आधुनिक काव्यभाषा में जनविद्रोह के स्फुट स्वर : लोककवि
शम्भु बादल
:
[ यह समालोचना कोलकाता से प्रकाशित पत्रिका 'लहक' (संपादक-निर्भय देवयांश) के अंक जुलाई-सितंबर, 2016 में प्रकाशित हुई है। ]
[ यह समालोचना कोलकाता से प्रकाशित पत्रिका 'लहक' (संपादक-निर्भय देवयांश) के अंक जुलाई-सितंबर, 2016 में प्रकाशित हुई है। ]
[कवि विजेंद्र,
एकांत श्रीवास्तव और शम्भू बादल की
कविताओं से गुजरते हुए] • सुशील कुमार
जनपक्षधरता से जनविद्रोह तक
शम्भु बादल हिंदी कविता के एक महत्वपूर्ण
और जुझारू लोकधर्मी कवि हैं। अब तक इनके चार काव्य-संग्रह आ चुके हैं : 1.पैदल चलने वाले पूछते है (1986), 2.मौसम को हाँक चलो (2007), 3.सपनों से बनते हैं सपने (2010) और 4. शम्भु बादल की चुनी हुई कविताएं (2016)। विगत चार दशकों के कविता-कर्म में समाए शम्भु बादल के अब तक
के किए-धरे के अवगाहन से यह पता चलता है कि
इनके कविता-कर्म की अनदेखी की गई है और कविताओं
का सामान्यीकरण करते हुए कभी इनमें निहित काव्यात्मकता के गहन एवं समग्र अन्वेषण की
कोशिश नहीं की गई। जयपुर (अब बदायूँ) से लोकचेतना की प्रतिबद्ध पत्रिका ‘कृति ओर’
विगत दो दशकों से अधिक समय से निकल
रही है जिनसे कई ख्यात लोकधर्मी चिंतक-आलोचक
अरसे से जुड़े रहे हैं,
उन्होंने भी कभी इस विरल प्रकृति के
लोककवि पर ध्यान देने की जरूरत नहीं समझी। मेरी समझ से शम्भु बादल की कविताओं की उपेक्षा
करना समकालीन कविता में जनविद्रोही सृजन की एक विरासत की उपेक्षा करना है। कविता
में शम्भु बादल के कवि की जनपक्षधरता पूरी ईमानदारी और साहस के साथ जन की आवाज और संवेदनाओं
को जनविद्रोह के स्फुट स्वर में बदलने का माद्दा रखती है। ये कविताएँ धूमिल की कविताओं
की तरह बदलाव के लिए केवल संकल्प या बयान भर नहीं हैं, न ही
मात्र जनचरित्री और प्रतिपक्षधर्मी होने तक सीमित हैं, बल्कि इनको पढ़ते हुए अपने अंतर्तम में
हम उस आग को महसुस करने लगते हैं जिसका ताप कवि के सृजन-परिवेश से होते हुए हमें लोक के गहन
यथार्थ के उस सिरे तक ले जाता है जहाँ जन एक नई लड़ाई के लिए ऊर्जावान और तैयार दिखता
है। यह गर्व की बात है कि नागार्जुन, गोरख पांडे, वीरेन
डंगवाल, रमाशंकर यादव, अवतार
सिंह संधू ‘पाश’, कुमार
विकल, धूमिल जैसे कवि-परंपरा का एक अत्यंत दृष्टि-सम्पन्न कवि अभी हमारे लोक में सांस
ले रहा है। देखिए,
इनकी एक छोटी सी कविता: आग और बेड़ियाँ -
हवा की पूँछ से / आग लगाने वालों को / पता होना चाहिए / इस ज्वाला से / वे भी नहीं बच सकते /मुस्कान की कलाइयों में / बेड़ियाँ डालने वालों !/ क्या महसूस नहीं करोगे / अकाट्य जाल की बाहें / तुम
हवा की पूँछ से / आग लगाने वालों को / पता होना चाहिए / इस ज्वाला से / वे भी नहीं बच सकते /मुस्कान की कलाइयों में / बेड़ियाँ डालने वालों !/ क्या महसूस नहीं करोगे / अकाट्य जाल की बाहें / तुम
तक पहुंच रही है?’
जनपक्षधरता को कवि की प्रतिबद्धता किस तरह जनविद्रोह में बदल देती है, इसमें काव्यभाषा का कितना और किस तरह योग होता है, कवि की ईमानदारी और उसका साहस समय की विद्रूपता से किस प्रकार मुठभेड़ करता हुआ जनसंघर्ष की आवाज बनता है, यह शंभू बादल की कविताओं में देखने के लायक है जो उन्हें कविता के उस वैश्विक पटल पर ला खड़ा करता है जिसने दुनिया भर में मनुष्यता के निमित्त संघर्ष के लिए अपनी भाषा और ईमानदारी का विवेकपूर्ण इस्तेमाल किया है: इनकी “गुजरा” कविता का अंतिम अंश देखिए,
‘मेहमानों के सामने / कोई जब तुम्हें नचाए / तुम्हारी लोककला की प्रशंसा करें / तुम्हें हकीकत नहीं समझनी चाहिए क्या ? / तुम प्रदर्शन की वस्तु हो? / तुम्हें तो मुखौटे उतारने और / चाँटे जड़ने की कला भी आनी चाहिए / क्योंकि थाप और चाँटे का संतुलन / तुम्हारे लिए / सही जगह / सुनिश्चित कर सकताहै’
आप देख पाएंगे कि कुमार विकल की कविता की तरह शम्भु बादल की कविता स्मृति में इसलिए भी देर तक टिकती है कि अपने संघर्ष या जद्दोजहद में वह बड़बोलेपन नहीं, भोलेपन और सहजता का रास्ता ही आख्तियार करती हैं जो तुरत-फुरत क्रांति चाहने वाले विद्रोही कवियों की प्रदर्शनप्रियता का हिस्सा नहीं है। इस तरह की सादगीपूर्ण कथन-भंगिमा के संश्लिष्ट अर्थ की तह में बिना गए कोई इन्हें सपाट-सामान्य कविता समझकर छोड़ दे तो यह उसके पाठकीय विवेक की मूढ़ता ही समझी जाएगी। उनके यहां विद्रोह धीरे-धीरे सुलगने वाली आँच है जिसका ताप कविताओं में और कविताओं के बाहर देर तक महसूस किया जाता है क्योंकि उनके संकल्प और साहस का अंदाज मसीहाई है जिसमें जन के दर्द और दैन्यता को न केवल व्यक्त करने की आत्मिक शक्ति है बल्कि वहाँ उसके प्रतिकार का स्फुरण भी उद्दीप्त दिखता है। हम अनुभव कर सकते हैं कि अपने समकालीनों में वे अपेक्षाकृत अधिक रुढिमुक्त हैं (कथ्य, भाषा और कला, तीनों स्तर पर) और इस अर्थ में वे लोकधर्मिता के दूसरों की बनाए गए रूढ़ि से भी मुक्त हो सके हैं जो इनकी काव्यात्मकता के विशेष गुण के रूप में लक्षित किया जा सकता है। इसे सोदाहरण समझने के लिए यहाँ उनकी एक
जनपक्षधरता को कवि की प्रतिबद्धता किस तरह जनविद्रोह में बदल देती है, इसमें काव्यभाषा का कितना और किस तरह योग होता है, कवि की ईमानदारी और उसका साहस समय की विद्रूपता से किस प्रकार मुठभेड़ करता हुआ जनसंघर्ष की आवाज बनता है, यह शंभू बादल की कविताओं में देखने के लायक है जो उन्हें कविता के उस वैश्विक पटल पर ला खड़ा करता है जिसने दुनिया भर में मनुष्यता के निमित्त संघर्ष के लिए अपनी भाषा और ईमानदारी का विवेकपूर्ण इस्तेमाल किया है: इनकी “गुजरा” कविता का अंतिम अंश देखिए,
‘मेहमानों के सामने / कोई जब तुम्हें नचाए / तुम्हारी लोककला की प्रशंसा करें / तुम्हें हकीकत नहीं समझनी चाहिए क्या ? / तुम प्रदर्शन की वस्तु हो? / तुम्हें तो मुखौटे उतारने और / चाँटे जड़ने की कला भी आनी चाहिए / क्योंकि थाप और चाँटे का संतुलन / तुम्हारे लिए / सही जगह / सुनिश्चित कर सकताहै’
आप देख पाएंगे कि कुमार विकल की कविता की तरह शम्भु बादल की कविता स्मृति में इसलिए भी देर तक टिकती है कि अपने संघर्ष या जद्दोजहद में वह बड़बोलेपन नहीं, भोलेपन और सहजता का रास्ता ही आख्तियार करती हैं जो तुरत-फुरत क्रांति चाहने वाले विद्रोही कवियों की प्रदर्शनप्रियता का हिस्सा नहीं है। इस तरह की सादगीपूर्ण कथन-भंगिमा के संश्लिष्ट अर्थ की तह में बिना गए कोई इन्हें सपाट-सामान्य कविता समझकर छोड़ दे तो यह उसके पाठकीय विवेक की मूढ़ता ही समझी जाएगी। उनके यहां विद्रोह धीरे-धीरे सुलगने वाली आँच है जिसका ताप कविताओं में और कविताओं के बाहर देर तक महसूस किया जाता है क्योंकि उनके संकल्प और साहस का अंदाज मसीहाई है जिसमें जन के दर्द और दैन्यता को न केवल व्यक्त करने की आत्मिक शक्ति है बल्कि वहाँ उसके प्रतिकार का स्फुरण भी उद्दीप्त दिखता है। हम अनुभव कर सकते हैं कि अपने समकालीनों में वे अपेक्षाकृत अधिक रुढिमुक्त हैं (कथ्य, भाषा और कला, तीनों स्तर पर) और इस अर्थ में वे लोकधर्मिता के दूसरों की बनाए गए रूढ़ि से भी मुक्त हो सके हैं जो इनकी काव्यात्मकता के विशेष गुण के रूप में लक्षित किया जा सकता है। इसे सोदाहरण समझने के लिए यहाँ उनकी एक
कविता ‘कोल्हा मोची’ को देखिए -
‘कमाचियाँ जब पड़ती हैं ढ़ोल पर / तो बज उठता है ढ़ोल / डिन-डिन-डिन डिडिक-डिडिक / डिन-डिन-डिन डिडिक-डिडिक/और गूँजता है जीवन/कोल्हा मोची का/बाप का/दादे का/परदादे का’ -उपर्युक्त पंक्तियाँ कविता “कोल्हा मोची” का पहला पैराग्राफ है जो कवि की वर्गीय अंतर्दृष्टि और चेतना के बीहड़ यथार्थ से हमें रु-ब-रु कराता है। लक्ष्य किया जा सकता है कि आजादी के इतने वर्ष बाद भी दमित-शोषित वर्ग का जीवन-स्तर सुधरा नहीं यानि, कोल्हा मोची के बाप-दादों; पुरखों के जीवन से लेकर अब तक का उसका अपना जीवन भी ‘ढ़ोल पर कमाचियों की चोट से’ चलता है। बिम्बात्मक व्यंग्य की गहरी अर्थ-छवियाँ रचती, नवसामंती व्यवस्था के चेहरे को बेनकाब करती यह कविता आगे इस सच के साथ खुलती है कि उसका उदास जीवन वर्गीय ढांचे के शीर्ष पर बैठे शोषकों की चकाचौंध तले अपनी धुन में ही आगे बढ़ते जाने को अभिशप्त है –
‘कमाचियाँ जब पड़ती हैं ढ़ोल पर / तो बज उठता है ढ़ोल / डिन-डिन-डिन डिडिक-डिडिक / डिन-डिन-डिन डिडिक-डिडिक/और गूँजता है जीवन/कोल्हा मोची का/बाप का/दादे का/परदादे का’ -उपर्युक्त पंक्तियाँ कविता “कोल्हा मोची” का पहला पैराग्राफ है जो कवि की वर्गीय अंतर्दृष्टि और चेतना के बीहड़ यथार्थ से हमें रु-ब-रु कराता है। लक्ष्य किया जा सकता है कि आजादी के इतने वर्ष बाद भी दमित-शोषित वर्ग का जीवन-स्तर सुधरा नहीं यानि, कोल्हा मोची के बाप-दादों; पुरखों के जीवन से लेकर अब तक का उसका अपना जीवन भी ‘ढ़ोल पर कमाचियों की चोट से’ चलता है। बिम्बात्मक व्यंग्य की गहरी अर्थ-छवियाँ रचती, नवसामंती व्यवस्था के चेहरे को बेनकाब करती यह कविता आगे इस सच के साथ खुलती है कि उसका उदास जीवन वर्गीय ढांचे के शीर्ष पर बैठे शोषकों की चकाचौंध तले अपनी धुन में ही आगे बढ़ते जाने को अभिशप्त है –
‘झक-झक बिजली/और बैंड
बाजों के बीच/रंगीन सज्जा
से उदासीन/अपनी ही
धुन से/बजता है
ढ़ोल / बजता है
कोल्हा मोची/बजता है
पीढ़ियों का जीवन’
समाज की विडंबित
वर्ण-व्यवस्था में ढोल बजाने में सिद्धहस्त कोल्हा मोची उसे
बजाते-बजाते अब खुद भी बजने लगा है ! यह समाज के
अभिजन-वर्ग द्वारा दी जा रही यातना की ही मार है कि गांव में
उत्सव से लेकर शव-यात्रा तक की गतिविधियों में वह ढोल बजाते रहने
को मजबूर है, (“टाइटिनीक” के उस पात्र
वाइलीन-वादक की तरह जो डूबते जलजहाज पर भी यात्रियों की मनोरंजन
के लिए वाइलीन बजाना बंद नहीं करता।) पर उम्र के
एक पड़ाव पर आकर जब देह की ताकत नाकाम साबित होने लगती है, अपने पुरखों
का रोजी-रोजगार जब कोल्हा मोची अपने पुत्र को हस्तांतरित करना चाहता
है तो उसका पुत्र विरोध में खड़ा नजर आता है - कमाची तोड़
देता है, ढ़ोल फोड़ देता है, यह संकेत शोषण
और प्रताड़ना के विरुद्ध विद्रोह का आगाज है जिसे संततियाँ अब सहन करने को विवश नहीं, अब उसका विकल्प
उसके संकल्प में निहित है। गौर करने लायक बात है कि कविता यहीं जनपक्षधरता से जनविद्रोह
का रूप लेने लगती है जिसे बड़ी सहजता से शंभु बादल ने “कोल्हा मोची“ में आगे व्यक्त
किया है -
‘राघो पंडित
के बेटे का जनेऊ संस्कार हो / वीर सिंह
की बेटी का ब्याह / या बढ़न साव का कार्तिक विसर्जन/या मंगरा
राम के घर सतनारायण भगवान की कथा/या रानु महतो पर भूत चढ़ना/या चेतु
बूढ़े की शव-यात्रा/जमकर बजता
है कोल्हा मोची/कोल्हा मोची/अपने बेटे
के सामने/ढ़ोल रखता
है/हाथ में
कमाची भी थमाता है/किन्तु बेटा/कमाची तोड़ ढ़ोल फोड़ता है’
- यह देख-सुनकर अकेला
हो गया कोल्हा।‘मोची’ दरकने लगा, हिलने लगा ‘भविष्य से आशंकित
होकर’ कि एक नए बीज
अर्थात नए आंदोलन का शुरुआत है यह (जिसकी फलश्रुति जाने क्या हो ?)
‘कोल्हा मोची
दरकता है/जड़ से हिलता है/भीगता है/और एक नया बीज/यहीं उगता है’/ कोल्हा
मोची देखता है/पहली बार बहुत कुछ एक साथ/बेटे का तना चेहरा/भूख की उफनती नदी/फूटा ढ़ोल/उपेक्षा का फंदा/मुखिया की हेकड़ी/विधायक का दारू लिए हाथ’।
कविता के अंत में सार्थक बिंबों की बहुकोणीय छवि से पाठक का मन कौंध जाता है और दृश्य
में देर तक ठहरता है जिसमें करुणा,
क्रोध, उपेक्षा,
यातना, समय की विद्रूपता आदि कई भाव एक साथ प्रकट होकर
वेदना का संघनित रूप रचते हैं। इस प्रकार कविता में कविवर शंभू बादल ने सामाजिक
विषमता और यातना का केवल रेखांकन भर नहीं किया बल्कि उसके प्रतिकार को जनविद्रोही तेवर
में भी बदलने का भी काम किया जो कि बड़े लोकधर्मी कहाने वाले कवि विजेंद्र जी और एकांत
श्रीवास्तव जी की कविताओं में भी नहीं मिलता। इनके यहाँ जनसंघर्ष का रूप अधिकतर दार्शनिक
और लघुतर ही गोचर हुआ है।
‘आउटडेटेड’ काव्यभाषा में
कवि का बिम्ब-मोह और लोक का नया रूपवाद
कविता केवल
विचार-अभिकथन (एक्स्प्रेशन ऑफ व्यूज) नहीं होती, कहने का
मतलब है कि कविता में विचार-दर्शन बहुत पीछे से यानि कहीं नेपथ्य
से जीवन की क्रियाशीलनों या प्रकृति की गतिकी के बारे में कुछ कहता है, इस उद्योग
में वह कभी मुखर नहीं होता। कविता की अंतर्वस्तु में एक दृष्टिसंपन्न कवि का विचार-दर्शन
इस तरह समाहित होता है कि पाठक को कवि के इस उपक्रम का भान तक नहीं होता और कवि का
प्रयोजन भी सिद्ध हो जाता है। कविता में कथ्य से जीवन-दर्शन को जोड़ने की यही
युक्ति वैज्ञानिक है और अब तक स्वीकृत रही है वरना कविता गद्य से अलग नहीं बन सकती।
कवि का काव्य-सौष्ठव बिंबों और उपमानों में ज्यादा प्रदर्शित नहीं
होता, बल्कि मुख्यत: कविता के ‘अंडरटोन’ और ‘लहजे’ में गुप्त
रहता है जो अव्यक्त (दर्शन) को व्यक्त कर जाता है, इसके उलट कविता
में यह काव्य-प्रयत्न यदि “ओवरटोन” बनकर आता है
तो ऐसा महसुस होने लगता है कि विचार-दर्शन का पुट
डालना ही कवि का मूल संप्रेष्य और कविता का अभीष्ट हो गया है। कवि विजेंद्र के साथ ऐसा ही हुआ है, जब भी कविता
में उनका श्रमजीवी लोक आता है तो मार्क्स-दर्शन कवि में मूर्त हो उठता है जिसे वे कविता
के पात्र व उपस्थित उपादान से फलित करने की सायास चेष्टा करते हैं। विजेंद्र की
कविताओं को पढ़ते हुए हमें अनुभव हुआ कि वह काव्य-बिंबों की गहरी (बिम्बात्मक
चित्रमाला कहें तो अत्युक्ति न होगी) छटा उत्पन्न कर मार्क्स के द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद (डायलेक्टिक
मेटरियलिज्म) और वर्ग-संघर्ष को व्यक्त
करने का उपक्रम करते हैं जो कविता को सही माने में एक नए किस्म के रूपवाद की ओर ले
जाता है। ऐसी बनक और छटा आपको शम्भु बादल या अन्य समकालीन कवियों की कविताओं में नहीं
मिलेगी।
‘त्रास’ (1966) से अपनी कविता-यात्रा आरंभ
कर कवि विजेंद्र ‘भींगे डैनों वाला गरुण’ (2010) से होते हुए
अद्यतन संग्रह ‘लोहा ही सच है’ (2015 ) तक के अपने
लगभग 50 वर्षों के दीर्घकाल में (पचीस काव्य
संग्रह में) श्रम-सौंदर्य के नाम पर परोक्षतः मार्क्सवाद को व्याख्यायित
करने का ‘अतिरिक्त प्रयत्न’ करते देखे जा सकते हैं, पहला काव्य
संग्रह ‘त्रास’ की एक कविता देखिए - ‘उसकी मजबूत
बाँहों के हर जोड़ पर’- “उसने अपने चक्की के पाटों को खोल दिया है / और वह हथौड़े
की वक्रता को / तेज छैनी के ऊपर साध कर / छोटे-छोटे स्फुलिंग
उड़ा रहा है / वे उछड़े हुए स्फुलिंग अग्नि-पुष्पों की
तरह हलके और बेधक / उसके खुले कंधों
तक / प्रकाश तरंगों की तरह छितरा गए हैं / उसकी मजबूत
बाँहों के हर जोड़ पर / एक गहरा तनाव
है / जो नसों के उभरने से खून के वेग को बढ़ा रहा
है / उसकी दाँती
भिंच रही है / जिससे एक विशेष बिन्दु पर चोट लगाने
के लिए / उसे बल मिलता है / और अधमिचे पलकों
से भी / उन स्फुलिंगों में / वह अपने असंतोष
को व्यक्त करना चाहता है।“ इसे उनके ‘भींगे डैनों
वाला गरुण’ (2010) पुस्तक की कविता ‘भट्टी’ और कविता ‘हाथों का जादू’ के साथ रखकर
देखने से यह साफ हो जाता है कि श्रमिक-संसार को
विजेंद्र जी का देखने का नजरिया कविता के उत्स को पीछे करके हमेशा अपनी अवधारणा को
ही सामने लाना रहा है – ‘लोहा काटने
वाला आदमी / तेज धूप में / बदन काला कर / जो कुछ बोलता
है / उसमें अंदर की आंच / लहकती है / और एक भरोसे
की भनक भी। (कविता-हाथों का जादू) या फिर
कविता ‘भट्टी’ में- ‘आए हैं जो लोहा
ढोकर / बात नहीं कह पाते पूरी / देह पसीने में है तर / हाँफ रहे हैं / अपने ढब पर / जब होते हैं लामबंद वे / अभिजन सारे काँप रहे हैं / नहीं दिखाई
देता मुझको / उनका लड़ना-भिड़ना चाहे / अपने हक को
जाग रहे हैं।‘ विजेंद्र की श्रम-कविता के
इन उदाहरणों में यह अभिलक्षण गौर करने लायक है कि श्रम-सौंदर्य को
रचते समय वे बिम्बों का अतिरेक उत्पन्न करते हैं। छैनी पर हथौड़े के वार से
स्फुलिंग का निकलना एक स्वाभाविक क्रिया है जिसे कवि की बिम्बात्मक दृष्टि ने उसे
अग्निपुष्प और प्रकाश-तरंगों के रूप में देखा है, बाँहों के
जोड़ पर तनाव, नसों का उभर आना और रक्तचाप का बढ़ना श्रमिक की अनुगत
क्रियाएँ है पर श्रमिक की समस्त दैहिक क्रियाओं को जिसमें उसकी भिंची दांते और आधी
बंद पलकें भी शामिल हैं, उड़ते स्फुलिंगों से जोड़कर कवि ने
उसे उसके भीतर उबल रहे ‘असंतोष’ में बदल दिया और यहीं कविता की इतिश्री मान ली। बस
श्रम का (अमूर्त) द्वन्द्व दिखाना ही
कविता में कवि का असली मकसद है पर बिंबों की सघन प्रयुक्ति के बावजूद काव्यफल
निष्फल रहा अर्थात श्रमिक के असंतोष का कारण-विधान नहीं किया जा सका। कविता में यह
पता नहीं चलता कि उसके असंतोष का कारण क्या है। यहीं कविता चुक गई। यही कविता की ‘बिंबवादी
अमूर्तनता’ है जो कविवर विजेंद्र के ही इस स्थापना की काट करती
है कि बिम्ब सदैव मूर्त होते हैं। कविता के कथ्य की मूर्तनता तो कवि के अभिप्रेत
की सफलता का सूचक होता है जो सदैव बिंबों से नहीं आती। कवि के श्रमिक में वह
असंतोष आकार लेता नहीं दिखता। वह असंतोष और घुटन में ही जीने को अभिशप्त है! कविता
‘भट्टी’ में लोहा काटने वाले आदमी के अंदर भी ताप केवल उसन रहा है, कामगर में
प्रतिरोध का सृजन नहीं करता। इन कामगारों को केवल ‘भरोसे की भनक’ है। ‘भट्टी’ कवितांश
में भी विजेंद्र के श्रमिक मेहनत कर रहे, हाँफ रहे
और लामबंद भी हो रहे। कवि स्वयं स्वीकार
करता है कि कामगर हक़ की लड़ाई लड़ने को तैयार नहीं, केवल एक
जागरण भर हुआ है। गौरतलब है कि इन कविताओं में श्रम की छवियाँ उकेरकर कवि द्वारा बिम्बों
की घनीभूत आकृतियाँ केवल दृश्य रचने के लिए उपस्थित की गयी हैं। विजेंद्र जी की कुछ
और श्रममूलक कविताओं के अंश देखिए-
1)
एक साहसी आदमी के इरादों को / क्या मेरी
कविता की लय पहचानती है! / खनिज खोदने
वालों के हाथों की लचक / मेरी भी
ताकत है / वह मेरे देश की उम्मीद है / मिश्रधातुओं
को लगातार मूर्तियों में ढालना / मेरी
हथेलियों की उठी ठेकों पर अंकित है / कितना
डरपोक हूँ..कायर- / वे सवाल
कविता में पूछता हूँ / जो हल मुझे
करने हैं। मुझे लौटा दो - / आदमी के अदम्य
साहस में / खोया भरोसा / मुझे लौटा
दो / पूरे देश - पूरी जाति
पर लदा है इतना कर्ज / कविता में
सिर उठाकर / कैसे चलूँ ?/ तेज
भुकसैली हवा में / उड़कर गिरे
जो पत्ते / उनके हिरमिची चीत्कारों को / मैंने सुना
है / अपनी अंखुआती धड़कनों के साथ । (लहकता दिन: कवि ने कहा
/ पृ.सं. 124-125)
2)
ओ कवि सीताकांत / खोजता हूँ
तुम्हारी कविता में / वे
झुर्रियाँ, वे सिकुड़नें, वे धँसी
आँखें -कहाँ हैं -बोलो../ सदागत
नदियाँ / सूखी पड़ी निर्पात फसलें / घर के घर
हुए बारहबाट / चला करता खेल यह / हरदम जीवन-मृत्यु का। (कविता –‘रुक्मिनी’: कवि ने कहा
/ पृ.सं. 142)
विजेंद्र का कवि श्रमिकों में केवल निनाद, चीत्कार
आदि नाना प्रकार की ध्वनियाँ सुनने का अभ्यस्त है और श्रम का वीभत्स व रूपवादी सौंदर्य
ही रचने का आदि है जो कविता में मूर्तनता, संश्लिष्टता
और गहनता लाने के नाम पर किया जाता है और इसके निमित्त एक ऐसी भौगौलिकता और भाषा रची जाती है जो उनके ‘अवचेतन मन’ की उपज
होने के कारण लोक की वास्तविकता से कट जाती है। मसलन, कवि जब
राजस्थान से झारखंड के वीर-शहीद सपूत बिरसा मुंडा पर कविता लिखता है तो बिना
स्थानीयता के रंग और ‘लोकल डायलेक्ट’ के तहजीब
के पूरी कविता कोरी कल्पना के वाग्जाल और भाषाई जादू में केवल एक फ्रेम रचता है जिसमें
किसी भी वीर-शहीद को आप अँटा सकते हैं और एक नए वीर-सपूत के नाम से एक नई कविता
बिना सच्ची भावभूमि के बना सकते हैं । कविता का अंत भी कवि के उस दर्शन के सायास
प्रयत्न का शिकार हो जाता है –‘उसकी छायाएँ अंकित है चट्टानों की पीठ पर /उसके वंशज अभी जिंदा हैं /हृदय में पचाये दहकती ज्वालाएँ/वे जिंदा हैं विशाल भुजाएँ/विष को मारता है विष ही /लोहा काटता लोहे को /खनिज पिघलते हैं आँच से /वो जिंदा हैं देश की जागती जनता में /पूरे विश्व में जागता है सर्वहारा /देखने को वह समय /जब सब हो सुखी, मुक्त उत्पीड़न से /उनकी हो अपनी धरती, आकाश, जल /और वायु, समता हो शांति हो।‘
यही
कवि विजेंद्र का लोक है और उसकी सीमाएं भी जिनको कवि अपने पहले काव्य-संग्रह (जो
1966 की है) से अब तक लाँघ नहीं पाए। विजेंद्र जी के यहाँ ऐसे श्रमजीवी पात्रों की
बहुतायत है जो भूख, गरीबी, शोषण, जहालत, अन्याय के चित्रादि
को अपने शब्द देते दिखते हैं पर वे शब्द कभी शम्भू बादल के कविताओं में आए शब्दों की
तरह प्रतिकार की मुद्रा में विद्रोह पर उतारू नहीं दिखते बल्कि विजेंद्र जी की कविताएँ
जनपक्षधरता का आख्यान रचते समय छायावादी सौंदर्यांनुभूति के अनेकानेक वाचाल शब्दों
(यथा; खंडहर, पत्थर, फूल, झुर्रियाँ, पगडंडियाँ, दंडकारण्य, बंजर, वसुधा, आंच का
खिलना, पत्ते, रोयाँ, मकरंद, बोलती
आत्माएँ, काँपती छायाएँ, कुल्हाड़ी, अंजुरी, रितु, बसवट, कामधेनु, सोनजुही, बैजनी, नसपूट, दिक्काल, भ्रंश, ढलान, सिकुड़न, प्रकाश-कण, टहनी, प्रभामंडल, कातर
छायाएँ, रत्नगर्भ आदि-आदि) से घिरी हुई प्रतीत होती हैं जिनमें
उनके पात्र समय के आंतरिक यथार्थ को व्यक्त करने और उससे मुठभेड़ करने के बजाए समय की
विद्रूपता के आगे अधिकतर अभिशप्त रहते या घुटने टिकाते ही दिखते हैं और विजेंद्र का
कवि कहीं कंगूरे पर खड़े होकर नई आशा का सबेरा होने की अनथक प्रतीक्षा करता नजर आता
है। हालाकि यह कवि विजेंद्र की पलायन-वृति नहीं, न ही उनकी कविताओं
का दोष माना जाएगा पर ये अपने समय और प्रतिमान से पीछे चलती हुई कविताएँ हैं जो न
तो किसी अर्थ में समकालीन कही जा सकती, न लोकधर्मी
कविताओं का चरमोत्कर्ष माना जा सकता। यहाँ जनसंघर्ष कवि से गति न प्राप्त कर शिथिल
होता प्रतीत होता है। कितनी बड़ी विडंबना है कि जब कवि को मजदूरों की ताकत और साहस
पर भरोसा है तो कवि इतना क्यों विवश है कि कविता में आवाह्न और विद्रोह के स्वर
नहीं रच सकता ! (क्योंकि कवि में सृजन का बौद्धित्व नहीं, उसके
प्रति गहरी आसक्ति और आत्ममोहग्रस्तता है) आदमी के अदम्य साहस में खोये भरोसे को
मात्र लौटा पाने की इच्छा समाज में पूँजी के कुत्सित प्रभाव से श्रमिक और सर्वहारा
वर्ग को मुक्ति नहीं दिला सकती, विजेंद्र का कवि परिवर्तनकामी नहीं, वह शब्दों
का महज महत्वाकांक्षी शिल्पी है जो कविता में अपने पात्रों को आंदोलन करने के लिए अपने
काव्य-चरित्र और अपनी काव्यभाषा को जनचरित्र के साथ एकमेक नहीं कर सकता। इसलिए
कविता में वह उसे उद्वेलित भी नहीं कर सकता। यह कविता में इनके बिंबों की तृषाग्नि
का काव्यफल है। इसे हम लोक का नया रूपवाद भी कह सकते हैं जिसका विस्तार एकांत
श्रीवास्तव की कविताओं में प्रचुरता के साथ देखा जा सकता है। आगे हम इस सच के साथ
खुलेंगे कि एकांत ने केदारनाथ सिंह की काव्य-कला का अनुसरण करते हुए अपनी कविताओं
में जनसंघर्ष की लहक को न्यून कर दिया है और अधिकतर, लोक के
अंदर बुर्जआ सौदर्यात्मक प्रवृति को बढ़ावा दिया है ।
विजेंद्र जी ने लगभग अपनी सभी श्रम-कविताओं
में श्रमसौंदर्य और कहीं-कहीं प्रकृति के सौंदर्य के
संश्लेषण के साथ उसकी सृष्टि करने में जो काव्य-गुण हासिल
किया है वह उन्हें परिवर्तनकामी और जनविद्रोही के रूप में न देखकर लोक के एक नए
प्रकार के सौन्दर्यवादी और बिम्बवादी कवि मानने को बाध्य करता है। भाषा के संजाल
में आप कवि को रूप और बिम्ब की अनेक दृश्यावलियाँ और कहन रचते देख पाएंगे जो उनकी पुनुरुक्ति
वाले शब्दों के ताने-बाने में फँसे-उलझे मिलेंगे। दीगर है कि उपर
के कविता-अनुच्छेद ‘रुक्मिनी’ में कवि विजेंद्र एक दूसरे बड़े
कवि सीताकांत महापात्र से भी अपनी उन्हीं बिम्बात्मक धारणाओं की अपेक्षा कर रहे
हैं जिसमें देह की झुर्रियाँ, सिकुड़नें और घँसी हुई आँखें हो ।
कवि विजेंद्र
की पिछले पचीस वर्षों की कविताओं की काव्यभाषा को देखकर आप भलीभाँति यह गुण सकते हैं
कि अपनी काव्यभाषा में वे निराला, मुक्तिबोध और त्रिलोचन से प्राप्त परंपरा
को पुनर्नवा अर्थात समकालीन और विकसित नहीं कर पाए।
यह उनकी काव्यभाषा की कमजोरी नहीं
अपितु जिद कही जाएगी जो उनकी कविता को अग्रगामी नहीं बना पाती। कविता के पाठक यह महसुस
करते हैं कि नब्बे के दशक से अब तक कुछेक शब्दों की बारंबार आवृति ने विजेंद्र जी की
काव्यभाषा को उबाऊ और ठोस बना दिया है जो जनसंघर्ष में कभी विद्रोह का पर्याय नहीं
बन सका। पर एकांत श्रीवास्तव विजेंद्र जी की काव्यभाषा में शब्दों की आवृति को गुण
को बताते हुए एक जगह उल्लेख करते हैं कि ‘कवि विजेंद्र
के यहाँ कुछ शब्दों की आवृति बार-बार होती है। ये शब्द हैं- धरती, पेड़, वृक्ष, पत्ते, शाख, टहनी, फूल, पौधे, अंकुरण, खुशबू , खिलना, डाल, वृंत, जड़ें, बीज, पकना, फल, पंखुड़ी, ऋतु, धड़कन, दिन, अन्न, बूंदे, धूप, तपना, धमनभट्टी, खनिज, अनुगूँज, रस, नवजात, गति, पथ, स्रोत, फसल, बसंत, पतझड़, पानी, आवाज, रंग, सूर्य, आँच, आदि। स्पष्ट
है कि ये केवल शब्द नहीं, वे काव्य-मान्यताएँ भी
हैं जिन पर विजेंद्र की कविता का पूरा स्थापत्य खड़ा है। एक अरसे से ये शब्द कवि विजेंद्र की काव्य भाषा की जैसे पहचान भी बन गए हैं।(वागर्थ, अंक अगस्त 2015, पृ. सं 9)। लेकिन समय
ने यह साबित कर दिया है कि कवि विजेंद्र का यह गुण नहीं, उनकी काव्यभाषा
की जड़ता है जिससे समकालीन रुचि के पाठक
बिदकते हैं। सच में, भाषा जब अपने जन और समय कट जाती है, पुरानी हो जाती
है, रूढ और वाचाल हो जाती है तो वह संलाप भर बनकर रह जाती है, न वह भेदस हो
पाती है, न क्षणदर्शी । हाल के 40-50 वर्षो के अनंतर परिवेश में जो बदलाव
आए, वे पिछले एक-डेढ़ सौ सालों में नहीं आए। इसने भाषा
में भी आमूलचूल परिवर्तन किए। भाषा सबंधी बदलाव के संकेत को कवि विजेंद्र ने अपने
अग्रजों से भी अनुसरण करने की कोशिश नहीं की। निराला ने (छायावाद के पतन का स्वघोष
करते हुए) कविता 'भिक्षुक' में
‘वह आता दो टुक कलेजे के करता’, बाबा
नागार्जुन ने 'अकाल और सारस' में
‘कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की
रही उदास’ या फिर त्रिलोचन ने ‘चंपा
काले-काले अच्छर नहीं चीन्हती’ जैसी कविताएँ लिखकर काव्यभाषा के बदलने का संकेत
बहुत पहले ही दे दिया था जो विजेंद्र जी के पूरे काव्यसंसार से गायब है। इस प्रकार
इनकी भाषा आधी सदी के पीछे चल रही है। प्रसंगवश कहना चाहूँगा कि कबीर भाषा के मामले में सबसे बड़े
उदाहरण हैं, सदियों पुरानी हैं पर अनायास प्रयत्न से बनी
उनकी काव्यभाषा पुरानी होकर भी आज तक नई है और भाषा का यही गुण समाज में बदलाव
लाने की क्षमता रखता है।
कविता में लोक का छद्म और फैशन
यहाँ गौरतलब है कि एकांत की काव्य-भाषा विजेंद्र जी की काव्यभाषा की अपेक्षा बाहर से अधिकाधिक द्रवणशील और प्रगल्भ दिखती है जिसमें एक तड़प भरी पुकार है, एक निनाद है, एक आसक्ति भी है पर जनसंघर्ष को वहन करने शक्ति नहीं। यह सही है कि एकांत अपनी परंपरा-पोषित भाषा को कभी जड़ होने नहीं देते, न विजेंद्र की तरह लोकभाषा के अप्रचलित देशज शब्दों को जबरन कविता में पैठते, वह सदैव लोकभाषा के करीब रहते दिखते हैं पर उनमें भी समकाल का आंतरिक सत्य नजर नहीं आता, न ही उनका जन व्यवस्था और विद्रूपता के प्रति आंदोलनात्मक स्वर में कभी मुखर होता, वहाँ केवल जनभाषा का वायवीय लोक ही दृष्टिगत होता है (देखें – उनकी लंबी कविता – ‘कन्हार’ संग्रह ‘बीज से फूल तक’ की निष्कर्ष-पंक्तियाँ – ‘कि कन्हार केवल मिट्टी का नाम नहीं है / कन्हार की आत्मा/ रो रही है/...प्रारब्ध है कन्हार का../ अपने अंतस की तीसरी आँख से/ कभी देखो कि एक जाल है वहाँ/धरती पर बिछा हुआ/ मायावी, अनंत और अदृश्य/ जिसमें सबसे पहले उलझते हैं पंजे/ एक बार उतरते ही /फिर डैनों की विवश फड़फड़ाहट/ और घिर जाती है उड़ान/खो जाता है धरती, आकाश और हवाओं का विस्तार। (काव्य संग्रह ‘बीज से फूल तक’ :पृ सं 136) इस कविता के पात्र विद्रोही रूप लेकर कभी सामने नहीं आते पर शम्भु बादल की प्राय: कविताएँ जन के दैन्य-दर्द को विद्रोह और प्रतिकार का रूप आकार लेती नजर आती है जैसा कि आपने ऊपर भी देखा है। कवि एकांत लोक का जो आलोक रचते है उसमें उनकी जनपक्षधरता निर्विवाद नहीं, उनका रूपवादी झुकाव और बुर्जूआ सौंदर्य–चेतना उनको जनपक्षधरता के कटघरे में ला खड़ी करती
है।
एकांत की आस्था उस साँस में अवश्य है ‘जिसमें जनपद की महक है’ और ‘जनता का दुःख है’ पर वह भाव प्रतिरोध और रोष के ताप में नहीं बदलता, न उसकी आग भभक कर कभी बाहर आती है। वह धरती को ‘स्वप्न की तरह देखने वाली’ आँख और ‘लोकगीत की तरह गाने वाली आवाज’ से ही अपना लोक को गुनते हैं। उन्हें ‘अखरोट सी सख्त / नासपाती – सी गोल और हरी/ यह धरती जो दिखती है बहुत प्यारी।‘ (बीज से फूल तक :पृ. सं. 20) क्योंकि उनका कवि-मन भी इन्हीं सौंदर्यों की अभिलाषी हैं। गुलाब, सूरजमुखी के खेत, ओस भींगे फूल, काँस के फूल, श्याम जल में झड़ते सिंदूरी फूल, अमलतास के पीले फूल, शेफालिका, हरसिंगार, पारिजात, पानी की लकीरों पर लिखा हुआ पानी का लोकगीत, कातिक की क्यारी का पीला गेंदे का फूल, प्रवासी पक्षियों का लौटना, भटकते परिंदों के सरोवर, हिमालय के झरनों की गूंज, लोरी, नीम-बरगद की छाँव, समुद्र के गर्भ
में सोए मेघ, क्षैतिज की झुकी हुई टहनी, पत्थर, भोर के आकाश की चाँद, झरने, लोकगीत, जलपाँखी, समुद्र, वंसत का ललछौंह, पकते बेल की नशीली गंध आदि-आदि से इनकी कविताओं का संसार बनता है जहाँ एकांत का कवि-मन लोक के अंतर्द्वंद्व और जन के संघर्ष को अलसायी, सुविधासंपन्न संतृप्त आँखों से देखना चाहता है। बकौल लोकधर्मी आलोचक रमाकांत शर्मा, ‘एकांत की कविता पर केदारनाथ सिंह का गहरा प्रभाव है। वहां लोक बतौर फैशन है। लोक के श्रम और संघर्ष से कोई सरोकार नहीं।‘’ यह हिंदी कवितालोचना का तिलस्म ही कहा जाएगा कि विजेंद्र एकांत को गहरे लोकधर्मी कवि और जनशक्ति व लोकतांत्रिक चेतना का वाहक-कवि कहते हुए नहीं अघाते। (देखें, आलेख- ‘एकांत की कविता’ / ‘कृति ओर’- अंक अप्रैल 1016 / पृ. सं.-1-15) । विजेंद्र के पंद्रह पृष्ठों के लंबे आलेख में कहीं भी एकांत की कविताओं में ‘वर्ग
संघर्ष’ और ‘सामाजिक अंतर्विरोध’ नहीं
दिखता। कविता में प्रतिरोध और जन-प्रतिबद्धता केवल बयान या कथन नहीं होती। एकांत की कविताओं में वह या तो जनपद के भूगोल का सौंदर्य भर दिखता है या केवल श्रम का वह सौंदर्य, जिसमें जनसंघर्ष कहीं गतिशील नहीं दिखता बल्कि कमोवेश यह बात खड़ी उतरती है कि ये कविताएँ लोकोत्तर और काल्पनिक सौंदर्य की अधिरचना मात्र है, देखिए – बस सूने आँगन के पार/बरामदे में रखा वह सितार दिखता है/प्रतीक्षा में कि किसी वसंत में वह स्त्री लौटेगी/ और जागेंगे उसकी उंगलियों से/ उनमें सोए सबसे प्यारे राग/सबसे भीषण दुःख। (काव्य संग्रह ‘बीज से फूल तक’ :पृ. सं 48) एकांत की इन काव्य-पंक्तियों को देखकर हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि यह लोक की रूपवादी सौन्दर्याभिरूचि है जो लोकधर्मिता के नाम पर कविता में रूपवादी रुझानों का पक्ष लेती है। कुल मिलाकर, कवि एकांत की सौंदर्य-दृष्टि ने लोकधर्मिता और जनपक्षधरता को इतना ‘डाइल्यूट’ कर दिया है कि उनकी प्रतिबद्धता असंदिग्ध और ‘इंटैक्ट’ नहीं रही। अब तक के उनके काव्यकर्म की यही फलश्रुति है कि कविता में वे लोक तो कवि विजेंद्र से ग्रहण करते हैं पर रूप को कवि केदारनाथ सिंह से लेते हैं। दोनों के फ्यूजन से जो काव्य-संसार सिरजता है उसमें उनका अपना काव्य-चरित्र रूपाभा खोकर लोक के एक संकर संस्करण में बदल जाता है जो कभी विजेंद्र, तो कभी केदारनाथ सिंह की तरह दिखता है, जिसमें अंतर्द्वंद्व और आत्मसंघर्ष का कोई
चिन्ह नहीं। साहित्य में तो अंतर्द्वंद्व और संघर्ष के बीच भी एक बारीक ‘गैप’ है, अंतर्द्वंद्व मन की उद्वेलित अवस्था भर है जबकि संघर्ष और विद्रोह उसके बाद का, जन का क्रियाशील-गतिक रूप जिसका प्रसन्न विकास हम युवा कवि, योगेन्द्र कृष्णा, कुमार वीरेंद्र, अशोक सिंह आदि की भी चयनित कविताओं में देख सकते हैं।
कविता-समय की जन-आहट
शोषण, जुल्म और यातना के प्रतिकार
और जनविद्रोह को लेकर अनेक कविताएं शम्भू बादल के संग्रहों में भरी पड़ी हैं जिनमें
से कुछेक का नाम न लेना कवि के साथ ज्यादती होगी, बहरहाल, इनमें से कविता गुजरा, बाज और चिड़िया, शिकार, चिड़िया, मैं ही महेंद्र सिंह हूँ, रचनाकर और जनता, हरीश दुखी है, साँवली लड़की, लेनिन की आवाज, कबूतर, मारा गया फुलवा, चिड़िया वही मारी गई, भगत-रूप धर प्यारे, साथ साथ साथ, बुधन ने सपना देखा, चाँद मुर्मू, पोयट बहार का आदि विशेषत: उल्लेखनीय हैं। ये कविताएं उस जन के साथ
खड़ी हैं जो समाज के उत्पीड़ित जन, क्रांतिकारी विचारधारा, क्रान्ति-नायकों के विचारों, भावों, व्यक्तित्वों से
प्रभावित होकर प्रतिकूल परिस्थितियों को बदलेने के लिए तत्पर, सक्रिय रहते हैं। यहाँ पात्र विशेष ही
नहीं, उसके साथ पूरा समाज
उद्वेलित, गतिशील और संघर्षरत
दिखता है। मनुष्य के साथ पशु-पक्षी भी उत्पीड़न महसूस करते हैं। वे केवल निरीह जीव
न होकर आक्रोश और प्रतिरोध के भाव से लैस मिलते हैं। यहाँ चिड़ियाँ एक सामान्य
पक्षी ही नहीं, चहचहाती भर नहीं, विरोध का सामर्थ्य भी रखती है। ‘शिकार’ कविता की तोता-मैना का उद्गार देखिए - शिकारी
जब तक जिंदा है / हर दिन हमें मारता है / भून-भान खाता है/ शराब पीता है/ ऐश करता
है/असल में हमारे मांस का/ चसका लगा है शिकारी को / हम शिकारी पकड़ेंगे/ इसके लिए
चलें/जाल बनाएँ/जाल को/ शिकारी के माथे पर गिराएँ/ शिकारी जाल में उलझेगा/हम चोंच
से मारेंगे/वह छटपटाएगा / (पृ सं – 22/ शम्भु बादल की चुनी हुई कविताएं )
जब कवि परिवेश या लोक के साथ स्वयं
को इतना साधारणीकृत या सामंजित कर लेता है कि जनभाषा को काव्यभाषा में रचने की जादुई
शक्ति उसे हासिल हो जाती है तो वह सर्वहारा शक्ति का वाहक बनकर अपनी कविता को क्रांतिधर्मी
बना देता है। रचनाकारों में यह शक्ति बिरले ही आ पाती है। इसका सीधा संबंध उन काव्येतर
मूल्यों से है जो किसी लेखक का विशिष्ट लक्षण होता है और जिसे हम उनमें ‘ईमानदारी और साहस’ भी कहते हैं। इसी ईमानदारी और साहस के विशिष्ट काव्येतर गुण ने कुमार विकल, गोरख पाण्डे, अवतार सिंह संधु ‘पाश’, नाज़िम हिकमत आदि कवियों के अंदर जनविद्रोह के स्फुट स्वर पैदा किए जिसका प्रसन्न
विकास हमें कवि शंभू बादल की कविताओं में भी देखने को मिलता है। शंभु बादल ऐसे ही लोककवि
हैं जिनकी भाषा जनभाषा है जो कहीं रुक्ष, कहीं अनगढ़ तो कहीं लोक-रस से आप्लावित दिखती हैं जो भाषा के कुछ बड़े
कवियों की आभिजात्य प्रकृति से बिलकुल अलग है।
अपने पहले कविता–संग्रह ‘पैदल चलने वाले पूछते है’ (1986) में ही शंभु बादल ने कविता की दुनिया में अपने
विद्रोही स्वभाव और चरित्र का संकेत दे दिया था। यह व्यापक जनवादी संदर्भों की 12 खंडों में एक लंबी कविता है जिसमें सेरा (एक पात्र) के सवाल श्रमजीवी स्पर्श पाकर नई ताकत प्राप्त
करते हैं – ‘हम गीता की आत्मा नहीं / विद्रूप हैं / सुरूपता के नाम पर / हमें और विद्रुप बनाने की चाल/चल रहा कौन? / भूख से मौत के लिए / कौन ज़िम्मेदार है ? / मृत या / जीवित मनुष्य ?’
ऐसे बहुत सारे सेरा के अनगढ़ सवाल भद्रलोक के भद्राचार को तोड़ते नजर आते हैं
जिसे बिना किसी अतिरिक्त सर्जनात्मकता या सुघड़ता के कवि ने कविता में रखते हुए अपनी
जनपक्षधरता को वैचारिक प्रतिबद्धता के साथ मजबूती प्रदान किया है। पैदल चलने वाले जन
का आज भी यही सवाल है और अब उन्हें इन सवालों को पूछने और ढूँढने से रोका नहीं जा सकता
जो यह शंभु बादल की कविता की दीर्घजीविता का प्रमाण है।
बादल जी का दूसरा संग्रह काफी विलंब से बीस वर्षों के अंतराल पर आया – ‘मौसम को हाँक चलो’ (2007) । इन वर्षों में लोकजीवन में सामाजिक-आर्थिक विषमता और गहरायी, विपन्नता और नए वीभत्स रूप में हमारे सामने
आई, राजनीतिक जीवन ज्यादा अराजक और कुचक्रों के
शिकार होने लगे, नायकों के और कुत्सित
चरित्र उजागर हुए, उन सबकी ही बानगी दूसरे
संग्रह की हासिल है जिसकी एक कविता “कोल्हा मोची” की चर्चा ऊपर की गई है।
इतने सालों के बाद भी कवि संघर्षशील जनता के पक्ष में उसी मजबूती से खड़ा दिखाई देता
है, यहाँ विरोध के स्वर पहले से और तीखे, नाद और स्वरित, दृश्य और मार्मिक दिखते हैं। कवि की भाषा पहले
से अधिक सघन, प्रतीकमयी और भाव-बोधात्मक हो गई है, अंडरटोन और लहजे अधिक संयत, भेदस और दो-टूक हो गए हैं। पैदल चलने वाले अब पूछते भर
ही नहीं, अच्छे समय की प्रतीक्षा
से खिन्न हो इस दुर्निवार समय(मौसम) को खुद हाँकने की तैयारी
में खड़े दिखते है। एक नई लड़ाई की तैयारी में उद्धत दिखते हैं -
‘बेर का सूखता पेड़ / पास के सघन सन्नाटे में घिरा / बहुत उदास दिखता है / उसे अनुकूल मौसम का इंतजार है / मौसम के इंतजार में खड़ा न रहो पेड़ / मौसम को हाँक चलो / हरा-भरा बनो / जड़ें गहरी हैं / ऊर्जा है / ग्रहण करो’ - यानि
यातना के भीतर आत्महीनता के बोध से दबे समाज के थके-हारे जन में आक्रोश अब आकार ले रहा है और फूटने
को है।
तीसरे काव्य संग्रह “सपनों से बनते हैं सपने” में आवरण-पृष्ठ पर बक़ौल केदारनाथ सिंह ‘मिट्टी, पत्थर और काँटों की हाथ देखने की आकांक्षा रखने वाला कवि गहरे अर्थ में जनपक्षधर चेतना का हामी कवि है जिसका प्रमाण इस संग्रह की अनेक कविताओं में देखा जा सकता है। वस्तुत: ये जन को संबोधित कविताएं हैं वहाँ कला की काट-छाँट पर कम और सीधे सम्प्रेषण पर ज़ोर अधिक दिखाई पड़ता है।‘
हम कह सकते हैं कि समय की तमाम त्रासद स्थितियों यथा; बाजारवाद, लूट, भ्रष्टाचार, गरीबी, विस्थापन, रूढ़िवाद की जकड़न, कुत्सित राजनीति, युद्ध की विभीषिका, शोषण, जुल्म आदि के बीच शम्भू बादल की कविताओं का
मूल स्वर और संप्रेष्य जनविद्रोह ही है जो अन्य समकालीन कवियों से इन्हें न केवल अलगाता
है, बल्कि महत्वपूर्ण और प्रासंगिक भी बनाता है
क्योंकि इसमें बदलने वाले समय की जन-आहट है। •
संपर्क : सहायक निदेशक, प्राथमिक शिक्षा निदेशालय, स्कूली शिक्षा एवं साक्षरता विभाग,
एम डी आई भवन, धुर्वा, रांची – 834004 मोबाईल ( 0 90067 40311 और 0 94313 10216)
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (17-09-2016) को "अब ख़ुशी से खिलखिलाना आ गया है" (चर्चा अंक-2468) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत सुन्दर रचनाएँ
जवाब देंहटाएं