Sunday, December 27, 2009

इस शहर में रोज़

साभार गूगल 

नींद इस शहर को
मयस्सर नहीं, रात होने की
महज़ मजबूरी है

वर्ना पलकें गिराकर भी जगे रहना
लोगों की आदतों में शुमार है यहाँ !


और अलार्म-घड़ियों का बजना तो
सिर्फ़ एक बहाना है,
फिर से लोगों का
शहर की ठंढी दिनचर्या में
वापस लौट आने का

देखता हूँ,
ऊब भरी अलसायी सुबह
नश्तर बनकर गड़ती है जब
देह के पोर-पोर में,
झख़मार कर आदमी को
उठना पड़ता है
इस शहर में रोज़
दिन के सरकस के लिये।

और इस सरकस में
उसकी खोली से दफ़्तर के बीच
रोज़ एक दुनिया
बनती है - बिगड़ती है

और हाँ, जैसे-जैसे दिन उठता है
इस दुनिया में
सड़कें अपनी रफ़्तार पकड़ती हैं
और तमाम चीजें सड़कों पर
हरक़त में आने लगती हैं


सड़क के हर
नुक्कड़,
गली
चौराहे पर
कशमकश
गिरती-पड़ती,
दौड़ती-हाँफती
भीड़ की आपाधापी में, सुनो
गौर से...
गहरे सन्नाटे का
जंगल पसरा होता है

जिसके शोर में
घिरनी-सी घूमती हुई
पर एक जगह ठहरी-अँटकी
हजारों-हजार जिंदगियाँ होती हैं
जिनके दीदों में
ढरकते-सूखते
आँसूओं के सैलाब होते हैं


जिनमें बर्फ़ बनती
रिश्तों की तासीर होती है
जो चेहरों से उनके झाँकते हुए
एक और दिन के
बेरंग और
आहत हो जाने का
लुब्बे-लुबाब बताते हैं


जहाँ सपने टूटते हैं, भरोसे
भाँप बनकर उड़ जाते हैं और
दिलों में रह-रहकर हुकें उठती हैं,


फिर भी न जाने क्यों? कैसे तो...
होंठ मुस्कुराहटों की झूठी लाली
फेंकते हैं, पर


तन्य त्रासद आँखें
शह देती हुई उनमें खोब से
साँझ की तरह ढल जाती है
और नींद के वहम में
शामिल होने को
अपनी खोली का
रुख करती है


जहाँ काँखते घोड़ों को
अपनी देह से उतार
समय के खूँटों से आदमी
देर रात गये बांध देता है
रोज़ इस मायानगरी में


जैसे-जैसे रात गहराती है
जिस्म कसकता है, रूहें रोती हैं
आहें भरती हैं अदृश्य लिपियों
की मौन भाषा में कितनी ही साँसें
इस शहर में रोज़ देर रात तक !
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6 comments:

  1. आज के सन्दर्भ में बिलकुल सही ठीक कहा

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  2. Sushil ji ,nav varsh ki dheron shubkamnayen

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  3. सुशील जी ,आप की कविता में जिंदगी का संघर्ष है ,एक कश्म कश है जो शब्द -शब्द में व्याप्त है.बधाई.

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