[ यह समालोचना कोलकाता से प्रकाशित पत्रिका 'लहक' (संपादक-निर्भय देवयांश) के अंक दिसंबर- जनवरी , 2017 में प्रकाशित हुई है। ] -
भरत प्रसाद मो. 9863076138
वर्धमान महावीर और सिद्धार्थ गौतम ऐसे दो अविचल शिखर हैं ,जिन्होंने महावीरत्व और बुद्धत्व की उपलब्धि के बाद पृथ्वी पर वैदिक कर्मकांड, अस्पृश्यता और जातिववाद की समूल जड़ें हिला दीं। बुद्ध का संघ ऐसा पहला संगठन था,
जिसमें दलित, पीड़ित, अन्त्यज जातियों के लिए सम्मानजनक स्थान था। कौन परिचित नहीं सुनीता नामक दलित से,
जिसको गौतम बुद्ध ने अपना शिष्य बनाया। बुद्ध का सारथी और सखा ‘चन्ना' भी पिछड़े समाज का था, जिसे बुद्ध ने बिना संघ में शामिल किए ही बौद्ध की उपाधि दे रखी थी। आज संपूर्ण भारत में सवर्णों के महाचक्रव्यूह से प्राण बचाने का एक मात्र विकल्प यदि बौद्ध धर्म बचा है-तो इसका ऐतिहासिक कारण है। स्वयं बुद्ध ने भिक्षा पात्र थामे अपने युगांतकारी हाथों को गरीब, दलित, पीड़ित, अछूत सबके द्वार पर खड़े होकर फैलाया। ईश्वर को तनिक भी तवज्जो न देने वाले बुद्ध के ईश्वर यही गुमनाम, बेखास चेहरे ही थे। जरा बांचिए
बुद्ध की आत्मा, कितनी आशिक थी हाशियाई मनुष्यता की-“ जिसको मेरी सेवा करनी है,
वह गरीबों की सेवा करे।''
उत्तरवैदिक काल से ही वीभत्स और विकृत चेहरा धारण करते हुए जाति सूचक पहचान की सनातन महामारी ने हर युग और हर सदी में अपनी ज़हरीली जड़ों का गहरा से गहरा विस्तार किया है। आर्य और अनार्य के बीच लाइलाज भेद और संघर्ष के चलते पश्चिमी भारत में इस रोग का जन्म हुआ और आज यह आदिवासी क्षेत्रों एवं पहाड़ी प्रदेशों को छोड़कर सम्पूर्ण भारत का अटल दुर्भाग्य बन चुका है। आदिकाल, भक्ति आन्दोलन और राष्ट्रीय स्वाधीनता संघर्ष
के दौर में देश का अमिट स्वभाव बन चुकी इस व्यवस्था के खिलाफ शक्तिशाली आवाजें उठीं, आन्दोलन हुए और चेतना भी जगी किंतु यहाँ की मिट्टी, हवा, पानी और प्रकृति में ही जैसे इसने अपनी सत्ता जमा ली है। इसका ख़त्म होना तो अनंत कदम दूर,
कालान्तर में और भी बढ़-चढ़कर फैल गयी। देश में,
इसके अमिट साम्राज्य को देखकर यही लगता है कि यह भारतीयों के रोम-रोम में, हृदय में, बुद्धि में, चेतना में, साँस-दर-साँस में घुस चुकी है। वह कुछ इस तरह उपस्थित है-
जैसे शाश्वत आकाश, शाश्वत सृष्टि, या शाश्वत धरती। सामान्यत इससे अलग हटकर अपने अस्तित्व, अपनी पहचान और सर्वमान्य प्रतिष्ठा की कल्पना भी नहीं की जा सकती। इतिहास में ऐसे हजारों उदाहरण न्याय वंचित होकर बिखरे परे हैं,
जिसमें जाति के सड़ांध नियमों, परम्पराओं और मुर्दा मर्यादाओं के खिलाफ बगावत करने वालों को समाज से बुरी तरह बहिष्कृत कर दिया गया है, गाँव से निकाल दिया गया है या पंचायत के सामने घुटने के बल झुकाते हुए अपमानित किया गया है,
इस जाति-तंत्र के खिलाफ उँगली उठाने वाले परिवार नेस्तनाबूद कर दिए गए हैं।
इस वैदिक व्यवस्था का सर्वाधिक जटिल और दिलो-दिमाग को चकरा देने वाला चतुर खेल देखना हो तो बिहार और उत्तर प्रदेश के किसी भी कोने में,
किसी भी गांव, जिला, शहर और कस्बे में चले जाइए। जातियों के असंख्य घृणास्पद विभाजन को देखकर ऐसा नहीं लगता कि हम किसी आधुनिक, वैज्ञानिक सदी में जी रहे हैं बल्कि ऐसा लगता है जैसे कट्टर, हिंसक, प्रचंड वहशी, घमंड शिरोमणि, और सुमेरु पर्वत के समान अडिग मूर्खता के रूप में कुख्यात मध्यकाल के किसी अन्धकारयुग में चल रहे हैं,
जहां बहुतेरों ने अपने अलावा शेष सभी को महामूर्ख, नीच, घटिया, दो कौड़ी का, मुट्ठी भर औकात वाला समझने, कहने और चिल्लाने की आदत विकसित कर ली है।
वैसे तो ऐसा कोई युग नहीं, ऐसी कोई सभ्यता नहीं और ऐसा कोई शासनकाल नहीं, जहाँ भारतीय दलितों की आत्मा, हृदय, शरीर और वजूद को धूल की तरह रौंदा न गया हो। न जाने कौन सा घुन लग चुका है हमारी मानसिकता में,
न जाने कितनी संड़ाध जम गयी है हमारी बुद्धि में, न जाने कितना जंक खा चुका
है। हमारा विवेक कि हम मनुष्यों को मनुष्य की तरह देखना, जानना, परखना और चाहना कब का भूल चुके हैं। हम पतित पावन ब्राह्मण हैं,
हम बाहें फरकाकर चलने वाले क्षत्रिय हैं,
हमारे पास बाप-दादों के संस्कारों की सदियों पुरानी विरासत है, हम मूछों के ताव पर दुनिया को नचाते हैं,
बस हम एक अदद आदमी नहीं हैं। अभी चंद रोज गुजरे, नाच-नाच उठता है-अपनी मृतक पत्नी को कंधे पर उठाए दाना मांझी का चेहरा; क्या यह वही भारतवर्ष है,
जो मानवता का गुरु कहलाने का ब्रह्मांड में दम भरता है? क्या दाना मांझी को इस देश का आजाद भारतीय कहा जा सकता है?
एक ओर शताब्दियों प्राचीन गरीबी के कैंसर से साँस-दर-साँस मरता गरीब हिंदुस्तानी और दूसरी ओर सत्ता संपन्न शिक्षितों, और धनजीवों की पत्थर प्रकृति ने आम हिंदुस्तानियों की कमर तोड़ दी है। दाना मांझी ने अपने कंधे पर जिस क्षण पत्नी की लाश उठाई, मानो समस्त सभ्य भारतीयों के शरीर को, हृदय के
मुर्दापन को,
आत्मा की दानवता को बीच सड़क नंगा कर दिया। एक और घटना उठा लीजिए-बेहद मामूली मुद्दे पर दलित पति को वस्त्रहीन कर उसी के सामने पत्नी को पूर्णत नग्न कर दिया जाता है और औरत को जन्मदायिनी की उपाधि से विभूषित करने वाले आमजन उसकी तार-तार होती आबरू का तमाशा देखते हैं। पत्नी अपने पति की जड़वत शरीर के ओट में अपनी लाज को छिपाने की असफल कोशिश कर रही है। हिंदू धर्मान्धता की भारतीय राजधानियों में से एक गोरखपुर शहर में दो दलित युवकों को बीच सड़क पर सरेआम पूंक दिया गया। उत्तराखंड में सिर्प इसलिए एक दलित नौजवान की हत्या कर दी गयी, क्योंकि पवित्रता के अलौकिक अवतार ब्राह्मण देवता का आटा उसने छू दिया था।
यह आश्चर्यजनक, मगर सत्य है कि मुस्लिम, दलित और स्त्राr पर बेइंतहा जुल्म ढाने की इधर कुछ वर्षों से आंधियां चल पड़ी हैं। जैसे लगता है इनके वजूद को मिटा देने की खूनी सनक सवार हो चुकी हो। कहाँ से आया इतऩा गैर-मानवपन? किस कारण उठी है
- हाशियाई भारतीय की हस्ती को मिटाने की अभूतपूर्व कूरता? आजकल शायद ही कोई दिन गुजरता हो,
जहाँ भारतवर्ष की छाती पर उसकी किसी दलित बेटी का सामूहिक बलात्कार न होता हो। शायद ही कोई दिन गुजर जाए,
जहाँ किसी गुमनाम दलित को अपनी अनन्त गुलामी से मात खाकर आत्महत्या न करनी पड़ती हो। भारत की धरती पर स्त्राr और दलित के रूप में जन्म लेना पृथ्वी का सबसे घातक दुर्भाग्य बन चुका है, जहाँ होश संभालने के बाद यह जहर,
शीशा भरे लावा की तरह रग-रग में उबलता है कि तुम अस्पृश्य हो, तुम घृणास्पद हो,
तुम केवल समर्पण के लिए पैदा हुए हो, तुम्हारी जगह पैरों के नीचे है। तुम निम्न हो-बाकी हिंदुस्तानियों के आगे तुम्हारा अस्तित्व शून्यवत है।
जरा एक सहमी हुई निगाह मध्य-उत्तर भारत के जातीय महाजंगल पर डालते हैं। पांडेय, मिश्र, द्विवेदी, त्रिपाठी, चतुर्वेदी, पाठक, झा,
सांकृत्यायन, धतुरा, दूबे, शुक्ला, चौबे, त्रिवेदी इत्यादि न जाने कितने ब्राह्मणों की जातियों का पृथ्वी के इस अनमोल हिस्से पर हजारों शताब्दियों से ग्रहण लगा हुआ है। यहाँ जड़वत हो चुकी है वसुंधरा की कोई स्पन्दन नहीं, कोई जीवन की धड़कन नहीं। सब कुछ बुरी तरह पका-पका सा, उबासी मारता हुआ,
असह्य, बोझिल और रोगग्रस्त। ब्राह्मणों के अलग-अलग गोत्र हैं। इन गोत्रों के बीच श्रेष्ठता अमिट युद्ध है। सरयू नदी के उस पार वाले चौबे बड़े हैं कि तिवारी, यह गदह-पच्चीसी सदियों से आज भी बढ़-चढ़कर जारी है। सिर्प बीमारू (बिहार, मध्य-प्रदेश, राजस्थान और उत्तर प्रदेश) में ही द्विज वर्ग की कम से कम एक हजार जातियां, उप-जातियां, शाखाएं और टहनियाँ
युगों-युगों से भारतीय समाज की अंतरात्मा में पुराने घुन के माफिक राज कर रहे हैं। कहीं भारद्वाज, कहीं भार्गव तो कहीं श्रोत्रिय अलग-अलग नामों का बहरूपिया भेस बदलकर,चातुर्य का चट्टानी किला कहलाने वाला ब्राह्मणवाद सर्वत्र मौजूद है। प्राय जब कोई नाम अपने कद से कई गुना आगे बढ़ जाता है या कुख्यात हो जाता है तो वह एक मुहावरा, एक नजीर या विशेषण का रूप धारण कर लेता है। जैसे दिल्ली आज सिर्प दिल्ली में नहीं है, वह प्रदेश की प्रत्येक राजधानी में है,
प्रत्येक विकसित शहर में व्याप्त है। अमेरिका सिर्प यूनाइटेड स्टेट्स ऑफ अमेरिका नहीं है। वह भारत में,
इंग्लैण्ड में, फांस, जर्मनी और आस्ट्रेलिया में भी अपने चिर-परिचित शतरंजी चेहरे के साथ मौजूद है। ठीक इसी तरह से ब्राह्मणत्व एक कुटिल प्रवृत्ति की प्रभु सत्ता हासिल कर चुका है। वह मिश्रा, पाण्डेय या त्रिपाठी में ही जड़ जमाए हुए नहीं है - उसका अन्तर्यामी विष-चरित्र यादव, जायसवाल, श्रीवास्तव, राय इत्यादि दूसरी जातियों में भी संक्रमित हो चुका है। यह कब, कहाँ, किस जाति में धीरे-धीरे नागफनी की तरह तेजी से पनपने लगे,
कह पाना मुश्किल है।
अपनी सड़ांध मारती जातीय श्रेष्ठता की नंगी नाच जितनी भारत में मची हुई है, उतनी शायद ही पृथ्वी के किसी अन्य देश में। ब्राह्मणों की अंध श्रेष्ठता का रुतबा यह कि तिलक, चंदन, जनेऊ, माला, रक्षासूत्र में अपनी सारी बुद्धि को उलझा कर रख दिया है। इनकी सारी श्रेष्ठता रंग में,
चाल और चालाकी में, पवित्रता के नाटक और कपड़ों की चमक में रहती है। कोई धार्मिक उत्सव हुआ, तो ब्राह्मणगिरी, कोई पूजा-पाठ,
भजन-कीर्तन हुआ तो बाबागिरी। कहीं गृह प्रवेश, कहीं उद्घाटन, कहीं शिलान्यास, कहीं बिजनेस का शुभारम्भ या मांगलिक कार्य का प्रथम चरण तो बाबाजीयों की जय जयकार। घरों में, तीर्थों में, मंदिरों और बाजारों में भी सर्वत्र छाए हुए हैं;
धर्म के प्राचीनतम सौदागर। न सिर्प इनकी बोली भाषा, पहनावा और खानपान में ब्राम्हणत्व का दम्भ फूटता है, बल्कि उनकी मानसिकता, कल्पना, आकांक्षा और स्वप्न भी जड़ सार्वकालिक श्रेष्ठता की अकड़ से लबालब भरे हैं। भारतवर्ष के चप्पे-चप्पे में, गांव में, अंचल और शहर में
, बस्तियों और कस्बों में,
जमीन पर, आकाश में, पास-पड़ोस और प्रान्तर में यह जातीय श्रेष्ठता का अंतर्यामी रोग असीम गहराई में जमजमा चुका है। इसे मिटाने के सारे बाहरी प्रयास निक्रिय। कोई राजनीतिक कानून, सामाजिक आंदोलन, रचनात्मक हस्तक्षेप या वैचारिक क्रांति जाति व्यवस्था के देशव्यापी ढांचे के समक्ष बेअसर सिद्ध हो चुकी है। इसका कारण है-दोगलापन, दोहरापन और शातिर
बुद्धि। जो मुट्ठी बाँध-बाँधकर, जनेऊ फेंककर, तिलक पोंछकर जातीय उपाधियों की तिलांजलि देकर जाति व्यवस्था की बखिया उधेड़
रहा है-वह भी अपने आचरण-व्यवहार और घरेलू रुचियों में जातिवादी है। हैं हम प्रगतिशीलता की ढोलकबाज, मगर गणेश, बजरंग बली की धातु मूर्ति घर के स्पेशल कोने में विराजमान। हम सार्वजनिक रूप से अपनी जातीय उपाधि ( मिश्र, पांडेय, त्रिपाठी, चतुर्वेदी, द्विवेदी) का परित्याग कर चुके हैं- मगर हाई सोसाइटी के बीच अपना पूरा नाम उचारते हंय-जय नारायण द्विवेदी। बात इतने पर भी नहीं बनी तो फलां घराने के। उस पर भी सिक्का न जमा तो शांडिल्य, गर्ग या भारद्वाज का वंशज घोषित करने पर उतारू। राम,
कृष्ण, हनुमान, दुर्गा, सरस्वती, लक्ष्मी, गणेश, शिव,
विष्णु, नारद
सहित हजाराधिक भगवान, महाईश्वर, लघु देवता-मध्यम देवी, प्रचंड देवियां, सब इनके परमानेंट पक्षधर हैं, शुभचिंतक हैं, अपने खासमखास हैं। ब्राह्मणों के वर्चस्व, हित और व्यवस्था के खिलाफ आज तक एक भी जूनियर या सीनियर देवता खड़े होने की हिम्मत नहीं दिखा पाए। ये जिंदा कबूतरों का खून पी जायं तो शुभ है, भैसों की गर्दनें उड़ा दें,
तो भी निष्पाप हैं। बकरी-बकरा, भेड़, मुर्गी, मछली चाहे जो कुछ काट-भून तलकर खा जाएं, सब ब्राह्मणोचित है।
इस देश में जितना दीमक, तिलचट्टा, घुन और पिस्सु की प्रजातियाँ नहीं होंगी, उससे कहीं ज्यादा चारों वर्णों की जातियां पनपी हुई हैं। क्षत्रिय वर्ग, जो अपनी भुजाओं की मछलियों को घमंड का चारा खिलाने में ही अपने जीवन को कृतार्थ समझता रहा उसमें भी सिंह, राठौर, चौहान, ठाकुर जैसे पता नहीं कितने विभाग हैं। जातियों के इस दिशा शून्य जंगल में सबसे भयावह रूप निसंदेह दलित वर्ग का है जिसमें इतने विभाजन हैं, कि विभाजन शब्द बेईमानी सा लगता है। बेहतर होगा यहाँ हम
‘जातियों का महा विस्फोट' शब्द का इस्तेमाल करें। इसमें धोबी, पासी, मछुवारा, ढॉड़ी, हरिज़न मुसहर, रैदास, कुम्हार, कोइरी, केवट जैसी याददाश्त की सीमा से बाहर आत्म-निर्वासित जातियां अस्तित्व में आ चुकी हैं। भारतीय मानव और समाज की स्वाभाविक प्रगति की गति को सैकड़ों गुना धीमी और दिशाहीन कर देने वाली इस व्यवस्था का जन्म आखिर क्यों हुआ?
हैजा, प्लेग जैसी महामारियों से भी भयानक तीव्रता के साथ कैसे इसने सम्पूर्ण भारत को ग्रसित कर लिया? लाख विरोध और आन्दोलन खड़ा करने और वैचारिक आक्रमण तेज करने के बावजूद यह व्यवस्था अपनी हैसियत से इंच भर भी टस से मस नहीं हो रही है। यह जाति भारतीय सभ्यता का सबसे बड़ा धोखा है,
लेकिन यही जाति इस देश की सबसे अमिट नियति है। मनुष्य में भी अन्य जीवों और पशुओं की तरह लड़ने, भिड़ने और खून बहाने की ईर्ष्याजन्य प्रवृत्ति जन्मजात होती है, वह अपने वर्ग में अपने समकक्ष के अन्य मनुष्य को सहजतापूर्वक खुशी के साथ पचा नहीं पाता। किसी अन्य वर्ग में उससे कोई दस गुना आगे निकल जाये, उसे कोई फिक्र नहीं-बस अपने परिचित क्षेत्र में ऐसा न होने पाए। सृष्टि के परिवर्तनशील स्वभाव के कारण जब एक से अधिक लोगों की एक ही स्तर पर उन्नति हो जाती है तो सर्वप्रथम मानसिक, फिर बौद्धिक और अन्तत व्यक्तित्व के राक्षसत्व का पुनर्जागरण होता है। भेद करना, भिन्नता सोचना मनुष्य की आलोचनाशील बुद्धि की लत है। स्वभावत मनुष्य विभाजनवादी होता है।
ऐसा नहीं कि आर्यों के आने के बाद ही इस भेदभाव का जन्म हुआ। प्रवृत्ति के रूप में, व्यवहार के स्तर पर यह सामाजिक भेदभाव, जिसने राष्ट्रव्यापी मानसिक स्वीकार्यता की हैसियत प्राप्त कर ली है,
मूलत अहंकार जनित ईर्ष्या की प्रभुसत्ता स्थापित करने की आकांक्षा से अस्तित्व में आयी है। इसका प्रमुख कारण कर्म के प्रति ऊँच- नीच,
बेहतर-निकृष्ट, सम्मान और तिरस्कार की भावना है। यह भेदकारी भावना सौन्दर्य, समृद्धि और रुचि में अन्तर के कारण भी जन्म लेती है। जिस कर्म से कम से कम आनन्द मिले वह छोटा कर्म है,
जिस कर्म में सौन्दर्य की न्यूनतम प्रतीति हो वह हेय कर्म और जिस कर्म से चित्त में अरुचि उमड़ने लगे वह घृणित कर्म है। लेकिन हमारे मन के सर्वदा अनुकूल न होते हुए भी ये जीवन के लिए अपरिहार्य कर्म हैं,
इनके बिना हमारा जीवन एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकता। एक तरफ आत्मा के प्रतिकूल, पीड़ाजनक कर्मों की जीवन में अनिवार्यता और दूसरी ओर मन का परम स्वच्छन्द आदिम स्वभाव। एक मात्र यह मन ही है जिसकी पहुँच की कोई सीमा नहीं, जो किसी भी साधना, एकाग्रता, बन्धन अथवा नियम में कैद नहीं रह सकता, न ही उसकी उन्मुक्त प्रवृत्ति पर दबाव डाला जा सकता है। मन को वही पसन्द होगा जो उसके ढंग से अच्छा लगे। खट्टे, कड़वे जीवनकर्म और मन की सुखवादी प्रकृति में द्वैत ही छोटे और बड़े कर्म को जन्म देता है। और ऐसे कर्मों को सम्पन्न करने वाला मनुष्य सांसारिक दृष्टि से ऊँच और नीच की श्रेणी में बाँध दिया जाता है। इसलिए इस आमूलचूल विनाशकारी व्यवस्था का अन्त भी दलित, पिछड़ी और तिरस्कृत जातियों के बहुमूल्य कर्मों की उँचाईयों से ही सुनिश्चित होगा।
आज हिंदी साहित्य की खेती प्रगतिशील रचनाकारों के तीन-तिकड़म पर हो रही है। दूसरा खेमा जो नगाड़े की चोट पर प्रगतिवाद, मार्क्सवाद या वामपंथी विचारधारा का रोम-रोम से विरोधी है-आज साहित्य में अल्पसंख्यक से भी मामूली अवस्था में जा चुका है। दिन-रात चलते-फिरते इनका एक ही उद्देश्य है- अपने स्वार्थ के लिए भारतीय अध्यात्म, सनातन धर्म, वैदिक संस्कृति और भारतीय संस्कारों की बाँसुरी बजाना। साहित्य-वाहित्य गया भाड़ में,
आओ चार जने मिलकर अध्यात्म का भांगड़ा नृत्य करें। चिल्लाने दो संकीर्ण मार्क्सवादियों को-हम जहाँ गिरे हैं, वहीं रहेंगे, हमें कोई छूने की हिम्मत न करे। हमें हजारों वर्षों से छुआछूत की सनक है। प्रगतिवादी रचनाकारों में भी आला दर्जे की तमाशेबाजी है। जरा ठहरकर हिन्दी साहित्य में जाति गणना का काम पूरा करना चाहें तो किंकर्तव्यविमूढ़ता में माथा पीट लेने या इन्हीं से सिर टकरा लेने का मन करता है। फलाँ कुमार तिवारी मध्य प्रदेश के प्रगतिशील हैं, तो फलाने सिंह बनारस या पटना के,
ढेमाके सिंह दिल्ली के। आज साहित्य में राज करने वाले ‘सिंहों' (?) की गिनती लगायी जाय तो पचास से क्या कम संख्या बैठेगी? इसी तरह पाण्डेजीयों की पड़ताल कीजिए, शुक्ला जीयों का परिचय प्राप्त कीजिए, त्रिपाठीयों की छानबीन कीजिए; सबके सब जातिवाद के महाशत्रु हैं, सभी ने जनेऊ उतार फेंका है (बंडी के नीचे पहने रहते हैं)। सभी ने इस नापाक व्यवस्था को उखाड़ फेंकने का बीड़ा उठाया है
(और मीठा पान भी चबाते हैं)। कविता के मैदान में इन मिश्रा, तिवारी, दूबे, श्रीवास्तव, चतुर्वेदी क्रांतिकारियों का क्या कहना? आवश्कतानुसार यदि नाक को एक अँगुली मान लिया जाय, (सूंघने वाली ही सही) तो इनकी इक्कीसों अंगुलियाँ देशी और विदेशी दोनों किस्म की घी में डूबी हुई हैं। घर में पूजा-पाठ कराके पुराने-पुराने देवताओं का आशीर्वाद लेते हैं और साहित्य में जाति, धर्म, सम्प्रदाय, व्यवस्था के खिलाफ गला फाड़कर मार्क्सवादी महागुरुओं का आशीर्वाद बटोरते हैं। यह जटिल रहस्य आज तक पकड़ में नहीं आया कि अपने सम्पूर्ण जीवन में प्रगतिशीलता की आवाज बुलन्द करने वाले मार्क्सवादी शिखर-आलोचक, वरिष्ठ कवि,
कथाकार अपने नाम के साथ जोंक की तरह चिपके जातिवादी शीर्षकों को क्यों नहीं हटा पाये?
यह जातिवाद यदि स्थूल, भौतिक, दृश्य और बाह्यजगत तक सीमित रहता तो इतना लाइलाज रोग न बनता, मगर हजारों साल पुराने इस महामारी के न मिटने का कारण है इसका अन्तर्यामीपन। यह मन में, एहसास में, कल्पना और भावना में, दृष्टि और स्वभाव में चेतन और अवचेतन में अपनी पैठ जमाए हुए है। मनुष्य-मनुष्य के बीच किसी भी प्रकार का घृणास्पद अपमानपूर्ण और हिंसक भेद जातिवाद है, जो कभी दंभ,
कभी स्वाभिमान कभी आत्म-गौरव तो आत्मरक्षा के बहाने आदमी में जड़ें जमाता है। खुद के महत्व को बलपूर्वक श्रेष्ठ मनवाने की चालाकी जातिवाद को जन्म देती है। दलितों में भी ऊँच-नीच की श्रेणियां, पिछड़ों में भी जूनियर पिछड़े और सीनियर पिछड़े। इसलिए सवाल है सोच का, मानसिकता का, मंशा और नजरिए का। पृथ्वी का विचित्र और अद्भुत देश वाकई है भारत-वर्ष - जहां एक विशिष्ट भूगोल की गोद में पली-बढ़ी संतानों में इतना खोखलापन है, जितना शरीर में फैली हुई नसें। इस खण्ड-खण्ड, उपखण्ड, अतिखण्ड में फैले हुए जातिवाद का दर्द समझना हो तो निगाहें टिकाकर बांचिये हजारों-लाखों बुजुर्ग दलितों की धूसर, काली, सूखी, चिसुक गई चमड़ी की अनहद पीड़ा। कल्पना को मन की रफ्तार दीजिए और खुद से सवाल कीजिए कि यदि तुम्हें जन्म के आधार पर धिक्कारा जाए,
यदि एक विशेष जाति का होने का कारण तुम्हें नग्नतम गालियाँ दी जायं। यदि तुम्हें पृथ्वी का सबसे जीवित दुर्भाग्य घोषित कर दिया जाए, यदि तुम्हारी छाया से घृणा की जाए,
यदि तुम्हारे द्वारा छू दी गई हर चीज को अपवित्र कहने की परम्परा स्थापित कर दी जाए,
तो इस पृथ्वी की स्वच्छन्द आबोहवा में जीते हुए भी तुममें दिन-रात कैसे अपमान का ज्वालामुखी फूटेगा, किस अग्नि -पीड़ा की खलबली मचेगी?
दलित व्यक्ति का मन, हृदय, आत्मा, चेतना, बुद्धि और स्वभाव आग में जलते ऐसे अनमोल तत्व हैं,
जिनका असली स्वरूप आज तक प्रत्यक्ष हुआ ही नहीं। दलित हृदय के कोने-कोने से घाव की तरह रिसते आँसुओं की थाह लेने का आज तक कोई पैमाना नहीं बना। दलित मनुष्य वह वृक्ष है,
जिसकी शाखाओं को काट डाला गया है,
जड़ों को खोखला कर दिया गया है। यह दलित मनुष्य न अपने में जीता है,
न खुद से प्यार कर पाता है,
न अपने पर गर्व करता है। वह जीवित होकर भी जीने जैसा नहीं जीता। हँसकर भी कभी मनुष्य की तरह नहीं हँसता। देखता है दुनिया को किसी और की निगाहों के आतंक में,
मरता भी है तो किसी और की खातिर। भारतीय दलित, जातिवाद की ईश्वरीय चक्की में क्षण-क्षण पिसता हुआ वह अनाज है, जिसके बगैर किसी का एक दिन जीना मुहाल है,
किंतु जिसकी हैसियत पीसकर, पकाकर खा जाने से ज्यादा कुछ नहीं।
एसोसिएट प्रोफेसर
हिन्दी विभाग
पूर्वोत्तर पर्वतीय विश्वविद्याल
शलांग- 793022 (मेघालय)
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