Sunday, December 13, 2009

तुम्हारी कलम उनके पास रेहन है

साभार गूगल 

तुम्हारे शब्दों के जंगल से छूटते ही
वे आँखें मुझमें वापस लौट आयी हैं
जिसने व्यवस्था के अंधेरे में बजबजाती
उन तवारीखों को पढ़ ली हैं
जिसे चरित्रहीनता और लालच की स्याही से
तुम्हारी सियासी कलम ने
हमें पालतु बनाए रखने की नीयत से गढ़ी है


यह जानते हुए भी कि
हमारे पुरखों को आदिम पशुता ने नोंच खायी थी,
तुमने लिखा - ‘आदमखोर चिताओं ने।’


राजप्रासाद से बुर्ज़ों तक समूची रियासत की शान
हमारे पूर्वजों की घट्ठायी उंगलियों पर टिकी थी
फिर भी कसाईयों ने उन्हें कोड़ों से पीटा
हाथ तक काट डाले, पिरामीडों में राजाओं के
शवों के साथ ज़िन्दा दफ़न कर दिया

पर तुम्हारी कलम ने कभी खिलाफ़त नहीं की उनकी,
उल्टे उनके नाम स्वर्णाक्षरों में अंकित कर दिये

चुप्पियों की मानिंद तुम्हारी यह हत्यारी हरक़त
अब संसद से राजपथों को होती हुई,
पगडंडियों से गाँवों तक चली आती है
और उन झुर्रीदार चेहरों के हूक में समा जाती है
जो सन ‘47 के पन्द्रह अगस्त की मध्यरात्रि से
सपनों को अपनी पीठ पर लादे
नंगे पाँव उकडूँ होकर चल रहा है
जनतंत्र के पथ पर


मुझे मालुम है यह सब तुम्हें सुनना भाता नहीं
क्योंकि जनता के सुख-स्वप्न सब
पान की गिलौरियाँ बनाकर
जिन लोगों ने चबा ली हैं, उसी ने तुम्हारी
बुद्धि भी खा ली है, क्या तुम...


बता सकते हो, बासठ साल के आज़ाद
मुल्क के इस बूढ़े आदमी के भीतर इतनी आग क्यों है,
उसकी आँखों में इतना धुआँ, इतनी राख, इतना मलाल क्यों है ?


नहीं...तुम चुपचाप अपनी रुसवाई सुनते रहोगे
और सुनकर भी अनसुनी करोगे
और, ‘यह देश विविधता में समरसता का देश है’
- लिखते रहोगे क्योंकि
तुम्हारी कलम आज भी उनके पास रेहन है
* * *
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8 comments:

  1. कविता तो जानदार है

    परंतु इसमें जान फूंकने वाले

    सुशील कुमार जी कई माह से

    गायब हैं, नहीं आता है कभी
    उनका फोन, न ही मिलाने पर

    मिलता है, माना कि महाव्‍यस्‍त हैं

    पर पाठक उनके, उनसे बात करने को

    बेहद त्रस्‍त हैं।

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  2. "बता सकते हो, बासठ साल के आज़ाद
    मुल्क के इस बूढ़े आदमी के भीतर इतनी आग क्यों है,
    उसकी आँखों में इतना धुआँ, इतनी राख, इतना मलाल क्यों है ?"

    चिन्ताओं और आक्रोश से उपजा सहज प्रश्न ? प्रविष्टि का आभार ।

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  3. बहुत ही सुन्दर रोचक रचना . आभार

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  4. कम शब्दों में काफी कुछ समेटे हुए एक मार्मिक और बेहतरीन रचना

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  5. shabdon ke teavar, rachnatamak oorja ka pravah, tamman sashkatata ke saath dil par apni chaap chodne mein kamyab rahe hain. badhayi

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