[ यह बहुचिंतित समालोचना कोलकाता से प्रकाशित पत्रिका 'लमही ' (संपादक-विजय राय ) के हालिया अंक जनवरी -मार्च , 2017 में प्रकाशित हुई है, जिसे साभार यहाँ छापी जा रही है। । ] -
नव स्त्रीवाद – जमीन से पृथक अंतर्विरोध
- उमाशंकर सिंह परमार
स्त्री अपनी सामाजिक और जैविकीय बनावट के कारण एक पृथक वर्ग
के रूप में मान्यता प्राप्त कर चुकी है। हालाकि उनकी सामाजिक अवस्था समाज की जातीय
और वर्गीय संरचना पर निर्भर करती है। मगर आज
जिस तरह का स्त्रीवाद विभिन्न लेखिकाओं और कवियित्रियों द्वारा प्रचारित किया जा रहा
है। उसमें सामाज की जातीय व वर्गीय संरचना व समाज में प्रभावी सामन्ती वर्चस्व पर कोई
हस्तक्षेप नहीं है। जबकि इतिहास द्वारा प्रमाणित है। कि स्त्री को अधिकार विहीन करने
व व्यवस्था में भागीदारी से वंचित करने में सम्पत्ति और उसके स्वामित्व का बडा हाथ
है। स्त्री अधिकार व सुख सुविधा का यथार्थ आकलन वगैर सामाजिक जातीय अवस्थिति के नहीं हो सकता
है। सवर्ण जाति की स्त्री को हम दलित स्त्री के साथ व्यवहारिक रूप में नहीं खडा सकते
हैं। । हालाकि अपनी अपनी वर्गीय स्थिति में
दोनो दोयम दर्जे में हैं। फिर भी शोषण और यातना की मात्रा में अन्तर अवश्य है। इसी
प्रकार इस सवाल को हमें महानगरीय और ग्रामीण विभाजन के तहत भी देखना होगा । दोनो के
परिवेश में अन्तर है। शिक्षा , जागरूकता , आधुनिकता का विभेद है। गाँव की स्त्री इन
तीनो विषयों से रहित है। वह अधिक जड़ समाज का हिस्सा है। मीडिया और आधुनिक विचारधाराएं
उन तक नहीं पहुँच सकती है। ऐसी स्त्रियों की
संख्या अधिक है। गाँव में वह दोहरे वर्चस्व से मुठभेड़ करती है। एक तरफ गाँव की परम्परागत
जड़ संस्कृति व नैतिकता के विभेदकारी पुरुषवादी मूल्य हैं। तो दूसरी तरफ सामन्तवाद का
जीता जागता वर्चस्व है। शोषण के अनुषांगिक आधार कोई भी हों मगर मूल में पूँजीवाद ही
होता है। यह तर्कपूर्ण व एतिहासिक संघातों व द्वन्दों का निष्कर्ष कथन है। जब स्त्री
शोषण का सन्दर्भ आता है। तो हम महिलाओं के शत्रु को प्राथमिक और अन्य में तब्दील कर
देते हैं। । जिस नारीवाद को हिन्दी कथा साहित्य
में महानगरीय उच्च वर्गीय महिला कथाकारों ने प्रस्तावित किया उसने पूँजीवाद और सामन्तवाद
की बजाय पुरुष को प्राथमिक शत्रु घोषित किया । इससे नारीवाद की वैचारिक अवधारणाओं में
तमाम किस्म के भ्रम उत्पन्न हो गये । माँग समुचित भागीदारी होनी चाहिए थी, वो माँग भागीदारी के
खिलाफ हो गयी । जिन अधिकारों को लेकर इस देश में बडा आन्दोलन
खडा हो जाना चाहिए वो महज चटखारे पूर्ण कागजी बहसों में खतम हो गये । यह स्थिति गम्भीर है। इधर कुछ वर्षों से देखा
जा रहा है। कि दैहिक आजादी को लेकर स्त्री लेखन मुखर है, यह उचित माँग है। परन्तु अभिव्यक्ति के स्तर पर अवैचारिक असंगतियां
बदबस्तूर जारी हैं। इस आजादी का प्रारुप बाजावाद
ने व बाजारवाद के साहित्यिक आतंकवाद उत्तर आधुनिकता ने गढा है। देह-मुक्ति एक आयामी
नहीं होती देह मुक्ति गुलामी के खिलाफ भागीदारी का सवाल बनना चाहिए मगर यह मुक्ति अभिव्यक्ति
के स्तर पर महज कामुक अवमुक्ति बनकर रह गयी है। कामुकता पुरुष का वर्चस्ववादी गुण है।
मनुष्य स्त्री की किसी भी वर्जित अभिव्यक्ति व गाली में भी कामुकता का आस्वाद लेता
है। स्त्री की नग्न देह का आकर्षण व भावभंगिमाएं
से वो अपने भीतर सक्रिय मर्द को बचाए रखता है। इस नवस्त्रीवाद ने भी भागीदारी का सवाल
नदारत करके पुरुष-वर्चस्ववाद का प्रकारान्तर से पोषण ही किया है। पुरुषवादी सामन्तवाद
ने स्त्री को दासी और भोग्या रूप में बनाए रखने के लिए ही इस नवस्त्रीवाद का प्रारूप
महानगरीय उच्चवर्गीय लेखिकाओं के साथ मिलकर तैयार किया है। और बाजार के साथ मिलकर स्त्री
देह को वस्तु की तरह प्रस्तावित करने की कोशिश कर रहा है। स्त्री लेखन का यह भोगवादी
स्वर किसी भी स्तर से त्रास उत्पीड़न या यन्त्रणा का नहीं है। न ही यह मुक्ति का स्वर है। क्योंकि देहभोग ही स्त्री को पुरषवर्चस्वाद के अधीन
बना रहा है। तो भोग के खिलाफ विरक्ति का भाव आना चाहिए जबकि ऐसा नहीं है। इस विमर्श में शराब की खाली बोतल की तरह प्रेमिकाओं
को फेंकने का रिवाज है। यह देह को वस्तु में बदलकर एक नये किस्म का सामन्तवाद विरचित
किया जा रहा है। शिक्षा-दीक्षा से आधुनिक सा दिखने वाला यह विमर्श आयातित, अमौलिक और तमाम जमीनी
सच्चाईयों को नकारता हुआ वाम जनवादी विमर्शों
को तोड़ने के लिए बेचैन दिखाई पड़ता है। पुरूषवर्चस्वाद
का मूल कारण सामन्तवादी सामाजिक मान्यताएं हैं, मगर भेडियाधसान बन चुका यह विमर्श न तो कहानियों
में और न ही कविताओं में कहीं भी इस सामन्ती जकड़न के खिलाफ स्वर बुलन्द नहीं करता है।
कविता में तो स्त्रीलेखन और भी मार्गच्युत हो गया है। वहां अनगढता , जल्दबाजी , पेशेवर
चलताऊ भाषा के साथ साथ कविता न होने की सारी शर्तों को स्वीकार करती कवयित्रियों की भीड़ एकत्र
है। जिन्हें तमाम अवैचारिक किस्म की कारपोरेट पत्रिकाएं व बडे
प्रकाशक प्रमोट करके लेखन में परम्परागत जड़ता , अन्धविश्वास , दैववाद , देहवाद का पोषण
करते दिख रहे हैं। । कविता में दो प्रकार की प्रवृत्तियां स्पष्ट रूप से परिलक्षित
हो रही हैं। पहली प्रवृत्ति है। नकली और संवेदनहींन प्रेम कविताओं की तो दूसरी प्रवृत्ति
है। अश्लील भंगिमाओं की । प्रेम को अधिकांश स्त्री लेखिकाओं ने कच्चा माल समझ लिया
है। प्रेम हेय और घटिया विषय नहीं है। प्रेम सामाजिक मान्यताओं व जड़ताओं के विरुद्ध सबसे
सशक्त स्वर का सन्धान करता है। यदि प्रेम जमीनी है। तो वह क्रान्ति का कारक और मनुष्यता
के सांस्कृतिक प्रतिफलन का आदर्श भी विनिर्मित करता है। मगर नयी कवयित्रियों ने प्रेम
को अतिरंजित भावुक प्रलाप भर समझा है। फूल
पत्ती , चाँद तारे , साँस , अधर , नदी , हवा , जैसे घिसे पिटे उपमानों को घोंटकर अमूर्त
अस्पष्टता को दिखाना ही प्रेम की भाषाई बुनावट बनावट समझा जा रहा है। जबकि ऐसी कविताएं
छायावाद और छायावदोत्तर युग में चल सकती थी आज वह समय नहीं है। जटिलताएं बढती जा रही हैं। और खतरे भयावह हो चुके
हैं। । प्रेम का शिल्प बदलना बेहद जरूरी है। मगर ये कवियित्रियाँ हैं। कि छायावादी रोमांचवाद
से बाहर निकलना ही नहीं चाहती है। ।
हिन्दी में स्त्री मुक्ति का फार्मूला तय करने में बुर्जुवा
लेखिकाओं कारपोरेट पत्रिकाओं इनके संपादकों का बडा हाथ है। इन लेखिकाओं के लिए आर्थिक
हक और हिस्सेदारी की कोई जरूरत नहीं रही आर्थिक रूप से सबल महानगरीय जीवन जीने की आदती
इन लेखिकाओं के दायरे से नब्बे प्रतिशत भारतीय स्त्री विस्थापित है। उसकी समस्यायें उसकी यन्त्रणा उसका श्रम उसका उत्पीड़न
भी गैर हाज़िर है। ।यदि उपस्थित है। तो मध्यमवर्गीय उच्चवर्गीय बुर्जुवा चिन्तन और विकृतियाँ
।इन कवियित्रियों को भूख से अधिक मासिक स्राव की चिन्ता है। ।शोषण और भागीदारी के सवालों
से अधिक पुरुष की बाहों में मदहोश स्त्री का
बिम्ब रचने की जिद अधिक है। ऐसे निजी जैविकीय
बिम्बों को बोल्डलेखन व मुखर अभिव्यक्ति के नाम पर हिन्दी कविता में खूब बढावा मिला
है। यह प्रवृत्ति मात्र नये लेखन की ही नहीं
पुरानी कवियित्रियों ने भी मध्यमवर्गीय यौनिकता को तरजीह दी है। वरिष्ठ कवियित्री अनामिका की कविता देखिए यह कविता
उनके कविता संग्रह “अनुष्टुप” से है। जिसका
शीर्षक है। “प्रथम स्राव” इस कविता में अनामिका ने कहीं भी स्राव के प्रति पुरुष वर्ग
की चिन्ताओं व मान्यताओं की मुखालफत नहीं की है। मात्र बिम्ब देकर चित्रविचित्र उपमानों
से उसे कलात्मक आधार दे दिया है। कविता है। “उसके पेट में / अनहद सी बज रही है। लड़की / काँपती हुई / उसकी जंघाओं में इकतारे / चक्रों सी
नाच रही वो / एक महीयशी मुद्रा में / गोद में छुपाए हुए / सृष्टि के प्रथम सूर्य सा
/ लाल लाल तकिया ( अनुष्टुप ) । प्रथम स्राव एक जैविकीय प्रक्रिया है। स्त्री इस
प्रक्रिया में भीषण कष्ट भोगती है। ।मासिक स्राव के सम्बन्ध में पुरुष वर्ग व प्रतिक्रियावादी
समाजों में गलत अवधारणाएं हैं। । स्त्री को
रजस्वला होने की अवस्थिति में अछूत माना जाता है। ।इस धारणा का विरोध होना चाहिए मगर
इन कवियित्रियों ने इस धारणा पर कुछ नहीं कहा बल्कि इस पुंसवादी सोच को बचाते हुए मासिक
स्राव को वैविध्यपूर्ण उपमानों से अंलकृत कर देती हैं। । इससे विषय के प्रति गम्भीरता नष्ट हो जाती है। और
यह कठिन प्रक्रिया भी कविता में अश्लील बिम्ब बनकर पाठकों में उद्दिग्नता और वितृष्णा
उत्पन्न करती है। ।
प्रेम , विश्वास , भाईपन जैसी अवधारणाएं सामाजिक व वर्गीय एकजुटता
का आधार है। कोई भी लडाई हो आपसी वर्गीय एका से लडी जाती है। चूँकि प्रेम परम्परा से
सामन्ती मान्यताओं के खिलाफ माना जाता रहा है। इसलिए समाज में सामन्ती वर्चस्व का पोषण
तभी हो सकता है। जब प्रेम को खारिज करके उसे सौदे और समझौते में तब्दील कर दिया जाए
।यही इन कवियित्रियों ने किया है। और इनकी देखा देखी नव पीढी की भी कवियित्रियाँ यही
कर रही है। प्रेम के नकार का दूसरा पक्ष है।
स्त्री को मादकता व भोग्य की वस्तु के रूप में प्रदर्शित करना । भोग और प्रेम में बुनियादी
अन्तर है। यह केवल कार्यात्मक चेतना बात नहीं
है। यह बाजार और देह के रिश्तों का प्रमाणन है। भोग का अनैतिक और अश्लील प्रदर्शन हमेंशा से प्रतिगामी
शक्तियों के पक्ष में रहा है। रीतिकाल का साहित्य देखकर इस तथ्य को समझा जा सकता है।
जहां मनुष्य को शराब , शबाब का उन्मादी भोक्ता बनाया गया है। यहाँ चेतना
की बजाय देह को प्राथमिकता दी गयी यही प्राथमिकता आज की कवियित्रियाँ दे रही हैं। अजन्ता
देव अपने कविता संग्रह “एक नगर बधू की आत्मकथा” में स्त्री के इसी पक्ष को दिखाया है।
उनकी कविता “दो विपरीत रसायन” कुछ और नहीं है। दो पृथक लिंगों का आपसी मिलन है। जहां
औरत पुरुष को ड़गमगाना चाहती है। पर संघर्षों के नहीं अपने यौवन और उद्दाम भोग की शक्ति
से पुरुष को पराजित करना चाहती है। “मेंरे
प्याले भरे हैं मद से / केसर कस्तूरी झलझला रही है। / वैदूर्यमणिसी / कीमियागर की तरह
/ मैं मिला रही हूँ / दो विपरीत रसायन / विस्फोट होने को है। / मैं प्रतीक्षा करूँगी
तुम्हारे ड़गमगाने की” । जिस भोग के लिए स्त्री को हक और अधिकारों से वंचित किया
गया, उसी भोग को तमाम कुतर्कों
के साथ पुरुष को अधिकृत करना- ये कैसा नारीवाद है। ? क्या शराब पीकर स्त्री-देह को
रौंदना नारीवाद है या पुरुष द्वारा देह देखते ही स्खलन होना नारीवाद का पोषण है ? यह
तो उसी सामन्ती भोगवाद का समर्थन है जिससे आम स्त्री पीड़ित है। उसकी मूल्यवत्ता
और अस्मिता को इन चटखारेपूर्ण , यौनिक , वीभत्स बिम्बों से नष्ट करना- ये तो स्त्री
अस्मिता के लिहाज से बडा घपला है। विस्फोट कैसा ? यह विस्फोट बदलाव का नहीं है। देह
को दौदने के लिए पुरुष की कामुक आक्रामकता का विस्फोट है। जिसके लिए स्त्री देहों के
मिलन का रसायन बना रही है। इन कविताओं में एक तरफ प्रथम सम्भोग की कठिनाईयों का उल्लेख
है। तो दूसरी तरफ पुरुष के साथ अपरिमित भोग का समर्थन है। पक्ष एक होना चाहिए कभी दो
विपरीत विचार एक साथ पक्ष नहीं होते हैं। मगर इस उच्चवर्गीय पूँजीवादी नारीवाद एक तरफ
सम्भोग की पीडा पर हाय तोबा मचाता है। तो दूसरी तरफ यौन आक्रामकता का समर्थन करता यह
यह भीषण अन्तर्विरोधों से ग्रसित नारीवाद है। जो किसी भी ठोस निर्णय तक न पहुँचकर मात्र
दैहिक सम्बन्धों के नग्न लेखन का बहाना बना रहा है। किस लेखन में किस चिन्तन की प्रधानता है। इसका पता वर्णित
प्रत्यक्ष बिम्बों से भर नहीं चलता बल्कि मनन
, स्वप्न , संवेदन , अनुभूतियों से भी पता चल जाता है। कविता में एकान्त व स्वप्न का
बिम्ब रचना कोई नयी बात नहीं है। ।एकान्त का उपयोग या प्रकृति के साथ एकान्तिक साहचर्य
का उपयोग अक्सर मनुष्य अपनी स्वच्छन्द उपस्थिति का भावपूर्ण साक्ष्य मानता है। जिसमें न तो राजनीति होती है। न विचारधारा होती है।
मात्र मनुष्य का स्वयं का प्रबोध प्रभावी रहता है। जीवन बोध प्रभावित रहता है। मगर इस नारीवाद ने एकान्तिक
स्वप्न व साहचर्य को भी दैहिक मादकता से जोड़ दिया है। इन्हें एकान्त का सौन्दर्यबोध
नहीं होता बल्कि एकान्त में निर्वसन देह की स्मृति आती है। जया जादवानी की कविता देह स्वप्न जो उनके कविता संग्रह
“उठाता है कोई एक मुट्टी सौन्दर्य” में है, देखिए एकान्त का स्वप्न “ले गया कपड़े सब मेंरे / दूर बहुत
दूर / मैं निर्वसना / तट पर / स्वप्न देखती देह का” यह तो यौनिकता की पराकाष्ठा है। सौन्दर्य और जीवन बोध की खूबसूरत
समझ पर यौन समझ का बेहद विद्रूप आरोपण है। इस नारीवाद का यही सबसे बडा चिन्तन है कि
वो जीवन के केवल एक पक्ष पर ही यौनिकता नहीं रखता, वह जीवन के हर पक्ष में यौन नजरिया रखता है। जिस एकान्त में
आम तौर पर कवि जगत और जीवन के गम्भीर सवालों से मुठभेड़ करता है, वहां इस धारा की कवयित्रियां
निर्वसना अस्तित्व को चित्रित कर रही है।
इसी तरह साहचर्य के मामले में भी यौन सम्बन्ध ही प्रभावी है। साहचर्य परस्पर अनुभूति द्वारा उत्पन्न आत्मचेतस
बोध है। मगर अन्जू शर्मा नामक कवियित्री ने साहचर्य कुछ इस तरह उल्लेख किया है। “मेंरे चेहरे को ढकता है सिर्फ तुम्हारा चेहरा
/ मेंरी आँखों को तुम्हारी आँखे / गालों को गाल / होंठों को ढक लेते हैं तुम्हारे होंठ
/ ठीक उसी समय मैं तुम हो जाती हूँ” ।यह कविता “मैं तुम हो जाती हूं” का अंश है
जो अन्जू के कविता संग्रह “कल्पनाओं से परे समय” में संग्रहीत है। अजीबोगरीब साहचर्य
है, अजीब अनुभूति है जहां
चेतना का नामोनिशान नहीं है। महज देह से देह का कामोदीप्त उत्तेजित मिलन है। इनके लिए जरूरी नहीं है कि इस साहचर्य को निजी पलों की अनुभूति
मानें। वो इस साहचर्य को प्रमाणित करने व वैधता
देने के बाद सम्भोगजनित चिन्हों का प्रदर्शन भी करती हैं। यह प्रदर्शन इसलिए कि नारी
की देह पर पुरुष ने निशान दिये। एक तरफ साहचर्य की लालसा और दूसरी तरफ अन्तरंग पलों
का व्याख्यान ? यह विचारधारा और तर्क और कविता होने की शर्तों का विरोध है। देखिए “लाल हो गयी ट्रेफिक की
बत्ती / ऊपर से / चील की तरह बाज की तरह /
तुम भी मेंरे खुले कन्धों पर झपट पड़े थे / मैं दिखाऊंगी नहीं तुम्हें / मेंरे कन्धों पर तुम्हारे पंजो के खरोच के निशान
हैं” । यह कविता पंखुरी सिन्हा की है। कविता का शीर्षक
है- नई औरत । नवव्याहता स्त्री गाड़ी रूकने पर पति के द्वारा की गयी हरकत को बता रही है। एक तरफ अन्जू
होंठ से होंठ, गाल से गाल मिलने पर
अस्तित्व विगलन की बात कर रही हैं तो दूसरी तरफ पंखुरी उसके साहचर्य को अपराध बता रही है। दोनों परस्पर विरोधी कविताएं
हैं। । इन कविताओं को छोड़िए । एक ही कवियित्री की कविताओं में व्यापक अन्तर्विरोध आपको
दिख जाएगें । मृदुला शुक्ला , मंजरी श्रीवास्व , गगन गिल , सविता सिंह , निर्मला गर्ग, बाबुशा कोहली , जैसी
कवयित्रियां में तो अन्तर्विरोधों की भरभार है। नारीवाद की इस दुर्गति का कारण नारीवाद
की पुरोधा स्त्रियों की स्वयं की वर्गीय अवस्थिति रही है। मनुष्य किसी भी वर्ग का हो, लेखक होने के लिए जरूरी
है कि वह अपना रचनात्मक स्रोत आम जनसमुदाय को स्वीकार करे । जन के बीच जाकर व्यापक समुदायों व व्यवस्था और तन्त्र
द्वारा उपेक्षित पीडित समुदायों की चर्चा करे । इस स्थिति के लिए व्यक्ति को खुद का
वर्गान्तरण करना होता है। विचारधारा फैशन नहीं
है। संवेदन और समझ का विषय है। यदि हम विचारधारा को उपरले फैशन की तरह ग्रहण कर अपनी
रचनात्मकता की आधारभूमि विनिर्मित करते हैं। तो कहीं न कहीं हमारी भाषा और संवेदनाओं
का नकलीपन उजागर हो जाता है। क्योंकि व्यक्ति कितने भी मुखौटे क्यों न पहन ले, उसकी निजी सुख-सुविधा
व जातीय वर्गीय चिन्तन कहीं न कहीं खुलकर सामने आ जाता है। इस नारीवाद की पुरोधा
लेखिकाएं उच्च वर्गीय या उच्च मध्यमवर्गीय
परिवारों की सुख सुविधा में पढी लिखी महानगरीय स्त्रियाँ रहीं जिन्होने कभी जन आन्दोलनो
का नेतृत्व नहीं किया कभी भी आम कृषक मजदूर गाँव की स्त्री के दर्शन नहीं किए । महानगर के
ऐशोआराम से पूर्ण जीवन के बीच फुर्सत के क्षणों में कविता लिखकर अपने शौक की प्रतिपूर्ति
करने के लिए उनका लेखन में आगमन हुआ है। यही कारण है कि वो अपनी मध्यमवर्गीय
कुंठाओं का शिकार हो रही और जन व लोक के यथार्थ से उनका नाता न तो वैचारिक रूप में
रहा न समझ के स्तर पर रहा। अस्तु यदि उन्होंने
स्त्री की सबसे बडी जरूरत सेक्स को माना है
या सेक्स को ही सबसे अहम क्रान्ति माना है। तो इस बात पर कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए
। उनका विमर्श महज वदतोव्याघात और पूँजीवादी
सामन्ती व्यवस्था को बचाए रखने का प्रयास भर है। इस विमर्श
का आम स्त्री से कोई नाता नहीं है। न उन्होंने आम स्त्री को देखा है। न आम स्त्री की
भाषा पढी है। उन्होंने स्त्री आजादी को महानगरों
के काफी हाऊस , शापिंग माल , बुलेट ट्रेन , नियोन लाईट , क्लबों , और बारों में देखा
है। गाँव, छोटे नगरों, कस्बों की जिन्दगी मात्र
किताबों में पढी हैं या गूगल में सर्च करके इन्टरनेट में देख लिया है। उन्हें आम भारतीय
स्त्री के चतुर्दिक घिरे भयावह जहरीले नैतिकता और शुचिता के आवरण को नहीं देखा, न ही सुबह से शाम तक
अपने नवजात शिशु को पीठ पर बाँधकर सौ रूपये की मजदूरी करती स्त्री और शाम को सारी कमाई
पति को सौंपकर पति द्वारा प्रताड़ित स्त्री का का अनुभव उन्हें नहीं पता है। यही कारण है, यह विमर्श तमाम किस्म
के अन्तर्विरोधों का शिकार हो गया। भारतीय जनमानस व स्त्रियों के ही जनमानस को उद्वेलित
नहीं कर सका और यह विमर्श विश्विद्यालयों की दो चार किताबों में सिमट कर रह गया है।
जनता तक पहुँचने की न तो इसने जरूरत समझी न
जनता ने इस पक्ष को समझने की जरूरत समझी ।
समकालीन हिन्दी कविता में लेखिकाओं का एक ऐसा समूह भी है जो
इस भ्रमात्मक बाजारवादी विमर्श से मुक्त है। लेकिन इन कवियित्रियों में भी अधिकांश
की रचनाओं का यथार्थवाद से दूर दूर तक का नाता नहीं है। न तो उनकी कविताओं में पुरुष की सामन्ती आदतों के
विरुद्ध कोई स्वर है। न ही आर्थिक विषमता और पूँजीकृत सामाजिक संरचनाओं की कोई छाया
है। अतिकल्पना , भावुकता , प्रेम , समर्पण व ईश्वरवाद, नियतिवाद, आस्थावाद का कवच इतना
मजबूत है कि वो इस दायरे के बाहर नहीं सोच पाती हैं। प्रेम की रंगीन रूमानियत , उपमानों
से बोझिल बेसिर पैर की अयथार्थ काल्पनाओं का विकट जमघट है। पीड़ा का आत्मबोध इतना वायवीय है कि सभी कवियित्रियों
में महादेबी वर्मा बनने की होड़ सी लगी है। प्रेम मिलन , विरह , घर , आँगन , नदी , झरने
, पक्षी , चिडिया , चाँद कोयल , चाँदनी , घोसला
फूल , पत्ती इनकी कविताओं के बीज-शब्द हैं, फिर भी महादेवी वर्मा जैसी प्रतिबद्धता के दर्शन नहीं होते
है। न उनके जैसा कोई दर्शन है। इन कवियित्रियों में मनीषा जैन , ज्योति चावला , बाबुषा कोहली नीलेश
रघुवंशी, नीरजा
हेमेंन्द्र , जैसी बहुत सी कवयित्रियां आती हैं। देखिए एक कविता दिल्ली की कवयित्री
ज्योति चावला की इस कविता का शीर्षक है- “वह
औरत” । ज्योति औरत को देखती हैं। मगर किस तरह
की औरत देखती हैं, यह आप उनकी इस कविता से बखूबी समझ सकते हैं। “वह औरत अपनी
लाल साड़ी के आंचल में / बटोरकर ले जा रही है कई सफेद फूल / जैसे बटोर
कर ले जा रही हो आसमान से अनगिनत तारे”। मतलब निराला जैसी पत्थर तोड़ती स्त्री नहीं दिख सकती है। गोबर
पाथती , खेत गोड़ती , फसल काटती , बिकी हुई मजदूर औरत , सुबह से चौराहों में मजदूरी
के लिए नीलामी को तैयार औरत इनकी दृष्टि से ओझल है। जब ऐसी पुरस्कृत कवयित्रियों को
आम भारतीय औरत नहीं दिखाई देती तो बाकी लेखिकाओं से क्या उम्मीद किया जाए? कुछ कवयित्रियां
ऐसी हैं जो गाँव के बिम्बों व परिवेश को ही कविता समझती हैं। मगर रहती शहर में हैं।
गाँव से उनका नाता चार पीढी से नहीं है। फिर
भी गाँव पर कविता लिखी जा रही है! ऐसी कवयित्रियाँ गाँव को पिकनिक स्पॉट की तरह देखती है। उन्हें
नष्ट फसल, किसान, उनकी बीमार बेटी, बजाय बाजरे की रोटी
और चने की भाजी की स्मृति आती है। बिकती हुई जमीन , पलायन को बाध्य युवा लोगों की बजाय
उन्हें पेड़ में झूला झूलने की याद आती है। ऐसी मिथ्या आधारहीन कविताओं
से क्या क्रान्ति होगी ? क्या इन कविताओं को नारीवादी स्वर कहा जा सकता
है ? ये तो यथार्थ से पलायन और बुर्जुवा सामन्ती ताकतों के मन की बात है। युगबोध से
विपरीत भाषा व संवेदनाओं का जखीरा बनाने वाली कवयित्रियों की भरमार सी है। बड़े परिवारों व बड़े अधिकारियों की पत्नियाँ
कविता को शौकिया प्रवाह समझते हुए आजकल की सोसल साईट्स में सक्रिय हैं। जिसके पास एन्ड्रायट
फोन है, वही कवयित्री है। और
कवि है। इन्हीं माध्यमों से उनका सम्पर्क प्रकाशकों व सम्पादकों
से होता है। वह छपकर पाठक के बीच पहुँच जाती हैं। इधर कुछ वर्षों से एक नयी प्रवृत्ति ने जन्म लिया है। इस प्रवृत्ति के तहत
अश्लीलता , यौनिकता , यौनक्रियाओं व कविता टाईप फूहड़ ऊबड़-खाबड़ गद्य से युक्त उत्तेजक बिम्बों
को 'नयी भाषा व बोध' के नाम पुरस्कृत करके आदर्शीकरण करने की साजिश की रही है। यह साहित्य में विकृत नयेपन की अलहदा समझ है। नवोढ़ा लेखन ने यौनिक बिम्बों व क्रियाओं का काव्यकरण परम्परा से ग्रहीत किया । मगर यह प्रवृत्ति भी “मर्दवादी“ कुंठाओं की प्रतिपुष्टि ही है । जिन कवयत्रियों को पुरस्कार देकर चर्चित किया गया उन पुरस्कार कमेंटियों में कितनी
स्त्री सदस्य थी ? शायद भारत भूषण से लेकर ज्ञानपीठ नवलेखन
पुरस्कारों तक एक भी स्त्री लेखिका नहीं है। अभी हाल में भारत भूषण पुरस्कार को लेकर
काफी विवाद हुआ । यह पुरस्कार युवा कवयित्री शुभम श्री को दिया गया । शुभम को इस पुरस्कार
से पहले इतनी चर्चा कभी नहीं मिली थी , हालाकि जलसा में उनकी कविताएं प्रकाशित हुई
थी। मगर वह चर्चा में नहीं आईं, न ही पाठकों ने संज्ञान में
लिया था । भारत भूषण पुरस्कार की अपनी कोई प्रतिष्ठा नहीं है। मगर यह चर्चित है। इस
पुरस्कार की चर्चा इसलिए होती है कि इसकी चयन कमेंटी में अरुण कमल , अशोक बाजपेयी और उदय प्रकाश जैसे बड़े नाम है और दूसरा कि यह पुरस्कार रचनात्मक सरोकारों के आधार पर नहीं दिया जाता
बल्कि निजी पंसद व सम्बन्धों के आधार पर दिया जाता है। यही कारण है कि आज तक एक भी
पुरस्कृत कवि साहित्य में जिन्दा नहीं है। शुमभ श्री को यह पुरस्कार “पोयट्री
मैनेजमेंन्ट” कविता के लिए दिया गया । कोई भी समझदार पाठक इस कवयित्री की कविताओं
को कविता कहने से परहेज करेगा । “पोयट्री मैनेमेंन्ट” तो भाषा का अराजक नृत्य है, जिसमें राग लय और मैसेज के
बगैर अल्हड़ बेढंगी अभिव्यक्ति है। जो कविता के खिलाफ बैठती है। जिस “पोयट्री मैनेजमेंन्ट” के तहत यह कविता
चर्चित की गयी उसी “पोयट्री मैनेजमेंन्ट” की मुखा़लफत करती है। यदि अपनी इस कविता को वाकई में शुमभ ने ईमानदार
अनुभूति से लिखा है तो पुरस्कार को तत्काल वापस कर देना चाहिए । शुभम की अन्य
कविताओं में सेक्स की बघार बड़ी शिद्दत के साथ उपस्थित है। अनमेंच्योर सेक्स व युवा उद्दाम पिपासा के
बिम्बाकंन को कविता कहकर स्त्रीवाद के मौलिक चिन्तन और कविता की जमीनी परम्परा को ड़स्टबीन
में फेंकने की कुत्सित कोशिश की गयी है। "उन्नत उरोज , क्षीण कटि , घने केश वाली / या सपाट उरोज स्थूल कटि श्वेत केश वाली / सुन्दर रोमावली युक्त योनि वाली / या श्यामवर्ण योनि
वाली" ( हे वीणावादिनि ) , शुभम की अधिकांश कविताएं जैसे
दुदू 1, मेंरा ब्वायफ्रेन्ड , सेनिटरी नैपकीन , आदि यौनिकता का विद्रूप खिलवाड़ है। इसी तरह
बबूषा कोहली की चार तिलों की चाहत , और ब्रेक अप सिरीज की कविताएं , रेखा चमोली की अस्तित्व , क्योंकि माएँ चाहती हैं, बरसात की शाम छत पर और सुजाता तेवतिया की अगर नहीं होती गुफा मैं ,
नहीं हो सकेगा प्यार जैसी कविताएं व्यापक स्त्री सरोकारों के साथ साथ मानवीय
मूल्यों व विचारतत्व का विरोध हैं। । ये कवयत्रियाँ भले ही अपनी भाषा व कविता के
सामान्य संस्कारों से रहित हो, वायवीयता से उत्फुल्ल व ज्ञानजनित
संवेदनाओं के अभाव से जूझ रही हों मगर आज जिस तरह से इन्हे आगे बढाकर विस्फोटक
अन्दाज़ में स्टार बनाया जा रहा है। यह हिन्दी के वरिष्ठ कवियों और पुरस्कारों का
विजनेस करने वाली संस्थाओं के उपर सवालिया निशान है। इस कुप्रवृत्ति का जोरदार
विरोध होना चाहिए । अफसोस की बात है। कि लेखिकाओं की इतनी बडी भीड़ सक्रिय है। मगर
शुभा , अनीता भारती , संज्ञा सिंह जैसी कविताएं किसी के पास नहीं है। इसका मूल कारण
है कि वैचारिकता का अभाव है और वैचारिक रूप से प्रतिबद्ध जमीनी सम्पादकों व समूहों
से इन्हे कुछ सीखने की जरूरत नहीं महसूस होती । सोसल साईट्स , फेसबुक की वाहवाही व
मुँहदेखी थोथी प्रशंसा ने आत्ममुग्धताओं का भीषण रूग्ण और गलित संसार खड़ा कर दिया है। कविता की आलोचना व कविता में कमियाँ बताने पर जिस
तरह का व्यवहार होता है, वह बेहद चिन्ताजनक है। फिर भी इतिहास अपना काम करता रहता है।
तमाम पूँजीवादी कारपोरेट पोषित पत्रिकाओं के बीच ऐसी पत्रिकाएं और संपादक भी हैं जो
अपने निजी संघर्षों से आज भी कविता को बचाए
हुए हैं। नारीवाद को वास्तव में स्त्री विमुक्ति
का भारतीय स्वर बनना है तो उसे फार्मूलों और सैद्धांतिक जड़ताओं से बाहर निकल कर मेंहनतकश
समूहों व गाँवों कस्बों के सामन्तवाद से त्रसित स्त्रियों को अपने विचारों से प्रभावित
कर बडा आन्दोलन करना पडेगा । हक और वजूद की
लडाई के लिए प्रगतिशील पुरुषों को भी साथ लेना पडेगा। वातानुकूलित कमरों व विश्वविद्यालयों
की चौखट लाँघकर पुख्ता वैचारिक सन्दर्भों के साथ जनता से संवाद करना होगा । जमीन के अनुभूतियों द्वारा आम स्त्री की भाषा व संवेदना
का कविताकरण करना होगा । मगर यह स्थिति अभी नहीं दिख रही है। यही कारण है कि नारीवाद भारतीय वास्तविकता से सर्वथा अनभिज्ञ है
व अन्तर्विरोधों से ग्रसित है। -
उमाशंकर सिंह
परमार
, बबेरु, बांदा
मो ९८३८६१०७७६ ।
ऑख खोलने वाला पठनीय लेख है।साधुवाद!
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