निविड़ एकांत में
सुस्ताने दो मुझे
फटे हुए पाल के झकोरे और
नशेमन मल्लाह की मजबूर आदतों की
सवारी की है मैंने
थक चुका हूँ हिचकोले खा-खा
लगभग पतवार-विहीन-सा नौका में
सरद-गरम इलाके से लगातार गुजरता हुआ
कान बहरे हो गये हैं अपने
सागर के कोलाहल और खेवनहार के
जल-यात्राओं के किस्से सुन-सुन
जल-यात्राओं के किस्से सुन-सुन
बेहद डरा हुआ भी हूँ
जल-दस्यु और सुनामी की दंतकथाओं से
क्या सुनाऊँ भाई
इस यात्रा की कहानी -
उसकी नाव में दर्जनों पेबन्द थे
उसकी बतकही में सैकड़ों झूठ थे
उसके नायक बहुत चापलूस थे
नायिका बहुत बदचलन थी
वह खे रहा था अपनी डोंगी
उठती लहरों में
गिरती पछाड़ों में
न जाने किन-किन टापुओं से होता हुआ
बेसुरा आलापता
ले चलता हुआ दिशाहीन मुझे
भँवरों के उत्ताल तरंगों के समीप
अथाह जल-राशि में
जहाँ अक्सर अपना सामना
शॉर्क, ह्वेल, ऑक्टोपस जैसे खतरनाक जीवों से होता रहा
जहाँ अक्सर अपना सामना
शॉर्क, ह्वेल, ऑक्टोपस जैसे खतरनाक जीवों से होता रहा
जरा साँस लेने दो,
जुड़ाने दो थोड़ी देर
किनारे के नीरव निशांत में
और लौट आने दो अपने बीते समय में वापस -
कितनी दूर निकल आया हूँ अपने गाँव से
जिसकी तलहटी में मयुराक्षी (नदी) का आँचल पसरा है
जिसके सिर पर हिजला (पहाड़) का मुकुट शोभता है
जहाँ पहाड़ी गड़ेरियों की बाँसुरी की धुन सुनता हूँ
तो कहीं भोर की ओस भरी बलुई नदी पार कर रहे
माल-मवेशियों के पद-चाप और
माल-मवेशियों के पद-चाप और
पहाड़ी बालनों के गीत
जंगल में महुआ गिरने की
‘टप-टप’ आवाज और रह-रहकर आती
कोयलों की कूक ने तो
कोयलों की कूक ने तो
मुझे कोर दिया है भीतर तक,
लाचार कर दिया है
अपने गाँव लौटने को, लौटने दो मुझे अपने देस
पर मौसम और मल्लाह का मिज़ाज भाँप
सागर का रूक्ष तेवर देख
ठिठकन-सी हो रही है
उसकी नाव में दुबारा सवार होने में
चुहटन–सी हो रही है मेरे रोम-रोम में।
उसकी नाव में दुबारा सवार होने में
चुहटन–सी हो रही है मेरे रोम-रोम में।
Shaandaar kavita kavita mun ko
ReplyDeletesparsh kiye binaa nahin rah sakee .
प्राकृतिक बिम्बों और मिथक प्रतीकों के सहारे मानव जिन्दगी के उतार चढ़ावों की थाह लेती कविता
ReplyDeleteबिछुड़ने का गम, मिलने का प्रयास और जीवन के जन्झावात. बहुत सुंदर कविता. शुभकामनाएं.
ReplyDeleteभाई सुशीलजी, नेट पर आपको पुन: सक्रिय देख मन को बहुत प्रसन्नता हुई। आपकी यह कविता बहुत कुछ कहती है। आपने जो बिम्ब और जो मिथक लिए हैं वे सब आपकी इस कविता को और अधिक अर्थवान करते प्रतीत होते हैं… आपको मेरी शुभकामनाएं…
ReplyDeleteधन्यवाद भाई सुभाष नीरव जी, आपका इस तरह यहाँ आकर मेरी रचना पढ़ना और मुझे प्रेरणा देना मुझे काफ़ी अच्छा लगा, बहुत अभिभूत हुआ ।
ReplyDeleteउस पार बहुत अच्छी कविता है . जीवन की सच्चाईयों से रूबरू कराती है यह . Thank u for this poem.
ReplyDeleteबहुत अच्छी कविता ....!!
ReplyDeleteबहुत सुंदर कविता, धन्यवाद
ReplyDeleteमहाशिवरात्रि की हार्दिक शुभकामनायें.
सुन्दर सार्थक रचना...
ReplyDeleteमहाशिवरात्रि की हार्दिक शुभकामनायें
थकना ...रुकना मगर फिर ना लौट पाने की मजबूरी ...
ReplyDeleteप्रकृति और भावनाओं का अच्छा तालमेल !
वह पार जितना लुभाता है,उतना ही डराता भी है...
ReplyDeleteक्या सुन्दर शब्द चित्र खींचे हैं आपने....वाह...वाह...वाह...
बहुत ही सुन्दर,मन को छूती रचना...