साभार गूगल |
तुम्हारे शब्दों के जंगल से छूटते ही
वे आँखें मुझमें वापस लौट आयी हैं
जिसने व्यवस्था के अंधेरे में बजबजाती
उन तवारीखों को पढ़ ली हैं
जिसे चरित्रहीनता और लालच की स्याही से
तुम्हारी सियासी कलम ने
हमें पालतु बनाए रखने की नीयत से गढ़ी है
यह जानते हुए भी कि
हमारे पुरखों को आदिम पशुता ने नोंच खायी थी,
तुमने लिखा - ‘आदमखोर चिताओं ने।’
राजप्रासाद से बुर्ज़ों तक समूची रियासत की शान
हमारे पूर्वजों की घट्ठायी उंगलियों पर टिकी थी
फिर भी कसाईयों ने उन्हें कोड़ों से पीटा
हाथ तक काट डाले, पिरामीडों में राजाओं के
शवों के साथ ज़िन्दा दफ़न कर दिया
पर तुम्हारी कलम ने कभी खिलाफ़त नहीं की उनकी,
उल्टे उनके नाम स्वर्णाक्षरों में अंकित कर दिये
चुप्पियों की मानिंद तुम्हारी यह हत्यारी हरक़त
अब संसद से राजपथों को होती हुई,
पगडंडियों से गाँवों तक चली आती है
और उन झुर्रीदार चेहरों के हूक में समा जाती है
जो सन ‘47 के पन्द्रह अगस्त की मध्यरात्रि से
सपनों को अपनी पीठ पर लादे
नंगे पाँव उकडूँ होकर चल रहा है
जनतंत्र के पथ पर
मुझे मालुम है यह सब तुम्हें सुनना भाता नहीं
क्योंकि जनता के सुख-स्वप्न सब
पान की गिलौरियाँ बनाकर
जिन लोगों ने चबा ली हैं, उसी ने तुम्हारी
बुद्धि भी खा ली है, क्या तुम...
बता सकते हो, बासठ साल के आज़ाद
मुल्क के इस बूढ़े आदमी के भीतर इतनी आग क्यों है,
उसकी आँखों में इतना धुआँ, इतनी राख, इतना मलाल क्यों है ?
नहीं...तुम चुपचाप अपनी रुसवाई सुनते रहोगे
और सुनकर भी अनसुनी करोगे
और, ‘यह देश विविधता में समरसता का देश है’
- लिखते रहोगे क्योंकि
तुम्हारी कलम आज भी उनके पास रेहन है
* * *
अच्छी लगी रचना।
जवाब देंहटाएंकविता तो जानदार है
जवाब देंहटाएंपरंतु इसमें जान फूंकने वाले
सुशील कुमार जी कई माह से
गायब हैं, नहीं आता है कभी
उनका फोन, न ही मिलाने पर
मिलता है, माना कि महाव्यस्त हैं
पर पाठक उनके, उनसे बात करने को
बेहद त्रस्त हैं।
nice
जवाब देंहटाएं"बता सकते हो, बासठ साल के आज़ाद
जवाब देंहटाएंमुल्क के इस बूढ़े आदमी के भीतर इतनी आग क्यों है,
उसकी आँखों में इतना धुआँ, इतनी राख, इतना मलाल क्यों है ?"
चिन्ताओं और आक्रोश से उपजा सहज प्रश्न ? प्रविष्टि का आभार ।
bahut khoob !
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर रोचक रचना . आभार
जवाब देंहटाएंकम शब्दों में काफी कुछ समेटे हुए एक मार्मिक और बेहतरीन रचना
जवाब देंहटाएंshabdon ke teavar, rachnatamak oorja ka pravah, tamman sashkatata ke saath dil par apni chaap chodne mein kamyab rahe hain. badhayi
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