Tuesday, January 17, 2017

पहला "मानबहादुर लहक सम्मान" नीलकांत जी को दिया जाएगा.



समाचार ---पहला "मानबहादुर लहक सम्मान" 
 नीलकांत जी को दिया जाएगा... यह खबर जनसंदेश 
टाइम्स में (10 जनवरी 2016 का समाचार)  

जीवन और कविता एक दूसरे से किस तरह अन्तर्ग्रथित रहते हैं और एक दूसरे से ऊर्जा निचोडकर कैसे अनुप्राणित होते हैं इसका सबसे बडा उदाहरण मानबहादुर सिंह और उनकी कविता है "तुम्हारी सुख पीडित दिव्य कविता / मेरे माथे पर / चाँदी की झालर सी पडी है / जबकि मेरे हर आखर में / बोलते मुखों की / भूख बोलती है / नशों में खौलते खून की / मुठभेड डोलती है ( बीडी बुझने के करीब पृष्ठ 71) मानबहादुर सिंह का लोक आभासी नहीं था सामन्तवाद और प्रतिक्रियावादी शक्तियों से जूझता वास्तविक लोक था । 1996 में इन्ही शक्तियों से लोहा लेते हुए मानबहादुर सिंह शहीद हुए ।इनकी शहादत का स्मरण करना आज भी कठिन है । इतिहास में किसी भी साहित्यकार की इतनी अमानवीय और नृसंश हत्या न हुई होगी जितनी वीभत्स हत्या इस कवि की हुई है । न ही इसके जैसी उपेक्षा किसी की हुई होगी ।..अपने तेवर और बेबाक लहजे के कारण चर्चित और लोकप्रिय पत्रिका "लहक" ने मानबहादुर सिंह की स्मृति में "मानबहादुर सिंह लहक सम्मान" प्रारम्भ किया है इस सम्मान की चयन समिति में लहक संपादक निर्भय देव्यांस , सुधीर सक्सेना , उमाशंकर सिंह परमार , सुशील कुमार , भरत प्रसाद और मानबहादुर सिंह के छोटे भाई शिवेंद्र सिंह सम्मिलित हैं | यह सम्मान उन्ही कवियों / लेखकों और सम्पादकों को दिया जाएगा जिनका रचनात्मक कार्य उल्लेखनीय होने के बावजूद भी साहित्य में  अन्दरूनी न तो उन पर चर्चा की गयी है और न ही उनके काम का आकलन किया गया है ।जुझारू वैचारिक एवं स्वाभिमानी होने के कारण जिन्हे अनदेखा किया गया ।इसके तहत प्रथम "मानबहादुर सिंह लहक सम्मान" वरिष्ठ कथाकार / आलोचक / सौन्दर्यशास्त्री नीलकान्त जी को दिया जाएगा ।साथ ही नीलकान्त जी के जीवन व रचनाकर्म पर "लहक" का विशेषांक निकाला जाएगा । यह सम्मान समारोह 26 मार्च 2017  को कोलकाता में आयोजित होगा जिसमे देश के विभिन्न राज्यों के लोकधर्मी कवियों / लेखकों को आमन्त्रित किया जाएगा । नीलकान्त जी का जन्म 22 मार्च 1942 को जौनपुर जनपद के बराई गाँव में हुआ था । महापात्र , अमलतास के फूल , अजगर और बूढा बढई, मटखन्ना इनके कहानी संग्रह हैं । बाढ पुराण , एक बीघा खेत और बँधुवा रामदास जैसी चर्चित उपन्यास के लेखक हैं । सौन्दर्यशास्त्र की पाश्चात्य परम्परा , और आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की सैद्धांतिकी पर प्रसिद्ध किताब "रामचन्द्र शुक्ल" व मुक्तिबोध की तीन कविताएं इनकी आलोचना पुस्तके हैं । साथ ही इतिहास लेखन की समस्याएं ( दो खंड ) जाति वर्ग और इतिहास , राहुल -शब्द और कर्म , इनकी सम्पादित कृतियाँ हैं । हिन्दी कलम का सम्पादन कर चुके नीलकान्त आजकल झूँसी मे रह रहे हैं । उमर के इस पडाव में भी इस व्यक्ति जैसी सादगी और आत्मीयता बहुत कम लोगों में देखने को मिलती है । लहक के इस बेहद जरूरी प्रयास का सभी को स्वागत करन चाहिए | पहला काम लहक ने मानबहादुर सिंह जैसे जमीनी कवि पर पुरस्कार आरम्भ किया और दूसरा काम कि पुरानी पीढी के प्रतिबद्ध विद्वान मगर उपेक्षित कथाकार / आलोचक को सम्मानित किया |

आलेख : मार्क्सवादी आलोचना का गैर अकादमिक योद्धा - नीलकांत :  उमाशंकर सिंह परमार 
अभी कुछ दिन पहले वरिष्ठ कथाकार आलोचक  नीलकांत को प्रथम मानबहादुर सिंह लहक सम्मान दिया गया है | नीलकान्त आलोचक के रूप में साहित्य की कलावादी और अवैचारिक  प्रवृत्तियों  के विरुद्ध रहे यही कारण है बडा कद और महत्वपूर्ण रचनात्मक योगदान होने के बावजूद भी हिन्दी में अचर्चित और उपेक्षा का शिकार रहे ।नीलकान्त के रचनाकर्म से सभी परिचित हैं सभी पढते और समझते रहे हैं प्रतिबद्धता और विद्वता और अध्ययन में सभी उनका लोहा मानते रहे हैं लेकिन  पुरानी लीक में अपने ब्रान्ड की मुहर लगाने वाले आलोचकों से सीधा प्रतिरोध और कलावाद , रहस्यवाद , वितंडवाद , चमत्कारवाद , अवैचारिकता का विरोध उनकी चर्चा व परिचर्चा को रोकता रहा । नीलकान्त प्रख्यात कथाकार मार्कण्डेय के छोटे भाई हैं  । बडे भ्राता की तरह एक जनपक्षधर कथाकार हैं और नामवर सिंह व रामविलाश शर्मा की तरह अपने रचनाकर्म का आरम्भ कविता से किया था लेकिन पाश्चात्य दर्शन भारतीय दर्शन व काव्यशास्त्र के गहन व गम्भीर अध्ययन ने इन्हे आलोचना की ओर मोड दिया । 22 मार्च 1942 को उत्तर प्रदेश के जौनपुर जनपद के बराई गाँव में जन्में नीलकान्त ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से दर्शनशास्त्र में एम ए किया चूँकि वह अकादमिक आलोचना व अकादमिक राजनीति से हमेशा दूर रहे इसलिए उनकी आलोचना का स्वर अन्दाज बिल्कुल मौलिक है । छायावादी आलोचना प्रतिमानों , रूपवाद , कलावाद का विरोध करती उनकी आलोचनात्मक कृतियाँ जनवादी मूल्यों की जबरदस्त संस्थापना करती हैं । जनवादी आलोचना के मूल्य हैं इतिहास बोध , युग सन्दर्भ , व विचारधारा इन तीनो प्रतिमानों को उन्होने अपनी आलोचना का आधार बनाया । दर्शन शास्त्र का अध्येता होने के कारण तर्क , वाद और संवाद पर उनकी गज़ब की पकड रही है | यहाँ तक कि तर्क के मामले में और भाषा के तल्ख़  लहजे के कारण वो रामविलाश शर्मा का भी अतिक्रमण करते है । शायद यही कारण रहा कि नामवर सिंह रामविलाश शर्मा के तर्कों का प्रतियुत्तर तो खोज लेते थे मगर नीलकान्त द्वारा उठाए गये सवालों का जवाब वह कभी नही दे पाए ।नीलकान्त का इतिहास बोध उनकी सम्पादित कृति "इतिहास लेखन की समस्याओं" और "जाति वर्ग और इतिहास"  में देखा जा सकता है । इतिहास को उन्होने अनिवार्य व नैसर्गिक द्वन्द के नजरिए से परखा है जिसमे तर्क व तथ्य दोनो का सामूहिक समन्वय है यही अभिमत मुझे लोहिया की ह्वील आफ हिस्ट्री में दिखा । जाति और वर्ग के सवाल आज अकादमिक आयोजनों में सुनने के लिए मिल जाते हैं मगर इस विषय पर नीलकान्त ने बहुत पहले बडा काम कर दिया है । जाति भारतीय समाज का वास्तविक सच है और वर्ग हमारे समाज का वैचारिक यथार्थ है दोनो को लेकर वामलेखन में काफी अन्तर्विरोध रहे नामवर सिंह जैसे आलोचक इन विषयों से दूर रहे मगर नीलकान्त ने दोनो अवधारणाओं को ऐतिहासिक सन्दर्भों में परखते हुए एक विलक्षण तार्किकता साथ  स्थापनाए की | जातिगत सवालों और वर्गीय सवालों पर नये सिरे विचार किया ।यह काम इतिहास और समाजशास्त्र दोनो दृष्टियों से महत्वपूर्ण है । राहुल सांस्कृत्यायन से प्रभावित होने के कारण इन्होने राहुल के अवदानों पर "राहुल शब्द और कर्म" का भी सम्पादन किया । हिन्दी कलम नीलकान्त द्वारा संपादित बेहद जरूरी  पत्रिका थी जो  अनियत कालीन थी पाँच छ अंकों के बाद आर्थिक तंगी के कारण इसे बन्द करना पडा । इस पत्रिका का एक अंक मेरे पास है जिसमे वाम दृष्टि से ज्वलन्त  मुद्दों  पर बात की गयी है ।नीलकान्त के रचनाकर्म का सबसे बडा उदाहरण इनका कथा साहित्य है अपनी कहानियों और उपन्यासों में पूर्णतया जमीनी लोक के कथाकार हैं बँधुवा रामदास तो अपने समय की चर्चित कृतियों में शुमार है जिसकी तुलना कालजयी उपन्यासों मसलन गोदान , बूँद और समुद्र , झूँठा सच , तमस , रागदरबारी , आखिरी कलाम , जैसी कृतियों से की जाती है । इस उपन्यास में बँधुवा मजदूर को नायक बनाकर समाज के कुरूपतम अभिजात्य सच व पूँजीवादी सामन्तवाद की गहराईयों तक जाकर उसके चरित्र का रहस्योदघाटन किया गया है ।इस उपन्यास के अतिरिक्त एक बीघा खेत बाढ पुराण भी अन्य उपन्यासे हैं । उपन्यास की तरह कहानियों में भी नीलकान्त का पक्ष लोकधर्मिता ही रही कथानक के घात प्रतिघातों रोचकता चरित्र व परिवेश को अपनी सहज सरल किस्सागोई में बाँधकर प्रस्तुत करना और पाठक के अवचेतन में विचारधारा का स्पष्ट अक्स अंकित कर देना नील जी की अपनी शैली है जो इनके समकालीनों से थोडा हटाकर इन्हे अलग खडा करती है । महापात्र , अमलतास के फूल अज़गर और बूढा बढई  ,  मटखन्ना जैसी बेहतरीन कहानियों के लेखक नीलकान्त की पहचान और ख्याति आलोचक के रूप में अधिक रही है । इनका आलोचक व्यक्तित्व  इतिहास कार व कथाकार के व्यक्तित्व पर प्रभावी रहा । आलोचक नीलकान्त प्रतिरोध के सजग आलोचक रहे । कलावाद और रहस्यवाद के विकट शत्रु थे । हलाँकि आचार्य शुक्ल भी रहस्यवाद के आलोचक थे लेकिन नीलकान्त शुक्ल जी से आंशिक असहमति रखते थे शुक्ल जी की विचारधारा में छिपे आदर्शीकरण के मूल तन्तुओं की उन्होने अपनी किताब "रामचन्द्र शुक्ल" में आलोचना की है और लोकधर्मिता व लोकमंगल का वैचारिक और यथार्थ पक्ष सबके सामने रखा है । नामवर सिंह के काव्य प्रतिमानों का व उनकी स्थापनाओं का जितना तार्किक विरोध नीलकान्त ने किया शायद हिन्दी में रामविलाश शर्मा से के अलावा कोई नही कर सका है । इसी तरह नामवर सिंह की दूसरी स्थापना निर्मल वर्मा की कहानी परिन्दे पर भी गम्भीर सवाल खडा करते हैं ।अपने आलेखों में  निर्मल वर्मा के लेखन व उनकी वैचारिकता पर सवाल उठाते हुए वह नामवर सिह को "सोफिस्टवादी" सिद्ध कर देते हैं | नीलकान्त भारतीय काव्यशास्त्र व पाश्चात्य काव्यशास्त्र दोनो के अध्येता रहे उन्होने यूनानी काव्यशास्त्र से लेकर समकालीन पाश्चात्य विचारकों की दृष्टि व बोध की विशिष्टताओं व सीमाओं का रेखांकन किया है ।“सौन्दर्यशास्त्र की पाश्चात्य परम्परा” नामक पुस्तक उनकी किताब  रामचन्द्र  नामक किताब की तरह पाठकों और विद्यार्थियों के वीच लोकप्रिय रही है । यह किताब पाश्चात्य दार्शनिक अवधारणाओं व सौन्दर्यवादी दृष्टियों का सहज व सुज्ञेय भाषा मे रोचक अध्ययन है। यही कारण है अपेक्षाकृत कठिन समझी जाने वाली अवधारणाओं को सामान्य तरीके से समझाने वाली यह कृति  उनकी रचनात्मकता का सबसे सुन्दर प्रतिफलन है ।इस पुस्तक में नीलकान्त डायलैक्टिक मैटेरिया लिज्म पर ही अपना ध्यान केन्द्रित रखते हैं । सौन्दर्य की अभिजात्य परम्परा की तीखी आलोचना करते हुए श्रम व यथार्थ बोध को अधिक प्रमाणित करते हैं | पचहत्तर साल की उमर जी चुके नीलकान्त जीवन के आखिरी पडाव में हैं लेकिन अभी भी रचनारत हैं । सक्रियता , आत्मीयता , फक्कडपन में अभी तक युवा हैं । इस व्यक्ति की प्रतिबद्धता और वैचारिकता तार्किकता पर कोई सन्देह नही और आलोचना को जिस तरह अकादमिक भूत से विमुक्त कर मौलिकता की छाप छोडी है शायद इनके समकालीन किसी भी आलोचक ने नही किया है |

       उमाशंकर सिंह परमार
                                                             बबेरू बाँदा
                                                        9838610776 



@ प्रस्तुतकर्ता
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1 comment:

  1. very informative post for me as I am always looking for new content that can help me and my knowledge grow better.

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