साभार गूगल |
ज्यों- ज्यों
ठंढी होती गयी पृथ्वी
त्यों-त्यों
पेड़ बसते गये वहाँ
पूरी धरती को पेड़ों ने
धीरे-धीरे
अपने अंक में भर लिया
उसने
धरती-यौवना -
पर्वत-उरोजों को चूमा
नदियों-घाटियों को
जी भर के प्यार किया
जब रजस्वला हो गयी पृथ्वी
और जलने लगी कामातुर हो तृषाग्नि में
तो वृक्षों ने उसकी कोख़ में
सब जगह
प्रेम के उपहार -
अपने वंश-बीज
गिरा दिये चुपके-से
इस तरह धरती से
अटूट संबंध बन गया पेड़ का
और धरती सौभाग्यवती हो गयी !
धरती ने अपने अंचल में फिर
असंख्य नवजात पौधों को जन्म दिया
जिन्हें पितृ-पेड़ों का आशीर्वाद मिला
और सारी धरती हरी-भरी...
जंगल-जंगल हो चली !
हमें विश्वास नहीं होता सहसा,
पेड़ के इतिहास से कि
समस्त प्राणियों का भार
वहन करने वाली धरती
टूट रही है धीरे-धीरे
इस भीषण दु:ख से कि
अपने अंचल में बसे
जिस प्रथम नागरिक--
"पेड़" का वरण किया उसने
उन अनगिन पेड़ों की
नित्य हत्याएँ होने लगी हैं
सृष्टि की सबसे सभ्य प्रजाति -
मनुष्य के द्वारा
और जंगल दिन-दिन
बिलाने लगे हैं
हरीतिमा मिटने लगी है
धीरे-धीरे
धरती स्वयं भी अपने को विधवा
महसूस करने लगी है शायद ।
इस तरह धरती से
ReplyDeleteअटूट संबंध बन गया पेड़ का
और धरती सौभाग्यवती हो गयी !
सुशील कुमार जी, अपने जो बृक्ष का धरती से सम्बन्ध व्यक्त किया है वास्तव में वह अदभुत है ऐसा तो सोचा ना था , बधाई
बहुत खूबसूरती से आपने बृक्ष का धरती से सम्बन्ध को प्रस्तुत किया है जो काबिले तारीफ़ है! बधाई!
ReplyDeletesunami kee tabahi ka zimmedaar manushya ki atript ikshayen hi to hain
ReplyDeleteyah kavita vatvriksh ke liye bhejen
ReplyDeletekavita achchi hai...
ReplyDeleteआपकी प्रकृति के प्रति चिंता मुखर होकर अपने पूरे आवेग के साथ कविता में व्यक्त हुई है।
ReplyDeleteधरित्री की पीड़ा को अति सार्थक अभिव्यक्ति दी है आपने...
ReplyDeleteसाधुवाद आपका....
भाई सुशील जी, बहुत ही सशक्त कविता… ऐसी कविता के लिए आपको सलाम ! धरती और पेड़ों के माध्यम से आपने जो दृश्य बांधा है, वह इतना सजीव है कि आपकी कलम को चूमने को मन करता है।
ReplyDeleteपुनश्च :
'अपने अंक में भर लिये' पंक्ति में 'लिये' के स्थान पर 'लिया' कर लें,'लिये' खल रहा है।
Hamari dharti swarg hai
ReplyDeletepar hum jaha rahte hai
banana chahte use nark hai
akhir kab tak chusoge
apne hi maa ka lahu
ab to aa jao hosh me
hame milta sub yahi hai.....
Tarun Sinha.(bahut achhi kavita hai apki)
और जंगल दिन-दिन
ReplyDeleteबिलाने लगे हैं
हरीतिमा मिटने लगी है
धीरे-धीरे
धरती स्वयं भी अपने को विधवा
महसूस करने लगी है शायद ।
प्रकृति संरक्षण आजकी जरूरत है. वर्ना विनाश की जो लीला देखने को मिलेगी वह अकल्पनीय होगी.
आदरणीय सुभाष नीरव जी,
ReplyDeleteआपके सुझाव के अनुसार मैंने "लिये" को "लिया" के रूप में संशोधित कर लिया है।
अति सुन्दर, सजीव वर्णन
ReplyDeleteभाव इतने गहरे उतर गये कि और कुछ कहने के लिये शब्द नही मिल रहे हैं।
बहुत ही सुन्दर शब्दों का संगम ...।
ReplyDeleteप्रिय भाई सुशील कुमार जी ,आप निश्चित रूप से सशक्त रचनाकार हैं और इस कविता में भी रचना कौशल दिखाई दे रहा है .आप के भीतर की आग मुझे निरंतर प्रभावित करती रही है .इस कविता में पेड़ों से धरती का यह सम्बन्ध मुझे हज़म नहीं हो रहा है ,आखिर धरती तो पेड़ों की भी माँ होती हैं .पेड़ों को भी धरती ने पाला है .
ReplyDeleteभावनाएँ हैं बस, कहने का अर्थ और ढंग ही तो कविताई है!भाई सुरेश यादव जी।
ReplyDeleteबहुत बढ़िया!
ReplyDelete--
होली में चेहरा हुआ, नीला, पीला-लाल।
श्यामल-गोरे गाल भी, हो गये लालम-लाल।१।
महके-चहके अंग हैं, उलझे-उलझे बाल।
होली के त्यौहार पर, बहकी-बहकी चाल।२।
हुलियारे करतें फिरें, चारों ओर धमाल।
होली के इस दिवस पर, हो न कोई बबाल।३।
कीचड़-कालिख छोड़कर, खेलो रंग-गुलाल।
टेसू से महका हुआ, रंग बसन्ती डाल।४।
--
रंगों के पर्व होली की सभी को बहुत-बहुत शुभकामनाएँ!