Friday, January 5, 2018

सुभाष राय की कविताएँ

1.बच्चे आएंगे 
-------------------------

बच्चों को पढ़ने दो 

मत मारो 
मार नहीं पाओगे सारे बच्चों को


क्या करोगे जब 
तुम्हारी गोलियां 
कम पड़ जाएंगी 
तुम्हारी बंदूकें जवाब 
देने लगेंगी


बच्चे आ रहे होंगे 
और तुम्हारे पास 
गोलियां नहीं होंगी
बारूद नहीं होगी


फिर बच्चे तय करेंगे 
तुम्हारा भविष्य 
वे तय करेंगे कि 
इस दुनिया में 
तुम्हें होना चाहिए या नहीं


बच्चे फिर भी 
तुम्हें मारेंगे नहीं 
तुम्हें मरने देंगे 
खुद-ब-खुद


तुम मिट जाओगे 
क्योंकि बच्चे तुम्हारी तरह 
बंदूकें नहीं उठायेगे 
गोलियां नहीं चलाएंगे 


२. स्पर्श
------------------ 
तुमने जब-जब मुझे छुआ है
मैं धंस गया हूं अपने ही भीतर
तुम्हारी उंगलियों को अपने 
हृदय तक महसूस करते हुए


तुम्हारे पास आते ही मैं 
मुक्त हो जाता हूं नसों में 
दौड़ते हुए सारे विष बवंडर से


तुमने जब-जब 
मेरे  सिर पर हाथ फेरा है  
मेरे रोम-रोम में उग आयी हो
सहस्त्र योनियों की तरह
मुझे हर तरफ से निगलती हुई


तुम्हारे भीतर होकर 
बहुत सुरक्षित महसूस करता हूं में 
अपने होने को तुम्हारे होने में 
विलीन होते देखता हुआ
तुम्हारा स्पर्श तत्क्षण 
बदल कर रख देता है मुझे


स्त्री ही हो जाता हूं 
तुम्हारे पास होकर मैं
बहने लगती हो मेरे भीतर
पिघलने लगता हूं मैं


पुरुष की अपेक्षा से परे 
समूचे जगत को रचती हुई 
अगर योनि हो तो मां हो
योनि हो तो सर्जना हो
योनि हो तो वात्सल्य हो
ब्रह्मांड में बिखरे समस्त 
बीजों की धारयित्री हो


मैं पाना चाहता हूं तुम्हें 
तुम्हारी अनाहत ऊष्मा में डूबकर 
होना चाहता हूं
तुम्हारी हंसी में,
तुम्हारे स्पर्श में
तुममें, हां तुममें   


३ देवदूत
-----------------------


वह मंच पर बैठा था 
दिव्य आलोकपुंज जैसा 
सधी हुई कमलनाल पर 
चमकते हुए हीरे की तरह


और लोग भी थे उसके आजू-बाजू 
धुंधले, अस्पष्ट, लगभग नजर से बाहर
चौंधियाई हुई आँखों में 
समा नहीं रहा था वह


सपनों के अगणित सूर्य समेटे हुए 
अंधेरे, अपमान, भूख और 
नाउम्मीदी के  जंगल में भटकी आत्माओं को 
मुक्ति की आवाज देता हुआ 
धरती पर स्वर्ग उतारने का 
आभास जगाता हुआ


उसके सामने भीड़ थी 
अनागत की उमंग से लहालोट 
तालिया बजा रहे थे लोग 
अवरोध फांद कर आगे आने को आतुर 
झुण्ड गगनभेदी नारे लगा रहा था


कुछ बच्चे बहुत रोमांचित थे 
उन्हें उनके माँ-बाप ने 
सब-कुछ बता दिया था 
वे तेजी से पास खड़े पेड़ों की  
फुनगियों पर सवार हो गए थे


उनका हृदय पसलियों के भीतर 
इतना तेज बज रहा था 
मानो सीने से बाहर निकल 
आना चाहता हो 
नास्त्रेदमस ने कहा था 
हाँ, हाँ नास्त्रेदमस ने कहा था


कि एक दिन 
वह प्रकट होगा और 
चारों ओर फैल जाएगी 
कभी न ख़त्म होने वाली रोशनी 
कि एक दिन वह आएगा 
और सबको मुक्त कर देगा 
कि एक दिन 
वह हवा में हाथ लहराएगा 
और मिट जाएगी गरीबी 
ख़त्म हो जाएगी भूख 
कि एक दिन 
वह अपनी अमृतवाणी से नष्ट कर देगा 
सबकी बीमारियां, बुढ़ापा और मृत्यु 
कि एक दिन 
वह निकलेगा सडकों पर 
और फूट पड़ेंगी नदियां  
सुख, वैभव, ऐश्वर्य की 
डूब जाएंगी झुग्गी-झोपड़ियाँ 
उसकी वेगवती धार में  
खेतों में खूब अनाज होगा 
बागों में खिलेंगे अनदेखे फूल
तितलियाँ बाँटेगीं भरपूर रंग  
पेड़ों से टपकेंगे मीठे फल


बच्चे बहुत उत्साहित थे 
उनके कन्धों पर पंख उग आये थे 
पहली बार वे नास्त्रेदमस पर 
यकीन करना चाह रहे थे


वे यह सोचकर भाव-विह्वल थे 
कि रंक भूला नहीं है अपने दुर्दिन 
अपनी पीड़ा, अपना संघर्ष 
वह सिर्फ कहानी नहीं सुनाएगा 
वह नए संवाद रचेगा, नयी कहानी गढ़ेगा


वह मंच से उतरा और 
भीड़ जुलूस की शक्ल में बदल गयी 
मंच से महामंच तक 
मैदान से अभेद्य किले तक 
सड़क से सरकार तक


उस दिन भी खूब उत्सव मना 
गांव में, कस्बों में, शहरों में 
पटाखे छूटे, नगाड़े बजे
सुरीली शहनाइयो के स्वर गूंजे 
जमीन से आसमान तक 
आशाएं पसरीं जगमग जगमग 


जिसने भी देखा था रोशनी का वह तूफान
अपने पास से गुजरते हुए 
आँखें मल रहा है अब 
चेहरे पर पानी की छींटें मार रहा है 
समझ नहीं पा रहा 
यह नींद थी, सपना था  या केवल भ्रम


ऑंखें बंद करते ही 
दिखने लगता है वह 
वादों को पूरा करने का 
वादा करते हुए 
सपनों को हकीकत में बदलने के 
सपने दिखाता हुआ 
आसमान में उंगली से छेद करने के 
मंसूबे से हाथ लहराता हुआ
बदलाव के लिए बार-बार बदलाव 
की पुकार लगाता हुआ
आँख खुलते ही बिखर जाती  है 
उसकी आवाज, उसका साज 
एक स्वप्न-नाट्य की तरह


अब वह महामंच पर है 
क्षण-क्षण बदलते हुए अपना रूप-रंग 
उसके पास रंग-विरंगी पोशाकें हैं 
अदेखे, अनसुने अनगिनत चेहरे हैं 
रोज नए नाटक, रोज नया रिहर्सल
इसके बावजूद कि कोई अक्षर उभरता नहीं
काले कैनवस पर काली पेन से 
लिख रहा है लगातार 
पूछ रहे हैं लोग 
आखिर कब ख़त्म होगा ये इन्तजार


४ सावधान रहना दोस्त
-------------------------------


सावधान रहना साथी 
मौसम से बहुत सावधान रहना
वह ठीक से अपना पता नहीं देता 
हवाएं कभी कुछ नहीं बताती
तुम देखते हो पेड़ों पर पत्तों को फड़फड़ाते हुए
हिलते हुए और बाहर आ जाते हो सड़क पर
अच्छी लगती है भीगी हवा
दूर कहीं बरसात हो रही होती है
तुम्हारे भीतर उतरती है हवा
दिन भर की थकान और ताप को सोखती हुई
तुम नहीं जानते कि इसी हवा में 
एक तूफान भी होता है छिपा हुआ
जो किसी भी समय तुम्हारे परखचे उड़ा सकता है
पेड़ को जड़ों से उखाड़ कर 
फेंक सकता है तुम्हारे सिर पर 
तुम्हारे घर की छत को चकनाचूर कर सकता है
नरम तने की तरह मोड़ कर 
उछाल सकता है दीवारों में लगे लोहे
नहीं बताती हवा किस क्षण
वह आंधी में बदलेगी और किस क्षण तूफान में


सावधान रहना साथी समुद्र से
वह कभी नहीं बताता उसके हृदय में कितना लावा है
कितने पहाड़ धधक रहे हैं उसके भीतर
उसका सीना चीरकर आसमान की ओर उठने के लिए 
जानता हूं तुम्हें तट पर घूमना बहुत पसंद है
सागर तुम्हारे भीतर बसता है
अपनी लहरों, मूंगों, मछलियों और चट्टानों के साथ
कई बार उसके सीने पर उठती लहरों को छूकर
लहर बन जाता है तुम्हारा मन
नावें लेकर मछलियां पकड़ना चाहते हो तुम
तुम नहीं जानते कब उसकी उद्दाम लहरें 
फूंकार भरती बढ़ेंगी तुम्हारी ओर
और रेत पर पड़े तिनकों की तरह तुम्हें निगल लेंगी
तुम्हारे ऊपर पटक देंगी कोई चट्टान 
एक क्षण में तुम्हें इतिहास के किसी अतल-असित 
गह्वर में दफ्न कर देंगी जीवाश्म की शक्ल में 
नहीं बताता सागर कि वह कितना गहरा है
उसके भीतर कितनी उत्ताल तरंगे हैं
तट के ऊपर धावा बोलने को बेचैन


सावधान रहना साथी 
पहाड़ों की यात्रा करते हुए
माना कि बर्फ से ढंकी चोटियां बरबस खींचती है अपनी ओर
सुबह की धूप में जलते हिमाच्दछादित शिखर 
रोम-रोम में भर देते हैं मोहक शीतल लपट
माना कि पहाड़ों के आंगन में खिले फूल 
सम्मोहित करते हैं अपने रूप गंध से 
पहाड़ों पर बादल भी बतियाते हैं पास आकर 
उड़ने लगता है मन उनके साथ 
सफेदी में घुलकर खो जाते हो तुम 
जब भी होते हो पहाड़ पर 
लेकिन भनक तक नहीं लगती दोस्त
पता नहीं चलता कि किस पल
दरकने वाली है तुम्हारे पांव के नीचे की चट्टान
किस पल खिसकने वाली है आंखों में जमी बर्फ
किस चोटी के पीछे जमा हो रहा है पानी 
पहाड़ छिपाये रखता है अपने भीतर 
चहचहाती घाटियों को  डुबो देने वाली साजिशें 
पहाड़ से सावधान रहना
वह कभी भी रेत, कीचड़ और सैलाब में बदल सकता है


सावधान रहना अपने हाथों से 
तुम्हें अपनी मुट्ठी पर बहुत भरोसा है
जब चाहते हो भिंच जाती है
कभी भी जरूरत पड़ने पर 
ललकार में बदल जाती है 
हवा में तन जाती है 
अनगिनत मुट्ठियों में बदल जाती है
मानो या न मानो पर कभी भी
एक हाथ इनकार कर सकता है
दूसरे हाथ के साथ लहराने से
तनने से, मुट्ठियों में बदलने से


सावधान रहना 
जब कोई भी साथ न हो
जब लालच के बवंडर मंडरा रहे हों
जब पाखंड के चक्रवात घुमड़ रहे हों
चाहे जितने खराब मौसम से सामना हो
सावधान रहना दोस्त
ताकि लड़ते हुए भी  
बने रह सको मनुष्य 
मनुष्य की तरह मरकर भी
झूठ के खिलाफ लड़ते रहोगे
भविष्य के हर युद्ध में खड़े मिलोगे


५ जीवन 
--------------------


जैसे पेड़ मर-मर कर जीवित हो उठता है
जमीन पर गिरे हुए अपने बीजों में 
उसी तरह मैं भी बार-बार मरना चाहता हूं
नये सिरे से नयी जमीन में उगने के लिए 
मैं बार-बार मृत्यु से टकराता रहता हूं
मैं जानता हूं कि मृत्यु का सामना करके ही 
मैं जीवित रह सकता हूं हमेशा


६ मेरा होना 
-------------------
मैं फूल होना चाहता हूं
गंध बांटने के लिए 
हर पल हमेशा, हर एक को


मैं नदी होना चाहता हूं
निरंतर बहती हुई
कोई भी प्यासा न लौटे मेरे पास से 
सारा जग पीये फिर भी 
लबालब रहूं में पानी से भरी हुई


मैं सूरज होना चाहता हूं
अंधेरों के खिलाफ 
युद्ध का बिगुल फूंकता हुआ
सबको जगाता हुआ
चमकता रहूं सबकी आंखों में 
अपनी-अपनी रौशनी की तरह


मैं पेड़ होना चाहता हूं
सबको छांव दे सकूं
फल बाट सकूं
कभी गिरूं तो जलकर 
आंच दे सकूं भूख को


मैं होना चाहता हूं सबके लिए
दोस्त के लिए, दुश्मन के लिए 
मानुष के लिए, अमानुष के लिए भी 


मैं होना चाहता हूं
सबके होने में या न होने में 
मैं होना चाहता हूं 
इस तरह कि मैं होऊं ही नहीं


७ मैं मुझमें 
---------------------


जो बीत गया 
वह मुझमें ही है
जो बीत रहा है 
वह भी मुझमें ही है
और जो बीतने को तैयार है
वह भी मुझमें ही है
बंद कोंपल की तरह खुलने को आतुर


समय के एक छोर से
दूसरे छोर तक हूं मैं
अनादि, अनंत
भीगता हुआ अपनी ही बारिश में
तपता हुआ अपनी ही आग में 
जमता हुआ अपने  ही शीत में


यह जो जंगल है
खुद को ही पार करने में असमर्थ
मुझसे ही रचा गया है
इसके पेड़, फूल, फल, पत्तियों में 
इस पर जीने वाले अजगरों में
चीटियों, घड़ियालों, मगरमच्छों में 
मैं ही दिखता हूं प्रतिपल
खुद को ही निगल जाने को बेचैन


यह जो पर्वत है
उत्तुंग, अनावृत, अछोर
असंख्य उपत्यकाओं पर खड़ा 
पिघल कर झरनों में गिरता हुआ
झीलों को अपनी मजबूत
अंजुरी में थामे 
बादलों से खेलता हुआ
बर्फ से लदा 
सदियां समेटे हुए अपने भीतर
मैं ही खड़ा हूं इसमें, इसके हर रूप में


यह जो नदियां हैं 
पृथ्वी की धमनियों की तरह 
जीवन को जल से सींचती हुईं
यह जो झीलें हैं
असंख्य जीवन को 
अपनी अंकवार में समेटे हुए
यह जो झरने हैं
जीवन का संगीत रचते हुए
यह सब मैं ही हूं


सूरज की तरह चमकता हुआ
चंद्रमा की तरह शीतल करता हुआ
तारों की तरह झिलमिलाता हुआ
स्थिर नीलाकाश का आभास देता हुआ
समूचे ब्रह्मांड में बनता-बिगड़ता हुआ
मैं ही हूं, मैं ही हूूं, केवल मैं हूं, केवल  

८. एक बयान
----------------
मुझे पसंद नहीं है
फूलों का इस तरह खिलना
मनमाने रंगों में 


मैं चाहता हूं कि सारे फूलों में 


एक रंग हो, एक आभा 


एक मूल और एक बीज


पहाड़ को, नदी को


जंगल को, धरती को


कह दिया गया है कि


वे मेरी खुशी का खयाल रखें


मैंने तुम्हारी उम्मीदें जगायी


तुम्हें सपने दिखाये


तुम्हारी उम्र को ललकारा 


तुमसे जिंदगी के 


कठिन सवाल पूछे


तुम्हारी भुजाओं पर  सवार होकर


छू लिया आसमान


तुम्हें मेरे ऊपर हो न हो


मुझे तुम पर भरोसा है


अब सोने दो मुझे


सपनों में खोने दो


जवाब मत मांगो


सवाल मत पूछो


मत कहो कि मैं चुप हूं


मैं चुप रहा ही नहीं कभी  


चुप रह ही नहीं सकता 


बोलना मेरा शगल है, शौक है


आदत है, कमजोरी भी 


मैं बोलता हूं तो बस बोलता हूं


क्या बोलता हूं, पता नहीं


सही या गलत, नामालूम 


मैं चुप रहता तो 


हस्तिनापुर और पाटलिपुत्र 


मेरा मजाक क्यों उड़ाते 


तक्षशिला मुझे मुंह क्यों चिढ़ाती


मैं बोलता हूं


इसीलिए चाहता हूं


आप  बोलें, वे  बोलें, सब के सब बोलें


यह मेरी परम सहिष्णुता है


मेरे समर्थकों को 


सख्त हिदायत दी गयी है 


वे मेरी भाषा पर न जायें


मेरी तकरीर का अनुवाद न करें


मेरा मंतव्य समझें 


मेरी सुने लेकिन मेरी न सुनें


अब सब ठीक-ठाक है


मैं कहता हूं कमल 


वे सुनते हैं कीचड़


मैं कहता हूं सवा सौ करोड़ 


वे सुनते हैं हिंदू


मैं कहता हूं काम-काम


वे सुनते हैं राम-राम


मैं कहता हूं संविधान


वे सुनते हैं गीता गान


आप को लगता है


वे मुझसे सहमत नहीं हैं


मैं आप से सहमत नहीं हूं


आप  मुझसे सहमत नहीं हैं 


इतनी शिकवा-शिकायतें ठीक नहीं


आप  की हर दस्तक सुनी गयी


जरूरी नहीं कि हर बार


दरवाजा खोल ही दिया जाये


आप ने जब मेरे दरवाजे पर


पहली दस्तक दी


मैं प्रार्थना में था


हे, ईश्वर हर हृदय में 


प्रेम भर दे


असहमति, तर्क और


विचार के भ्रम को मिटा दे


जब मैं प्रार्थना में होता हूं


मेरे कान, मेरी आंखें बंद होती हैं


न सुनता हूं, न देखता हूं


आप ने फिर आवाज लगायी


मेरे हाथ में झाड़ू था


मुझे पूरे देश को साफ करना है


मैं सोच रहा था..


कहां, किसे, कैसे


पहले साफ करना है


आप ने सांकल दरवाजे पर दे मारी


नारे लगाये, कविताओं के गोले फेंके


जलते हुए पोस्टरों से वार किया


पर कैसे सुन पाता मैं


योग कर रहा था


भागवत-पाठ और 


बिहार के पुनर्पाठ को छोड़ दें तो


अभी अच्छा चल रहा है मेरा योग


सुबह, दोपहर, शाम


अनुलोम-विलोम, भस्रिका प्राणायाम  


ओम् हुम् सीते राधे राम


९. शिनाख्त
------------
काले कपड़ों से ढंके


तुम्हारे काले दिमाग


पढ़ लिये गये हैं


डिकोड कर ली गयी है


झूठे जिहाद की


नृशंस कूटलिपि


तुम्हें पहचान लिया गया है


तुम्हारी कटी हुई ऊंगलियों से


तुम्हारे जहरीले रक्त से


तुम्हारी विदीर्ण आंतों से


तुम्हारे चीथड़े हो गये दिमागों से


तुम जिंदा भी  


पकड़े गये हो कई बार


कभी  मुंबई, कभी  न्यूयार्क


और कभी पेरिस में


कभी  एलओसी पर लगी


कंटीली बाड़ फांदते हुए


तुम्हारे बयानों में दर्ज हैं


तुम्हारे सारे पते


सारा बारूद, सारी गोलियां


टैंक, मशीनगनें और तोपें


तोरा-बोरा से एबटाबाद तक


रक्का से मक्का तक 


तुम्हारी मांदें


चाहे जितनी गहरी हों


बहुत देर तक तुम्हें 


छिपाकर नहीं रख सकतीं


तुमने सुने नहीं


फतवे, फरमान


तुमने गुने नहीं


अपीलें, अरमान


बामियान के बुद्ध पर


जब तुमने गोले बरसाये


उसकी धूल दुनिया भर के


आसमान में छा गयी


पेशावर की क्रूर-कथा


अब भी  घर-घर में 


सुनाती है खौफजदा हवा


शब्द की ताकत


शांति, तर्क और खोज की आस्था


इतिहास के सबक


और समय के  सीने पर टंगी


मानवता की विरासत को 


पिंजरे  में बंद कर 


भून  देने  का तुम्हारा मंसूबा


कामयाब नहीं होगा


हमने बहुत कोशिश की


मनुष्यता के  अनगिनत शब्द


फेंके तुम्हारी ओर


लेकिन विनम्र होने की जगह 


तुमने उन पर दागी मिसाइलें


तुम्हें नहीं मालूम


शब्द  जितनी बार घायल हुए 


जितने छले गये 


उतने ही मजबूत होते चले गये


१०. नाटक
--------------
माना कि मिट्टी में प्राण है


सूरज रोज धूप


उलीच जाता है खेत में


हवा इतनी है कि अंकुर


फूट सकते हैं


माना कि


मिट्टी, धूप और हवा


तना, पत्ती और फूल में


तबदील हो सकते हैं


माना कि मौसम


अचानक खराब न हो तो


फसलों में दाने


आ सकते हैं


एक दाना हजार


दाने में बदल सकता है


माना कि


कुछ भी हो सकता है


अगर मिट्टी में डाला गया


बीज ठीक-ठाक हो


लेकिन अक्सर


ऐसा क्यों नहीं होता


जब फसलें खड़ी होती हैं


हम खुश होते हैं


कटती हैं तो


हम निराश हो जाते हैं


आदमी की भूख


बढ़ जाती है


हर फसल के बाद


हम कभी मौसम को दोषी


ठहराकर चुप हो जाते हैं


कभी खेत बांट लेते हैं


यही नाटक हर बार होता है


आदमी केवल दर्शक है, श्रोता है


११. मैं नदी हूँ 


  -----------


नदी के पास


होता हूँ जब कभी


बहने लगता हूँ


तरल होकर


नदी को उतर जाने


देता हूँ अपने भीतर


समूची शक्ति के साथ


उसके साथ बहती


रेत, मिट्टी, जलकुंभी


किसी को भी


रोकता नहीं कभी


तट में हो


बिल्कुल शांत, नीरव


या तट से बाहर


गरजती, हहराती


मुझे बहा नहीं पाती


तोड़ नहीं पाती


डुबा नहीं पाती


मैं पानी ही हो जाता हूँ


कभी उसकी सतह पर


कभी उसकी तलेटी में


कभी उसके नर्तन में


कभी उसके तांडव में


फैल जाता हूँ


पूरी नदी में


एक बूंद मैं


महासागर तक


रोम-रोम भीगता


लरजता, बरसता


नदी के आगे


नदी के पीछे


नदी के ऊपर


नदी के नीचे


कैसे देख पाती


वह अपने भीतर


पहचानती कैसे मुझे


खुद से अलग


जब होता ही नहीं


मैं उसके बाहर


जब कभी सूख


जाती है वह


निचुड़ जाती है


धरती के गर्भ में


तब भी मैं होता हूँ


माँ के भीतर सोई नदी में


निस्पंद, निर्बीज, निर्विकार


१२.  मिटकर आओ 
     ----------------
नहीं तुम प्रवेश नहीं


कर सकते यहाँ


दरवाजे बंद हैं तुम्हारे लिए


यह खाला का घर नहीं


कि जब चाहा चले आए


पहले साबित करो खुद को


जाओ चढ़ जाओ


सामने खड़ी छोटी पर


कहीं रुकना नहीं


किसी से रास्ता मत पूछना


पानी पीने के लिए


जलाशय पर ठहरना नहीं


सावधान रहना


आगे बढ़ते हुए


फलों से लदे पेड़ देख


चखने की आतुरता में


उलझना नहीं


भूख से आकुल न हो जाना


जब शिखर बिल्कुल पास हो


तब भी फिसल सकते हो


पाँव जमाकर रखना


चोटी पर पहुँच जाओ तो


नीचे हजार फुट गहरी


खाई में छलाँग लगा देना


और आ जाना


दरवाजा खुला मिलेगा


या फिर अपनी आँखें


चढ़ा दो मेरे चरणों में


तुम्हारे अंतरचक्षु


खोल दूँगा मैं


अपनी जिह्वा कतर दो


अजस्र स्वाद के


स्रोत से जोड़ दूँगा तुझे


कर्णद्वय अलग कर दो


अपने शरीर से


तुम्हारे भीतर बाँसुरी


बज उठेगी तत्क्षण


खींच लो अपनी खाल


भर दूंगा तुम्हें


आनंद के स्पंदनस्पर्श से


परंतु अंदर नहीं


आ सकोगे इतने भर से


जाओ, वेदी पर रखी


तलवार उठा लो


अपना सर काटकर


ले आओ अपनी हथेली


पर सम्हाले


दरवाजा खुला मिलेगा


यह प्रेम का घर है


यहाँ शीश उतारे बिना


कोई नहीं पाता प्रवेश


यहाँ इतनी जगह नहीं


कि दो समा जाएँ


आना ही है तो मिटकर आओ


दरवाजा खुला मिलेगा


-- डा. सुभाष राय
मो. 09455081894
विनीत प्लाजा, फ्लैट नं 1
विनीत खंड-6, गोमतीनगर, लखनऊ


1 comment:

  1. -डॉ. सुभाष राय जी की सभी ११ कवितायेँ बहुत अच्छी लगी
    प्रस्तुति हेतु धन्यवाद आपका

    ReplyDelete

टिप्पणी-प्रकोष्ठ में आपका स्वागत है! रचनाओं पर आपकी गंभीर और समालोचनात्मक टिप्पणियाँ मुझे बेहतर कार्य करने की प्रेरणा देती हैं। अत: कृप्या बेबाक़ी से अपनी राय रखें...