फ़रहत
दुर्रानी 'शिकस्ता' की सात गजलें
1.
.
मुल्क
से प्यार है तो इसको बचाया जाए।
अस्ल
दुश्मन को सबक़ डटके सिखाया जाए।
जश्न
गणतंत्र का किस तरह मनाया जाए।
जब
प्रजा को ही सलीबों पे चढ़ाया जाए।
है
फ़क़त शक्ति प्रदर्शन चुने गणमान्यों का
ताकि
जनतंत्र को रौंदा औ' दबाया जाए।
दफ़्न
जम्हूरियत अब हो चुकी शमशानों में
शोक
उसका ही चलो मिल के मनाया जाए।
पहले
थे क़ैद जिसिम अब हैं गिरफ़्तार ज़ेहन
किस
तरह से इन्हें आज़ाद कराया जाए।
ख़ून
जनता का निचोड़े है ये परजीवी तंत्र
ख़ुद
शिकम सेर इसे भूखा सुलाया जाए।
साज़िशें
इसलिए करते हैं ये बद-अम्नी की
घृणा
के बल पे कमल ख़ूब खिलाया जाए।
2.
इस
जहां में झूटों को चैन और
राहत है
भाग्य
में तो सुक़रातों के सदा मुसीबत है।
डर
के सायबानों में ज़िन्दगी सलामत है।
क़ब्ज़े
में फ़िरौनों के मुल्क की हुकूमत है।
क़ैद
फ़ाइलों में हैं, सब विकास की बातें
बस
बयान-बाज़ी में शाह को महारत है।
दुख
रिआया का इनसे देखा ही नही जाता
मुल्क
से फ़रार इनकी आख़री ज़रूरत है।
घूम
कर ये दुनिया को मुल्क को घुमाते हैं
हुक्मरां
हमीं अच्छे, आला ये हुकूमत है।
सर
क़लम वो ख़ंजर से कर रहे हैं मुद्दत से
ख़ूँ
से दर्ज करने की इस क़लम को आदत है।
ये 'शिकस्ता' दिल
मेरा दर्द में सुकूं पाये
दर्द
के ही पहलू में ज़िन्दगी को
राहत है।
3.
आफ़्ताब अर्श
पे रोज़ाना चमकता
है बहुत।
जाने
क्यों फिर भी हर इक गाम अँधेरा है बहुत।
गरचे कुटिया
में ग़रीबों की
उतरता कम है
ऊँची मेहराब
पे आकर ये
ठहरता है बहुत।
खेत की
बालियां, बढ़
के यूँ तो अम्बर छू लें
मेड़
के तार
में उलझा हुआ
पैयचा है बहुत।
उलझी तक़दीर के
रेशम को जो बुन लेते हैं
उनकी
बस्ती में भी अफ़्लास का डेरा है बहुत।
काट डालें
न शजर लोग
जलाने के लिए
बुलबुलों का
उसी गुलशन में
बसेरा है बहुत।
ज़िन्दा रह
पाने के असबाब बहुत
कम हैं यहां
तंग-
ज़ेह्नी के सबब
मौत का फेरा
है बहुत।
झूट के
पाए हैं कुर्सी
में शहन्शाही की
तख़्त
से तख़्ते तलक ख़ौफ़ का
पहरा है बहुत।
4.
हक़ीक़त
पे अपनी नज़र कीजिए।
न
फ़रियाद शामो सहर कीजिए।
अभी राह
में ख़ार ही
ख़ार हैं
तो हमवार
पहले डगर कीजिए।
समय
गर चे भारी बहुत है मगर
उसे होशमन्दी
से सर कीजिए।
करम
की किसी से तवक़्क़ो ही क्या
जफ़ा
ए फ़लक दर गुज़र कीजिए।
न रहबर
की कीजे कोई
आरज़ू
अकेले
भी तय ख़ुद सफ़र कीजिए।
"शिकस्ता"
नहीं हारी हिम्मत अभी
मिरे हर
उदू को ख़बर
कीजिए।
5.
ज़िन्दगी हैरान
थी ज़ुल्फ़ ए परीशां की
तरह।
दस्ते उल्फ़त ने
संवारी है गुलिस्तां
की तरह।
मुद्दतों तक
रूठने का ग़म
मसर्रत को रहा
फ़रहतें
आईं हैं चलकर अब
पशेमाँ की तरह।
रहनुमाओं से
किसी तरह न
बन पायी मेरी
वो
सभी सफ़्फ़ाक हम थे अहले ईमाँ की तरह।
तिशनगी..
नादारियां.. बे- मेहरियां.. आज़ारियां
तल्ख़ियाँ
मिसरी में ढाली हैं ग़ज़ल-ख़्वाँ की तरह।
वहशत
ओ ज़ुल्मो-सितम के, नफ़रतों के दरम्याँ
ग़ैर
मुमकिन हैं कोई
रह जाए इंसाँ
की तरह।
बेटियां
तक़दीर बन सकती हैं मुल्क ओ क़ौम की
इस
हक़ीक़त से हो क्यूँ अबतक गुरेज़ाँ की तरह।
आँधियों के
राह में आने
के अंदेशे तो थे
हसरतें हमराह
थीं हर गाम
तूफ़ाँ की तरह।
6.
तल्ख़ियों से
न हिक़ारत को
बढ़ाया जाए।
ख़ूबिए हुस्न
ए मुरव्वत से
निभाया जाए।
आश्'ना
इश्क़ की लज़्ज़त से अगर
होना है
दिल कुशादा
अभी कुछ और बनाया
जाए।
तिश्ना
आलम है नमी से
हैं सभी दिल ख़ाली
ख़ुश्क मौसम
में चमन कैसे
खिलाया जाये।
ज़ुल्मतें
शब की हर इक हाल में होंगी रुख़सत
शमअ
बुझ जाए तो फिर दिल को जलाया जाए।
उसकी ख़िलक़त
से मुहब्बत अस्ल
इबादत है
ये सबक़
भी तो मदरसों
में पढ़ाया जाए।
ख़त्म हो
जायेंगे मज़हब की
बिना पर दंगे
धर्म फिर
दीने इलाही सा
चलाया जाए।
कितने
ही दिल हैं 'शिकस्ता' ख़ुशी जिनसे है ख़फ़ा
उनके होटों
पे तबस्सुम को
सजाया जाए।
7.
गर
जुनूँ में तू ढल न
पायेगा।
बेड़ियों से
निकल न पायेगा।
ज़ुल्म पे
ख़ूँ उबल न पायेगा।
तू मेरे
साथ चल न पाएगा।
दर्द आंसू
हैं ज़िन्दगानी में
तू ग़मों
से बहल न पायेगा।
मेरी तासीर
मोम जैसी है
तू
शमअ सा पिघल न पायेगा।
ज़ख़्मी
मंज़र भले हों ख़्वाबों के
वक़्त
उनको मसल न पायेगा।
क़ुमक़ुमें
जब हज़ार रौशन हों
नूर अंधेरा
निगल न पायेगा।
तन 'शिकस्ता' सही मगर फिर भी
अज़्म
दिल का बदल न पायेगा।
********************
*शिकम सेर = भरा हुआ पेट
*सायबान = शरण
*फिरौन = क्रूर (बादशाह)
*रिआया = प्रजा
*गाम = गाँव
*अल्फास = गरीबी
*तिश्ना = प्यास
*कुशादा =बड़ा
*खिलकत= जनसमूह
*तबस्सुम = मुस्कान
*अज्म=संकल्प
*जुल्मतें= अंधेरे
*आशना = प्रेमपात्र
*मुरव्वत= दया, लिहाज
*हिक़ारत= उपेक्षा
*पशेमाँ =शर्मिंदा
*शज़र= वृक्ष
*फलक = आकाश
© नवोदित गजलकारा फ़रहत दुर्रानी 'शिकस्ता' लखनऊ में रहती हैं । पेशे से अध्यापिका हैं। 'सोशल एक्टिविस्ट'भी हैं। धार्मिक -सामाजिक मुद्दों पर विभिन्न अख़बारों में इनके विचार और रचनाएं प्रकाशित होती रहती है, अभी हाल में ही सुप्रतिष्ठित पत्रिका *हंस * के जनवरी , '2018 अंक में इनकी चार ग़ज़लें आई हैं जिसने शिद्दत से सुधी पाठकों का ध्यान खींचा है।
पता: 232/4 असमत बिल्डिंग, ग़ाज़ी मंडी, विक्टोरिया स्ट्रीट, चौक लखनऊ-3●
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