साभार गूगल |
भरी दुपहरी है जेठ की, घाटी में
जन-जानवर दीख नहीं रहे कहीं
न पक्षियों की चहचहाहटें ही सुनता हूँ
झाड़-जंगल झूलस गये हैं जंगल-जीव
पानी बिन हाँफ रहे हैं,
परिंदे दम मार रहे हैं
कुँआ,चहबच्चे,जोड़िया,तालाब सब सूख गये हैं
नदी-पनाले-डबरे रेत से पट गये हैं
सामने सड़क पर पिघले कोलतार पर
टायरों के निशान बनातीं
उदास मौन को भेदती बसें बीच-बीच में
हॉर्न बजाती तेज गति से
घाटियों को पार कर रही हैं
या फिर नक्सलियों के शिनॉख्त पर जाती
पुलिस की गाड़ियों की घर्घराहटों
से ही जब -तब घाटियों की नीरवता टूट रही है
जी हाँ, यह बंदगाँव की विकराल घाटियाँ हैं
कभी जगंलों का सुरम्य प्रदेश रही
ये घाटियाँ अब नक्सलियों का वास-स्थल है
बीस कोस लम्बी और बीहड़, सुनसान
और जिलेबीनुमा घाटी
जब-तब रेत के चक्रवात
उठ रहे हैं यत्र-तत्र यहाँ
डोगरों में टाड़ों पर
झरना का सोता भी सूख गया है
और प्यास से कई मौतें हो चुकी हैं
अब तक इस इलाके में
जहाँ-तहाँ बसें रुकती हैं
पहाड़ी औरतें अपनी गिदरे* को
पीठ से बाँधे सवार होती हैं
बसें खचाखच भरी होती हैं
जितने बैठी होती हैं ये
उतने ही खड़ी होती हैं
और हिचकोलें खाती हुई
घाटियों के टेढ़े-मेढ़े रास्ते
तय करती हैं
पहाड़ तो पहले ही बहुत दु:खी है,
इसके सीने में उत्पीड़न की न जाने
कितनी कहानियाँ दफ़न हैं!
पर यह गर्मी तो घाटी के लोगों में और ही
बर्बादी का सबब लेकर आया है!
जंगल तो पहले ही नेस्तनाबूद हो गये
जड़ीबूटी,फलमूल, महुआ भी ओराने लगे हैं
भूख का जलजला आ गया है
घाटी की बस्तियों में
न जंगल न धान न बरबट्टी न पानी
काम की खोज में घाटी से पहाड़ी
मजदूरिन शहर को कूच कर रही हैं
यह कैसा मंजर है कि
शहर के बाबु और महाजन
सरकार और प्रतिपक्ष के लोग
दल-बल के साथ
घाटी में अपनी योजनाएँ लेकर
पहूँच रहे हैं चिल्ला रहे हैं
नोट पर वोट का खेल खेल रहे हैं
जबकि गाँव और टोलों के लोग
अपनी इज्जत अपनी जान बचाकर
घाटी को छोड़कर कहीं और जा रहे हैं!
* * * * *
ज़िंदगी के सरोकारो के संघर्ष को नए अर्थों में बयान करने की कोशिश ...बेबाकी तथा साफगोई का बयान
ReplyDeleteघाटी में अपनी योजनाएँ लेकर
ReplyDeleteपहूँच रहे हैं चिल्ला रहे हैं
नोट पर वोट का खेल खेल रहे हैं
जबकि गाँव और टोलों के लोग
अपनी इज्जत अपनी जान बचाकर
घाटी को छोड़कर कहीं और जा रहे हैं!
आप की यह रचना सच के करीब है,्बहुत सुंदर शव्दो मै सजाया है आप ने इसे.
धन्यवाद
मैं आप की बात से सहमत हूँ. अजी यू पी,बिहार में भुखमरी ऐसे ही नहीं है आप की इस बेहतरीन रचना में कहीं न कहीं हम अपने आप को भी खड़ा पाते हैं
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