साभार गूगल |
पूरी आत्मीयता से खड़े हैं
गुम्मा पहाड़
और तराई में
कोस-भर फैली
जगह-जगह डबरे में
जल भरी बाँसलोय नदी
वक्र गड़ारी-सी
फागुन के लौट आने की इच्छा से भरी हुई
अपने भीतर तरुण भाव लिये
किसी उत्सव के आगमन की प्रतीक्षा में
बँसवाड़ी में
गुल्म-लताएँ-झाड़ियाँ हिलग रहे-हुलस रहे
पूरवैया के मादक झोंकों से
पलाश-पत्र सब झड़ गये
शिखाओं पर उनके लाल फूल दहक रहे
करंज-कचनार-शाल सब
दुधिया धवल पुष्प-गुच्छों से लद रहे
डहु, अमलतास और कुसुम के पीले फूल
तरी से शिखर तक पहाड़ पर
लाल-सफ़ेद खिले फूलों के बीच
पूरे अंचल में खिल रहे
पूरा पहाड़ जाग रहा धीरे-धीरे
नये रंग और उमंग में
फागुन की आहट सुन
बसंतोत्सव की तैयारी में
जंगल में पंछी गा रहे
ढेचुआ कर रहा ढेचुँ-चुँ, ढेचुँ-चु
फिकरो फिक-क फिक-क
पेडुकी करे घु-घु-चु, घु-घु-चु
तीतर सुना रहा खु-टी-च-र, खु-टी-च-र
कोयल कूक रही बेतरह
पियो बुला रहा पि-उ, पि-उ
हरिला फुनगी पर फल कुतर-कुतर खा रहा
बीते मौसम की दुस्सह यादें भूल
पहाड़ी बस्तियाँ
माँदल की थाप और नगाड़े की आवाज से
गूँज रही , लोग गा रहे, थिरक रहे
बाँसूरी बजा रहे
फसल-गीत गा रहे-ठुमक रहे
अपने पैरों में नेवर बाँध
महुआ-रस के खुमारी में
खलिहान को भरा-पूरा देख
फूलों और फसलों का पर्व बाहा-टुसू मना रहे
वनदेवता पहाड़ी थानों में
फूल-पत्र और नैवेद्य स्वीकार रहे
जंगल और पहाड़ के दु:ख
निस्तार के वास्ते
पर बसंत के प्रस्थान के बाद
जेठ के आते-आते
वनदेवता मौन हो जाते हैं
पूजा-स्थलों पर आवाजाही न्यून हो जाती है
पहाड़ी नदी-नाले-झरने निर्जल हो जाते हैं
पहाड़ के अन्न ओरा जाते है
पहाड़ी बस्तियाँ खाली हो जाती हैं
पहाड़ी युवक और यौवनाएँ
कूच कर जाते हैं पहाड़ को छोड़
शहरों की ओर काम की तलाश में
अन्न-जल और जीवन की टोह में
देखता आया हूँ हर बार
गुम्मा पहाड़ के इलाके में
सन्नाटा-सा पसरा होता है
ऋतु के बाकी दिन ,
नजर आते हैं तब यहाँ
बचे हुए पहाड़ी बच्चे
और लाचार वृद्धाएँ ही सिर्फ़
अपनी पहाड़-सा जिन्दगी ढोते हुए।
भाई सुशील जी, आपकी यह कविता प्रकृत और मनुष्य के बीच की संवेदन भूमि पर ख्ड़ी एक बेहद खूबसूरत कविता है। कविता अपने चरम पर आकर जिस बिन्दू पर समाप्त होती है, वह अपने गहन संवेदना के चलते इस कविता को ऊँचाइ प्रदान कर जाता है।
ReplyDeleteबेहद खूबसूरत कविता , धन्यवाद
ReplyDeleteAap prakriti ke sanvedansheel kavi hain .
ReplyDeletekavita man ko bharpoor sparsh kartee hai .
सुशील जी क्या चित्र खींचा है आपने. ऐसा लगता है कि कवितारूपी बयार बह रही हो और शरीर सिहर रहा हो.
ReplyDeleteअत्यंत संवेदनशील रचना।
ReplyDeleteधन्यवाद भाई नीरव जी ।
ReplyDeleteसजीव चित्रण और कुछ इतना गहरा की शायद इंसान गुफा से निर्जीव बन गये हैं जो उनको यह सुंदरता नही दिखती.... मै कहूँगी की आपके शब्द उनमे भी जान डाल देंगे
ReplyDeleteI Love Your Blog..
ReplyDeleteIts Really A Very Beautiful Blog....
Please Appreciate this blog and follow this...
He needs the followers
samratonlyfor.blogspot.com