[ यह प्रतिवाद कोलकाता से प्रकाशित पत्रिका 'लहक' (संपादक-निर्भय देवयांश) के अंक दिसंबर- जनवरी , 2017 में प्रकाशित हुआ है। ] -सुशील कुमार
‘तेरी जुबान है झूठी जम्हूरियत की तरह’
(गतांक अक्तूबर-नवंबर ’16 में प्रकाशित प्रत्यालोचना के
प्रतिक्रियास्वरूप)
शम्भु बादल की कविताओं का केंद्रीय स्वर जन-विद्रोह है,
विजेंद्र, एकांत और केदारनाथ में इसका कहीं अता-पता नहीं।
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- सुशील कुमार
वरिष्ठ कवि विजेंद्र
और एकांत श्रीवास्तव से लोकजीवन के विद्रोही कवि शम्भु बादल की तुलना करते हुए उनको
महत्वपूर्ण बताना सर्वश्री डॉ. अमीरचंद वैश्य, कामेश्वर त्रिपाठी और भारत यायावर तो क्या, उन जैसे
किसी को भी अखर सकता है (जिन्होंने उनको
पढ़ा ही न हो या यदि पढ़ा भी हो तो केवल ऊपर-ऊपर, सतही तौर पर)।
जहाँ तक वैश्य जी की बात है, लोकधर्मी आलोचक रमाकांत शर्मा
(जो पत्रिका ‘कृति ओर’ के संपादक थे)
के बीच में विदेश-गमन के कारण विजेंद्र जी के पास अमीरचंद वैश्य को पत्रिका ‘कृति ओर’ का संपादक चुनने के सिवाय कोई विकल्प नहीं
था क्योंकि उन्हें लगा, वे ही उनके ऐसे शिष्य हैं जो हर
स्थिति में उनको ‘प्रोपोगेट’ कर सकते हैं।
कवि विजेंद्र
के सबंध में कामेश्वर त्रिपाठी की स्थापना को देखकर तो कोई यही कह सकता है कि वे
वैश्य जी से भी आगे के चिंतक होंगे ! उनका यह कहना कि ‘विजेंद्र जी की तुलना केदारनाथ सिंह से की
जा सकती है’, बहुत उपहासास्पद
है। ‘लहक’ के ‘प्रतिवाद’ कॉलम में उन्होंने
इसका कोई तर्क, तथ्य प्रस्तुत नहीं किया। केवल बयान जारी कर
दिया। सच तो यह है कि विजेंद्र जी और केदारनाथ सिंह दोनों, दो अलग-अलग स्कूल
के कवि हैं, एक लोकधर्मी कवि हैं तो दूसरा रूपवादी-जनवादी
कवि, जो छठे दशक में तार सप्तक के भी कवि रहे हैं । डॉ. केदारनाथ की कविताओं में लोक ‘फोक’ की तरह प्रयुक्त होता है जो हमारी संवेदना को केवल विस्मित और संवेदित करता है। यह संवेदना प्राय: ज्ञानात्मक
नहीं होती । केवल मनोरंजक होती है, इसलिए यह अनूभूति ‘प्रामाणिक’ नहीं कही जा सकती। वे शब्दों के
साथ खेलते और उसे नवाचार से जोड़ते हैं। मसलन, उनकी एक कविता ‘इंद्रियबोध’ (संग्रह ‘अकाल और सारस’ से ) देखिए –
“मैं
आँखों से सोचता हूँ / कानों से देख लेता हूँ मैं / मेरी जीभ / एक अद्भूत स्वाद के
साथ / चुपचाप सुनती रहती है / हर आवाज को / मेरी नाक / चूंकि इंतेजार कर नहीं सकती
/ आने वाली खुशबू का/ अक्सर तमतमाकर हो उठती है लाल / और मैं / चूंकि ज़्यादातर चुप
रहता हूँ / इसलिए मेरा हाथ बोलता है / किसी दूसरे हाथ में । “ -
संवेदना को आधुनिक बनाने का यह निरर्थक प्रयत्न ही कहा जाएगा, जिसकी अर्थ-मीमांसा संभव नहीं।
केदारनाथ सिंह कविता में प्रयोगधर्मिता अपनाकर उसमें सहज मानवीय संवेदनाओं को इतना
‘ट्विस्ट’ प्रदान करते हैं कि पाठक विस्मय-बोध
से भर जाता है !
उनका कविता-पात्र कभी सत्ता और व्यवस्था
से संघर्ष करता और द्वंद्वात्मक परिवेश से कहीं लड़ता हुआ नहीं दिखता। जीवन का
अंतर्द्वंद्व और जनसंघर्ष इनकी कविताओं से लगभग गायब है। संवेदना की आधुनिक गतिकी
( डायनैमिक्स) उत्पन्न कर वे पाठक को चौकाने भर का काम कविता से लेते हैं। विजेंद्र
ऐसा नहीं करते। उनका कविता-स्वभाव कहीं से केदारनाथ सिंह के कविता–स्वभाव से मेल
नहीं खाता। वे सघन इंद्रिय बोध के आधार पर कविता करते हैं और श्रम को अपनी कविताओं में मूर्त करते हैं, पर लोक-श्रम को बिंबवादियों की भांति अलंकृत
कर देते हैं जो उनके कवि की कमजोरी है। उनका यह सायास प्रयत्न उन्हें लोक के एक नए
रूपवाद की ओर ले चलता है। दोनों कवियों में इस मूलभूत अंतर को विजेंद्र के प्रशंसक
समझ नहीं पाते, समस्या यहीं पर है।
अपनी प्रतिक्रिया में भारत यायावर द्वारा यह व्यक्त करना भी घोर आश्चर्य की बात है कि विजेंद्र, एकांत और शम्भु बादल ‘अलग-अलग कुल-गोत्र के कवि’ हैं। पर सच तो यह है
कि ये तीनों एक ही कुल-गोत्र अर्थात लोकधर्मी
कवि के रूप में पहचाने जाते हैं। इसलिए इनकी कविताओं के लोकधर्मी सौंदर्य व तत्वों
का तुलनात्मक मूल्यांकन वरेण्य व रुचिकर है। अस्सी के वय पार कर चुके विजेंद्र जी ने कितना विपुल लिखा, इससे जरूरी यह जानना-गुनना है कि उन्होंने क्या लिखा। दरअसल उसकी उपलब्धि क्या है ? कामेश्वर त्रिपाठी प्रतिवाद
कॉलम में खुद स्वीकार करते हैं कि ‘इनकी कविता मार्क्सवादी सौन्दर्यवादी के नियमों से रची गई है।‘ यही तो मैंने भी अपने आलेख में कहा
है कि - “त्रास’ (1966) से अपनी कविता-यात्रा आरंभ कर कवि विजेंद्र ‘भींगे डैनों
वाला गरुण’ (2010) से होते हुए अद्यतन संग्रह ‘लोहा ही सच है’ (2015 ) तक के अपने लगभग
50 वर्षों के दीर्घकाल में (पचीस काव्य संग्रह में) श्रम-सौंदर्य के नाम पर परोक्षतः
मार्क्सवाद को व्याख्यायित करने का ‘अतिरिक्त प्रयत्न’ करते देखे जा सकते हैं।” - लगता है, कामेश्वर त्रिपाठी ने विजेंद्र जी
पर लिखे आलेख-अंश को अच्छी तरह नहीं पढ़ा है। चालू
भाषा में अन्यमस्क होकर केवल प्रत्यारोप गढ़ दिया है। उनहोंने विजेंद्र जी के श्रम-सौन्दर्यं
की कविताओं का गहनता से अवलोकन भी नहीं किया है। आलेख में जो जेनुइन सवाल विजेंद्र
और एकांत जी को लेकर उठाए गए हैं, वह कविता में संघर्ष और विद्रोह के स्वर के अभाव होने पर
केंद्रित है। इस पर त्रिपाठी जी सर्वथा मौन हैं। उन्हीं के उदाहरण से – “विजेंद्र
का कवि कहता है कि ‘तुम्हें डर है कि ये सारे लोग / जलती मशालें न बन जाएँ / लाखों
श्रमिकों के स्पाती प्रहार.../ तुम्हें डर है /संघर्षशील जनता से कटा लेखक और
सत्ता / दोनों बहुत कमजोर होते हैं / ऊपर से दमन और अंदर से भयभीत .../ “ - यहाँ देखिए कि विजेंद्र के पात्र
केवल शोषक वर्ग और सत्ता को डराते हैं, उनके शब्द विद्रोह का वातावरण सृजित नहीं कर सकते, जबकि शम्भु बादल की कविता में क्रांतिधर्मी
प्रगतिशील विचारधारा जनविद्रोह के स्वर में मुखरित होकर पाठकों के समक्ष आती है जो
सत्ता एवं शोषण के प्रतिकार की बहुत सहज कलात्मक अभिव्यक्ति लगती है। आप शम्भु बादल की कविता पुस्तक – ‘मौसम को हांक चलो’ – की कविताएं ‘बाज और चिड़िया’
- पेज 17, ‘शिकार’ - पेज 42, ‘तानाशाह’ - पेज 46, ‘महायुद्ध’ - पेज 48, ‘मौसम को हांक चलो’ (पृ. सं. – 101), काव्य-संग्रह ‘सपनों से बनते हैं सपने’ में कविता ‘पक्षी’- पेज 26, ‘चिड़िया’- पेज 30, ‘गुजरा’- पेज- 55 , ‘सम्राट के नाम’- पेज 65, ‘युद्ध के माने बताओ’- पेज 80, ‘डुगडुगी वाले को पकड़ना चाहते हैं’- पेज 88, या फिर, ‘चुनी हुई कविताएँ’ संग्रह से - कविता- ‘वो सब कौन हैं’ - पेज 88, ‘जल रहा हटिया बाजार’ - पेज 100, ‘धर्म’ – पेज 117, ‘गाय’ (पृ. सं. – 38), ‘रचनाकार और जनता’ (पृ. सं. – 42), ‘सांवली लड़की’ (पृ. सं. – 50), ‘आग और
बेड़ियाँ’ (पृ. सं. – 76), ‘कबूतर’ (पृ. सं. – 80), ‘हाथों की जरूरत’ (पृ. सं. – 83), ‘तुम्हारे हाथों पर’ (पृ. सं. – 84), ‘पंचायत में आएँ (पृ. सं. – 91), ‘बुधन ने सपना देखा’ (पृ. सं. – 92), ‘चाँद मुर्मू’ (पृ. सं. – 95), ‘जल रहा हटिया बाजार’ (पृ. सं. – 100), ‘मारा गया फुलवा’ (पृ. सं. – 100), ‘भगत रूप धार प्यारे’ (पृ. सं. 106), ‘चिड़िया वही मारी गई’ (पृ. सं. – 104), ‘सनिचरा’ (पृ. सं. – 108), आदि को जनविद्रोह के संदर्भ में देखा जा सकता है। क्रांतिकारी बिरसा मुंडा का व्यक्तित्व आज समाज को कितना सबल, आत्मविश्वासी बना रहा है, इसका उदाहरण “बुधन ने सपना देखा” कविता में लक्ष्य किया जा सकता है। बुधन न केवल चेतन, बल्कि अचेतन स्तर पर भी अपने नायक बिरसा मुंडा से बल प्राप्त करता है। सपने में संकट के समय जब ”बड़े- बड़े ताकतवर दाँत” बुधन का घर चबाने के लिए तत्पर हैं तो उसका दोस्त आकर उसे राय देता है: “बिरसा अपनाओ / घर बचाओ / तुम्हारे पेड़ काट लिए गए हैं / कुरहे में आग लगी है /” बुधन का मन घबराता है, विरोध में हाथ उठता है। हाथ का यह उठना क्रांतिवीर बिरसा का असर है। बुधन मनोवैज्ञानिक रूप से
अवचेतन स्तर पर भी प्रतिरोध के लिए तैयार है। “चाँद मुर्मु” कविता में एक साधारण आदिवासी पात्र चांद अपने को
क्रांतिकारी चांद (सिदो-कान्हू-चांद-भैरव चारों क्रांतिकारी
भाइयों में से एक) और बिरसा के विचारों, भावों से एकरूप करते हुए माफिया, पुलिस से लड़ते हुए शहीद
होता है। यहाँ आदिवासी क्रांतिकारियों का पूरा वर्णन नहीं, बल्कि
प्रभावों से उत्पन्न होने वाले क्रांतिकारी विचार और भाव,
उनसे संचालित समाज के प्रतिरोध सक्रियता से अंकित हैं। यहीं नहीं, शम्भु बादल की कविताओं में मनुष्य
के साथ पूरी प्रकृति भी जन-विद्रोह में न्यस्त मिलती है, जो शम्भु
बादल की कविताओं की खास खूबियों के रूप में गिनायी जानी चाहिए। यहाँ पशु-पक्षी तक
शोषण महसूस करते हैं। वे केवल निरीह जीव न होकर आक्रोश और प्रतिरोध के भाव से लैस
मिलते हैं। जैसे कि, यहाँ चिड़िया एक सामान्य पक्षी ही नहीं, चहचहाती भर नहीं, विरोध का सामर्थ्य भी रखती है। ‘शिकार’ कविता के तोता-मैना का उद्गार देखिए – “शिकारी जब तक जिंदा है / हर दिन हमें मारता है / भून-भान हमें खाता है । शराब पीता है। ऐश करता है / असल में हमारे मांस का / चसका लगा है शिकारी को / हम शिकारी
पकड़ेंगे / इसके लिए चलें / जाल बनाएं / जाल को शिकारी के माथे पर गिराएँ / शिकारी जाल में उलझेगा / हम चोंच से मारेंगे / वह
छटपटाएगा “ । (शम्भु बादल की चुनी
हुई कविताएं)
जब कवि परिवेश या लोक के साथ स्वयं को साधारणीकृत
(डायल्यूटेड) कर लेता है तो जनभाषा को
काव्यभाषा के रूप में रचने की जादुई शक्ति उसे हासिल हो जाती है। वह सर्वहारा
शक्ति का वाहक बनकर अपनी कविता को क्रांतिधर्मी और विद्रोह-संकल्पधर्मी बना देता है। रचनाकारों
में यह शक्ति बिरले ही आ पाती है। इसका सीधा संबंध उन काव्येतर मूल्यों से है जो
किसी लेखक के विशिष्ट लक्षण होते हैं और जिन्हें हम उसकी कठिन शब्द-साधना, प्रतिबद्ध ईमानदारी और अप्रतिम साहस’ भी कह सकते हैं। इसी शब्द-साधना,
ईमानदारी और साहस के विशिष्ट काव्येतर गुणों के बूते कुमार विकल, गोरख पाण्डे, अवतार
सिंह संधु ‘पाश’, नाज़िम हिकमत आदि कवियों के अंदर जनविद्रोह के स्फुट
स्वर पैदा हुए, जिसका प्रसन्न विकास
हमें कवि शम्भु बादल की कविताओं में भी देखने को मिलता है।
शम्भु बादल ऐसे ही
लोककवि हैं जिनकी भाषा जनभाषा है; जो
कहीं रुक्ष, कहीं अनगढ़ तो कहीं
लोक-रस से आप्लावित दिखती
है, जो भाषा के कुछ बड़े कवियों की
आभिजात्य प्रकृति से बिलकुल अलग है।
इस प्रकार कविता में कविवर शम्भु बादल ने सामाजिक विषमता और यातना का केवल रेखांकन भर नहीं किया, बल्कि उसके प्रतिकार को
जनविद्रोही तेवर में भी बदलने का काम किया, जो कि बड़े लोकधर्मी कहाने वाले कवि
विजेंद्र जी और एकांत श्रीवास्तव की कविताओं में कहीं नहीं मिलता। वहाँ जनसंघर्ष
का रूप अधिकतर दार्शनिक ही गोचर होता है जो नेपथ्य से अपने पाठकों का दिग्दर्शन
करता है, मुखर होकर सामने कभी नहीं आता। इसलिए शम्भु बादल विजेंद्र और एकांत
से आगे के कवि प्रतीत होते हैं।
इस बात पर हमारे गतांक के
आलेख में विस्तार से, विभिन्न
कोणों से चर्चा की गई है। इस पर विचार किए
बिना डॉ. अमीरचंद वैश्य ने
प्रतिक्रियास्वरूप अंक अक्तूबर-नवंबर ‘2016 में अपनी प्रत्यालोचना लगाई है। इसे हम प्रत्यालोचना नहीं कहेंगे, यह कवि विजेंद्र का केवल
महिमामंडन है। प्रस्तुत विचार में कहीं भी तर्क –तथ्य का समावेश नहीं है।
पाठकों के समक्ष अवैज्ञानिक दृष्टिकोण थोथी दलीलें और रूढ़ पद्धति के साथ परोस दिया गया है। आलोचक रामचन्द्र शुक्ल जी का उद्धरण देकर वे क्या कहना
चाहते हैं? क्या ‘त्रिवेणी’ में शुक्ल जी ने या अपनी आलोचना में
हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने ‘कवियों का तुलनात्मक अध्ययन’ नहीं किया? जब वैश्य जी ने लेखन में ‘सर्वसमावेशी
आलोचना’ की बात उठाई है तो मूल पाठ के संदर्भ में कवि शम्भु बादल और एकांत श्रीवास्तव की काव्यालोचना
के गुण-दोष पर बातें क्यों नहीं की? केवल कवि विजेंद्र की ही
चर्चा विस्तार से क्यों की है? यही वैश्य जी की फितरत है। आज तक उन्होंने यही किया है। मेरी आलोचना के चार खंडों में पहला और चौथा खंड शम्भु बादल
जी की काव्यात्मकता पर है, जबकि शेष
दूसरा खंड कवि विजेंद्र और तीसरा खंड कवि एकांत के ऊपर है।
विजेंद्र जी काव्य-सौंदर्य पर अब तक कोई नई बात नहीं कह पाए। केवल आचार्य भरत, अभिनवगुप्त, कालीदास, भवभूति
आदि को दुहराते रहे। सब की
सब पहले से कही हुई बातें हैं। न वैश्य जी समालोचना में कोई जमीन काट सके। सब घिसी - पिटी बातें हैं । कोई नई
स्थापना नहीं की गई । सही बात है कि घिसे हुए सिक्के नहीं चल सकते ।
मैं फिर दुहराना चाहूँगा कि अग्रजों की तरह विजेंद्र जी ने अपनी काव्य
भाषा में काव्य-संग्रह 'त्रास’ 1966 से 'लोहा ही सच है’ 2015 तक कोई बदलाव
नहीं किया। विजेंद्र जी की काव्यभाषा पर
बात करते हुए डॉ. अमीरचंद ने उनकी कविताओं का कोई उदाहरण प्रस्तुत नहीं किया कि
कैसे ‘विजेंद्र
की काव्यभाषा के कितने रूप हैं । उन्होंने लिखा है कि ‘विजेंद्र ने स्थानीय ब्रजभाषा, राजस्थानी और बदायूं जनपद
की बोली के शब्दों का प्रयोग किया है और अपनी काव्य-भाषा को नई भंगिमा प्रदान की
है।‘ यहाँ
संदर्भ जनपद की भाषा या क्षेत्रीय भाषा के प्रयोग से नहीं है। उनका संदर्भ और उदाहरण ही त्रुटिपूर्ण है। मेरा
अभिप्राय कविता-भाषा के कालगत प्रयोग से है, न कि क्षेत्रीय शब्दावलियों से । उनकी काव्यभाषा अधिकतर छायावादी या
अस्सी के दशक वाली छायावादोत्तर काल की सौंदर्यानुभूति की भाषा है । मियां सुधी पाठकों
के समक्ष उस बात को पुन: दुहराना चाहता हूँ कि यह कवि विजेंद्र की काव्य-भाषा की बड़ी कमजोरी है जो उन्हें इन पचास
वर्षों के अनंतर आधुनिक होने की राह में रोड़ा खड़ा करती है। लेकिन उनके स्कूल के शिष्यगण इस अहम विंदु पर
जबरिया सवाल खड़ाकर विमर्श को पीछे धकेलना चाहते हैं। मैंने आलेख में विजेंद्र की
कवि-भाषा की त्रुटियों की ओर ध्यान आकृष्ट कराते हुए लिखा है कि “विजेंद्र जी के यहाँ ऐसे श्रमजीवी पात्रों की बहुतायत है जो भूख, गरीबी, शोषण, जहालत, अन्याय के चित्रादि को अपने शब्द देते दिखते हैं पर वे शब्द कभी शम्भु बादल की कविताओं में आए शब्दों की तरह प्रतिकार की मुद्रा में विद्रोह पर उतारू नहीं दिखते, बल्कि विजेंद्र जी की कविताएँ जनपक्षधरता का आख्यान रचते समय छायावादी सौंदर्यांनुभूति के अनेकानेक वाचाल शब्दों
यथा खंडहर, पत्थर, फूल,
झुर्रियाँ,
पगडंडियाँ,
दंडकारण्य, बंजर, वसुधा, आंच का
खिलना, पत्ते, रोयाँ, मकरंद, बोलती
आत्माएँ, काँपती
छायाएँ, कुल्हाड़ी, अंजुरी, रितु, बसवट, कामधेनु, सोनजुही, बैजनी, नसपूट, दिक्काल, भ्रंश, ढलान, सिकुड़न, प्रकाश-कण, टहनी,
प्रभामंडल, कातर
छायाएँ, रत्नगर्भ
आदि-आदि से घिरी हुई प्रतीत होती हैं, ईनमें उनके पात्र समय के आंतरिक यथार्थ को व्यक्त करने और उससे मुठभेड़ करने के बजाए समय की विद्रूपता के आगे अधिकतर अभिशप्त रहते या घुटने टिकाते ही दिखते हैं और विजेंद्र का कवि कहीं कंगूरे पर खड़े होकर नई आशा का सबेरा होने की अनथक प्रतीक्षा करता नजर आता है। हालाकि यह कवि विजेंद्र की पलायन-वृत्ति नहीं, न ही उनकी कविताओं का दोष माना जाएगा पर ये अपने समय
और प्रतिमान से पीछे चलती हुई कविताएँ हैं जो न तो किसी अर्थ में समकालीन कही जा
सकतीं, न लोकधर्मी कविताओं का चरमोत्कर्ष मानी जा
सकती हैं। यहाँ जनसंघर्ष कवि से गति न प्राप्त कर शिथिल होता
प्रतीत होता है। कितनी बड़ी विडंबना है कि जब कवि को मजदूरों की ताकत और साहस पर
भरोसा है तो कवि इतना क्यों विवश है कि कविता में आवाह्न और विद्रोह के स्वर नहीं
रच सकता ! (क्योंकि
कवि में सृजन का बौद्धिकत्व नहीं, उसके
प्रति गहरी आसक्ति और आत्ममोहग्रस्तता है (आदमी के
अदम्य साहस में खोये भरोसे को मात्र लौटा पाने की इच्छा समाज में पूँजी के कुत्सित
प्रभाव से श्रमिक और सर्वहारा वर्ग को मुक्ति नहीं दिला सकती। विजेंद्र का कवि परिवर्तनकामी नहीं, वह
शब्दों का महज महत्वाकांक्षी शिल्पी है जो कविता में अपने पात्रों को आंदोलन करने
के लिए अपने काव्य-चरित्र और अपनी काव्यभाषा को
जनचरित्र के साथ एकमेक नहीं कर सकता। इसलिए कविता में वह उसे उद्वेलित भी नहीं कर
सकता। यह कविता में इनके बिंबों की तृषाग्नि का काव्यफल है।
इसे हम लोक का नया रूपवाद भी कह सकते हैं” – यही
विजेंद्र की काव्यभाषा का कालगत दोष है जिससे वे मुक्त नहीं हो सके ।
अगर विजेन्द्र
जी निराला, नागार्जुन और त्रिलोचन से प्राप्त परम्परा को
पुनर्नवा कर पाते तो जरूर ‘कुकुरमुत्ता’, ‘भिक्षुक’, ‘चम्पा काले-काले अक्षर नहीं चीन्हती’, ‘कई दिनों तक चूल्हा रोया जैसी कविताएँ लिख पाते। भाषा के भीतर नवीनता का प्रमाण कबीर की अनगढ़ भाषा में देखिए
जो औघड़ की तरह होकर भी आज तक प्रासंगिक बनी हुई है और दूसरे कवियों से बहुत अधिक
पढ़ी-लिखी जाती है। ध्यान देने की बात है कि विजेंद्र जी ने अपनी कविता-भाषा को
अलंकृत किया है, उसे जनभाषा से अलग कर
भद्रलोक की भाषा बना दिया है, जिससे उसकी भाव-प्रतीतियाँ जड़, निस्तेज और संभ्रांत हो गईं हैं। मैंने विजेंद्र जी को अन्य कवियों से अधिक पढ़ा और बहुत उबा भी।
बहुत उबाऊ कवि हैं। इन उदाहरणों से आप अवगत हो सकते हैं कि शम्भु बादल
विजेंद्र से आगे के कवि हैं। यह हमेशा
लक्ष्य किया जा सकता है कि विजेंद्र का कवि-पात्र विद्रोही नहीं, हर संग्रह की हर कविता में शोषण वृत्ति का शिकार और विवश है। अगर यहाँ प्रतिरोध-सौंदर्य होता तो वैश्य जी जरूर उसे
विजेंद्र की कविता से सप्रमाण अपनी प्रत्यालोचना में इंगित करते। मार्क्स के दर्शन-मात्र
को कविता में ला देने और मानव-श्रम की शब्द-छवियाँ मात्र रच देने से
प्रतिरोध-सौन्दर्य उत्पन्न नहीं हो जाता ,जब तक कविता की अंतर्वस्तु ही उसे उत्प्रेरित न करे। मैंने अपने आलेख में यह भी कहा है कि विजेंद्र जी
काव्य-सौंदर्य में श्रम-सौंदर्य के आग्रही कवि हैं और जबरन इसका पैठ कराकर केवल मार्क्सवादी विचार-अभिकथन को कविता में आगे करते हैं जो
कविता की आत्मा को ही मार डालता है। गौर करने लायक है कि श्रम-सौंदर्य को रचते समय वे
‘बिम्बों का अतिरेक’ उत्पन्न करते हैं।
यह विजेंद्र जी की कविता और उसकी भाषा का बड़ा दोष है जिसे सोदाहरण मेरे आलेख में
पाठक देख सकते हैं। लेकिन इस पूरे प्रकरण पर वैश्य जी मौन रह गए।
अब आगे विजेंद्र जी की लंबी कविताओं पर बात करते हैं। विजेंद्र जी की तुलना
मुक्तिबोध की लंबी कविताओं से करके वैश्य जी ने मुक्तिबोध के गौरव को गिराने का
काम किया है। विजेंद्र जी ने खुद अपनी कई
लंबी कविताओं में छिट-पुट ‘फैंटेसी’ का प्रयोग किया है। फिर भी इस पर बात करने से उनको गुरेज
है। आप उनकी लंबी कविता – ‘मैग्मा’ पढ़ें। उसमें
यत्र-तत्र फैंटेसी का प्रयोग हुआ है, पर कवि अपनी भाषा की
बुनावट और वाचालता में इतना फंसा नजर आता है कि वहाँ हर जगह भटकाव ही दृष्टिगत
होता है। वहाँ मुक्तिबोध की ‘अंधेरे में’ की तरह न कथन है, न लक्ष्य है, न वह भाषिक बुनावट ही है। केवल एक अर्थहीन खालिस स्वप्न या कल्पना का
भास-मात्र है। विजेंद्र जी ने लम्बी कविताओं में लोकसौंदर्य के नाम पर
सिर्फ़ अनर्गल प्रलाप किया है, जो पाठकों के
लिए बेहद नीरस और उबाऊ है। वह कोई काम की चीज़ नहीं। इनकी लम्बी कविताएँ न तो बहु-पठनीय हैं और
न ही कविता ‘अंधेरे में’, ‘पटकथा’ या ‘राम की
शक्ति-पूजा’ की तरह लोकप्रिय और चर्चित । इनकी एक लंबी कविता
‘रुक्मिणी’ है, उसे पढ़िए । इसमें कालाहांडी की एक महिला के दुख-दारिद्रय की व्यथा-कथा है।
दीगर है, लंबी कविता ‘रुक्मिनी’ में कवि
विजेंद्र एक दूसरे बड़े कवि सीताकांत महापात्र से
भी अपनी उन्हीं बिम्बात्मक धारणाओं की अपेक्षा कर रहे हैं जिनमें देह की झुर्रियाँ, सिकुड़नें और घँसी हुई आँखें आदि केवल छायावादी (अनुभूतिपरक) करुणा के बिम्ब
हों, देखिए –
“ओ कवि
सीताकांत / खोजता हूँ
तुम्हारी कविता में / वे
झुर्रियाँ, वे सिकुड़नें, वे धँसी
आँखें -कहाँ हैं -बोलो../ सदागत
नदियाँ / सूखी पड़ी निर्पात
फसलें / घर के घर
हुए बारहबाट / चला करता
खेल यह / हरदम जीवन-मृत्यु
का। “(कविता –‘रुक्मिनी’)
यही हाल
अन्य लंबी कविताओं का है। पर, वैश्य जी ने विजेंद्र जी की कई लंबी कविताओं के नाम लेते हुए यह
मुगालता पाल रखा है कि उनकी साठ के लगभग लंबी कविताओं में व्यापक जीवनानुभव, सभ्यतालोचन, अंतर्राष्ट्रीय भाव-बोध और अग्रगामी
चेतना का प्रभाव है। सच्चाई तो यह है कि विजेंद्र जी की
एक भी लंबी कविता अविस्मरणीय नहीं है। उनकी तुलना में शम्भु बादल की लंबी कविताएं समकालीन
यथार्थ को व्यक्त करने मे अधिक सक्षम, सहज और प्रवाहमय है, भले ही वह अब तक लोगों के जेहन में न बसी हों। उनकी पहली ही कथात्मक शिल्प में रची लंबी कविता “पैदल चलने वाले पूछते हैं” की तुलना विजेंद्र जी कथामक
शिल्प की लंबी कविता ‘रुक्मिणी’, जिसकी चर्चा ऊपर की गई है, से की जा
सकती है। इस कविता में सेरा नामक पात्र (जो बचपन में होटल में कप-प्लेट धोने का काम करता है) प्रतिरोधी चरित्र के रूप में विकसित होता है। सेरा विद्रोह एवं सामूहिक चेतना से संपन्न होकर “आंधी”, “बिजली”, “पहाड़”, “तोप” से भी टकराने का साहस रखता है, “चाहे आंधी आए”, “चाहे बिजली कौंधे”, “चाहे पहाड़ घिर जाए”, “चाहे तोप चल जाए”- “हम रहेंगे साथ / हम बोलेंगे साथ / हम लड़ेंगे साथ साथ
साथ /” (पृष्ठ संख्या: 69-70)। सामूहिक जीत के प्रति वह आश्वस्त है, “हम जीतेंगे साथ”। पहले ही कविता–संग्रह में शम्भु बादल ने अपने विद्रोही स्वभाव और चरित्र का
संकेत दे दिया था। यह व्यापक जनवादी संदर्भों की 12 खंडों में एक लंबी कविता है,
जिसमें सेरा (एक पात्र) के सवाल श्रमजीवी स्पर्श
पाकर नई ताकत प्राप्त करते हैं – ‘हम गीता की आत्मा नहीं / विद्रूप हैं / सुरूपता के नाम पर / हमें और विद्रूप बनाने की चाल / चल रहा कौन? / भूख से मौत के लिए / कौन ज़िम्मेदार है ? / मृत या / जीवित मनुष्य ?’ ऐसे बहुत
सारे सेरा के अनगढ़ सवाल भद्रलोक के भद्राचार को तोड़ते नजर आते हैं, जिन्हें बिना किसी अतिरिक्त
सर्जनात्मकता या सुघड़ता के कवि ने कविता में रखते हुए अपनी जनपक्षधरता को वैचारिक
प्रतिबद्धता के साथ मजबूती प्रदान की है। पैदल चलने वाले जन के आज भी ये ही सवाल हैं
और अब इन्हें इन सवालों को पूछने और ढूँढने से रोका नहीं जा सकता। यह शम्भु बादल की कविता की दीर्घजीविता का प्रमाण है जो विजेंद्र जी की लंबी
कविता “रुक्मिणी” से कई अर्थ में बेहतर है। ‘रुक्मिणी’
में केवल एक स्त्री के दुख -दैन्य का आलाप है। इसमें गतिशीलता का घोर अभाव
है। यहाँ भी पात्र विवशताओं के आगे अभिशप्त दिखता है। रुक्मिणी का पात्र निराश है, परिवर्तनकामी नहीं।
मैं
स्वीकारता हूँ कि ‘वागर्थ’ के अंक अगस्त, 2015 में विजेंद्र जी पर केंद्रित अंक में छपा आलेख 2005 में मेरे द्वारा लिखा गया एक अनुभवहीन-आलेख है जिसे बिना मेरी अनुमति के मेरे ब्लॉग www.sushilkumar.net से उठाकर ‘वागर्थ’ के संपादक एकांत श्रीवास्तव
जी को छापने के लिए दे दिया गया। यह साहित्य का
एक अनैतिक कर्म है। बाद में मुझे
बताया गया कि मेरा आलेख फलां जगह
छपा है। अगर मुझसे पूछा जाता तो मैं कतई इस लेख को छापने की स्वीकृति नहीं देता।
मैं विजेंद्र जी को इतने सालों से जानता हूँ। अगर उनकी नीयत साफ होती तो आज कविता का लोकधर्मी आंदोलन बहुत आगे
जाता। अपनी पत्रिका 'कृति ओर' को उन्होंने हथकंडे की तरह उपयोग किया है। मात्र उन्हीं कवियों और लेखकों को महत्व देने का यहाँ उपक्रम किया गया, जिन्होंने कवि विजेंद्र का गुणानुवाद किया। सर्वश्री मानबहादुर सिंह, हरीश भदानी , शलभ श्री राम सिंह, रमेश रंजक , कुमारेन्द्र पारस, शम्भु बादल, , तेजिंदर, अशोक सिंह, राजकिशोर राजन, शिरोमणि महतो जैसे
अत्यंत महत्वपूर्ण लोकधर्मी कवियों की घोर उपेक्षा की गयी, क्यों? क्योंकि कवि विजेंद्र का लोक वायवीय और
काल्पनिक है या कहें, दिव्य लोक या प्रभु लोक है। अब विजेंद्र जी और वैश्य जी दोनों ने मुझसे
पूछा है कि ‘आपका कौन सा आलेख कूड़ेदान में डालूँ, ‘वागर्थ’ वाला या ‘लहक’ वाला?’ मेरा उत्तर है – “आपने मेरे सन 2005 में लिखा लेख चुपके से लेकर ‘वागर्थ’ में विजेंद्र जी की
वाहवाही के लिए छपवा दिया, जब मैं कविता
लिखना-पढ़ना सीख रहा था, तो आप उसी को कूड़ादान में
डाल दीजिए। ‘लहक’ पत्रिका वाला आलेख एक
वयस्क लेखक का लेख है। इसे रहने दीजिए सुधी पाठकों के लिए हुजूर, क्योंकि मेरे आलेख में तीनों कवियों के मार्फत उठाए गए
जेनुईन सवालों के जवाब आपके पास नहीं हैं
। “
‘ जरा-सा तौर –तरीकों में
हेर-फेर करो
तुम्हारे हाथ में कॉलर हो, आस्तीन नहीं ’ •
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सुशील कुमार
संपर्क : सहायक निदेशक, प्राथमिक शिक्षा निदेशालय, स्कूली शिक्षा एवं साक्षरता विभाग,
एम डी आई भवन, धुर्वा, रांची – 834004 मोबाईल ( 0 90067 40311 और 0 94313 10216)
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा आज रविवार (22-01-2017) को "क्या हम सब कुछ बांटेंगे" (चर्चा अंक-2583) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
It was very useful for me. Keep sharing such ideas in the future as well. This was actually what I was looking for, and I am glad to came here! Thanks for sharing the such information with us.
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