Saturday, April 9, 2011

• मछली-घर


गूगल : साभार 
घूम रही हैं दिन-रात
नन्हीं सतरंगी मछलियाँ
काँच के छोटे से घेरे में
नकली जल-फव्वारों और
रंग-बिरंगे सेवार घासों के बीच
बिजली की भुकभुकी में

सारा शहर शांत पड़ गया है
और झपकियाँ
शहर की आँखों में गहरी उतर रही हैं

फिर भी मैं अपने कमरे में
कुर्सी पर टिमटिमा रहा हूँ,
रोब गाँठ रहा हूँ तो कभी
खिसिया रहा हूँ , दाँतें पिच रहा हूँ
अपने मातहतों में रह-रहकर
और
फाईलों की टिप्पणियों
से जूझ रहा हूँ

कलम की निब पर
कागज के मैल गहरे जम गये हैं

उधर सारी रात मछली-घर में
छोटी-छोटी मछलियाँ
चहलकदमी कर रही हैं
बिना बोले बिना रुके


जरूर इन्हें लाया गया होगा
किसी बड़े जलाशय या ऐसी बड़ी जगह से
जहाँ इनका जीवन ज्यादा स्वतन्त्र और सुखी होगा
या फिर इन्हीं गरगच्च छोटी-सी
शीशमहल में जन्मी होगी


कितनी विडम्बना है कि
फाईलों में सुबकते हुए अक्षर
कुछ कह नहीं पाते
उन्हें नियमों की परिधि से बाहर
कोरे कागज पर
उतरने की इजाजत नहीं
जहाँ कोई कविता, गीत/
लोरी या प्रार्थनाएँ बन सके


न इन काँच की घेराबन्दियों को तोड़
कोई मछली ही
स्वतन्त्र जलसमूह में विचरण कर सकती


सोचता हूँ,
मछलियों और अक्षरों का
शहर के समीकरण से
अलग होने के
कोई आसार नहीं


फिर सोचता हूँ शहर की उन
तमाम ज़िन्दगियों के बारे में
जो नींद में निढ़ाल है
अभी कुछ देर के लिये


क्या यह शहर भी कोई बड़ा-सा मछलीघर ही है
जहाँ हम सब झूठी नियामतों की
चक्करघिन्नी में घूमते रहे हैं लगातार
बिन सोचे-समझे
अपनी दिनचर्या का अभिन्न हिस्सा बनकर ?
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5 comments:

  1. शहरों में रोजी रोटी के चक्कर में चक्करघिन्नी बने छोटे कस्बे के लोग छोटी- छोटी मछलियाँ ही बने रह जाते हैं ...कभी इसी रंग में रंग जाते हैं या फिर कभी किसी बड़ी मछली के मुख का ग्रास !

    बिन सोचे-समझे
    अपनी दिनचर्या का अभिन्न हिस्सा बनकर ?
    सोचना चाहिए ...

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  2. जी हाँ, यह शहर भी मछ्ली घर ही हैं जहाँ हम नन्हीं नन्हीं मछलियों की भांति असहाय और विवश हैं… सुन्दर कविता !

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  3. फिर सोचता हूँ शहर की उन
    तमाम ज़िन्दगियों के बारे में
    जो नींद में निढ़ाल है
    अभी कुछ देर के लिये
    .very nice

    ReplyDelete
  4. क्या यह शहर भी कोई बड़ा-सा मछलीघर ही है
    जहाँ हम सब झूठी नियामतों की
    चक्करघिन्नी में घूमते रहे हैं लगातार
    --
    बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति!

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  5. Shabdon aur bhavon ke vilakshan kavi hain Susheel kumaar ji.Unke yah kavita bhee bahut kuchh sochne - vicharne
    ko prerit kartee hai . Main unkee kavitaaon ka fan hoon .

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