शुक्रवार, 2 सितंबर 2016

“बाजि पराये पानि पर तू पच्छीनु न मार” उमाशंकर सिंह परमार ( कवियित्री गगन गिल और कवि अनिल जनविजय के बहाने दिल्ली के साहित्यिक कूटनीति, स्त्री-विमर्श और परिदृश्य पर चर्चा)

निल जनविजय को लेकर अभी दो दिन से जो विवाद मचा रहे, उसे देखकर मुझे आश्चर्य हो रहा है। जनविजय चार दिन बाँदा मे रहे, कोई बात नहीं हुई। एक दिन के लिए दिल्ली गये तो उसी दिन बवंडर खडा हो गया। इस विवाद में खास किसिम के लोग अधिक रुचि ले रहे थे।  जैसा अक्सर फेसबुक मे देखने को आता है कि किसी आदमी पर कोई स्त्री-विरोधी होने का आरोप लगाता है और नारीवादी टाईप पुरुष मजे लेने लिए भाषा की श्लील र्यादाओं को अश्लीलता की चासनी मे लपेटकर चटखारे लेने लगते हैं । इन लोगों ने वाकायदा गैंग बना रखे हैं और बहुत से काण्ड किए हैं, दो चार का काण्डों का खुलासा भी हुआ है  । जैसे ही फेक आईडी की दिव्य नारियाँ इस जीवन-जगत से मुक्त होकर परमतत्व में विलीन हो जाती हैं, तैसे ही ये गैंग विश्रान्ति की मुद्रा मे पहुँचकर या शिकार खोजने लगता हैं। खैर, इस विवाद में कोई फेक नहीं था, पर बहुत से लोगों ने मजे लूटने का निन्दनीय अपराध किया। इस विवाद में दोनों जाने माने कवि हैं जो सशरीर इस संसार में उपस्थित हैं। तब भी इन नारीवादियों ने बगैर दोनों की मर्यादा का ख्याल किए बिना इस बात को प्रचारित किया और गाली-गलौच की भयावह स्थितियों तक दोनों पक्षों का मानसिक उत्पीन किया गया। इस विवाद में जल्दबाजी का मामला  गगन गिल जी का पत्र रहा जिसे "जानकीपूल में" लगाया गया था । गगन जी ने कैसे इस बेतुके पत्र को लिखा, मुझे समझ नहीं आ रहा, उन्होंने लेखक की गरिमा और निजता को छेने के लिए जिस भाषा और भंगिमा का प्रयोग किया, वह किसी भी स्तर से उचित नहीं ठहराई जा सकती है । इस पत्र को पढ़कर मुझे अपने प्रिय मित्र का  इस कदर चरित्र-हनन नागवार गुजरा जिस आदमी को मैं अच्छी तरह जान रहा हूं, पहचान रहा हूं। उस व्यक्ति पर यदि तथ्यविहीन आरोप लगेगे तो मैं जवाब दूंगा। मैं चाँदी का चम्मच लेकर पैदा नहीं हुआ (इसी पत्र का कथन है) देहाती हूँ यही जानता हूं, दोस्त ही मेरे लिए सब कुछ हैं। वही मेरे आदर्श है, मैं तभी उन पर अविश्वस करूंगा, जब साक्ष्य पुख्ता होगें । मैंने गगन गिल जी का पत्र पढ़ा।  यह पत्र न होकर एक आरोप-पत्र है, जिसमें भाषा का छल और गुस्से का  तर्कहीन बकवास है । अनिल जनविजय की कविता और उनके कार्यों से समूचा हिन्दी जगत उन्हें जानता पहचानता है।  वह लगातार हिन्दी की जमात से जुड़े हैं। आयोजनों में आते जाते हैं। लिखना पढना अनुवाद करना, किताबें खोजना, उन्हें छपवाना उनका सरोकार है। शायद इसीलिए वो आज किसी भी परिचय के मुहताज नहीं है। रही बात गगन गिल जी की, तो उनकी कविता इतनी महान नहीं है कि वो खुद को महादेवी वर्मा के बाद की सबसे बडी कवियित्री कहें। और बहुत सालों से वो कुछ लिख प भी नहीं रही हैं। आना-जाना भी उनका बन्द है। वो हिन्दी समाज से लगभग कट चुकीं हैं। मैने गगन गिल की कविताओं को नहींपढा न कभी पढने की मुझे जरूरत महसूस हुई फिर भी  जितनी कवियित्रियों को पढा हूं कात्यायनी को छोडकर, ढंग की कविता मुझे किसी की नहीं मिली। न तो नयी संवेदनाएं देख पाता हूं,  न परम्परागत भाषा का खंडन देख पाता हूं। जब तक कविता की संवेदना अपनी भाषा खुद नहीं तय करती है, तब तक उसे कविता कहना व्यर्थ है ।  गगन गिल कितना बडा नाम है, मैं नहीं जानता। पर मेरी नजर में महत्वपूर्ण नाम नहीं है । उनकी आदर्श महादेवी वर्मा भी उसी समाज की कवियित्री थीं जो आत्मग्रस्त होकर यथार्थ को तिरोहित करने लगता है। यथार्थ को नकार कर बने-बनाए बुर्जुवा ढाँचे को बचाने का प्रयास जयशंकर प्रसाद ने भी किया है। अधिकांश छायावादी कवि (निराला को छोडकर) बेमतलब के मध्यमवर्गीय गडबडझालें मे फँसे हैं। यह मध्यमवर्गीय चेतना  भाषा की खतरनाक दुश्मन है।  वह उसी भाषा से लगाव रखती है जो सहज उपलब्ध हो। नयी भाषा के लिए संघर्ष इनके बस की बात नहीं है। ऐसे बहुत से कवि रहे जिनका कोई नाम लेवा नहीं बचा है । गगल गिल को मैने पढा नहीं। पर महत्वपूर्ण होतीं तो नाम लेवा जरूर  होता और लगातार मुक्तिबोध और त्रिलोचन जैसे चर्चा भी होती |
इस पत्र का मकसद मुझे समझ नहीं आया। इस पत्र मे आरोप तो बहुत हैं। गम्भीर और संगीन आरोप हैं पर उनके समर्थन मे तर्क का नामोनिशान नहीं है। कम से कम तर्क तो होना ही चाहिए। आपकी नजर मे भले तर्क देना जरूरी न हो, पर हम जैसे पाठकों के लिए जो जनविजय को भली प्रकार से जानते हैं उनके भ्रम को तोडने के लिए तर्क बेहद जरूरी थे। कहा गया है कि अनिल बीमार थे, बीमार हैं | पर ऐसा क्या हुआ जिससे अभिव्यक्त हो कि वह बीमार है? कौन -सी बीमारी है, यह सभी समझ गये हैं। पर साक्ष्य होना चाहिए ताकि बीमारी से बाकी लोग भी अपनी सुरक्षा कर सकें। आपका दूसरा तर्क सौतेली माँ का है। सौतेली माँ मनुष्य की शौकिया निर्मिति नहीं है। वह भी मजबूरी में  ही होती है। अगर सौतेली माँ है तो वह किसी भी व्यक्ति के चरित्र पर लांक्ष कैसे हो सकती है ? आपने इस सन्दर्भ को इस तरह प्रयुक्त किया है जैसे सौतेली माँ होना अनिल के व्यक्तित्व का कलंक है। वह भी स्त्री है। कोई भी स्त्री हो, चाहे वह विधवा हो या सौतेली हो, इनके प्रति "कलंक" वाला नजरिया घोर सामन्ती और स्त्री अस्मिता के विरुद्ध है। यह सामन्ती समाजों का हिंसक चिन्तन है जो पुराणों से चलते हुए आपके इस पत्र मे भी विराजमान हो गया है।  और अनिल ने आपके खिलाफ कब और कहाँ लिखा, इस बात का खुलासा आपको करना चाहिए। अनिल कभी भी किसी औरत के खिलाफ नहीं लिख सकते क्योंकि उनके भीतर का कवि एक औरत की दर्दनाक हत्या से उपजा है (उस प्रसंग को मैं नहीं कहना चाहता) आपको कैसे जानकारी हुई अनिल ने आपके विरोध में लिखा? आपका चरित्र हनन किया ? यदि स्क्रीन शॉट हो अनिल के तो उनको भी उपलब्ध कराना चाहिए।  आपको गलत सूचना दी गयी है । अनिल ने ऐसा कुछ लिखा ही नहीं है। उनका आपके सन्दर्भ में केवल एक बयान है जो उन्होंने दिनांक 30 अगस्त को दिया था, वह इस तरह है- कौन किस को कवि बना सकता है? गगन कवि थीं और हैं और बेहद अच्छी व महत्वपूर्ण कवि हैं, जिनके बग़ैर हिन्दी कविता का इतिहास नहीं लिखा जा सकता है। इसीलिए मैंने उन्हें हिन्दी कविता की अख़्मातवा बताया है।आन्ना अख़्मातवा रूस की एक महान् कवि हैं। मैंने तो बस, एक आत्मस्वीकृति के रूप में यह बात कही है कि तब मैं इस तरह की शरारतें किया करता था और गगन के नाम से कविताएँ और लेख लिख कर छपवा दिया करता था, जिस बात का गगन बहुत बुरा माना करती थी।“ इस बयान में स्वीकारोक्ति है। आपका चरित्र हनन नहीं है। शरारत और आपके गुस्सा होने का उल्लेख है, न कि आपके खिलाफ अनर्गल बकवास है।  यह बयान उन बयानों के आलोक में  कुछ भी नहीं है जो अनिल के लिए तथाकथित नारीवादियों ने दिए। अनिल को जितनी गालियां आपके अंग्रेजी वाले पत्र में है।  उसके सामने तो ये कुछ भी नहीं है। प्रभात रंजन की वाल पर जिस तरह के कमेन्ट आए हैं, वो तो लेखकीय मर्यादा और मनुष्यता दोनों का निषेध करते हैं, तो क्या इसी बयान के लिए अनिल को इतनी गालियाँ दी गयीं ? उनको मानसिक रूप से पीड़ित किया गया? मैं जानना चाहता हूं,  वो स्क्रीन शाट कहाँ है जो आपकी तथाकथित शुभचिन्तकों ने आप तक प्रेषित किया है, जिसमें अनिल आपका चरित्र हनन कर रहे हैं ? जाहिर है गगन जी कि वह स्क्रीन शॉट आपके पास नहीं है। दिल्ली के दो मठों की आपसी लडाई में आपको मोहरा बनाकर फिट कर दिया गया है। मेम साब, दिल्ली का चरित्र ही ऐसा है।  यहां किसी का भी चेहरा उजला और प्रकाशवान नहीं है। सारे चेहरे पहचान के संकट से जूझ रहे हैं। सब कुछ धूमिल है। इस मामले का सारा खेल आपके खिलाफ बयान देने वाले समुदाय और आपको बताने वाले समुदाय के बीच अटका हुआ है। पत्र को *जानकीपूल* ने छापने जितनी जल्दी दिखाई और आपने लिखने में जितनी तत्परता दिखाई, मैं इस तेजी और ताजगी से मैं आश्चर्यचकित हुँ! वो लोग, जो खुद जयपुर फेस्टिवल जैसे आयोजन में पहुँचकर बड़ी योग्यता से पुरस्कार झटक लाते हैं, अपने आपकी पीठ थपथपाते हुए सरकार और कारपोरेट के अनैतिक गठबन्धन से उपजे आयोजनों की शान मे कसीदें पढते हैं, वो ही लोग सच्चाई तक पहुँचे बिना ऐसे पत्रों को प्रकाशित कर सकते हैं क्योंकि उन्हें पक्षधरता, प्रतिबद्धता, जनधर्मिता जैसे विचारों से कोई मतलब नहीं है। उनका मतलब  कारपोरेट से है, जहाँ सत्ता है। जहाँ  सनसनी है। लेखन की बजाय सनसनी में जोर देने वाला बहुत बड़ा तबका आजकल दिल्ली में सक्रिय है। इनकी परम्परा भी है। इनके मठ हैं। उनके मठाधीश भी हैं जो सनसनी लिखते हैं और सनसनी बेंचते हैं। सनसनी छापते हैं और सनसनी का प्रचार करते हैं। आपके पत्र के साथ भी यही हुआ मेम साब। आपको इन लोगों ने वैचारिक रूप से “किडनैप” कर लिया और वही लिखवाया जो इनकी मंशा थी । कम से कम अनिल के घटिया बयानों को भी दिखाना चाहिए।  इस मामले में अभी तक एक भी साक्ष्य  कायदे का नहीं आया है। सब हवा मे लाठी भाँज रहे हैं।  साक्ष्य के मामले मे सब चुप हैं, जबकि उस कविता पाठ आयोजन में उपस्थित लोगों ने मुझे बताया कि अनिल ने उस कविता पाठ में ऐसी कोई बात नहीं कही जो किसी भी स्त्री की अस्मिता और चरित्र के खिलाफ हो। उन लोगों के  बयानों का स्क्रीन-शाट भी उपलब्ध हैं ।
दूसरी बात मेम साब, आपके इस पत्र में कि, आपके द्वारा पश्यन्ती के सम्पादक से  अनिल का परिचय कराया गया। यह आपकी उदारता थी कि एक बीमार आदमी पर भी आपकी कृपा बरसी। वह "हापु" से किताबें ढोते थे। यह काम भी नया नहीं है। अनिल आज भी किताबें ढोते हैं।  उनका जीवन किताबें ढोते बीता जा रहा है। मेरे पास बाँदा आते हैं तो किताबें ढोकर लाते हैं और ढोकर ले जाते हैं। किताब प्रेमी पने-लिखने वाला आदमी किताबें ही तो ढोएगा! इससे आरोप का कोई मामला नहीं बनता है। तीसरी बात, उसने स्वयं स्वीकार किया है कि मैं उनके नाम से रचनाएं छपवा लेता था और गगन जी मेरी शरारत पर नाराज भी होती थीं। इस बात को अनिल ने सार्वजनिक रूप से स्वीकार किया है और मैने पहले बता दिया है कि इस बात को शरारत के रूप मे ही लेना चाहिए। इसे चरित्रहनन जैसा कुछ नहीं है, न तो गाली है,  न ऊटपटांग की कोई गलीच अफवाह है। पर आपने पत्नी और साली से रिश्ते को लेकर अवश्य पुरुषवादी सोच का परिचय दे दिया है। यह अनिल की पत्नी और साली के बीच का मामला है (अगर आपने इस रिश्ते को आँखो से देखा है) उस पर किसी को कोई आपत्ति नहीं होना चाहिए और यह आरोप चारित्रिक आक्षेप है। जिस फर्जी आक्षेप को लेकर आप इतना लम्बा पत्र लिख रही हैं, वही आक्षेप आप खुल्लम-खुल्ला लगा रही हैं। यदि आपका मान फर्जी और तथ्यविहीन आरोप से खंडित हुआ तो क्या खुल्लम-खुल्ला ऐलान से उन दोनों स्त्रियों का मान न खंडित हुआ होगा? 
उन पर क्या गुजरी होगी शायद अनिल की पत्नी और साली को आप स्त्री न समझती हों।  तभी आप खुद को स्त्रीवाद से जोते हुए भी स्त्री पर तोहमत लगा रही हैं। आपका यह पत्र महज गुस्सा है जो आपको कृत्रिम तरीके सम्प्रेषित किया गया और आपने तर्क और तथ्यों की छानबीन किए वगैर आरोपपत्र तैयार कर दिया। फेसबुक में नारीवाद के नाम पर इस समय बहुत से लफंगे अराजकता फैला रहे हैं। वो हर किसी को स्त्री-विरोधी और बलात्कारी सिद्ध करने के लिए तमाम उपक्रम करते रहते हैं। उनका काम निर्दोष की हत्या है। ऐसे गन्दे और फर्जी आरोपों के कारण कुछ लोगों ने आत्महत्या भी की है। यदि अनिल जनविजय पर कुछ आशंका थी तो पत्र-लेखन के पूर्व उनसे बात की जा सकती थी। परन्तु बात न करके सीधे से मामले को रणक्षेत्र मे तब्दील कर दिया गया। तमाम नारीवादी पुरुष भाषा और श्लीलता की सीमा तोते हुए  अनिल के खिलाफ सारा दिन गालियों की निर्मम बौछार करते रहे। अनिल को कोसते रहे। मानसिक पीड़ाओं को वह व्यक्ति अकेले ढोता रहा, जिस अपराध को उसने किया नहीं उस अपराध का दण्ड उसे जबरिया दिया गया। एक संवेदनशील निर्दोष आदमी को फर्जी बातों में आकर पीड़ित करना कैसा स्त्रीवाद हैयदि यही स्त्रीवाद है तो मैं इसे स्त्रीवाद न  कहकर आतंकवाद कहूंगा ।
इस पत्र में आपने एक बात बड़े कायदे की कही है मेम साब कि, हिन्दी साहित्य की दुनियाँ कीच से सनी है। वाकई में मुझे ऐसा अनुभव हुआ है। ऐसा केवल तभी हुआ है, जब सहित्यिक अन्दरखाने की राजनीति को देखता हूं। दिल्ली वालों के धूसर होते चेहरे को देखता हूं।  पुरस्कारों के लिए जोडतोऔर जुगा देखता हूं।  गलत कविता को महान बताने की कुत्सित चालें देखता हूं। बड़े प्रकाशन की चमचागिरी मे नैतिकता की नीलामी देखता हूं। एक बेहतरीन कवि की हत्या देखता हूं और घटिया कवि का उत्थान देखता हूं। जिस कवि ने कविता का जीवन जिया हो , उसके नाम से स्थापित पुरस्कारों पर उनके विरोधियों का बाहुल्य देखता हूं। दिल्ली की पत्रिकाओं का चाल चरित्र और चेहरा देखता हूँ। गाँव और कस्बों पर रहने वाले लेखकों और कवियों के प्रति नफरत और घृणा का भाव देखता हूं । दिनभर प्रतिरोध का नारा लगाने वाले लेखकों को सरकारी आयोजनों पर पहुँचकर सरकार की मिजाजपुर्सी करते देखता हूं। पद और पुरस्कार की चाह में  कुछ भी करते देखता हूं। पर जड़ता पर कोई परिवर्तन न होगा।  कुछ भी न होगा मेम साब। इस परिदृश्य का प्रतिरोध दिल्ली नहीं कर सकती क्योंकि वहां 90% वही हैं जो बकौल आपके "जन्म से चाँदी का चम्मच लेकर पैदा हुए है"।   उनके गाड़ी-बंगले, बैंक-बैलेंस सब है। वो लोग परिवर्तन नहीं, सनसनी चाहते हैं। इस सनसनी के लिए निर्दोष मरे या जिए। आपको केवल मोहरा बनाया गया। आपने सच नहीं देखा, न पढ़ा। वही पढ़ा, वही देखा जो आपको पवा दिया गया मैम। हमलोग तो चाँदी का चम्मच लेकर नहीं पैदा हुए, पर इतना जानते हैं कि  चाँदी का चम्मच लेकर पैदा होने वाले संवेदित नहीं होते, न संवेदन की भाषा उपार्जित कर सकते हैं।   उनकी पीड़ाएं जिस नैतिकता का बहाना करती है, वह उसी नैतिकता के खंडन में खड़ी हो जाती हैं। इस पत्र में न तो तर्क हैं न साक्ष्य हैं बल्कि स्त्री-विरोधी और और गरीबी का मजाक उड़ाने वाले तथ्यविहीन जुमलों का सामूहन है और अन्त में मैं सबसे यही कहूँगा कि इन दिल्लीवादी चोंचलों से ऊपर उठकर देखिए। किसी निर्दोष को किसी राजनीतिज्ञ की राजनीति का शिकार मत बनाईए। मुझे बिहारी का एक दोहा याद आ रहा है
             स्वारथ ,सुकृत न श्रम वृथा , देखि विहंग विचारि 
       
          बाजि पराये पानि पर , तू पच्छीन न  मारि
कवियित्री गगन गिल जी का अँग्रेजी पत्र :
Once a bastard, always a bastard. Yes, Anil? You were always worse than a worm. That's why I threw you in dustbin the moment I recognized that snake. Way back in 77. Forgot it? You didn't stop following me after all these years? Because you didn't find a better person? How sick man! I want to vomit on you. No respect for a lady who worked hard all her life to be where she is? You are the men who rape women, molest children of their own families. You are a devil, a psychopath. Did someone diagnose it yet? I wish I could thrash you in public, right where you were saying all the shit, or in front of Nadya and your daughters. I wish I could tell the whole world what a dangerous criminal sick man you are. Were always. I wish I had taken you to police lock up in 77 itself when you stole my name to write, bastard. For what? There was nothing, not even a smile or word to mislead you. What made you so sick? So obsessed? My kindness? My innocence? Did you even forget that Amrita ji turned you out of her house for this, in the very beginning of your sickness. Was it 1982? How have you forgetten all the shit we gave you? Do you need some electric shocks to bring you back to reality of 1977 & of all the years after that? Shall I arrange some? I curse you. May you rot in hell. Gagan gill


                                            उमाशंकर सिंह परमार
बबेरू ,  जनपद बाँदा 9838610776

1 टिप्पणी:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (04-09-2016) को "आदमी बना रहा है मिसाइल" (चर्चा अंक-2455) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

    जवाब देंहटाएं

टिप्पणी-प्रकोष्ठ में आपका स्वागत है! रचनाओं पर आपकी गंभीर और समालोचनात्मक टिप्पणियाँ मुझे बेहतर कार्य करने की प्रेरणा देती हैं। अत: कृप्या बेबाक़ी से अपनी राय रखें...