साभार:गूगल |
कई-कई दुनियाएँ गुप्त हैं जैसे,
सपनों की दुनिया यादों की दुनिया
या फिर मन में बैठी डर की दुनिया
जैसी भी दुनिया,
गहराई तक धँसती है आदमी में
और उसका अपना अलग चेहरा गढ़ती है
वह चेहरा आदमी को पहनता है हौले-हौले
और गायब होने लगता है
आदमी का अपना बेलौस असली चेहरा !
यह सब पर यकायक नहीं होता
लेकिन जब होता है तो
लुंड-मुंड इस चेहरे पर
वक़्त की राख जमने लगती है
पेशानी पर चिंता की
आरी-तिरछी लकीरें खिंचने लगती हैं
गोया कि अपनी दुनिया से निकलकर आदमी
एक अप्रत्याशित दुनिया में दाखिल हो जाता है
जहाँ दिन-रात दोजख़ की आग जलती है
जिसमें रोज़ उसका नया चेहरा चटकता है।
फिलहाल मसला यह नहीं कि
इस दुनिया में ऐसी कितनी दुनियाएँ हैं
जिसके आगोश में चेहरों की रौनकें बिगड़ रही है
बल्कि ज़रूरी है फिलवक़्त
उन चेहरों की शिनाख़्त
जो दुनिया को एक स्याह डर में
बदल देने पर आमादा हैं
बेरंग होते इस चमन में ढूँढ़नी है हमें
सियासत के वे झमाठ दरख़्त
जिनकी शाखाओं पर
अपराध की अमरलतायें फैलती हैं
जिनकी शिराएँ आदमी के मगज़ में घुसकर
डर और चुप्पियों का एक गुबार बनाती है
जो आदमी के खुशफ़हम इरादों की दुनिया को
अपनी धूल से ढक लेता है।
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यह डर हमारे ही बनाये हुये है,फ़िर इन से डर केसा??
ReplyDeleteबहुत सुंदर कविता लिखी आप ने धन्यवाद
बहुत खूब कहा है शत प्रतिशत सत्य है . इतने तरह के डरों के साये में जीते जीते तो अब आदत सी पड़ गयी है सो कुछ भी नया नहीं लगता है इसी से शायद अपने आसपास घटित कोई भी अनहोनी अब अनहोनी नहीं लगती.ऐसा लगता है ये तो होना ही था.मेरा ब्लॉग भी देखें rachanaravindra.blogspot.com
ReplyDeleteYah sach hai ki dar zeevan ko anushashit karta hai,prabhavit bhi karta hai lekin yah charam satya nahin hai.
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