संयुक्त अरब इमारात से निकलने वाली हिंदी की साहित्यिक पत्रिका (संपादक -कृष्ण बिहारी , कार्यकारी संपादक - प्रज्ञा संपादक) का सितंबर-दिसंबर 2016 अंक आज मिला। इसमें मेरी छः ताज़ा कविताएँ छपी है। आप भी नजर कीजिए-
1.चुप रहते हो तुम तो अच्छे नहीं लगते
चुप रहते हो तुम तो अच्छे नहीं लगते
बोलते हो तो अच्छे लगते हो
तनी हुई मुट्ठियाँ
भींचे हुए दाँत
खड़ी नसें
पसीने से तर ललाट
कानूनदारों से बहस
उलझे हुए केश और बड़े-बड़े डेग तुम्हारे
बहुत फबते हैं इन दिनों
इन दिनों पुरोहितों के प्रवचन
काफिलों के सायरन
देशभक्तों की घोषणाएँ
उनके कनफोड़ भाषण
माथे में माइग्रेन की मानिंद ठनकते हैं
जलसे के विरुद्ध जुलूस की शक्ल लेती भीड़
कुर्सियाँ तोड़ने वालों के विरुद्ध
तुम्हारे लहराते हुए हाथ और अनैतिक बयान
ही
आजकल अच्छे लगते हैं मुझे ●
2.माफ़ करना पुरोहित
माफ करना पुरोहित
नूपुर छमकाकर मंदिरों में नाचने वाली देवदासियों में रूचि नहीं मुझे
लौंडों का नाच उससे ज्यादा पसंद आता है
मंत्रोच्चारण और हरि-संकीर्तन से अधिक हिजड़ों की थपकियाँ भरे लल्ला-गीत
होली का सा रा रा ही प्रीतिकर लगते हैं मुझे
मंदिरों में पत्थर हुए देवताओं में उतनी भी आस्था नहीं जितनी
इसकी सीढ़ियों पर खड़े, भीख मांगते लूलों-लंगड़ों के तमचीन में
सिक्के फेंकने वाले
अपने पाप धोने आए ढोंगियों में
हृदय के कागज पर आस्था इन दिनों
दर्शन और पट खुलने की प्रतीक्षा में घण्टों खड़े भक्तों की संसार-लीला
और भगवान और भक्त के ठेके की तुम्हारी रास-लीला से टूट रही है ●
3.कविता की रात
कविता की रात भारी है या कि परछाइयाँ
उसकी
जो भाषा के पीछे-पीछे फिलवक्त चल रही ?
कविता भी अपना रूप बदल रही
ठहरो तो, अंधेरा जरूर मिटेगा
रात के साथ परछाइयाँ भी
गुम हो जाएँगी दिन के
निकलने से पर अभी
एक लड़ाई बाकी है
इस फासले का,
द्वंद्व का
उजाले के
सफर में,
रात को
गुजर
जाने
दो
यूँ
ही ●
4.मानुष मारने की कला
बाज़ार जब आदमी का
आदमीनामा तय कर रहा हो
जब धरती को स्वप्न की तरह देखने वाली आँखें
एक सही और सार्थक जनतंत्र की प्रतीक्षा में
पथरा गई हों
सभ्यता और उन्नति की आड़ में
जब मानुष को मारने की कला ही
जीवित रही हो
और विकसित हुई हो
जब कविता भी
एक गँवार गड़ेडिया के कंठ से निकलकर
पढे-लिखे चालाक आदमी के साथ
अपने मतलब के शहर चली गई हो
और शोहरत बटोर रही हो
तब बचा क्या एक लोक-कवि के लिए ?
टटोल रहा हूँ
अपने अंदर प्रतिशब्दों को -
तमाम विद्रूपताओं के बीच
गूँथ रहा हूँ एक-एक कर उन्हें
करुणा और क्रोध के बीच तनी डोरी से
अपनी कविता में
उन कला-पारंगतों और उनके तंत्र के विरोध में
जिसने धरती का सब सोना लूट लिया ●
5.पचास की वय पार कर
(परिवार को टूटने से न बचा पाने के सदमे से आहत होकर )
पचास की वय पार कर
समझ पाया मैं कि
वक्त की राख़ मेरे चेहरे पर गिरती हुई
मेरी आत्मा को छु गई है
उस राख़ को समेट रहा हूँ अब दोनों हाथों से
और उनमें
अपने होने का अक्स ढूंढ कर रहा हूँ
मत डरा मुझे,
मेरे पास खोने को कुछ नहीं बचा
समय उस पर भारी होगा
जो समय का सिक्का चलाना चाहते हैं
आने दो अनागत को
उसके चेहरे पर वह राख़ मलूँगा
(जिसे दोनों हाथों से बटोरी है)
जितने दृश्य दर्पण ने रचे थे
वे सब उसके टूटने से बिखर गए
रेत पर लिखी कविताएँ भी
लहरें अपने साथ बहाकर ले गईं
अब जो रचूँगा, सहेजकर रखूँगा
हृदय के कागज पर अकथ लिखूंगा
पचास बसंत के पार करने का उत्सव नहीं यह
जीवन के बीचोबीच एक रेखा है
एक नए अंत:संघर्ष की आहट है
हद से अनहद की एक यात्रा है
कविता की नि:शब्द संकेत-लिपि है
अभिव्यक्ति के नए स्वर हैं इसमें
6.किसी नीली आँखों में गहरा संताप देखकर
नीलोफर नाम नहीं था उसका
पर गहरी नीली उसकी आँखों में सैलाब था
अव्यक्त सा अकिंचन एक दर्द का
किसी दुस्सह-दुःस्वप्न को दुहराता हुआ
जिसे कभी पलकों की कोर से ढरकते नहीं देखा
पर जब भी देखा
पाया बेतरह उमड़ता समुद्र सा
जिसकी लहरें किनारों से
पछाड़ें खाकर बारम्बार लौट जाती हो
अंतर्लीन हो जाती हो
अपनी ही पीड़ा की
अथाह जल-राशि के निर्व्यक्त मौन में
हर बार लौट आया
अपने सपने की नाव
उस दु:ख के सागर-तट पर छोड़ वापस
हाँ, नहीं मैं नहीं पार पा सका
उस नीलोफर की कोटरलीन तितिक्षु आँखों के रहस्य का ●
★:
सुशील कुमार
संपर्क : सहायक निदेशक, प्राथमिक शिक्षा निदेशालय,
स्कूली शिक्षा एवं साक्षरता विभाग,
एम डी आई भवन, धुर्वा, रांची – 834004
मोबाईल (0 90067 40311)
ईमेल – sk.dumka@gmail.com
मार्मिक रचनाएँ
ReplyDeleteचुप रहते हो तुम तो अच्छे नहीं लगते, माफ़ करना पुरोहित, मानुष मारने की कला ... हमारी हिपोक्रिसी की पोल खोलती कविताएँ कचोटती हैं. पचास की वय पार कर कविता हमें तमाम दुराग्रहों एवं कठिनाइयों के बीच निरंतर कार्य को प्रेरित करती हैं... हार्दिक बधाई सुशील जी बहुत अच्छी लगी कविताएँ ======
ReplyDeleteसार्थक रचना।वाह!!!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचनाएँ हैं
ReplyDeleteहार्दिक बधाई
रचना-संसार में कविता की रात नए भाव गाम्भीर्य परिवेश का निर्माण करती है। कविता में नए प्रयोगों का अब स्वागत हो रहा है. बधाई!
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