Sunday, January 22, 2017

छायावादी प्रेत की भटकती आत्माएं: उमाशंकर सिंह परमार

छायावादी प्रेत की भटकती आत्माएं- उमाशंकर सिंह परमार
(नरेश सक्सेना, ज्ञानेन्द्रपति, श्री प्रकाश शुक्ला की काव्यात्मकता पर)

भाषा व्यक्ति के परिवेश से जन्म लेती है। व्यक्ति जिस यथार्थ को जी रहा होता है, जिस यथार्थ से उसके संवेग और चिन्तन विनिर्मित होते हैं, वही यथार्थ उसको भाषा प्रदत्त करता है। इस तरह से भाषा रचना में कवि का अन्तर्ग्रथित व्यक्तित्व है। कवि की संवेदना कितनी वास्तविक है, कितनी आभासी है और कितनी नकली है, भाषा ही बता सकती है। यदि कवि ने बगैर पीड़ाबोध संवेदना के कविता लिखी है तो निश्चित है उसकी भाषा कलात्मक अभिरुचि चमत्कार को अधिक तरजीह देगी। वास्तविक संवेदनाएं कला की बजाय अभिव्यक्ति की गहनता पर बल देती हैं। 
कलाएं तभी सक्रिय होती हैं जब संवेदनाएं संवेदना होकर महज मानसिक चिन्तन के स्वरूप में, अवचेतन में विद्यमान रहती हैं। छायावाद आभासी यथार्थ का बड़ा युग माना जाता है। इसके अधिकांश कवि कलावादी थे। मगर जैसे ही आलोचना ने अपने औजारों की बुनियादी अवधारणाओं में तब्दीली की वैसे ही छायवाद के बड़े-बड़े दुर्ग ढहते चले गये और निराला एक बड़े कवि के रूप में स्थापित हो गये। निराला छायावाद की हर एक विशिष्टता से पृथक थे। वह कलात्मक आबद्धता को अस्वीकार करते थे, संवेदनाओं को आभासी रखने के समर्थक नहीं थे, वह कविता का  जन्म ही यथार्थ संवेदन से मानते थे- “ देखा एक दुखी निज भाई / दुःख की छाया पड़ी हृदय में / झट उमड़ वेदना आई'' संवेदनाओं का नकलीपन निराला में नहीं था। बाकी समस्त कवियों में संवेदन आभासी काल्पनिक रहा, शायद यही कारण है वो अतिकल्पना, अतिभावुकता, कलात्मक चमत्कार में उलझकर रह गये। आज का युग उत्तर आधुनिकता का युग है। वैश्विक पूँजीवाद आवारा पूँजी के व्यापक हस्तक्षेप का युग है। जन-जीवन की शैली सामाजिक संरचनाओं का पारम्परिक ढाँचा बदल चुका है। जिस लोकतत्र को हमारे विचारकों और आम जनता ने बड़े भावुक अन्दाज में ग्रहणकर मानवीय विमुक्ति का आगाज़ समझा था, आज उसका स्वरूप भी तब्दील होकर जन-विरोधी हो चुका है। सत्ता और पूँजी की अति निकटता ने मूल्यों में जोरदार हस्तक्षेप किया है। इस हस्तक्षेप से एक तरफ तो आम जनता में इस लोकतत्र के प्रति गहरी अनास्था उत्पन्न हुई है तो दूसरी तरफ कविता ने प्रतिक्रियावादी मान्यताओं से मुठभेड़ करने के लिए नये तरीके शिल्प का आविष्कार कर लिया है। यही कारण है आज कलात्मक उक्ति वैचित्र्य की जगह सपाट कथनों को तरजीह दी जा रही है। आभाषी यथार्थ की बजाय वास्तविक यथार्थ के बिम्ब अधिक परिलक्षित हो रहे हैं। सामाजिक संरचनाओं के आधार पर नयी विकृतियों जातिगत वर्गगत संवेदनाओं और अनुभूतियों को तरजीह दी जा रही है। यह युग का तकाजा है आज थोथी भावुकता, आसमानी कल्पना, भाषा का चमत्कार, बलात् लयबद्धता और भारी-भरकम उपमाओं का जमाना नहीं है। वास्तविक यथार्थ को वैचारिक प्रतिबद्धता के साथ सीधे कहने की परम्परा है। लेकिन कवि भी मनुष्य है, उसकी अपनी सामाजिक और जातीय स्थिति होती है, उसकी अपनी वर्गीय समझ भी होती है। 
उच्च-मध्यम वर्गीय बुर्जुवा परिवेश और परिवार में पले-बढ़े व्यक्ति की भाषा और संवेदना कैसे वास्तविक यथार्थ को तरजीह देगी? एक दलित लेखक की भाषा और संवेदना कैसे सामन्ती सवर्णों की भाषा से मेल खाएगी? स्त्राr की जमीनी अनुभूतियाँ और पुरुष वर्चस्ववादी दृष्टि की मुखालफत कैसे पुरुषवादी नजरिए से मेल खाएगा? यह सवाल महज नजरिए का नहीं है, कविता की भाषा का सवाल है। जातीय और वर्गीय संरचनाएं व्यक्ति की भाषा सुनिश्चित करती हैं और भाषा कवि की संवेदना और यथार्थ का निरूपण करती है। कवि की वैचारिक समझ यदि यथार्थ की संरचनाओं के अनुरूप, सवालों के अनुरूप, नये उभारों और हाशिए की अस्मिताओं के अनुरूप नहीं है तो कविता पर सवाल उठना स्वाभाविक है। आज हिन्दी कविता में शौकिया और पेशेवर कवियों का बड़ा समूह है  जिन्होंने संवेदना और यथार्थ को उपेक्षित किया है। उनके लिए कविता सरोकारों के लिए नहीं पुरस्कारों के लिखी जाती है। कविता का सम्बन्ध समाज की वास्तविक संरचनाओं से नहीं चमत्कार से होता है। कविता की शक्ति अनास्था प्रतिरोध और वर्ग-चेतना का निरूपण नहीं मनोरंजन और चर्चा है। इन शौकिया कवियों ने केवल चर्चा और पुरस्कार के लिए लिखा है। विचारधारा और सरोकार के सहारे आज की सामाजिक अवस्थितियों, अस्मिताओं और अन्तर्विरोधों का विश्लेषण बिल्कुल नदारद है। यदि है भी तो बुर्जुवा छायावादी काव्य-फार्मूलों का इतना अधिक प्रभाव है कि यथार्थ विकृत और आभासी बनकर निष्प्रभावी हो जाता है। समकालीन हिंदी कविता में छायावादी फार्मूलों के आधार पर चमत्कार को नमस्कार करने वाले तीन कवि बड़े चर्चित हैं। 
नरेश सक्सेना लखनऊ के हैं, बुजुर्ग हैं, इनके दो कविता संग्रह अब तक प्रकाशित हो चुके हैं-पहला कविता संग्रह-समुद्र में हो रही बारिस और दूसरा कविता संग्रह है-सुनो चारूशीला। दोनों कविता संग्रह काफी समय अन्तराल के बाद प्रकाशित हुए हैं। मगर भाषागत चमत्कार ने मम्मट परिभाषितकाव्य रसिकों' को बहुत आकर्षित किया जिससे चर्चा में बने रहे, पुरस्कृत भी हुए। 
दूसरे कवि हैं ज्ञानेन्द्रपति, जो साहित्य अकादेमी पा चुके हैं, बड़े कवि हैं, इनकी खूबी है कि लोकधर्मी और मीडियाकर दोनें तरह के आलोचक इन्हें पंसद करते हैं। अहा ग्राम्य जीवन वाले  लोकधर्मी आलोचक इन्हें लोकधर्मी कवि कहते हैं, भले ही इनकी कविता में लोक नामक किसी भी तत्व का सिरे से अभाव हो। संशयात्मा पर साहित्य अकादेमी पाकर ज्ञानेन्द्रपति जी बड़े कवि के रूप मे स्थापित हैं। 
तीसरे, विश्वविद्यालय के प्रोफेसर होने के कारण अपने शिष्यों और विश्वविद्यालयी राजनैतिक चौखटों में जकड़े आलोचकों और पुरस्कारों के बीच लोकप्रिय कवि श्री प्रकाश शुक्ला। इनके कई कविता संग्रह चुके हैं अभी भी निरन्तर लिख रहे हैं। इनकी खाशियत है कि हिंदी के तमाम बड़े प्रकाशकों और मठों और राजनीतिज्ञों के बीच इनका महत्व है और कविता कमजोर और भावुक विलाप होने के बावजूद भी अपनी पहचान और साख के बूते पाठकों को सुनाने में सफल हो जाते हैं। व्यक्ति का पद और पहचान कैसे व्यक्ति की रचनात्मकता बन जाती है, यह देखना है तो अशोक बाजपेयी, केदारनाथ सिंह और श्री प्रकाश शुक्ला से बेहतर कोई उदाहरण नहीं है। बहुत से कमजोर कवि जैसे अशोक कुमार पांडेय, जीतेन्द्र श्रीवास्तव आदि अपने लेखन और कवि कर्म के कारण पहचान नहीं बना सके, बल्कि कविता की राजनीति और अपने सम्बन्धों के कारण पुरस्कृत और कुचर्चित हुए। मगर कविता के क्षेत्र में कोई भी गम्भीर समझदार आलोचक इनका नाम नहीं लेता है। श्री प्रकाश शुक्ला भी ऐसे कवि हैं। इन तीनों कवियों को यदि गहराई से पढ़ा जाय, इनकी कविताओं का आज की सामाजिक जातीय संरचना के आधार पर मूल्यांकन किया जाए तो ये बुरी तरह से असफल कवि हैं। चमत्कार तीनों को प्रिय है या यह भी कह सकते हैं कि तीनों चमत्कारवादी कवि हैं। तीनों में बलात् चमत्कार पैदा करने की ऐसी लालसा दिखाई देती है कि ये यथार्थ को विकृत कर उसका भी सत्यानाश कर देते हैं। संवेदनाओं का नकलीपन तो इनकी अपनी वर्गीय अवस्थिति का तकाजा है। जब इन्हें वास्तविक यथार्थ को अस्वीकार करना ही है तो संवेदनाएं कैसे वास्तविक होंगी? इनका काव्य छायावादी, अतिभावुकता, अतिकाल्पनिकता, चमत्कार, युग विरोध एवं भाषाई क्रीड़ा को तरजीह देता है। कल्पनाजन्य ऊँची उड़ानें इनकी कविता का कच्चा माल है। छायावाद का प्रभाव इनकी कविता में इस कदर है कि छायावादी युगीन सामन्ती समाजों के मूल्य भी इनकी कविता में उतर आए हैं। परन्तु इनके आलोचक इन्हें श्रेष्ठ कवि कहते हैं। आलोचकों ने इनकी ओढ़ी हुई विचारधारा को ही वास्तविक विचारधारा मान लिया है जबकि ऐसा नहीं होना चाहिए। कविता का विश्लेषण कवि की विचारधारा तय करता है। जब कविता के रचनात्मक मूल्य छायावादी और भाषा चमत्कारपूर्ण है तो कवि कैसे वैचारिक रूप से आधुनिक हो सकता है? ऐसा कोई उदाहरण किसी भाषा के किसी कवि में नहीं है जो परम्परागत मूल्यों के आधार पर आधुनिकता का विश्लेषण कर सके, हिंदी में तो बिल्कुल नहीं है। कला और विचारधारा को लेकर हिंदी में हमेशा विवाद रहा है। इन तीनों कवियों ने खेल यह किया है कि इनकी आत्मा तो कलावादी रही मगर मुद्दे आधुनिक ग्रहण किए। हर युग की अपनी समर्थ भाषा होती है जो युग के सवालों से मुठभेड़ करती है। यदि भाषा का रंग-ढंग छायावादी है तो कवि के मुद्दे कितने ही आधुनिक हों उसका रहस्य पकड़ में जाता है। यही इन तीनों के साथ है। प्रगतिशीलता और कलावाद दोनों पृथक अवधारणाएं हैं, जब हम खुद को प्रगतिशील कहते हैं तो भाषा चमत्कार द्वारा यथार्थ को सूक्ष्म करते हुए विलोपित कर देना उचित नहीं है। हमारा ध्येय यथार्थ है, वही यथार्थ जिसे हम अनुभव करते हैं और अपनी वैचारिकता के खाँचे से उसे परिपक्व कर उसमें अन्तर्निहित प्रतिक्रियावादी तत्वों सम्भावनाओं से विरत होकर प्रस्तुतीकरण करते हैं। तब वह प्रभावोत्पादक मन्तव्यपूर्ण होता है। अनुभव के बाद हमें विचार की आवश्कता होती है कि चमत्कार की। चमत्कार क्षणिक मनोरंजन दे सकता है लेकिन किसी वृहद सरोकार की प्रतिपुष्टि नहीं कर सकता है। नरेश सक्सेना, ज्ञानेन्द्रपति, श्री प्रकाश शुक्ला की कविताओं में सबसे बड़ी कमी इसी रचना प्रक्रिया की है। विचारधारा की बजाय भाषिक रंग-रोगन चमत्कार के प्रति अदम्य लालसा ने कविता को मात्र क्षणिक उबाल बना दिया है। मन में क्षण भर के लिए आनन्द की अवायवीय प्रस्तावना तो कर सकती है मगर स्थाई प्रभाव छोड़ने में बुरी तरह असफल हो जाती है। यहां तक कि चमत्कार का सम्मोहन इतना प्रभावी है कि कविता छायावादी अतिभावुकता की आधुनिक प्रतिकृति सी लगने लगती है। भावुकता, उपमानों का बाहुल्य, कलात्मक असंगतियाँ, भाषा की गैर-जरूरी तोड़-फोड़ कविता को इहलोक से परे आलौकिक अनुभूतियों की आत्मनिष्ठता से युक्त कर देती है। ऐसा लगने लगता है कवि इस लोक और समाज का प्राणी नहीं है, वह संवेदनों के महासागर में नहाया हुआ कल्पनाजीवी देवता है जो लौकिक रीति जन से अपरिचित और अनभिज्ञ है। उसका बोध यथार्थ से अधिक कल्पना में रमता है, वह कल्पना से जीवनी शक्ति उपार्जित करता है और कल्पना में ही जीवन देखता है। नरेश सक्सेना के दोनों कविता संग्रहों में मुझे एक भी कविता ऐसी नहीं मिली जिसमें वो इस लोक की जमीन में खड़े होकर इस लोक को देख रहे हों। वो दिव्यलोक से ही इस लोक का अवलोकन करते हैं। इस बुरी आदत के कारण उनकी कविता वैचारिकता का घोर तिरस्कार करने लगती है और संवेदना बोध को भी फर्जी प्रतीत होने लगता है। उदाहरण के रूप में मैं उनकी कवितापीछे छूटी हुई चीजें' का एक अंश दूंगा, इस अंश में देखिए भोथरी और हवाई कल्पना के कारण कवि का अनुभव झूठा और वैचारिकता प्रतिक्रियावादी हो गया है- “कभी-कभी रातों के सन्नाटे में / चौंक कर उठ जाता हूँ / सोचता हुआ / कि कहीं यह सन्नाटा किसी ऐसी चीज के / टूटने का तो नहीं / जिसे हम हड़बड़ी में बहुत पीछे छोड़ आए हों।'' सन्नाटा ध्वनि हीनता है मगर कवि की सहृदयता देखिए, वह इसमें भी टूटने की ध्वनि सुन रहा है। और ऐसी टूटन का आभास कर रहा है जो कहीं पीछे छोड़ आया है। सन्नाटे में टूटन की आवाज विलक्षण कल्पना है, लोग-बाग वाहवाही कर सकते हैं मगर पीछे छूटने वाली चीजों के प्रति कवि का सम्मोहन समझ में नहीं रहा है। आखिरकार कवि को अपने अतीत से इतना मोह क्यों हैं? जो टूट रहा है वह नया बना भी रहा है। कवि अपने सामन्ती गौरव और श्रेय-प्रेय की टूटन से विचलित है। वह नहीं चाहता कि नयी अस्मिताएं अपने हक और वजूद की प्राप्ति करे, इसलिए वो अपने वजूद और गौरव को रातों की नींद के बीच में भी स्मरण करने लगता है। ऐसा अतीतवाद और अतीत को बचाने की लालसा हमें छायावादी कवि प्रसाद में ही दिखती है। यदि कवि भाषा के चमत्कार और सन्नाटे की चमत्कारिक परिकल्पना में रमता तो शायद अतीतवाद सीधे तौर पर कविता में आता। स्वाभाविक है जब पूँजीवाद अपने झूठे गौरव की टूटन देखता है तो वह मानसिक रूप से अपने अतीत की ओर दौड़ता है वहीं विश्राम पाता है। यदि वह अतीत की भी दौड़े तो उड़नछू कल्पनाओं और उपमाओं में सौन्दर्यबोध करने लगता है, यह दिव्यबोध कविता की रचनात्मकता बन जाता है, ऐसा बोध ज्ञानेन्द्रपति की कविताओं में भरा-पूरा है। जैसा मैंने बताया कि चमत्कार कविता में दो अपरूपों में आता है, पहले अपरूप का उदाहरण है-नरेश सक्सेना जिनकी कविताएं अतीत के प्रति आग्रही हो जाती हैं तो दूसरा रूप है ज्ञानेन्द्रति और श्रीप्रकाश शुक्ला। इनका चमत्कार कल्पनाजन्य उपमानों में दम तोड़ देता है। अमूमन हर कवि उपमानों का प्रयोग करता है मगर उसका एक वैचारिक आधार होना चाहिए निरा कल्पना नहीं थोपनी चाहिए। यदि केवल कल्पना आधारित चमत्कार सिरजना है तो आप उपमानों के प्रयोग से बचिए, इससे केवल चमत्कारी भर रह जाएंगे। मगर अप्रस्तुत विधानों पर भी कल्पना थोपकर आप कविता को निरा मजाक बनाकर छोड़ देते हैं। मैं ज्ञानेन्द्रपति की एक कविता का उदाहरण दूँगा, जिसका शीर्षक है-‘मकर-संक्रान्ति के दिवस का शीर्षक। इस कविता का आरम्भ ही अयथार्थ से कोसों दूर है मगर सबसे आकर्षक खंड वह है जहाँ पर वह अतिकल्पना के शिकार हो जाते हैं, देखिएवह एक पतंग है / बिजली के तार पर अटकी हुई एक पतंग / रह-रह हिलाती अपना चंचल माथ / नभ को ललकती / एक वही तो है इस पृथ्वी पर / पार्थिवता की सबसे पतली पर्त / जो अपने जिस्म से / आकाश का गुरुत्वाकर्षण महसूस करती है '' यह पंतग का सौन्दर्यबोध है जिसे कवि मकर संक्रान्ति को देख रहा है और कल्पना की हवाई यात्रा देखिए कि पंतग इस धरती का अनुभव करने लगती है और गुरुत्वाकर्षण बल को भी प्रकट करने लगती है। पंतग का ऐसा उच्चाशयी बिम्ब मात्र छायावादी कवियों के यहाँ प्राप्त होता है। आधुनिक कविता में विशेषकर जब वैश्विक पूँजीवाद फासीवाद का पोषक बनकर जन-मन-गण को तहस-नहस कर रहा हो, हत्या राजनीति बन गयी हो, मकर संक्रान्ति के समय लहलहाते फूलते खेत अकाल और सूखे की मार झेल रहे हों। किसान आत्महत्या कर रहे हों तब मकर संक्रान्ति का यह बिम्ब बहुत मजा देता है। मगर आज के प्रतिरोधी से हम ऐसी आशा नहीं कर सकते हैं। ऐसे बिम्ब वही कवि दे सकता है जिसे दीन दुनिया से मतलब हो, जो यथार्थ से घबराकर कल्पना लोक में विचरण कर रहा हो, उसकी कविता आम जन पाठकों के लिए हो ऐसी कविताएँ, देवपुरुषों के मनोरंजन हेतु होती हैं। ज्ञानेद्रपति से भी आगे बढ़कर श्री प्रकाश शुक्ला की कविता है वो कल्पना और चमत्कार के चक्कर में विशुद्ध छायावादी प्रलाप लिखने लगते हैं। उन्होंने एक कविता लिखी है- ‘ अषाढ़ के बादल' बादल जैसे विषय पर बहुत से कवियों ने कविता लिखी है, केदारनाथ अग्रवाल तो बादल द्वारा क्रान्ति और परिवर्तन का आवाहन करते हैं। कालिदास जैसा सामन्तयुगीन कवि मेघदूतम में बादल द्वारा कृषक ललनाओं का भी हित कराता है। हरिऔंध ने पवन दूतिका में हवा द्वारा जनकल्याण गाँधीवादी सिद्धांतों की विवेचना कराई है। मगर श्री प्रकाश शुक्ला इन सबसे आगे हैं। वो बादल पर लिखने के पूर्व कम से कम निराला का बादल राग पढ़ लेते तो अच्छा रहता, कम-से-कम बादल की अर्थवत्ता का विस्तार कर लेते पर वह ऐसा क्यों करें? उन्हें अर्थ की जरूरत नहीं है, उनकी कविता तो महज मनोरंजन और ऐन्द्रिक सुखबोध की माँग करती है, वही उनके काव्य सरोकारों में भी संस्कार की तरह जड़ हो गया है। निराला आदि कवि अपने युग से टकरा रहे थे-श्री प्रकाश शुक्ला को युग से टकराने की जरूरत नहीं है, देखिए उनकी कविता बादल और कवि बादल के सामने क्या माँग रखता है-“हवाओं में सुगंध बिखेरो/ पत्तों को हरियाली दो / धरती को भारीपन / कविता को गीत दो। '' कोई कह सकता है कि यह आज का कवि है? सुगन्ध, हरियाली, गीत आदि तो नवाबी ठाठ के साधन हैं। आम आदमी को रोटी की जरूरत होती है, उसे सुगन्ध से क्या मतलब? हरियाली केवल पत्तों के लिए माँग रहे हैं, खेतों के लिए माँगने से कवि का कवित्व खतरे में जाता। और जनवादी होने का खतरा पैदा हो जाएगा। आज का युगबोध कविता में भूल से भी आना उन्हें पुरस्कारों और सत्ता पोषित कॉरपोरेट प्रकाशनों की लिस्ट से वंचित कर सकता है इसलिए वह हवा हवाई मदभरी माँगों की लिस्ट बादल को थमा देते हैं। इन तीनों कवियों ने चमत्कार की लालसा में वैयक्तिक सुखबोध वैयक्तिक सौन्दर्य दर्शन का वायवीय काल्पनिक प्रत्याहार किया है। यह छायावादी कवि का मौलिक गुण था जो एन्द्रिक संवेदनों में ही आनन्द की अनुभूति चाहता था वही ये तीनों कर रहे हैं। मुझे अजीब लगता है कि आलोचकों और शिष्यों की अन्धी परम्परा बगैर कवि को सम्पूर्णता से जाने-बूझे कैसे प्रगतिशील कवि होने का तमगा प्रदत्त कर देती है। कम-से-कम कवि की कविताओं को उनके युगबोध से जोड़कर देख लेते, इससे आलोचक महोदयों को चारण बन जाने का खतरा तो होता। 
कवि की सामाजिक और आर्थिक स्थिति उसकी रचना-प्रक्रिया का निर्धारण करती है। तीनों कवि पुरस्कृत हैं। घर भी धन-धान्य से पूर्ण हैं, जीवन कष्टों में रहा नहीं। कविता उनके लिए सरोकार नहीं है, शौक है। इसलिए इन तीनों की मानसिक भाषिक बनावट छायावादी भूत से उबर नहीं सकी है। वैयक्तिकता और अपनी वर्गीय जातीय धार्मिक स्थिति इतना अधिक प्रभावी है कि तीनों सामाजिक यथार्थ अस्मिताओं की सत्ता को अस्वीकार करने लगते हैं। भाषा और चमत्कार भी वैयक्तिकता की देन है। वैयक्तिकता जब सन्तुलित आकृति में उभरती है तो कविता होने की शर्तें सामाजिक समझ बरकरार रहती है। जब वैयक्तिकता खतरनाक हो जाती है तो कवि इतिहास और मुल्क की संस्कृति को भी नकारने लगता है वह प्रतिक्रियावादी हो जाता है। ऐसा प्रतिक्रियावाद नरेश सक्सेना में बड़ा भयावह रूप धारण कर लेता है। वो इतिहास बोध का गलत प्रमाणन करने लगते हैं। उनकी कविता छह दिसम्बर बहुत चर्चित कविता है, कवि की मंशा कुछ और कहने की है मगर आत्मग्रस्त वैयक्तिकता के खतरनाक आग्रह कुछ और कहला देते हैं। देखिए कविता-“ इतिहास के बहुत से भ्रमों में से / एक यह भी है / कि महमूद ग़ज़नवी लौट गया था / लौटा नहीं था वह / यहीं था / सैंकड़ों बरस बाद अचानक / वह प्रकट हुआ अयोध्या में / सोमनाथ में उसने किया था / अल्लाह का काम तमाम / इस बार उसका नारा था / जय श्रीराम।''  महमूद गज़नवी आक्रमणकारी था। उसने धर्म का प्रचार करने के लक्ष्य से सोमनाथ मन्दिर को नहीं तोड़ा था बल्कि मन्दिर की अकूत धन सम्पत्ति लूटने के लिए मन्दिर तोड़ा था। यह बात इतिहास सिद्ध है। मगर कवि चमत्कार की लालसा और अपने अवचेतन में विद्यमान प्रतिक्रियावादी आग्रहों के समक्ष नतमस्तक है। वह बाबरी मस्जिद ध्वन्स करके देश में दंगा कराने वाली साम्प्रदायिक ताकतों की तुलना महमूद गजनवी जैसे डकैतों से कर देता है। डकैत एक आदमी का नुकसान करते हैं जबकि साम्प्रदायिकता समूचे मुल्क की सुख-शान्ति भाईचारा को नष्ट कर देती है। यह कविता बाबरी मस्जिद ध्वन्स की लूट से तुलना करके साम्प्रदायिकता जैसे भीषण अपराध को कमतर करके आँक रही है। यह तो वैसा ही तर्प है जैसा भाजपा देती है। भाजपा गजनवी और गोरी का उदाहरण देकर अपने हिन्दुत्व को प्रतिक्रिया ठहरा देती है। इसमें भी कवि ने बाबरी मस्जिद टूटने को गजनवी की प्रतिक्रिया ठहराने की कोशिश की है। दूसरी कमी है, यह तर्प भी असंगत है क्योंकि डकैती और दंगों में अन्तर होता है। दोनों की तुलना नहीं की जा सकती है। यदि दोनों की तुलना की जाती है जैसा कवि ने किया है तो इतिहास का इससे भीषण कुपाठ नहीं हो सकता है। कवि को इतिहास के निकषों का तार्किक बोध तो होना ही चाहिए मगर नरेश सक्सेना को इतिहासबोध जैसी वैचारिक अवधारणाओं से दूर-दूर तक का नाता नहीं है। उनका नाता केवल चमत्कार से है, विचार से नहीं है। चमत्कार का प्रभाव इतना व्यापक है कि नरेश सक्सेना अपने अहंमूलक छद्म को भी उघाड़कर रख देते हैं। सामाजिक-राजनैतिक सरोकारों जरूरतों का ख्याल रखे बगैर वह अपनी सामन्ती और शासक वर्गीय अवधाराणाएं और सोच थोपने लगते हैं। साम्प्रदायिकता एक जरूरी विषय है, हमें इसके खिलाफ आवाज़ उठानी चाहिए मगर इसका आशय यह नहीं है कि हम इसमें कल्पना का आरोपण कर इसका सौन्दर्य रस आस्वादित करें। बहुत से कवियों ने इस विषय पर कविताएं लिखी हैं, मगर इस विषय पर सौन्दर्य की सृष्टि करना जताता है कि कवि इस मुद्दे पर गम्भीर नहीं है। वह केवल इसे फूहड़ मज़ाक समझता है। यह बात आखिरकार पीड़ितों के पक्ष में नहीं जाती बल्कि इस तरह के मजाक से प्रतिक्रियावादी शक्तियाँ ही मजबूत होती हैं। ऐसे अगम्भीर और भद्दे मजाकों के लिए नरेश सक्सेना की कविताएं कुख्यात हैं। 
देखिए एक कविता जो सुनो चारूशीला कविता संग्रह में है। इसका शीर्षक है रंग- “ सुबह उठ कर देखा तो आकाश / लाल , पीले, सिंदूरी और गेरू, रंगों से रंग गया था / मजा गया, आकाश हिंदू हो गया है/ पड़ोसी ने चिल्लाकर कहा / अभी तो और मजा आएगा / मैंने कहा / बारिश आने दीजिए / सारी धरती मुसलमान हो जाएगी।'' आकाश की छटा देखकर कवि को हिन्दू और बरसात की हरियाली देखकर मुसलमान याद आने लगे। कवि को इस पर मजा भी रहा है। साम्प्रदायिकता जातीयता का ऐसा चमत्कारिक सौन्दर्य आस्वादन किसी कवि ने आज तक किया होगा। हिन्दुस्तान का वैचारिक तबका मनुष्यता की हत्यारी इस फासीवादी वृत्ति से आक्रान्त रहा है मगर नरेश सक्सेना की कविता से प्रतीत हो रहा है कि वो जरा भी गम्भीर नहीं हैं। यदि आप साम्प्रदायिकता के खिलाफ कुछ कह नहीं सकते तो कम-से-कम अपनी वैयक्तिक बहुसंख्यक वृत्ति को छिपा तो सकते हैं मगर ऐसा नहीं हो सकता है। इसके लिए इतिहासबोध और देश की वस्तुस्थिति की जानकारी जरूरी है। वैचारिकता जरूरी है जो उनके पास नहीं है। ऐसी बकवास विचारहीन-संवेदनहीन कविताओं का नरेश सक्सेना में अम्बार लगा है। नरेश सक्सेना की भाषाई कबड्डी चमत्कार इतिहासबोध और गम्भीर मुद्दों को पलीता लगाकर उड़ा देती है और प्रतिक्रियावाद का पक्षपोषण करने लगता है तो ज्ञानेन्द्रपति और श्री प्रकाश शुक्ला की भाषाई कबड्डी सामाजिक अस्मिताओं का मज़ाक बना देती है। ज्ञानेन्द्रपति में चमत्कार की लत इतनी खतरनाक है कि यह केवल छायावादी अति-काल्पनिकता नकली भावुकता का बिम्ब ही नहीं रचती बल्कि स्त्राr विरोधी मर्दवादी रवैये का पक्षपोषण करने लगती है। हम सब नारीवाद पर लम्बे भाषण देते हैं मगर मन में छिपे पित्रसत्तावादी मर्द से कभी विमुक्त नहीं हो पाते हैं। यदि पुरुष समुदाय स्त्राr की जैविक सामाजिक कठिनाईयों के प्रति संवेदनशील होता तो स्त्राr के मातृत्व पर कभी सौन्दर्यबोध का आसमानी रंग चढ़ाता ज्ञानेन्द्रपति की एक कविता है- “एक गर्भवती औरत के प्रति'' इस कविता को कवि महाशय घनघोर उपमानों और अभिधानों से थोपकर उसके निजी दुख, वेदना ममत्व अनिवार्यता का मजाक बना देते हैं। ऐसा मजाक उस पीड़ा की अनदेखी है जिस पीड़ा को प्रसव के वक्त गर्भवती अवस्था मे एक स्त्राr भोगती है। स्त्राr की देह सदैव से सामन्तवादी  पुरुषों  के लिए सौन्दर्य का स्रोत रही है। वह कष्ट में रही है तब भी सामाजिक बाध्यताएं उसके विरोध चीख को नैतिक मूल्यों द्वारा दबा देती रही हैं। यही कारण है आज स्त्रियों को अपना पक्ष खुद लेकर रचनात्मक आन्दोलन करना पड़ा है मगर ज्ञानेन्द्रपति जैसे चमत्कारवादी कवि आज भी स्त्राr की अस्मिता और उसके सवालों से मुठभेड़ करने में कतराते हैं। देखिए इस कविता में एक मर्द की समूची वर्चस्ववादी कुंठा उबाल पर है- “ कितनी फैलती जा रही है परिधि तुम्हारे उदर की / तुम क्या जानो / कि अंतरिक्ष तक चली गयी है यह विरूप गोलाई और ये पेड़-पौधे मकान, सड़कें, / यह पोल वह कुत्ता / उछलता वह मेढक / रँभाती गाय बाड़ कतरता माली क्षितिज पर का सूरज / सब उसके अंदर चले गये हैं और तुम भी। '' उप् इतनी संवेदनहीनता स्त्राr के मातृत्व का इतना घोर अपमान? और यह एक संवेदनशील और पुरस्कृत कवि कर रहा है। यदि स्त्राr का पेट बढ़ गया है तो आप भी समझ रहे हैं और स्त्राr भी समझ रही है कि पेट क्यों बढ़ा है। यह भी पुरुष की देन है लेकिन स्त्राr यदि सच को कह भी रही है तो कवि बड़ी बेदर्दी से खंडन करते हुए कह रहा हैतुम क्या जानो' अर्थात स्त्राr अपनी पीड़ा नहीं समझती केवल मर्द समझता है। यह सोच वही है जिसे मनुस्मृति में प्रमाणित किया गया है, जो कवि के मनोजगत में घर करके बैठ गयी है अर्थात स्त्राr जन्मणा मूर्ख होती है। नहीं तो कवि कोतुम क्या जानो' कहने की क्या जरूरत थी। अब कवि की समझदारी भी देखिए कि वह पेड़-पौधे मकान पोल खम्भे गाय बाड़ा यहाँ तक कि मेढक भी उसके पेट में घुसेड़ देता है। हद हो गयी फूहड़ और मर्दवादी पुंठा की। और देखिए, आखिरी पंक्ति में वह स्त्राr को भी उसके गर्भाशय में डाल देता है। मगर अपने आपको बचा लेता है क्योंकि अपने आपको बचाने से मर्दवाद का सामन्ती अहसास बचा रहता है। यह तो स्त्राr के प्रति बेहद संकुचित और वर्चस्वादी मर्द का बयान है। जब कलात्मक और फर्जी कल्पनाओं की पूँछ पर लटक कर कविता लिखना है तो जाहिर है कहीं कहीं आप सामाजिक संरचनाओं और दबी- कुचली अस्मिताओं का विरोध करेगें। ऐसा विरोध छायावाद में भी नहीं दिखता है। छायावादी कविता में देह है मगर अपनी गरिमा के साथ उपस्थित है। यहाँ तो कवि इस गरिमा को भी तार-तार कर रहा है। इसी तरह उनकी दूसरी चर्चित कविता  इंतजार है। इस कविता मे वेश्यावृत्ति पर कवि ने एक स्त्राr को शिकारी तक कह दिया है। भाषागत खिलवाड़ और संवेदनहीनता के कारण उसे भयानक भूत और प्रेतों-सा चित्रित किया है। देखिए कविता-“ जाएगी उनमें वह चमक जो केवल / बुरी स्त्रियों की आँखों में होती है / लालसा और घृणा से भर देने वाली चमक / आहिस्ता चलती हुई / अपने शिकार की तलाश में निकलेगी इस मैदान में।'' वेश्याएं समाज का ऐसा तबका है जो मर्दवादी समाज की देन हैं। गरीब मजलूम औरतें-मर्दों के हाथ का खेला बनकर इस गन्दगी में उतरती हैं। यह गन्दगी किसी समुदाय की नहीं है, मर्द प्रजाति की है। औरत-मर्द के बगैर कैसे वेश्या बनेगी? मर्द ही उसे वेश्या बनाते हैं और मर्द ही शुचितावाद की दुहाई देते हुए उसके इस मजबूर पेशे पर तंज कसते हैं। यहां तक कि उसे भूत प्रेत और शिकारी तक कहने में नहीं चूकते हैं। कवि ने इस कविता में अपने भीतर स्थित शुचितावादी मर्द का सामन्ती चेहरा उजागर कर दिया है। इस कविता के अन्त में कवि कहता है - वह शिकार के लिए पूरी तैयारी के साथ निकलती है मगर खुद शिकार हो जाती है, यह अंश मर्दवादी सत्ता की जीत को प्रकट करता है। मतलब स्त्राr कितना भी वेश बदल ले वह मर्द का ही शिकार होगी। इस कविता में कवि स्त्राr के प्रति कोई संवेदना नहीं रखना चाहता, वह केवल मर्द को विजित दिखाना चाहता है, नहीं तो उसका ध्यान उस पहलू पर अवश्य जाता जिस कारण वह इस पेशे में उतरी है, कि उसके रूप और लालसा चमक का विधान करता। स्त्राr विरोध का यही अंधा भटकाव श्री प्रकाश शुक्ला में भी मिलता है। चमत्कार और कलाकारी ने इन कवियों के चिन्तन को लील लिया है, ये क्या लिख रहे हैं, इन्हें खुद नहीं पता चल रहा कविता किस बुनियाद में खड़ी की जा रही है यह भी इनको नहीं पता। बस कविता लिख रहे हैं, चमत्कार पैदा कर रहे हैं। कवि ने कहा कि श्रृंखला छापी जा रही है। पुरस्कार झटक रहे हैं। शिष्यों से फेसबुक में कविता लगवा रहे हैं। लाइक पा रहे हैं। आत्ममुग्धता का भीषण राग गा रहे हैं और आलोचक इनके पालतू आलोचक भी इन्हें समझाने की कोशिश नहीं करते कि हे गुरूदेव, हे कविवर, आज की स्थिति क्या है और आप कहाँ भटक रहे हैं, उन्हें बताना चाहिए कि यह दौर जनवादी कविता का है और आप छायावादी भूत की आत्मा बने हुए हैं। इनकी एक कविता है - “एक स्त्राr घर से निकलते हुए भी नहीं निकलती है'' आम तौर पर मर्दवादी समाज स्त्राr के शोषण के दो तरीके अपनाता है- एक तो वह उसको भयभीत करता है या फिर उसका महिमामंडन करता है। स्त्राr का घर से निकलना मर्द की हार है, यह सामन्ती सामाजों की समझ होती है इसलिए वो उसे घर की देवी आदि कहकर उसे उस व्यवस्था से बाँधे रखता है। उसके इस बन्धन का महिमामंडन और मजाक भी करता रहता है। मगर स्त्राr घर से बँधी क्यों इस बात पर चतुर मर्द चुप्पी मार लेता है। श्रीप्रकाश शुक्ला ऐसे ही चतुर खिलाड़ी हैं। उनकी कविता देखिएएक स्त्राr घर से निकलते हुए भी नहीं निकलती / वह जब भी घर से निकलती है / अपने साथ घर की पूरी खतौनी लेकर निकलती है / अचानक उसे याद आता है / गैस का जलना / दरवाज़े का खुला रहना / नल का टपकना और दूध का दहकना।'' औरत की इस विशिष्टता का रेखांकन करने के पूर्व उनको सोचना चाहिए कि रेखांकन की यही महिमामंडन प्रवृत्ति स्त्राr को घर से नहीं निकलने देती है, वह अपने बन्धनों में जकड़ी हुई परिवार की सीमाओं में कैद रहती है और कवि द्वारा प्रयुक्तखतौनी' शब्द तो और भी अधिक घातक है। इस शब्द की व्यंजकता स्त्राr की इस गुलामी का मजाक उड़ा रही है। शुक्ल जी को बताना चाहिए कि स्त्राr जब घर से बाहर जाती है खतौनी कैसे ले जाती है। खतौनी तो दस्तावेज़ होता है क्या वह घर से बाहर जाते समय रजिस्ट्री, खतौनी, खसरा, नक्सा सब लेकर निकलती है? भाषागत चमत्कार के सम्मोहन में कवि स्त्राr की इस विसंगति विडम्बना को मजाक बना देता है। जबकि यह विसंगति मर्दवादी समाज की ही देन है। शुक्ल जी में स्त्राr केवल मजाक के ही रूप में नहीं है वह पुरुष की मर्दवादी अभिव्यक्ति के रूप में भी उपस्थित होती है। स्त्राr विरोध इतनी गहराई से धँसा है कि वह इन्हें माँस के लोथड़े से ज्यादा कुछ नहीं है। इनकी कविता है दुपट्टा। इस कविता में कवि एक स्त्राr के मुख से दैहिकता का ऊल-जुलूल वक्तव्य दिला रहा है। कविता में उपस्थित स्त्राr और कोई नहीं है। यह स्त्राr शुक्ल जी हैं, वह स्त्राr शुक्ल के मनोवेगों आर्थात सामन्तवादी पुरुष के मनोवेगों का प्रतिनिधित्व कर रही है। देखिए कविता-“ दुपट्टा लहरा रहा है शानदार / हवा चल रही है तेज़ / बादल बरसने को हैं / मौसम रहा है लगातार बदल / तय करना कठिन है / दुपट्टा क्यों लहरा रहा है / अंग क्यों भीगे है / उभार क्यों नही है / रंग क्यों गायब है / सवाल करती है युवती / क्यों नहीं किसी को याद आते / कालिदास / या फिर उनकी शपुंतला।'' इस कविता में कवि यह कह रहा है कि बरसात हो हवा चले और स्त्राr के उभरे अंग हों तो अन्य सारे भाव समाप्त हो जाते हैं। तो यथार्थ दिखता है सामाजिक विभेद दिखते हैं, केवल अंगों का उभार दिखाई देता है।  यदि स्त्राr का दुपट्टा लहरा रहा है तो स्त्राr की देह-पुरुष के लिए खुला आमत्रण है। और स्त्राr भी यही चाहती है। यह मानसिकता मनोरोग है और भीषण अपराधों का कारण है। कम-से-कम आधुनिक कवि से ऐसी घटिया और बेहूदी कविता की आशा नही की जा सकती है। यह कविता पढ़कर मुझे तरस आता है उन पुरस्कार दाताओं पर जो तमाम राजनीतियों के आधार पर समाज विरोधी रचनाओं को पुरस्कृत करके अस्मिताओं के खिलाफ घोर अपराध कर रहे हैं। बात यदि स्त्राr तक सीमित होती तो कोई बात नहीं थी। इन कवियों की दो तिहाई कविताएं यथार्थ दलित शोषित मजलूम तबकों का भी विरोध करती हैं। तीनों कवियों के किसी भी संग्रह में नजरिया स़ाफ नहीं है। कवि अपने आपको कहीं भी संवेगात्मक रूप में उपस्थित नहीं करता है, वह यथार्थ के करीब तो आता है मगर दर्शक की तरह भोक्ता की तरह नहीं आता है। यह भी एक किसिम का अभिजात्यवाद है। सच्चा कवि जिस घटना का बिम्ब देता है तो वह घटित होने वाले हर पल की संवेद अनुभूति करता है, वह महसूस करता है, व्यथित होता है, जब वह दर्शक के रूप में आता है तो तो संवेदना रह जाती है आत्मीयता रह जाती है। वह उपदेशक बनकर पाठक को आशाराम बापू की तरह उपदेश देने लगता है। कलावादी कौतुक प्रेमी कविताओं में आत्मीयता का क्षरण अक्सर देखा जाता है। देखिए नरेश सक्सेना की एक कविता डूबना। इस कविता में कुछ सैलानी सूर्य को डूबते हुए देख रहे हैं, वहीं पास में एक बच्चा नदी में डूब रहा है। अब आप तय करिए कि कवि डूबने वाले के प्रति कितना संवेदनशील है-“ खेलता हुआ बच्चा / जाने कब गिरा छटपटाया और डूब गया / देखते रहे सब /पर्वत के पीछे धीरे-धीरे डूबता हुआ सूरज / पानी में सदियों से डूबी चट्टान। '' मुझे प्रतीत हो रहा है यहां कवि भी सैलानियों की भीड़ में है, वह भी सूरज देखने आया है। बच्चे का डूबना वह देख रहा है एक दर्शक की तरह। यदि कवि दर्शक होता तो सहानुभूति और आत्मीयता भी दिखती कि बाकी सैलानियों को कोसता और उपदेशात्मक भंगिमा अख्तियार करता। यहां आत्मीयता का अभाव इसी से प्रकट होता है कि कवि महज एक पंक्ति में डूबने का जिक्र करके खतम कर देता है क्योंकि उसकी ललक तो शाम की ललझौंही अभिराम दृश्य लगी हुई है। डूबने को महज सांकेतित कर देना और उसके साथ तुरन्त डूबते सूर्य का जिक्र सिद्ध कर देता है कि कवि ने किसी ऐसे दृश्य को नहीं देखा, यह फेक दृश्य है, कल्पित है। कवि महज उपदेश का नैतिकतापूर्ण छौंका लगा रहा है। आत्मीयता का अभाव संवेदना की फर्जी संकल्पनाएं मात्र नरेश सक्सेना में ही नहीं बल्कि तीनों कवियों में है। तीनों को फर्जी बिम्ब गढ़ने की आदत है। देखिए ज्ञानेद्रपति की कविता बीज। इस बीज कविता में कवि का लगाव किसानों की वस्तुस्थिति के प्रति नहीं है बल्कि बीज के आदिम महिमामंडन के प्रति है। जैसा कि मैंने पहले बताया है कि कौतुक प्रिय कवि या तो अतीतवादी हो जाता है या यथार्थ विरोधी विज्ञान विरोधी हो जाता है। छायावादी कवियों में या फिर इन तीनों कवियों मे देखा जा सकता है-बीजव्यथा कविता आप देखिएभारतभूमि के अन्नमय कोश के मधुमय प्राण / तितलियों की तरह ही मार दिये गये / मरी पूरबी तितलियों की तरह ही / नायाब नमूनों की तरह जतन से सँजो रखे गये हैं वे / वहाँ सुदूर पच्छिम के जीन-बैंक में / बीज-संग्रहालय में / सुदूर पच्छिम जो उतना दूर भी नहीं है / बस उतना ही जितना निवाले से मुँह / सुदूर पच्छिम जो पुरातन मायावी स्वर्ग का है अधुनातन प्रतिरूप / नन्दनवन अनिन्दय / जहाँ से निकलकर / आते हैं वे पुष्ट दुष्ट संकर बीज। '' इस कविता में कवि फर्जी ज्ञान बघार रहा है। सभी जानते हैं कि किसानों की दुरव्यवस्था का सबसे बड़ा कारण परम्परागत खेती है। अब कवि को परम्परागत बीज और ढंग इतना सुहा रहा है कि वह खाद, मशीन आदि का विरोध कर बैठता है। यदि कवि ने कभी किसानों से मुलाकात की होती या किसानों की वस्तुस्थिति देखी होती तो इतने भावुक ढंग से पुराने बीज का महिमामडंन करता, और यदि किसानों से मिला भी है तो इस कदर आधुनिक संसाधनों का विरोध देखकर प्रतीत होता है कि वह किसानों को मानसून और साहूकारों का गुलाम ही देखना चाहता है। वह किसानों के विकास से विक्षुब्ध है। यहां भी आत्मीयता की बजाय भारत के सबसे गरीब तबके किसानों के प्रति नफरत की भावना का अवगुठंन है। नहीं तो बीज के माध्यम से अतीतवादी संस्कृति और व्यवस्था की चाहत कवि में होती। दरअसल बुर्जुवा वर्ग हमेशा अपने विचारों के माध्यम से हाशिए की अस्मिताओं के पक्ष में हुए परिवर्तनों का विरोध करता है, वह ऐसी स्थिति में अतीत का तर्प लेता है। यह प्रतिक्रियावादी आदत है जैसे संघ और पौराणिक पांखडों के पोषक समूह इतिहास और विज्ञान को झूठा बताते हुए प्राचीन काल के विज्ञान को आज के विज्ञान से श्रेष्ठ बता देते हैं। ऐसे कुतर्प का मतलब बस एक ही होता है येन केन प्रकारेण अपनी पुरातन सामन्ती व्यवस्था को जायज ठहराना और तमाम जातियों और अस्मिताओं को दबाकर रखना। इन तीन कवियों में यथार्थ के प्रति अधिक लापरवाह और जुमले गढ़ने में माहिर कवि हैं श्री प्रकाश शुक्ला जी। पता नहीं किसानों की दुरव्यवस्था और भागीदारी से वंचित करते इतिहास का उन्होंने कभी अध्ययन किया है कि नहीं, मैं नहीं जानता पर उनकी कविताएं किसी सर्वसमावेशी उपदेशक पुरोहित की तरह आदर्शवाद बघारती दिखाई देती हैं। उनका आदर्शवाद बनावट और बुनावट में विशुद्ध अभिजात्य और छायावादी है। जैसे छायावाद मेंहे ग्राम देवता नमस्कार' के गीत गाए जाते थे वही गीत, वही आदर्शवाद शुक्ला में भी है। उनकी कविता देखिएकिसान'  इस कविता में पौराणिक ब्राह्मणवादी जुमलों का नाटकीय प्रयोग करते दिख जाते हैं। पौराणिक ब्रह्म का स्वरूप इन्हें इतना भाता है, मैं सोच नहीं सकता था। बाबा सूरदास के शब्द उधार लेते हुए ये भी लिख रहे हैं- “रूप रेख गुन जाति जुगति बिनु निरालम्ब कित धावै'' वैसे शुक्ला जी अपनी उच्च अभिजात्य पौराणिक ब्राह्मणवादी जुमलों से किसान को भी ब्रह्म की तरह अदृश्य करने की पूरी कोशिश करते हैं- “ उसका कोई रूप है / उसकी कोई जाति / उसका कोई घर है / उसकी कोई पाति / आकाश उसकी छत है / मौसम उसका आभूषण / जिसे आप बुढ़ापा कहते हैं / वह है उसकी आज़ादी / जिसे ढहने के पहले / उसने सुरक्षित कर लिया है / धरती के नीचे / अपने रकबे में '' पता नहीं शुक्ला जी किस युग में जी रहे हैं। समाचार पत्रों में इन्हें किसानों की आत्महत्या की हुई लाश नहीं दिखाई देती है, इन्हें किसान की वर्गीय अवस्थिति दिखाई देती है, इन्हें किसान का कर्ज दिखाई देता है, उसकी जातिगत शोषण परिधि दिखाई दे रही है। मतलब किसान की कोई पहचान ही नहीं है। एक तो मीडिया ने किसान को उपेक्षित किया, दूसरे इस भूमंडलीकरण और राजनैतिक भागीदारी से विस्थापन ने उसको मरणासन्न किया। किसी भी जनसंचार माध्यम ने उसकी वास्तविक स्थिति पर कोई सकारात्मक बयान नहीं दिया और जब कविता की बात आती है तो शुक्ला जी और केदारनाथ सिंह जैसी छायावादी भूत की आत्माएं उनकी पहचान ही गुम कर देते हैं। और घर-बार भी छीन लेते हैं और तिस पर मजाक भी उड़ा रहे हैं कि बुढ़ापा उसकी आजादी है। अरे, बुढ़ापा उसके ऊपर संकटों का पहाड़ है, जब वह अपने श्रम से विरत होकर केवल मौत का इंतजार करता है। उसके पास किसी विश्वविद्यालय की मोटी पेंशन तो होती नहीं कि वह आराम से बैठकर खाएगा, वह जीवन भर अपना खून पिलाकर पेट भरता है और बुढ़ापे में अपने अस्तित्व के लिए हड्डियाँ गलाकर पिलाता है। वह खेत में बुढ़ापे को गाड़कर नहीं रखता है। हद है संवेदनहीनता और बेरूखीपन कि श्रम और शोषित तबके का ऐसा आपमान वह भी पौराणिक जुमलों के बूते शुक्ला जैसे जनविरोधी शौकिया कवि ही कर सकते हैं। ऐसे कवियों को कवि कहने में भी कोफ्त होती है। भाववादी, अतीतवादी कल्पनावादी कलाधिराज समाज की वास्तविक पड़ताल नहीं कर सकते हैं। उनकी कविता में उपस्थित किसान, मजदूर और भूख क्रान्ति इत्यादि देखकर कभी मत सोचिए कि यह प्रगतिशील भी होगा। प्रगतिशीलता, यथार्थवादी अवधारणा है, वह एक विचार है जबकि कल्पनावादी होना यथार्थ का निषेध है। यदि यहां पर यथार्थ उपस्थित होता भी है वह कल्पना और अतिभाववाद से इतना विकृत हो जाता है कि उसकी वास्तविकता के निष्कर्ष शोषित समुदाय के वास्तविक यथार्थ का प्रतिबिम्बन करने की बजाय शोषक समुदाय की अभिजन सौन्दर्य दृष्टि का पोषण करने लगते हैं। यही कारण है जब ज्वलन्त यथार्थ की बात आती है तो  छायावादी प्रेत के शिकार कवि काल्पनिक वृत्ति के सहारे तमाम किस्म की भूमिका बाँधते हुए अन्त में विकृत पूँजीवादी मानसिकता के परम्परागत भय का रहस्य खोलने लगते हैं। देखिए वरिष्ठ कवि नरेश सक्सेना की कविता, यह कविता अंश उनकी भूख कविता से लिया गया है। भूख इंसान की जरूरत, यह क्रान्ति का आगाज करती है, आक्रोश की जननी होती है मगर कविराज इसे हत्यारी और अमानवीय बता रहे हैं। दरअसल शासकवर्ग आम शोषित जनता गरीब जनता से भयभीत रहता है। निश्चित है वह भूख से भी भयभीत होगा उसे परिवर्तन और क्रान्ति से भी भय होता है अस्तु, नरेश सक्सेना यदि भूख को हत्यारी सिद्ध कर रहे हैं तो यह उनकी अपनी निजी वर्गीय और जातीय सोच है। कविता देखिए-  “भूख सबसे पहले दिमाग़ खाती है / उसके बाद आँखें / फिर जिस्म में ब़ाकी बची चीज़ों को / छोड़ती कुछ भी नहीं है भूख / वह रिश्तों को खाती है / माँ का हो बहन या बच्चों का / बच्चे तो उसे बेहद पसन्द हैं / जिन्हें वह सबसे पहले / और बड़ी तेज़ी से खाती है।'' कवि भूख के बाद उत्पन्न आक्रोश से इतना भयभीत है कि वह परिवर्तनकारी सत्ता भूमिका को अस्वीकार कर उसे अपराधी बना देन में तुल गया है। कविता में भी कहीं भी व्यवस्था का सवाल नहीं उठाया गया जबकि भूख व्यवस्था की देन है। कवि को भूख को गाली देने में अधिक अभिरुचि है, कि भूख को जन्म देने वाली सामाजिक शोषक शक्तियों का उद्घाटन करने में रुचि है। यह दृष्टि का सवाल है कला का या फर्जी मनगढ़ंत उपमानों और रूपकों का सवाल नहीं है। इस कविता में कवि की पूरी आस्था अभिजात्य उच्चवर्ग के साथ है। वह क्रान्ति को नकार कर व्यवस्था को बचाए रखने का हिमायती बन गया है। इन तीनों कवियों की अभिजात्य वर्गीय अवस्थिति स्पष्ट है। यदि हम कला और भाषा कौतुक की काई हटाकर देखें तो कविता में सामन्तवादी मनोवृत्ति की वैष्णवी छाया का निर्मल जल प्राप्त हो जाता है। देखिए ज्ञानेन्द्रपति की कविता, इस कविता में श्रम का कलात्मक महिमामंडन किया गया है। मतलब इनमें कला का सम्मोहन इस हद तक है कि श्रम जैसे संवेदनशील विषय से भी सौन्दर्य आस्वादन करने में चूक नहीं करते हैं। निराला जी ने जब देखा कि एक औरत पत्थर तोड़ रही है तो उनकी दृष्टि उसके पसीने, उसके बच्चे और उसकी जीवटता की ओर जाती है। वो कराह उठते हैं, इससे झलकता है कि कवि देखी जाती विसंगति के प्रति कितना आत्मीय और सहृदय है, जबकि ज्ञानेन्द्रपति अपनी कविताकर्म संगीत' में लगभग वैसे ही बिम्ब को आस्वाद मूलक बना देते हैं। आप देख सकते हैं-“कपड़े पछींटता हुआ आदमी / अपने अनजाने संगीतकार बन जाता है / संगीत में मस्त हो जाता है / कर्म का संगीत धीरे-धीरे बन जाता है संगीत का क्रम '' निराला के यहां स्त्राr पत्थर तोड़ रही थी, यहाँ धोबी कपड़े धो रहा है। निराला ने पूँजीवादी व्यवस्था की विसंगति कुकर्मों पर प्रहार किया था और यहां कवि कपड़े फींचने में संगीत की मधुरिम ध्वनि आरोह अवरोह सुन रहा है। हद है संवेदनहीता और विचार विहीनता की, मुझे बड़ा अज़ीब लग रहा है कि इतनी प्रतिक्रियावादी श्रम विरोधी बुर्जुवा कविता कैसे लिख लेते हैं लोग? प्रगतिशील कवि श्रम और श्रमिक समुदायों के प्रति आत्मीयता रखता है तो वह ऐसी स्थितियों को चरित्र के रूप में प्रस्तुत करता है। चरित्र कवि की आत्मीयता की पैदाइश है। नरेश सक्सेना में चरित्र गायब है। अत उनकी चर्चा करना ही बेकार है। ज्ञानेन्द्रपति में चरित्र बहुत खोजने से मिलते हैं मगर कलावादी तिकड़मों से वो चरित्र का पूरा चाल-चरित और चेहरा बदल देते हैं। इसी कविता मे यह शगल देखा जा सकता है। श्री प्रकाश शुक्ला ने चरित्रों गढ़ने की कोशिश की है मगर गढ़ने की कला और सामाजिक समझ होने के कारण वह बुरी तरह असफल हो जाते हैं। उनकी एक कविता है घुर फेंकन लोहार। इस कविता को आप देखिए और बताइए कि श्रम समुदाय के प्रति कवि की आत्मीयता कितनी है और जुमलों के प्रति कवि की आत्मीयता कितनी है- “अपने कंघे पर टँगारी को लादे जाता घुर फेंकन लोहार / हमारे लोकतंत्र का सबसे महत्वपूर्ण नागरिक है / जब वह चलता है/ हमारे लोकतंत्र का सबसे सजग पात्र चल रहा होता है / जिसकी टाँगों टंगो में अद्भुत लोच है।'' बन्द वातानुकूलित कमरे में बैठ कर काफी और टोस्ट के साथ कविता लिखना अलग बात है और चरित्र का प्रत्यक्ष अवलोकन करते हुए उसकी संवेदनाओं को आत्मसात करना अलग बात है। शुक्ला जी बड़े आदमी हैं जो भी लिख देगें उनके चेले चर्चा कर देंगे, उन्हें किसी भी आत्मीयता और संवेदना की जरूरत नहीं है। बड़ी कठिनाई से वो श्रमजीवी समुदाय का चरित्र लाए हैं पर उनकी वर्गीय और शहरी अभिजात्य वृत्ति इतनी प्रभावी है कि वह लोकतत्र को भी उसके बीच घुसेड़ देते हैं। इससे तो लोकतंत्र पूरा फिट हो पाता है, चरित्र की कोई बखत रह जाती है। पाठक भी नहीं पता कर पाता कि कवि चरित्र गढ़ रहा है कि लोकतत्र के प्रति बयानबाजी कर रहा है। मुझे समझ नहीं आता कि चरित्र की आत्मीयता में लोकतत्र का बिम्ब कैसे? यह जुमलों के प्रति कवि की मुहब्बत का इजहार है उसे तो लोकतत्र के प्रति कोई अनास्था है चरित्र के श्रम पर कोई आस्था है। वह महज भाषा का वितान खड़ा कर रहा है तिस परलोकतत्र का सबसे सजग पात्र' कह रहे हैं। यह घटिया मजाक है। मैं शुक्ल जी से पूछना चाहता हूं कि यदि लोहार, हरिजन, पिछड़े , स्त्राऔर गरीब तबके लोकतत्र के सबसे सजग पात्र होते तो आप जैसे अभिजात्य उच्चवर्गीय सवर्ण क्या ऐसा मज़ाक करते? यह नजरिया गरीबों का उपहास है, कवि की जातीयता का निंदनीय प्रदर्शन है। ऐसी कविताओं को खारिज कर देना चाहिए। शुक्ल जी को यदि जुमलों से सम्मोहन है तो कविता की राजनीति छोड़कर जनता की राजनीति करें। आजकल लोकतत्र ऐसे ही जुमलों पर जिन्दा है। आप जैसे पुरस्कृत कवि होना वहाँ जरूरी है कम-से-कम कविता तो बची रह जाएगी। इन कवियों को समझना चाहिए कि प्रगतिशील कविता भावना रोमांस और अतिकल्पना से नहीं चलती है। इसके लिए वास्तविक सामाजिक यथार्थ का बोध जरूरी है। छायावादी आत्मग्रस्तता, वासना, दृष्टि, कलावाद और भाषाई कबड्डी की आज कोई जरूरत नहीं। आज का युग भूमंडलीकरण का युग है, विचारधारा के संकट का युग है। लोकधर्मिता को भूमंडलीकरण के सांस्कृतिक उत्पाद को उत्तर संरचनावाद से जूझना पड़ रहा है और आम जनता को साम्प्रदायिक फासीवाद से जूझना पड़ रहा है। तमाम अस्मिताएं अपना पक्ष लेकर उभार पर हैं उन तक भी नजर जाना चाहिए। दलित, स्त्राr, अल्पसंख्यक, आदिवासी, किसान, आज स्वयं में नये विमर्श का स्वरूप धारण कर चुके हैं। इन्हें वैचारिक तरीके से मूल्यांकित करने और लोक के औजारों को तैयार करने की जरूरत है। यदि ऐसे भीषण और दुर्दान्त समय में भी आपको भाषाई कलावाद, भावुकता, अतीतपन, बुर्जुवा चिन्तन भा रहा है। आपको जुमलों और अतिकल्पना से सम्मोहन है, तो इस युग के लिए और हिंदी कविता के लिए आप तीनों कवि खतरा हैं। ऐसे में यदि आपको छायावादी प्रेत की भटकती आत्माएं कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।  + उमाशंकर सिंह परमार
                                                             बबेरू बाँदा
                                                       9838610776 

2 comments:

टिप्पणी-प्रकोष्ठ में आपका स्वागत है! रचनाओं पर आपकी गंभीर और समालोचनात्मक टिप्पणियाँ मुझे बेहतर कार्य करने की प्रेरणा देती हैं। अत: कृप्या बेबाक़ी से अपनी राय रखें...