[ यह समालोचना नई दिल्ली से प्रकाशित पत्रिका 'युद्धरत आम आदमी ' (संपादक-रमणिका गुप्ता ) के अंक सितंबर, 2016 में प्रकाशित हुई है। ]
(कवि शम्भु बादल के कृतित्व पर केन्द्रित)
--------------------------------------------------
(कवि शम्भु बादल के कृतित्व पर केन्द्रित)
--------------------------------------------------
यह केवल संयोग नहीं कि समकालीन हिन्दी कविता में एक साथ कई पीढ़ियाँ काम कर रही हैं, जिनमें कई भावधाराएँ विभिन्न स्तरों पर
प्रवहमान हैं। यह हिन्दी साहित्य का तिलस्म ही कहा जाएगा कि भाषा और कविता के
प्रति आदिम लगाव के कारण हर वर्ष कविता की सैकड़ों किताबें छापी जाती हैं पर इनमें
नकली कवि की किताबी कविताओं की ही होड़ लगी रहती है। यह बात पाठक के मन को कोचती है कि यशकामी कवियों
की फालतू कविताओं की बाढ़ में उन कवियों की कोई सुध नहीं लेता जो लंबे समय से कविता में अपनी गरिमामय उपस्थिति बनाए हुए जोड़, जुगत और गुटबाजी की राजनीति से दूर
हैं, जबकि निरर्थक रचना को सार्थक बनाकर पेश करने का उपक्रम भी
बदस्तूर जारी रहता है, हालाकि गिनती के हिसाब से इन
महत्वपूर्ण कवियों की तादाद ज्यादा नहीं होगी, बल्कि
उँगलियों पर गिनती की जा सकती है |
ऐसे ही एक अलहदा लोकधर्मी कवि हैं शम्भु बादल, जिनकी ‘पैदल चलने वाले पूछते हैं’ कविता-संकलन (1986) से ‘शम्भु बादल की चुनी हुई कविताएं (2016) तक चार काव्य-संग्रहों के आ जाने के
बावजूद इन पर मुकम्मल तौर पर समालोचकों की नज़र-ए-इनायत नहीं हुई | इस बीच ‘मौसम को हाँक चलो (2007), सपनों से बनते हैं सपने (2010) – नाम से दो और काव्य-संग्रह भी हिन्दी के दृश्य-पटल
पर आए। खैर, यहाँ कवि शम्भु बादल के उपेक्षा-राग से अपनी बात शुरू करने के बजाय इनके सृजन की उन खूबियों से पाठक को रु-ब-रु कराना ही इस
आलेख का मूल उत्स है, जिसके केंद्र में कवि
का अब तक किया-धरा कृतित्व और व्यक्तित्व हैं। कविताओं से गुजरते हुए हम महसूस कर सकते हैं कि कवि की भाषा और उसके
शिल्प और कहन के अंजाद-ए-बयां सर्वहारा वर्ग के विद्रोह
और संघर्ष के व्यापक संसार के साथ निरंतर जुड़ते
और विकसित होते चले गए हैं। यहाँ हिन्दी कविता में जनसंवेदना की नवता के मध्य लोक-चेतना
और जनविद्रोही स्वरों से युक्त कविताएँ पाठकों में एक समझ पैदा करते हुए हिन्दी
साहित्य को समृद्ध करती हैं।
शम्भु बादल की कविताएं समय की विद्रूपताओं और विपरीत परिस्थितियों के विरुद्ध संघर्ष में जन के साथ सदैव खड़ी दिखती हैं। इनके
काव्य-जगत में समाज के उत्पीड़ित पात्र क्रांतिकारी नायकों के विचारों- भावों- व्यक्तित्वों से प्रभावित होकर प्रतिकूल परिस्थितियों को बदलने के
लिए तत्पर व सक्रिय रहते हैं। यहां पात्र विशेष ही नहीं, उसके साथ पूरा समाज उद्वेलित, गतिशील और संघर्षरत दिखता है। परिदृश्य में शोषण, दमन, उत्पीड़न के केवल चित्र ही उपस्थित नहीं होते हैं, बल्कि उनके प्रतिकार, संघर्ष और जनविद्रोह की गहरी
अर्थ-छवियाँ भी बनती हैं।
कवि की पहली ही लंबी कविता की
पुस्तक “पैदल चलने वाले पूछते हैं” का सेरा नामक पात्र (जो बचपन में होटल में कप-प्लेट धोने का काम करता है) प्रतिरोधी चरित्र के रूप में विकसित होता है। सेरा विद्रोह एवं सामूहिक चेतना से संपन्न होकर “आंधी”, “बिजली”, “पहाड़”, “तोप” से भी टकराने का साहस रखता है, “चाहे आंधी आए”, “चाहे बिजली कौंधे”, “चाहे पहाड़ घिर जाए”, “चाहे तोप चल जाए”- “हम रहेंगे साथ / हम बोलेंगे साथ / हम लड़ेंगे साथ साथ
साथ /” (पृष्ठ संख्या: 69-70)। सामूहिक जीत के प्रति वह आश्वस्त है, “हम जीतेंगे साथ”। पहले
ही कविता–संग्रह में शंभु बादल ने
अपने विद्रोही स्वभाव और चरित्र का संकेत दे दिया था। यह व्यापक जनवादी संदर्भों
की 12 खंडों में एक लंबी कविता है,
जिसमें सेरा (एक
पात्र) के
सवाल श्रमजीवी स्पर्श पाकर नई ताकत प्राप्त करते हैं – ‘हम गीता की आत्मा नहीं / विद्रूप हैं / सुरूपता के नाम पर / हमें और विद्रूप बनाने की चाल / चल रहा कौन? / भूख से मौत के लिए / कौन ज़िम्मेदार है ? / मृत या / जीवित मनुष्य ?’
ऐसे बहुत सारे सेरा
के अनगढ़ सवाल भद्रलोक के भद्राचार को तोड़ते नजर आते हैं, जिन्हें
बिना किसी अतिरिक्त सर्जनात्मकता या सुघड़ता के कवि ने कविता में रखते हुए अपनी
जनपक्षधरता को वैचारिक प्रतिबद्धता के साथ मजबूती प्रदान की है। पैदल चलने वाले जन
के आज भी ये ही सवाल हैं और अब इन्हें इन सवालों को पूछने और ढूँढने से रोका नहीं
जा सकता। यह शम्भु बादल की कविता की दीर्घजीविता का प्रमाण है।
बादल जी का दूसरा संग्रह काफी विलंब से बीस वर्षों के अंतराल पर आया – ‘मौसम को हाँक चलो’ (2007) । इन
वर्षों में लोकजीवन में सामाजिक-आर्थिक विषमता और गहरायी,
विपन्नता और नए वीभत्स रूप में हमारे सामने आई, राजनीतिक जीवन ज्यादा अराजक और कुचक्रों के शिकार होने लगे, नायकों के और कुत्सित चरित्र उजागर हुए, उन सबकी ही
बानगी दूसरे संग्रह में मौजूद है। समकालीन
कविता के व्यापक फलक से गुजरते हुए मेरे जेहन में यह बात पैठ जाती है कि किसी- न-
किसी रूप में ये कविताएँ प्रत्यक्षत: या परोक्षत: अपने समय की विडंबित-त्रासद
स्थितियों से टकराती हैं और अंततोगत्वा विरोध और विद्रोह का एक जनवादी शक्ल तैयार
करती हैं। यहाँ कविताएँ धूमिल
की कविताओं की तरह बदलाव के लिए केवल संकल्प या बयान भर नहीं हैं, न ही मात्र जनचरित्री और प्रतिपक्षधर्मी होने तक सीमित हैं, बल्कि
इनको पढ़ते हुए अपने अंतर्तम
में हम उस आग को महसूस करने लगते हैं, जिसका ताप कवि के सृजन-परिवेश से होते हुए हमें
लोक के गहन यथार्थ के उस सिरे तक ले जाता है, जहाँ जन एक नई लड़ाई के लिए ऊर्जावान और तैयार दिखता है। इसे सोदाहरण समझने के लिए यहाँ ‘कोल्हा मोची’ नामक कविता देखी जा सकती है:
‘कमाचियाँ जब पड़ती हैं ढोल पर / तो बजता है ढोल /
डिन-डिन-डिन डिडिक-डिडिक / डिन-डिन-डिन डिडिक-डिडिक / और गूँजता है जीवन /कोल्हा मोची का / बाप का /
दादे का / परदादे
का’
-उपर्युक्त पंक्तियाँ कविता “कोल्हा मोची” का
पहला पैराग्राफ है
जो कवि की वर्गीय अंतर्दृष्टि और चेतना के बीहड़ यथार्थ से हमें रु-ब-रु कराती हैं।
लक्ष्य किया जा सकता है कि आजादी के इतने वर्ष बाद भी दमित-शोषित वर्ग का
जीवन-स्तर सुधरा नहीं (यानि,
कोल्हा मोची के बाप-दादों, पुरखों के जीवन से लेकर अब तक का
उसका अपना जीवन भी ‘ढोल पर’ कमाचियों
की चोट से चलता है)। बिम्बात्मक व्यंग्य
की गहरी अर्थ-छवियाँ रचती, नवसामंती व्यवस्था के चेहरे को
बेनकाब करती यह कविता आगे इस सच के साथ खुलती है कि उसका उदास जीवन वर्गीय ढांचे
के शीर्ष पर बैठे शोषकों की चकाचौंध तले अपनी धुन में ही आगे बढ़ते जाने को अभिशप्त
है –
‘झक-झक बिजली / और बैंड बाजों के बीच / रंगीन सज्जा
से उदासीन / अपनी ही धुन से / बजता है
ढोल / बजता है कोल्हा मोची / बजता है पीढ़ियों का जीवन’
समाज
की विडंबित वर्ण-व्यवस्था में ढोल बजाने में सिद्धहस्त कोल्हा मोची उसे बजाते-बजाते अब खुद भी बजने लगा है ! यह समाज के अभिजन-वर्ग द्वारा दी जा रही
यातना की ही मार है कि गांव में उत्सव से लेकर शव-यात्रा तक की गतिविधियों में वह ढोल बजाते रहने को मजबूर है, (“टाइटिनीक” के उस
पात्र वाइलीन-वादक की तरह जो डूबते जलजहाज पर भी यात्रियों के मनोरंजन के लिए
वाइलीन बजाना बंद नहीं करता।) पर उम्र के एक पड़ाव पर आकर जब देह की ताकत नाकाम
साबित होने लगती है, अपने पुरखों का रोजी-रोजगार जब कोल्हा मोची अपने पुत्र को हस्तांतरित करना चाहता है तो उसका पुत्र विरोध में खड़ा नजर आता है - कमाची
तोड़ देता है, ढोल फोड़ देता है। यह संकेत शोषण और प्रताड़ना के विरुद्ध उस
विद्रोह का आगाज है जिसे संततियाँ अब सहन करने को विवश नहीं, अब उसका विकल्प उसके संकल्प में निहित है। गौर करने लायक बात
है कि कविता यहीं जनपक्षधरता से जन-विद्रोह का रूप लेने लगती है, जिसे बड़ी सहजता से शम्भु बादल ने “कोल्हा मोची“
में व्यक्त किया है -
‘राघो पंडित के बेटे का जनेऊ संस्कार हो / या वीर
सिंह की बेटी का ब्याह / या बढ़न साव का कार्तिक विसर्जन / या मंगरा राम के घर
सतनारायण भगवान की कथा / या रनु महतो पर भूत चढ़ना / या चेतु बूढ़े की शव-यात्रा / जमकर बजता है कोल्हा मोची’
....................................................
‘कोल्हा मोची / अपने
बेटे के सामने / ढ़ोल रखता है / हाथ में
कमाची भी थमाता है / किन्तु बेटा / कमाची तोड़ ढोल फोड़ता है’
यह देखकर कोल्हा मोची अकेलेपन का अनुभव का
करता है। दरकने लगा, हिलने लगा, भविष्य से
आशंकित होकर कि एक नए बीज अर्थात नए आंदोलन की शुरुआत है यह ( जिसकी फलश्रुति जाने क्या हो ?) -
‘कोल्हा मोची दरकता है / जड़ से हिलता है / भीगता है / और एक नया बीज / यहीं उगता है’ ‘कोल्हा मोची’ कविता का अब अंतिम अनुच्छेद देखिए-
‘कोल्हा मोची देखता है / पहली बार बहुत
कुछ एक साथ / बेटे का तना चेहरा / भूख
की उफनती नदी / फूटा ढोल / उपेक्षा का
फंदा / मुखिया की हेकड़ी / विधायक का
दारू लिए हाथ’
कविता के अंत में बिंबों की बहुकोणीय छवि से पाठक का मन कौंध जाता है। वह दृश्य में देर तक ठहरता है। उसमें करुणा, क्रोध, उपेक्षा, यातना, समय की विद्रूपता आदि कई भाव एक
साथ प्रकट होकर वेदना का संघनित रूप रचते हैं।
अपने चार दशकों के दीर्घ
कविता-काल में कवि संघर्षशील जनता के पक्ष में उसी मजबूती से खड़ा दिखाई देता है। यहाँ
विरोध के स्वर पहले से और तीखे, नाद और स्वरित, दृश्य
और मार्मिक दिखते हैं। कवि की भाषा पहले से अधिक सघन, प्रतीकमयी और भाव-बोधात्मक हो गई है, ‘अंडरटोन’ और
लहजे अधिक संयत, भेदस और दो-टूक हो
गए हैं। पैदल चलने वाले अब पूछते भर ही नहीं, अच्छे समय की प्रतीक्षा से खिन्न हो इस दुर्निवार समय(मौसम) को खुद हाँकने की तैयारी में खड़े दिखते हैं, एक
नई लड़ाई की तैयारी में उद्धत दिखते हैं:
‘बेर का सूखता पेड़ / पास के सघन सन्नाटे से घिरा / बहुत उदास दिखता है / उसे अनुकूल मौसम का इंतजार है / मौसम के इंतजार में खड़ा न रहो पेड़ / मौसम को हाँक चलो / हरा-भरा बनो / जड़ें गहरी हैं / ऊर्जा है / ग्रहण करो’ (‘मौसम को हाँक चलो’ / पृ. सं. – 102-103) - यानि यातना
के भीतर आत्महीनता के बोध से दबे समाज के थके-हारे जन में आक्रोश अब आकार ले रहा है और फूटने को
है।
तीसरे काव्य-संग्रह ‘सपनों
से बनते हैं’ सपने” के आवरण-पृष्ठ पर बक़ौल केदारनाथ सिंह ‘मिट्टी, पत्थर और काँटों के हाथ देखने की आकांक्षा रखने वाला यह कवि गहरे अर्थ में जनपक्षधर चेतना का हामी कवि है जिसके प्रमाण इस संग्रह की अनेक कविताओं में देखा जा सकता है। वस्तुत: ये जन को संबोधित कविताएं हैं और इसलिए वहाँ कला की काट-छाँट पर कम और सीधे सम्प्रेषण पर
अधिक ज़ोर दिखाई पड़ता है।‘
इसी
वर्ष (2016 ) शम्भु बादल का एक और संग्रह आया है: शम्भु बादल की चुनी हुई कविताएं। चयन बलभद्र का है। पुस्तक समर्पित करते
हुए कवि ने लिखा है: “क्रांतिकारी अमर शहीद/
भगत सिंह-राजगुरु-सुखदेव/ -चंद्रशेखर आजाद/- रामप्रसाद बिस्मिल- अशफाकउल्ला खाँ/ तथा/ संकटग्रस्त-संघर्षशील/ प्यारे
लोगों,/ जिनसे/ हृदय-सागर में/ लहरें/ लगातार उत्पन्न होती रहती हैं,/ को”। इस समर्पण से कवि की रचनात्मक प्रवृत्ति, जन के पक्ष की प्रवृत्ति का पता चलता है। इस संदर्भ में “कोलहा मोची” (पृ. सं. – 18) जिसकी ऊपर
चर्चा की गई है के अतिरिक्त शिकार (पृ. सं. – 20), चिड़िया (पृ. सं. – 31), गुजरा (पृ. सं. – 36), गाय (पृ. सं. – 38), रचनाकार और जनता (पृ. सं. – 42), सांवली लड़की (पृ. सं. – 50), मौसम को हांक चलो (पृ. सं. – 54), आग और बेड़ियाँ (पृ. सं. – 76), कबूतर (पृ. सं. – 80), हाथों की जरूरत (पृ. सं. – 83), तुम्हारे हाथों पर (पृ. सं. – 84), पंचायत में आएं (पृ. सं. – 91), बुधन ने सपना देखा (पृ. सं. – 92), चाँद मुर्मू (पृ. सं. – 95), जल रहा हटिया बाजार (पृ. सं. – 100), मारा गया फुलवा (पृ. सं. – 100), भगत रूप धार प्यारे (पृ. सं. 106), चिड़िया वही मारी गई (पृ. सं. – 104), सनिचरा (पृ. सं. – 108), आदि कविताओं को भी जनविद्रोह के संदर्भ में देखा जा सकता है। क्रांतिकारी बिरसा
मुंडा का व्यक्तित्व आज समाज को कितना सबल, आत्मविश्वासी बना रहा है, इसका उदाहरण “बुधन ने सपना देखा” कविता में देखा जा सकता है। बुधन न केवल चेतन बल्कि अचेतन स्तर पर भी अपने नायक बिरसा मुंडा से बल प्राप्त करता है। सपने में संकट के समय
जब” बड़े- बड़े ताकतवर दाँत” बुधन का घर चबाने के लिए तत्पर है तो
उसका दोस्त आकर उसे राय देता है: “बिरसा अपनाओ / घर बचाओ / तुम्हारे पेड़ काट लिए गए हैं / कुरहे में आग लगी है /” बुधन का मन घबराता है, विरोध में हाथ उठता है। हाथ का यह उठना क्रांतिवीर बिरसा का असर है। बुधन मनोवैज्ञानिक रूप
से अवचेतन स्तर पर भी प्रतिरोध के लिए तैयार है। “चाँद मुर्मु” कविता में एक साधारण आदिवासी पात्र चांद अपने को
क्रांतिकारी चांद (सिदो-कान्हू-चांद-भैरव चारों क्रांतिकारी भाइयों में से एक) और बिरसा के विचारों, भावों से एकरूप
करते हुए माफिया, पुलिस से लड़ते हुए शहीद होता है। यहाँ
आदिवासी क्रांतिकारियों का पूरा वर्णन नहीं, बल्कि
प्रभावों से उत्पन्न होने वाले क्रांतिकारी विचार और भाव और उनसे संचालित समाज के
प्रतिरोध सक्रियता से अंकित हैं। यहीं नहीं, मनुष्य के साथ
पशु-पक्षी भी महसूस करते हैं। वे केवल निरीह जीव न होकर आक्रोश और प्रतिरोध के भाव
से लैस मिलते हैं। यहाँ चिड़िया एक सामान्य पक्षी ही नहीं,
चहचहाती भर नहीं, विरोध की सामर्थ्य भी रखती है। ‘शिकार’ कविता के तोता-मैना का उद्गार देखिए – शिकारी जब तक जिंदा है /
हर दिन हमें मारता है
/ भून-भान खाता है/ शराब
पीता है/ ऐश करता है/असल में हमारे मांस
का/ चसका लगा है शिकारी को / हम शिकारी पकड़ेंगे/ इसके लिए चलें/जाल बनाएँ/जाल को/ शिकारी
के माथे पर गिराएँ/ शिकारी जाल में उलझेगा / हम चोंच से मारेंगे / वह छटपटाएगा / (पृ सं –
22) / शम्भु बादल की चुनी हुई कविताएं)
जब कवि परिवेश या लोक के साथ
स्वयं को इतना साधारणीकृत या सामंजित कर लेता है कि जनभाषा को काव्यभाषा में रचने
की जादुई शक्ति उसे हासिल हो जाती है तो वह सर्वहारा शक्ति का वाहक बनकर अपनी
कविता को क्रांतिधर्मी बना देता है। रचनाकारों में यह शक्ति बिरले ही आ पाती है।
इसका सीधा संबंध उन काव्येतर मूल्यों से है जो किसी लेखक का विशिष्ट लक्षण होता है
और जिसे हम उनमें ‘ईमानदारी और साहस’ भी कहते हैं। इसी ईमानदारी और साहस के विशिष्ट काव्येतर गुणों ने कुमार विकल, गोरख पाण्डे, अवतार सिंह संधु ‘पाश’, नाज़िम हिकमत आदि
कवियों के अंदर जनविद्रोह के स्फुट स्वर पैदा किए, जिसका प्रसन्न विकास
हमें कवि शम्भु बादल की कविताओं में भी देखने को मिलता है। शम्भु बादल ऐसे ही
लोककवि हैं जिनकी भाषा जनभाषा है; जो कहीं रुक्ष, कहीं अनगढ़ तो कहीं लोक-रस से आप्लावित दिखती है, जो
भाषा के कुछ बड़े कवियों की आभिजात्य प्रकृति से बिलकुल अलग है।
इस प्रकार कविता में कविवर शम्भु बादल ने सामाजिक विषमता और
यातना का केवल रेखांकन भर नहीं किया, बल्कि उसके प्रतिकार को जनविद्रोही तेवर
में भी बदलने का काम किया, जो कि बड़े
लोकधर्मी कहाने वाले कवि विजेंद्र जी और एकांत श्रीवास्तव जी की कविताओं में भी
नहीं मिलता। वहाँ जनसंघर्ष का रूप अधिकतर दार्शनिक ही गोचर होता है। विजेंद्र जी
की ढेर सारी कविताओं को पढ़ने के उपरांत मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचता हूँ कि
विजेंद्र जी की कविताएँ जनपक्षधरता का आख्यान रचते समय छायावादी सौंदर्यांनुभूति
के अनेकानेक वाचाल शब्दों से घिरी हुई प्रतीत होती हैं,
जिनमें उनके पात्र समय के आंतरिक यथार्थ को व्यक्त करने और उससे मुठभेड़ करने के
बजाए समय की विद्रूपता के आगे अधिकतर अभिशप्त रहते या घुटने टिकाते ही दिखते हैं
जिसमें विजेंद्र का कवि कहीं कंगूरे पर खड़े होकर नई आशा का सबेरा होने की अनथक
प्रतीक्षा करता नजर आता है। हालाकि यह कवि विजेंद्र की पलायन-वृति नहीं, न ही उनकी कविताओं का दोष माना जाएगा, पर यह जनवादी
कविताओं का चरमोत्कर्ष भी नहीं माना जा सकता, जहाँ जनसंघर्ष
कवि से गति न प्राप्त कर शिथिल हो जाता हो। यहाँ गौरतलब है कि एकांत की काव्य-भाषा
विजेंद्र जी की अपेक्षा अधिकाधिक द्रवणशील और प्रगल्भ दिखती है जिसमें एक तड़प भरी
पुकार है, एक निनाद है, पर संघर्ष को
वहन करने की शक्ति नहीं, हलाकि एकांत ने अपनी परंपरा पोषित
भाषा को कभी जड़ होने नहीं दिया। वह सदैव लोकभाषा के काफी करीब रहे, जिससे उसमें समकाल का आंतरिक सत्य नजर आता है, पर
उनका जन भी आंदोलनात्मक स्वर में कभी मुखर नहीं होता (इसके लिए देखें – उनकी लंबी कविता – ‘कन्हार’ संग्रह ‘बीज से फूल तक’ का )।
इस कविता के पात्र विद्रोही रूप लेकर सामने कभी नहीं आते,
किन्तु शम्भु बादल की प्राय: कविताएँ जन के दैन्य-दर्द को विद्रोह और प्रतिकार के रूप, आकार देती नजर आती हैं। हम कह सकते हैं कि समय की तमाम त्रासद स्थितियों यथा; बाजारवाद, लूट, भ्रष्टाचार, गरीबी, विस्थापन, रूढ़िवाद की जकड़न, कुत्सित राजनीति, युद्ध की विभीषिका,शोषण, जुल्म आदि के बीच शम्भु बादल की कविताओं का मूल स्वर
और संप्रेष्य जनविद्रोह ही है, जो अन्य समकालीन कवियों से इन्हें न
केवल अलगाता है, बल्कि महत्वपूर्ण और प्रासंगिक भी बनाता है; क्योंकि इसमें बदलने
वाले समय की जन-आहट है। •
आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि- आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (30-09-2016) के चर्चा मंच "उत्तराखण्ड की महिमा" (चर्चा अंक-2481) पर भी होगी!
जवाब देंहटाएंहार्दिक शुभकामनाओं के साथ-
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'