गूगल: साभार |
घर वह नहीं
जहाँ आदमी रहता है
घरों में आदमी अब कहाँ रहता है
जिसे तुम घर कहते हो
वह तो एक तबेला है
लानतों के सामान यहाँ
लीदों की तरह पसरे रहते हैं
हाँ, काँखते घोड़ों को अपनी देह से उतार
जिन खूँटों से आदमी
देर रात गये रोज़ बांधता है
सहुलियत के लिये उस जगह को
तुम घर कह सकते हो
क्योंकि तब उसके रोशनदानों से दरवाजों तक
अँधेरा परदे की तरह गिरता है
और ऊब और तनाव से लिपटा
सन्नाटे के साये में
कुछ देर के लिये वह जगह
एकान्त-निकेतन में तब्दील हो जाती है
जहाँ औरतें काम से निबरती हैं
बच्चे सपने बुनते हैं और
बुड्ढे दाँत किटकिटाते हैं
पर यह सब महज़ चंद घंटों का खेल है !
दरअसल वह कोई सराय जैसा है
या बनजारों के डेरा-सा
या लोगों के दिमाग में
पलता वहम
या फिर रात की खुमारी में डूबे
उस महल सा जहाँ
दिगम्बराओं की बाँहों में
कितने ही झक्क सफ़ेद कामदेव
झूलते नज़र आते हैं !
अब न घर सोता है
न धड़
क्योंकि घर बेहद डरा-सहमा
एक इंसान है
जो मुर्गे की पहली बाँग पर
तिलमिला उठता है और
सुबह होने तक
तिनका सा बिखर जाता है।
हर पंक्ति प्रभावित करती है..... घर तो वो होता है जहाँ सुकून मिले ....अब तो मकान हैं.....
ReplyDeleteबहुत सशक्त रचना!
ReplyDeleteहाँ, भाई सुशील जी… अब घर घर कहाँ रहे ?… घर अब खौफ़ पैदा करता है… घर अब बेचैन करता है… घर अब आदमी को भीतर से तोड़ता है… वो सुकून, वो छांव, वह अपनत्व जो दिनभर का थकामांदा आदमी घर पहुँच कर पाता था, अब नहीं रहे… बहुत प्रभावी कविता !
ReplyDeleteयथार्थ के दर्शन कराती रचना
ReplyDeleteGHAR KEE VARTMAAN STHITI PAR AAPNE BADEE KHOOBSOORTEE SE
ReplyDeleteYANI NAPE - TULE SHABDON MEIN PRAKAASH DAALAA HAI .GHAR
KEE AESEE DAYNIY STHITI KO DEKHTE HUE MAINE KABHEE SHRI
MAHAVIR SHARMA KE BLOG ( SHAYAD AAPKO YAAD HO ) PAR APNEE
GAZAL KAHEE THEE . USKAA MATLA THA -
TERA MAKAAN HO YAA MERA MAKAAN HO
AESA LAGE KI MAHAL KOEE AALISHAAN HO
MAN KO SPARSH KAR JAANE WAALEE AAPKEE KAVITA KE LIYE
AAPKO DHERON BADHAAEEYAN AUR SHUBH KAMNAAYEN .
अब न घर सोता है
ReplyDeleteन धड़
क्योंकि घर बेहद डरा-सहमा
एक इंसान है
जो मुर्गे की पहली बाँग पर
तिलमिला उठता है और
सुबह होने तक
तिनका सा बिखर जाता है।....
आज घर कहाँ रहे हैं...बहुत संवेदनशील और सशक्त प्रस्तुति..
अब न घर सोता है
ReplyDeleteन धड़
क्योंकि घर बेहद डरा-सहमा
एक इंसान है
जो मुर्गे की पहली बाँग पर
तिलमिला उठता है और
सुबह होने तक
तिनका सा बिखर जाता है।
bahut achi rachna hai eakdam sach ke kareeb bahut2 badhai...
sundar kavitaa susheel bhai, अपना संग्रह भिजवाईये .
ReplyDeleteप्रभावशाली....
ReplyDeleteसत्य कहा घर तो भावनाओं से बनता है...
मन को छूती सुन्दर रचना...
apne hi vajood ko lalkarti ek kavita. bahut sundar . sabhaar leena malhotra
ReplyDeleteUsha Raje Saxena
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की टिप्प्णी जो मेरे ईमेल पर प्राप्त हुई -
बहुत सुंदर!
aadarniy sir
ReplyDeleteface -ook ke jariye aapke blog par pahli bar aai aur aapki lekhni ke aage nat mastak ho gai .
aapki kavita ki har panktiyan aaj ke samaaj me faily hue sachchai ko yatarth purn v bade hi prabhav-shali dhang se prastut karti hain .
aapne bilkul sach aur kewal sach hi likha hai aaj aab ghar ,ghar nahi saray -khana ho gaya hai .
अब न घर सोता है
न धड़
क्योंकि घर बेहद डरा-सहमा
एक इंसान है
जो मुर्गे की पहली बाँग पर
तिलमिला उठता है और
सुबह होने तक
तिनका सा बिखर जाता है।
bahut hi sateek chitran
bahut bhut badhai
sadar naman ke saath
ponam
thanks susil ji for your precious comments, your creation are extra ordinary, i feel my self honored as part of your proximity, love and regards
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