साभार : गूगल |
१) एक-
संथाल परगना के जंगल
पहाड़ और बियावानों में
भटकती हुई
एक रजस्वला नदी हो तुम
नाम तुम्हारा बाँसलोय है
बाँस के झाड़-जंगलों से
निकली हो
रेत ही रेत है तुम्हारे गर्भ में
काईदार शैलों से सजी हो
तुम्हारे उरोज पर
रितु किलकती है केवल
बरसात में
तब अपने कुल्हे थिरकाती तुम
पहाड़ी बालाओं के संग
गीत गाती
अहरह बहती हो
पहाड़ी बच्चे तुम्हारी गोद में खेलते,
टहनियों की ढेर चुनते हैं तब,
भोजन-भात पकता है
पहाड़ियों के गेहों में
उनके उपलों से।
कलकल निनाद का निमंत्रण पाकर
दक्षिणी छोर से
क्रीड़ा करती हुई
मछलियाँ
मछलियाँ भी आ जाती हैं
और पत्थरों की चोट से
अधमरी होकर
रेत के खोह में समा जाती हैं
या फिर, मछुआरों के जाल में फंस जाती हैं
इतनी चंचला, आवेगमयी होती हो
आषाढ़ में तुम कि,
कोई नौकायन भी नहीं कर सकता
ठूँठ जंगलों से रूठकर
कठकरेज मेघमालाएँ पहाड़ से उतरकर
फिर जाने कहाँ बिला जाती हैं
और तुम अबला-सी मंद पड़ जाती हो !
जेठ के आते-आते
क्षितिज तक फैली हुई पतली-सी
रेत की वक्र रेखा भर रह जाती हो
तब लगता है तुम्हारे तट पर
ट्रक-ट्रैक्टरों का मेला
आदिवासी औरतें अपने स्वेद-कणों से
सींचती हुई तुम्हें
कठौती सिर पर लिये
उमस में बालू ढोती जाती हैं।
सूर्य की तपिश में हो जाती हो
तवे की तरह गर्म तुम।
उनके पैर सीझ जाते हैं तुम्हारे अंचल में
चल-चल कर।
(भाग -२ अगले रविवार को पढ़ें।)
अत्यन्त खूबसूरत शब्दावली के प्रयोग से विशुद्ध प्रभावमयी कविता । दूसरे भाग की प्रतीक्षा रहेगी ।
ReplyDeleteक्या यह कविता कहीं छपी है । इसे पढ़ते हुए लगा कि पहले भी पढ़ चुका हूँ इसे । आभार ।
वाह आप ने नदी का कितना सुंदर रुप दिखाया. बहुत अच्छा लगा,
ReplyDeleteधन्यवाद
एक जीवित कविता .......कुछ देर के लिये भूल गये खुद को आपके भावमय कविता के साथ ......बहुत बहुत धन्यवाद
ReplyDeleteहिमांशु जी, २० सितम्बर, रविवार को इस कविता का दूसरा भाग आप पढ़ पायेंगे।
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