Sunday, January 10, 2010

मैं तिनका हूँ

[सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की एक कविता से प्रेरित होकर...]


साभार गूगल 

मैं तिनका हूँ
तुम्हारी देहरी का
पैरों तले रौंदा हुआ


तिनकना न मुझे देखकर
तुम्हारे जूतों की ठोकर से
बेचैन हो उड़ूँगा अंधड़ बन
तुम्हारे ही आकाश में
और जा गिरूँगा तुम्हारी
आँख में


किरकिरी बनाओगे आँख की अपनी
तो घनेरी पीड़ बन जाऊँगा
आँख की तुम्हारी



ऐसी कोई जगह नहीं
जहाँ पहुँच न सकूँ मैं
ऐसा कोई हुआ नहीं
जो रोक ले मुझे कहीं जाने से...
आखिर मैं एक तिनका हूँ !



जा मिलूँगा
अन्य तिनकों से तब,
ढूँढ नहीं पाओगे तुम मुझे
तिनकों की ढ़ेर में और
तुम्हें तिनके के बल का
अहसास भी करा दूँगा।
* * * * *
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8 comments:

  1. क्या बात है , गजब की कला है आपमें शब्दो को पीरोने का , बहुत खूब । इस लाजवाब रचना के लिए बधाई स्वीकार करें

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  2. तिनके का महत्व तो हर कोई जानता है अब वो माने या ना माने ये आग बात है.क्योंकि हर डूबते को तिनके का सहारा चाहिए ही चाहिए. एक बहुत गंभीर विषय उठाया है अपने और बहुत अच्छी तरह पेश की है बधाई

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  3. बहुत सुंदर कविता कही, ओर आप ने एक तिनके का मान बढा दिया, धन्यवाद

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  4. तिनके के आत्म विश्वास से बहुतों को प्रेरणा लेनी चाहिए ! क्या कुछ नहीं कर सकता इंसान अगर ठान ले ! बहुत ही प्रेरक कविता और सुन्दर भावाभिव्यक्ति ! बधाई !

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  5. पहली बार आई हूँ और आपकी कविता पढ़कर लगा कि आना सही रहा। मैंने भी तिनके पर बहुत पहले एक कविता लिखी थी तिनकानामा। परन्तु तिनके को जिस तरह से आपने प्रस्तुत किया है वह सर्वथा भिन्न है।
    घुघूती बासूती

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  6. ढूँढ नहीं पाओगे तुम मुझे
    तिनकों की ढ़ेर में और
    तुम्हें तिनके के बल का
    अहसास भी करा दूँगा।

    मानव मन में छिपे
    आत्म-विश्वास , तेज और ऊर्जा से
    भली भाँति परिचय करवाते हुए
    शानदार प्रतीक
    और
    जानदार शब्द . . .

    अभिवादन

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  7. bahut achhi kavita hai, tinka hi to sansaar ka kark hai|
    bahut - bahut shubh kamna

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