ममता सिंह की कविताएं
विकास
आज चारों ओर चमकते ये
एल इ डी बल्ब और
नियोन साइन बोर्ड
जिनकी भव्यता में बिला गए
जाने कितने चाँद,जुगनू,लालटेन
पीली चिड़िया
बँसवारी की
कमजोर डाल पर
अभी - अभी आ कर बैठी है
इससे भी नाजुक
पर बेहद चंचल
यह छोटी सी पीली चिड़िया !
सुन्दर इतनी
कि कल्पना के पास भी नहीं ऐसे पंख,
जैसे किसी ने अपने हृदय का ब्रश
डुबो कर सोने के घोल में
टाँक दिया हो
एक अकेला पीला फूल
इन गहरी हरी पत्तियों पर !
नहीं जानती पीली चिड़िया का नाम
न जाति -प्रजाति ,न जीवन - चक्र
जानने का मन भी नहीं
सिर्फ इसके रूप का सम्मोहन है
जो मुझ पर तारी है
जैसे उफनती, फैलती रूप - राशि
कह दे- ' क़ायनात हमारी है '
निहारते हुए मन में आता है बारबार
क्या वो जानती है
कि मैं उसे ही सोच रही लगातार
देखने के परे जा
हुमक रही बस एक ही इच्छा
कि देख पाती यदि
नन्हीं पीली चिड़िया की आँखों से
तब कितनी सुंदर लगती क़ायनात? ●
सुनो आर्यपुत्रों
यह तुम्हारी चाल ही तो थी
कि जिससे नेमतें बदलीं सजाओं में हमारी
चाल थी , जिसने
हमारे जिस्म के हर अंश को
लज्जा के शर से भर दिया
कर दिया पर्याय
बस अपमान, कमज़ोरी, घुटन का
और तुम
बन गये पावन
महत् - पौरुष हिमालय !!
चाल थी यह
सुनो तुम सब
आर्यपुत्रों और मनु के वारिसों
सब सुनो तुम
हमने चूल्हे फूंक कर
है आग का व्यवहार सीखा
जाँत से जँतसार का हर राग सीखा
टूटते तारों के सँग आँगन में टूटीं
दोपहर के सूर्य से उत्ताप सीखा
हमने सीखा है कि जो सबको
अपावन से करे पावन
वो तपती आग
पशु के मल से बनते
ऊपलों में भी छुपी है !
यदि कोई हो सिर्फ पावन
तो महज़ यह ढोंग ही है
हमने सीखा
इस प्रकृति में
कुछ नहीं निरपेक्ष
पावन या अपावन
सृष्टि को निज - दृष्टि से
तुमने विभाजित कर दिया
हमें निन्दा के विवर में झोंक कर
स्वयं को यश के शिखर पर रख लिया
हे पुरुष, वह चाल ही थी
ख़ून यदि रिसता नहीं तन से हमारे
तुम कहाँ उत्पन्न होते
इस अपावन रक्त से तुम भी सने हो
यही है वह रक्त जिससे तुम बने हो !
पाँच दिन पतझर
प्रकृति की रूह में है
पाँच दिन झरते हैं जब पत्ते पुराने
फूटते हैं तब नये कल्ले
नये रंग- गंध की संवेदना ले
नवसृजन की नव उड़ानों के लिए
तोलती फिर - फिर प्रकृति
है पंख
बस उस पाँच दिन में !
हे पुरुष , कापुरुष हो तुम !!
पाँच दिन के नाम पर साधा निशाना
और हमको दे अंधेरा
रोशनी को तुमने घेरा
था सकल समुदाय दिन रश्मियों में
और हम घुटतीं अंधेरी पस्तियों में ।
सृष्टि के अनुराग की
सब नेमतों को छीन हमसे
ज्ञान से महरूम करके
तुम हमें, बढ़ते गए ,
अट्टहासों से महीने दर महीने
रौंदते हर ख़्वाब आँखों के हमारे
नेमतें बदलीं सजाओं में हमारी
चाल थी वह
वह तुम्हारी चाल थी
सुनो मनु के वारिसों
हे आर्यपुत्रों !! ●
नदी हूँ
डूबकर फिर-फिर उभरना
रीतकर भी फिर से बहना
रेत ढोना-रेत होना , सूख जाना
जानती हूँ , मानती भी हूँ
नियति यह नहीं कोई
है नदी को
और औरत को मुसलसल
हर तरफ
स्वामित्व के पंजों से खतरा
किन्तु रुक सकती नहीँ मैं
आज थम सकती नहीँ मैं
कोई जाने या न जाने
कोई माने या न माने
मेरा प्रिय यह जानता है
जानता है वो कि
मैं औरत नहीँ हूँ ,
नदी हूँ मैं । ●
ओ मनु की अभिशप्त संतानों
कभी प्रार्थना के पार जाकर देखो
जिन्हें तुम पूजती रही युगों युगों
उन पाषाण हृदय पाषाण
प्रतिमाओं की आँखों में झांको
बर्फ सी ठंडी इन निगाहों में
तुम्हारी करुण पुकार की
उष्म छुवन कहीं नहीं
तुम्हारे आंसुओं के गीलेपन से
इनके रेशमी वस्त्रों की कोर
तक नहीं भीगती
ये तो अपने सिंहासन को बचाने
अपनी अकर्मण्यता छुपाने
में रहते हैं सतत लीन
तभी पवित्रता त्याग सहनशीलता
का भारी टोकरा धर दिया
तुम्हारे सर पर
सो अब बंद करो ये अपनी करुण टेर
देवताओ के कान नहीं होते
पोंछ लो अपने आंसू
देवताओं के आँख नहीं होती
तुम खुद रचो अपनी नियति
देवताओं के हाथ नहीं होते
अब तुम गढ़ो अपनी नियमावली
देवताओं के दिल नहीं होते
पत्थरों का स्थान तुम्हारे
शब्दकोश में न रहे
तुम रचो श्रम से माटी की मूरतें
चलाओ हल उगाओ अन्न
ताकि तुम्हे पसारना न पड़े
अपना आँचल प्रार्थना में ● ममता सिंह /
अमेठी /2002 से अध्यापन ।
विकास
लालटेन ने फीकी कर दी थी
रौशनी चाँद और जुगनुओं की
फिर आया बल्ब जिसने
मंद किया लालटेन का तेज
रौशनी चाँद और जुगनुओं की
फिर आया बल्ब जिसने
मंद किया लालटेन का तेज
विकास के क्रम में
विकसित होने के भ्रम में
हम रचते और गढ़ते रहे
रौशनी के नित नए प्रतिमान
विकसित होने के भ्रम में
हम रचते और गढ़ते रहे
रौशनी के नित नए प्रतिमान
आज चारों ओर चमकते ये
एल इ डी बल्ब और
नियोन साइन बोर्ड
जिनकी भव्यता में बिला गए
जाने कितने चाँद,जुगनू,लालटेन
और बल्ब
आँखों में चौंध भरते ये नए सूर्य
नहीं जगा पाते स्वप्न और संवेदना
जो कभी खिलखिलाती थी यूँ ही
आँखों में,होंठों पर,सांसों में
आँगन से चाँद की छाँव में लेट
रातभर बतकही का सुख
रौशनी का नसों में पिघलकर बहना
और निहारना मौन पीपल से झरते
जुगनुओं की झालर को
अब हजारों बल्ब मिलकर भी नहीं
रच पायेंगे रौशनी का वो
ऐन्द्रजालिक वितान
और संवेदना की तरलता ●
आँखों में चौंध भरते ये नए सूर्य
नहीं जगा पाते स्वप्न और संवेदना
जो कभी खिलखिलाती थी यूँ ही
आँखों में,होंठों पर,सांसों में
आँगन से चाँद की छाँव में लेट
रातभर बतकही का सुख
रौशनी का नसों में पिघलकर बहना
और निहारना मौन पीपल से झरते
जुगनुओं की झालर को
अब हजारों बल्ब मिलकर भी नहीं
रच पायेंगे रौशनी का वो
ऐन्द्रजालिक वितान
और संवेदना की तरलता ●
पीली चिड़िया
बँसवारी की
कमजोर डाल पर
अभी - अभी आ कर बैठी है
इससे भी नाजुक
पर बेहद चंचल
यह छोटी सी पीली चिड़िया !
सुन्दर इतनी
कि कल्पना के पास भी नहीं ऐसे पंख,
जैसे किसी ने अपने हृदय का ब्रश
डुबो कर सोने के घोल में
टाँक दिया हो
एक अकेला पीला फूल
इन गहरी हरी पत्तियों पर !
नहीं जानती पीली चिड़िया का नाम
न जाति -प्रजाति ,न जीवन - चक्र
जानने का मन भी नहीं
सिर्फ इसके रूप का सम्मोहन है
जो मुझ पर तारी है
जैसे उफनती, फैलती रूप - राशि
कह दे- ' क़ायनात हमारी है '
निहारते हुए मन में आता है बारबार
क्या वो जानती है
कि मैं उसे ही सोच रही लगातार
देखने के परे जा
हुमक रही बस एक ही इच्छा
कि देख पाती यदि
नन्हीं पीली चिड़िया की आँखों से
तब कितनी सुंदर लगती क़ायनात? ●
सुनो आर्यपुत्रों
यह तुम्हारी चाल ही तो थी
कि जिससे नेमतें बदलीं सजाओं में हमारी
चाल थी , जिसने
हमारे जिस्म के हर अंश को
लज्जा के शर से भर दिया
कर दिया पर्याय
बस अपमान, कमज़ोरी, घुटन का
और तुम
बन गये पावन
महत् - पौरुष हिमालय !!
चाल थी यह
सुनो तुम सब
आर्यपुत्रों और मनु के वारिसों
सब सुनो तुम
हमने चूल्हे फूंक कर
है आग का व्यवहार सीखा
जाँत से जँतसार का हर राग सीखा
टूटते तारों के सँग आँगन में टूटीं
दोपहर के सूर्य से उत्ताप सीखा
हमने सीखा है कि जो सबको
अपावन से करे पावन
वो तपती आग
पशु के मल से बनते
ऊपलों में भी छुपी है !
यदि कोई हो सिर्फ पावन
तो महज़ यह ढोंग ही है
हमने सीखा
इस प्रकृति में
कुछ नहीं निरपेक्ष
पावन या अपावन
सृष्टि को निज - दृष्टि से
तुमने विभाजित कर दिया
हमें निन्दा के विवर में झोंक कर
स्वयं को यश के शिखर पर रख लिया
हे पुरुष, वह चाल ही थी
ख़ून यदि रिसता नहीं तन से हमारे
तुम कहाँ उत्पन्न होते
इस अपावन रक्त से तुम भी सने हो
यही है वह रक्त जिससे तुम बने हो !
पाँच दिन पतझर
प्रकृति की रूह में है
पाँच दिन झरते हैं जब पत्ते पुराने
फूटते हैं तब नये कल्ले
नये रंग- गंध की संवेदना ले
नवसृजन की नव उड़ानों के लिए
तोलती फिर - फिर प्रकृति
है पंख
बस उस पाँच दिन में !
हे पुरुष , कापुरुष हो तुम !!
पाँच दिन के नाम पर साधा निशाना
और हमको दे अंधेरा
रोशनी को तुमने घेरा
था सकल समुदाय दिन रश्मियों में
और हम घुटतीं अंधेरी पस्तियों में ।
सृष्टि के अनुराग की
सब नेमतों को छीन हमसे
ज्ञान से महरूम करके
तुम हमें, बढ़ते गए ,
अट्टहासों से महीने दर महीने
रौंदते हर ख़्वाब आँखों के हमारे
नेमतें बदलीं सजाओं में हमारी
चाल थी वह
वह तुम्हारी चाल थी
सुनो मनु के वारिसों
हे आर्यपुत्रों !! ●
नदी हूँ
डूबकर फिर-फिर उभरना
रीतकर भी फिर से बहना
रेत ढोना-रेत होना , सूख जाना
जानती हूँ , मानती भी हूँ
नियति यह नहीं कोई
है नदी को
और औरत को मुसलसल
हर तरफ
स्वामित्व के पंजों से खतरा
किन्तु रुक सकती नहीँ मैं
आज थम सकती नहीँ मैं
कोई जाने या न जाने
कोई माने या न माने
मेरा प्रिय यह जानता है
जानता है वो कि
मैं औरत नहीँ हूँ ,
नदी हूँ मैं । ●
ओ मनु की अभिशप्त संतानों
कभी प्रार्थना के पार जाकर देखो
जिन्हें तुम पूजती रही युगों युगों
उन पाषाण हृदय पाषाण
प्रतिमाओं की आँखों में झांको
बर्फ सी ठंडी इन निगाहों में
तुम्हारी करुण पुकार की
उष्म छुवन कहीं नहीं
तुम्हारे आंसुओं के गीलेपन से
इनके रेशमी वस्त्रों की कोर
तक नहीं भीगती
ये तो अपने सिंहासन को बचाने
अपनी अकर्मण्यता छुपाने
में रहते हैं सतत लीन
तभी पवित्रता त्याग सहनशीलता
का भारी टोकरा धर दिया
तुम्हारे सर पर
सो अब बंद करो ये अपनी करुण टेर
देवताओ के कान नहीं होते
पोंछ लो अपने आंसू
देवताओं के आँख नहीं होती
तुम खुद रचो अपनी नियति
देवताओं के हाथ नहीं होते
अब तुम गढ़ो अपनी नियमावली
देवताओं के दिल नहीं होते
पत्थरों का स्थान तुम्हारे
शब्दकोश में न रहे
तुम रचो श्रम से माटी की मूरतें
चलाओ हल उगाओ अन्न
ताकि तुम्हे पसारना न पड़े
अपना आँचल प्रार्थना में ● ममता सिंह /
अमेठी /2002 से अध्यापन ।
ममता सिंह |
ममता सिंह की कविताएँ वाह की कविताएँ नहीं हैं। इन्हें आह की कविताएँ भी नहीं कहा जा सकता क्योंकि वहाँ दयनीयता का भाव भी नहीं है। दरअसल ममता जी की कविताएँ परिवर्तन की तीव्रतर इच्छा शक्ति संजोये कुछ सुलगती और कुछ दहकती आग हैं जो बुरे रस्मों रिवाजों को जलाकर खाक कर देने को हमेशा आतुर और तत्पर रहती हैं।
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