है । सम्पत्ति और सुख भाग्य की वजह से नही व्यवस्था की वजह से है । समाज के निरीह और उपेक्षित वर्ग को निरीह कहना उसे अभिसप्त मान लेना बुर्जुवा नजरिया है । कोई क्यों अभिसप्त है ? क्या शरीर की बनावट  रंग व अवस्थिति के कारण वो हेय है ? और इतनी नफरत की आप उसे अभिशाप के योग्य भी नही मानते हैं । कमजोर कमजोर चीखकर कमजोर तबके को हीनता बोध देती यह कविता लोकचेतना का सत्यानास कर रही है कवि का धर्म है कि चेतना को परिवर्तनकामी संगठन की ओर मोडे । हर इंसान को बराबर समझकर आपस में संगठित होने की जरूरत पर जोर दे । लेकिन जहां लोक के प्रति दृष्टि मे ही संकट है वहां ऐसी आशा करना बेकार है | अष्टभुजा शुक्ल उपेक्षित समुदाय के प्रति जो करुणा दिखाते है वह भाषा के स्तर पर आरम्भ होती है और भाषा के साथ थोडा सा चमत्कार दिखाती है चमत्कार के खतम होते ही संवेदना भी खतम हो जाती है । भाषा से कवि की संवेदना विनिर्मिति समझ मे आ जाती है । भाषा से संवेदना व लोक की पीडाओं का खाका भी खींच सकते हैं ऐसी कविताएं बडी कारीगरी से चेतना के खिलाफ काम करती हैं । भाषा आधारित संवेदना का सच उनकी कविताओं को ऊपररले तौर पर पढकर नही समझा जा सकता बल्कि सूक्ष्म से सूक्ष्म तन्तुवों को छेडना पडता है देखिए प्रेम को कैसे व्याख्यायित करते हैं । प्रेम ही करुणा और क्रान्ति का जनक है । प्रेम व्यक्ति को मनुष्यता की उद्दात ऊंचाईयों तक ले जाकर प्रिय समुदाय की उत्पीडनकारी अवस्थितियों के विरुद्ध प्रतिरोध की भाषा देता है । अष्टभुजा शुक्ल में प्रतिरोध की मुद्रा नही है क्योंकी वो प्रेम को ही ठिकाने से नही समझ पाते प्रेम का जितना भद्दा मजाक अष्टभुजा शुक्ल ने बनाया है उतना मंचीय नचैया गवैया चुटकुला बाज कवि भी नही बनाते है | देखिए एक कविता “अपने प्रेम को”  “अपने साथ रहते रहते / जब कुछ कुछ ऊबने लगा प्रेम    / तो उसे मैंने / बालू भरी बाल्टियों की तरह / जगह जगह रख दिया  नफ़रत की आग बुझाने के लिए/ उसी दिन से / मैंने कहीं नहीं जाने दिया अन्यत्र / अपने प्रेम को / शब्दों में रखकर / हो गया निश्चिन्त / कि उसके लिए / कविता से आदर्श और अच्छी / दूसरी कोई जगह नहीं” | कवि जब प्रेम के साथ रहते रहते ऊब गया  तो बाल्टी मे भरकर टाँग देता है जैसे आग बुझाने के लिए बालू टाँग दी जाती है । प्रेम पर चुटकुले बाजी करते समय अष्टभुजा शुक्ल कबीर को भूल जाते हैं “सीस उतारे हाथ कर” मतलब प्रेम वीरों का श्रृंगार है । संघर्षों की प्रेरणा है । पर अष्टभुजा प्रेम को शब्दों तक ही सीमित रखने की घोषणा करते हैं उनकी मान्यता है यथार्थ में प्रेम वगैरा कुछ नही महज लफ्फाजी है । बस उसे कविता जैसे अजायब घर मे शब्दों के साथ रख दिया जाय ताकि वह भी आदर्श दिखे । प्रेम की निन्दा के साथ वो कविता की उपयोगिता व समझ पर भी सवाल खडा कर देते हैं । यदि प्रेम के लिए मनुष्य का जीवन आदर्श नही हो सकता तो कविता कैसे आदर्श आदर्श हो सकती है ? कविता भी तो जीवन की उपज है । इसका आशय है कि अष्टभुजा शुक्ल कविता को जीवन का सवाल नही समझते बल्कि भाषा का बनाया हुआ फ्रिज समझते हैं जिसमे तरह प्रेम , संवेदना , करुणा , पीडा जैसे भाव जबरिया ठूँस दिए जाते हैं । ये  अष्टभुजा शुक्ल की रचना प्रक्रिया है | इस प्रक्रिया को प्रकट करके वो प्रतिरोधी कविता के खिलाफ अपनी उच्चवर्गीय बुर्जुवा मनोस्थिति का सच उगल देते हैं ।  जब व्यक्ति प्रेम को नकारने लगता है तो रिश्तों की अहमियत खत्म होने लगती है । वह जहां भी देखता है शुष्कता और यान्त्रिकता दिखती है ऐसे व्यक्ति के लिए संसार के समस्त दुख कष्ट यंत्रणाएं झूठी प्रतीत होती है अत: झूठ का प्रतिरोध कैसा ? लोक का मौलिक स्वरूप संघर्ष है । यदि लोक को किसी भी व्यापक बदलाव से बचाना है तो आक्रोश व प्रतिरोध को रोकना बेहद जरूरी है । इसलिए अष्टभुजा कविता को ही खारिज कर देने मे आमादा हो जाते है़ । यह सच है कविता क्रान्ति नही करती है पर वगैर कविता के क्रान्ति भी नही होती है । कविता के बहाने लोक की संघर्षरत सम्भावनाओं को रोकने की पुरजोर कोशिश करते हैं एक ओर माखनलाल चतुर्वेदी ब्रितानी सत्ता के खिलाफ युवा वर्ग का आवाहन करते हैं  “एक प्रथ्वी एक सिर का मोल कर दे , प्राण अन्तर मे लिए पागल जवानी , कौन कहता है कि तु विधवा हुई खो आज पानी” माखनलाल चतुर्वेदी ही क्यों राष्ट्रीय आन्दोलन से जुडा हर साहित्यकार युवा वर्ग मे ही बदलाव की उम्मीद देखता है । युवा देश की ताकत है । लेकिन अष्टभुजा शुक्ल का आवाहन देखिए “जवान होते बेटो ! / इतना झुकना / इतना / कि समतल भी ख़ुद को तुमसे ऊँचा समझे / कि चींटी भी तुम्हारे पेट के नीचे से निकल जाए” | अष्टभुजा शुक्ल झुकने की सलाह दे रहे हैं । युवा वर्ग को झुकाकर बदलाव की सम्भावनाओं को खतम कर देने की अतार्किक कोशिश है । आखिरकार क्यों न कोशिश करें ? अष्टभुजा शुक्ल भी उसी व्यवस्था के पक्षधर हैं जो मनुवादी ढाँचे मे ही सामाजिक समरसता का सपना देखती है । ये मध्यमवर्गीय प्रवृत्ति है जो व्यक्ति की यथार्थ नजरों को छीनकर सत्ता पोषित छद्म का पोषण करने को बाध्य करती है । लोक भाषा और लोक के आवरण में लोक को कितनी बेरहमी से कुचला जा सकता है लोक को कायरता की पट्टी पढाने में पांडित्य का किस कदर दुरुपयोग किया जा सकता अष्टभुजा शुक्ल की कविता से समझा जा सकता है । यही नहीं अष्टभुजा शुक्ल धार्मिक वाह्य आचारों को भी गोल मोल ढंग से बचाना चाहते हैं । धर्म ही है जो जातीय श्रेष्ठतावाद व सत्ता की सुरक्षा मे सहायक होता है । सरमा नामक कुतिया के बोल देखिए अष्टभुजा शुक्ल का पुरोहित प्रेम प्रकट हो जाता है । पुरोहित यदि किसी को मार भी दें तो उससे केवल गुस्से का अहसास करा देना चाहिए वोट द्वारा या चोट द्वारा व्यवस्था को नही तोडना चाहिए इस कविता में अष्टभुजा भी अपनी निजी जातीय अवस्थिति का खतरनाक ढंग से शिकार हो जाते हैं ब्राम्हणवाद के प्रति अष्टभुजा शुक्ल का यह सम्मोहन आप भी देखिए “मार का बदला काट से नहीं ले सकती / चोट का बदला वोट से नहीं ले सकती / बदले की भावना से नहीं प्रेरित होते आर्तजन / बहुत दुखी होने पर दे सकते हैं अभिशाप / मैं तुम्हें अभिशाप देती हूँ / जाओ तुम सब कुत्ते हो जाओ / आओ मेरे शावक / आओ मेरे मुन्ने / रो‍ओ मत / आओ मेरे सरमेय / फिर कभी उधर मत जाना / याज्ञिकों के आसपास कदापि न मँडराना” | यज्ञिकों के आस पास भी न मँडराना । यज्ञिकों को बचाकर ही व्यवस्था में शोषण के तर्क और जातीय मुफ्तखोरी को बरकरार रखा जा सकता है । जातीय विभाजन के बूते सदियों से मलाई  सेवन करते करते बुर्जुवा वर्ण कितने क्रान्ति विरोधी होते हो चुके हैं इस  कविता में देखा जा सकता है | जहां वर्ण व्यवस्था को बचाने की आलौकिक टेक्निक का अतार्किक प्रमाणन उपस्थित  हैं । अष्टभुजा शुक्ल की बहुत सी कविताएं बे सिर पैर की हैं न कोई कथ्य न कोई शिल्प न चमत्कार न गढन न प्रभावोत्पादकता न लालित्य कुछ भी नही है । मिट्टी के ढेले जैसे कुपदों को फेंकने की कला मे शुक्ल जी पारंगत है़ । ऐसी कविताओं को देखकर ही ठाकुर कवि ने कहा था कि “लोगन कवित्त कीन्हो खेल करि जानो हैं”  पता नही कविता का नाम देकर कागज रंगने से क्या तोष प्राप्त होता है ? आप देखिए इस कविता को “वह क्या था / जो नदी में था / समुद्र में नहीं था / वह क्या था / जो समुद्र में था / नदी में नहीं था / वह क्या था / जो नदी और समुद्र / दोनों में नहीं था” |  अब आप बताईए क्या ये कविता है ? किस तर्क से इसे कविता कहा जाय ? बस एक ही तर्क है इसे कविता कहने का कि हिन्दी का पुरस्कृत कवि लिख रहा है तो जरूर कविता होगी । अति साधारण कथन को साधारण सवालों को जीवन के सामान्य से अनुभव को जिसे हम हमेशा देखते है़ वैचारिक कंगाली के साथ लिख देना कविता नही है कविता के सामन्य लक्षण भी परिलक्षित होने चाहिए । ऐसी बकवास कविताओं की अष्टभुजा शुक्ल मे भरमार है । खैर जो भी हो राजेश जोशी और अष्टभुजा शुक्ल दोनों की अपनी सीमाएं हैं । जब विचारधारा महज फैशन बनकर रह जाती है तब कविता भी कवि के निजी व्यक्तित्व की पहचान करा देती है । हमे आलोचकों और प्रकाशकों की सधी बधी गैंगबाजी से हटकर पुरस्कारों की चकाचौंध से बाहर निकलकर कवियों को परखना होगा तभी हिन्दी कविता को छद्म के महाजाल से ऊबारा जा सकता है । और नागार्जुन केदार त्रिलोचन की परम्परा को पुन: स्थापित किया जा सकता है ।

                                                उमाशंकर सिंह परमार
                                                                                            जनपद बांदा, उत्तर प्रदेश

                                                   9838610776 



1 comment:

  1. आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि- आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (14-10-2016) के चर्चा मंच "रावण कभी नहीं मरता" {चर्चा अंक- 2495} पर भी होगी!
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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