जन का यह कैसा तंत्र है कि
उसके और तंत्र के मध्य लोगों की जो जमात है
वह जन और तंत्र दोनों का विध्वंसक है
फिर भी जनता उसे माला पहनाती है
उसकी जय-जयकार करती है
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तन्त्र में जन की भूमिका नगण्य हो गयी है।
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