शुक्रवार, 25 नवंबर 2016

आनंद गुप्ता की कविताओं से गुजरते हुए - उमाशंकर सिंह परमार

आनन्द गुप्ता की कविताओं से गुजरते हुए प्रतीत हुआ कि यह युवा केवल कवि नही हैं, अपने शब्दों की पूरी ताकत निचोड़कर सत्ता के तमाम छद्मों द्वारा सृजित अन्धकार के खिलाफ मुठभेड करता हुआ हिन्दुस्तानी आवाम हैं। मामला केवल कविता का नहीं है । यह आजादी के बाद लोकतन्त्र में काबिज प्रतिक्रियावादी शक्तियों द्वारा  प्रतिबन्धित मनुष्यता का भी सवाल है ।अब इन सवालातों को या तो संघर्षों द्वारा अभिव्यक्त किया जा सकता है या फिर तथाकथित बुर्जुवा लोकतन्त्र के अमानवीय मूल्यों को बेनकाब करके अभिव्यक्ति के खतरों का जोखिम उठाया जा सकता है। आनन्द गुप्ता कलबुर्गी को समर्पित कविता में अभिव्यक्ति के इस खतरे को चिन्हित करते हैं और सपाटपन , व्यंग्य ,  अभिव्यंजना जैसे रचनात्मक उपागमों का जोखिम भी उठाते हैं। कला नदारत नहीं है
।  वह आक्रोश में तब्दील होकर बार-बार अपने समय की संवेदना , भाषा , मुहावरों का समीकरण रच रही है। प्रेम में पड़ी लड़की का विमर्श बहुआयामी है । तमाम सामाजिक संरचनाओं व दुष्टताओं , बर्बरताओं के बोझ से दबा-कुचला प्रेम कैसे तीखा, बेधक और कारुणिक हो जाता है , इस कविता में देखा जा सकता है। पहली नजर में ये उक्तियाँ अख़बारी लग सकती हैं। परन्तु व्यवस्था के घिनौने चेहरे का ताजा साक्षात्कार करने वाला युवा कवि आखिर कब तक चुप रहेगा ? इन कविताओं में लोकतन्त्र को बुर्जुवा हिंसक गतिविधियों से बचाने का संकट है , जिसमें कवि की आत्मग्रस्तता रंचमात्र भी नहीं  है । न ही कवि किसी कविता में आत्मसंघर्ष करता परिलक्षित हो रहा है । यही कारण है कि कविताएं न तो कला की भीषणतम रूढियों का अनुगमन करती हैं , न अभिव्यक्ति के लिए किसी मिथक या क्लासिकल फार्मेट का सहारा लेती हैं । जितने भी बिम्ब हैं , वह तरोताजा हैं, सपाट हैं, अनुभूत और सहजसंवेद्य हैं। कवि अनावश्यक उलझावों व गूढ़ता से बचता हुआ नपी-तुली भाषा में अपनी कविता का प्रतिरोधी सौन्दर्य बोध करा रहा है। आज की कविता में बड़ी समस्या है कि हमारी दृष्टि अन्तर्विरोधों तक पहुँच नहीं रही है। परम्परागत मुहावरों और जुमलों में घिसी-पिटी संवेदनाओं का बिम्ब थोपने का चलन भी बढ गया है । अक्सर कविताओं का गुस्सा नकली और भाषा आयातित व असमर्थ प्रतीत होने लगती है। आनन्द गुप्ता इस रचनात्मक भावावेश व जल्दबाजी से अपनी कविता को बचा लेने मे सफल होते दिख रहे हैं क्योंकि वह मीडिया- प्रचारित मुद्दों से हटकर अन्तर्विरोधों पर अपनी बात रखते हैं , अपनी कविताओं की केन्द्रिकता अन्तर्विरोधों से ग्रहण करते हैं। - उमाशंकर सिंह परमार , बबेरू , जनपद -बांदा (ऊ प्र)/983861077

आनंद गुप्ता की कविताएं 
1. इस स्वपन वर्जित समय में
(प्रो. एम. एम. कलबुर्गी के लिए)
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इस वक्त 
जबकि सपने देखना
किया जा रहा है निषिद्ध
जारी हो रहे हैं फतवे 
सपनों के विरूद्घ। 
इस वक्त
जबकि सपने देखना देशद्रोही होना है
मैं इस
 स्वप्न वर्जित देश में
सपनों की खेती करना चाहता हूँ। 
जानता हूँ हांक दिया जाऊँगा एक दिन
उनकी तरह
जिनके सपनों के पीछे
हत्यारों की एक फौज
लगी है पहरेदारी में।
एकदिन उठूंगा नींद से
और देखूंगा
हमारे सपनों को छलनी करने
तानाशाह की फौज खड़ी हैं दरवाजे पर।
वे हमसे हमारा आकाश छीनने आए हैं
वे हमारी नदियों का प्रवाह छीनने आए हैं
वे हमारे पहाड़, हमारा जंगल छीनने आए हैं
वे पेड़ों की छाया, फूलों की सुगंध छीनने आए हैं
वे हमारे बच्चों की मासूमियत 
उनकी हँसी छीनने आए हैं
वे हमारे शब्द छीनने आए हैं।
इस स्वप्न  वर्जित  समय में
जबकि विकृत की जा रही हैं
हमारे बच्चों के किताबों की भाषा
और उगाई  जा रही हैं  उसमें 
धर्म के विष-बेल। 
इस वक्त 
जबकि वे तोड़  लेना चाहते हैं
हमारी आँखों से सपने 
मैं सपनों
 की खेती करना चाहता हूँ। 
            
2. जुबिली ब्रिज

हुगली नदी के दोनों किनारों को जोड़ता
एक सौ तीस वर्षों से खड़ा है
असंख्य यात्राओं का गवाह 
यह पुराना और जर्जर जुबिली ब्रिज। 
इसके समानांतर 
इसकी जगह लेने को तैयार 
शान से खड़ा है एक नया ब्रिज अनाम 
जैसे बूढ़े पिता की जगह लेने 
तैयार खड़ा हो एक युवक 
छुटपन में यात्राओं पर जाते हुए
खड़खडाते ब्रिज पर रेंगती रेलगाड़ी देखकर 
रोमांचित हो जाते थे हम
हमारी यात्राओं के रोमांच में
हमेशा शामिल होता था यह पुराना ब्रिज। 
जब इसे पार करती थी रेलगाड़ी 
माँ अपने बटुए से निकालकर एक सिक्का
डाल देती थी नदी में
लेकर गंगा मैया का नाम 
तब अक्सर सोचता था
क्या करती होगी नदी उन सिक्कों का
क्या खरीदती होगी अपने लिए मनपसंद सामान? 
रेलगाड़ी की यात्रा से ज्यादा आकर्षित करता हमें
खड़खड़ाता ब्रिज 
और उससे टकराती सिक्कों की खनक
जो संगीत की तरह गूँजती थी हमारे कानों में
जिसकी प्रतिध्वनि यात्राओं के बाद भी
करती थी हमें रोमांचित। 
अब जबकि तैयार है एक नया ब्रिज 
इस पुराने की जगह लेने
क्या सोचेगा वह पुराना ब्रिज 
जब दौड़ेगी पूरे वेग से रेलगाड़ी 
नए ब्रिज पर
पुराने को ठेंगा दिखाते हुए
उस दिन लौटेगी ब्रिज की पुरानी स्मृतियाँ 
उस दिन स्मृतियों  की अँधेरी गुफा में
खो जाएगा ब्रिज 
उसके मौन सन्नाटे को तोड़ेगा
नए ब्रिज की खड़खड़ाहट
और सिक्कों की खनखनाहट
जिसकी प्रतिध्वनि उसे कर देगा बेचैन।
इस तेज भागते समय में
जबकि हमारी पुरानी स्मृतियाँ 
तेजी से हो रही है क्षीण
वर्तमान को एक अंधे रफ्तार की जरूरत है
अपनी लाचारी पर सिसकते हुए 
नि:सहाय बूढ़ा ब्रिज त्याग देगा अपने प्राण
उस दिन।

3. प्रेम में पड़ी लड़की 

वह सारी रात आकाश बुहारती रही
उसका दुपट्टा तारों से भर गया
टेढ़े चाँद को तो उसने 
अपने जूड़े मे खोंस लिया
खिलखिलाती हुई वह
रात भर हरसिंगार सी झरी
नदी के पास
वह नदी के साथ बहती रही 
इच्छाओं के झरने तले
नहाती रही खूब-खूब
बादलों पर चढ़कर 
वह काट आई आकाश के चक्कर 
बारिश की बूँदों को तो सुंदर सपने की तरह
उसने अपनी आँखों में भर लिया
आईने में उसे अपना चेहरा
आज सा सुंदर कभी नहीं लगा
उसके हृदय के सारे बंद पन्ने खुलकर
सेमल के फाहे की तरह हवा में उड़ने लगे
रोटियाँ सेंकती हुई 
कई बार जले उसके हाथ
उसने आज
आग से लड़ना सीख लिया

4. रोता हुआ बच्चा

यह आधी रात का समय है
जब सारे खाए पीए अघाए लोग
अपने दड़बे में चैन की नींद सोए है
सड़क के पार एक बच्चा रोए जा रहा है
रोते हुए बच्चे की भूख
मकानों से बार-बार टकराकर
घायल हो गिर रही है जमीन पर

यह कैसा समय है
कि बच्चे रोते चले जा रहे हैं
फिलीस्तीन से वियतनाम तक
नामीबिया से सीरिया तक
कालीहांडी से मराठवाड़ा तक
और वातानुकूलित कमरों के कान बंद हैं
राष्ट्रीय योजनाओं और घोषणा पत्रों से बाहर है
रोते हुए बच्चे 
देश के नक्शे पर पड़े जिन्दा धब्बे 
यह कैसा समय है
जब देश के अनाज का एक चौथाई 
चील कौवों के नाम कर छोड़ा गया है 
रोते हुए भूखे बच्चे का हिस्सा 
किसी फाइल में दर्ज नहीं है

बच्चा रोए जा रहा है
गोल-गोल रोटी सा चाँद आकाश में हँसता है
बच्चे के पीछे विज्ञापन में मुस्कुराता एक चेहरा
सबको मुँह चिढ़ाता 
देश की  यश गाथा गा रहा है
और बच्चा है कि रोए जा रहा है।
 
5. मेरे शब्दों

शब्दों में ही जन्मा हूँ 
शब्दों में ही पला
मैं शब्द ओढ़ता बिछाता हूँ 
जैसे सभ्यता के भीतर 
सरपट दौड़ता है इतिहास 
सदियों का सफर तय करते हुए 
ये शब्द मेरे लहू में दौड़ रहे हैं
मैं शब्दों की यात्रा करते हुए 
खुद को आज
ऐसे शब्दों के टीले पर खड़ा 
महसूस कर रहा हूँ 
गोकि
ढेर सारे झूठे और मक्कार शब्दों के बीच 
धर दिया गया हूँ 
क्या करूँगा उन शब्दों का
जिससे एक बच्चे  को हँसी तक न दे सकूँ 
एक बूढ़ी माँ की आखिरी उम्मीद भी
नहीं बन सकते मेरे शब्द 
मेरे शब्द नहीं बन सकते
भूखे की रोटी 
एक बेकार युवक का सपना भी नहीं
क्या करूँगा उन शब्दों का
जिनसे मौत की इबारतें लिखी जाती है
जिनसे फरेबी नारे बनते है
मेरे शब्दों! 
तुम वापस जाओ
जंगलों को पार करो
खेतों में लहलहाओ
किसी चिड़िया की आँखों में बस जाओ
नदियों को पार करो
सागर सा लहराओ
जाओ!  
कि तुम्हे  लंबी दूरी तय करनी है
बनना है अभी थोड़ा सभ्य।

6. चुप्पियाँ

चारों तरफ चुप्पियाँ थी
सारे पेड़ चुप थे
जबकि उसके विरुद्ध तमाम साजिशें जारी थी
एक कोयल की कूक से टूटी खामोशी
आकाश का सीना छलनी
फिर भी चुप्पियाँ तारी थी
बादलों के लिए असहनीय थी यह स्थिति
गरज पड़ा बादल 
पहाड़ चुप था
जबकि सैकड़ों ज़ख्मों के निशान स्पष्ट थे
एक प्रेमी ने
अपनी प्रेमिका का नाम जोर से पुकारा
पहाड़ बोलने लगा
सिकुड़ते तलाब की चुप्पी
तो एक बच्चे के लिए बिल्कुल असहनीय थी
उसने तलाब की तरफ एक कंकड़ उछाला
एक कंकड़ से काँप उठा तलाब
शहरों,कस्बों और गाँवों में 
अब भी कुछ लोग थे
चुप्पियों के खिलाफ
हवा में लहराती जिनकी मुट्ठियों की अनुगूँज
सत्ता के गलियारे तक पहुँच ही जाती थी
पर आश्चर्य है
तुम्हारी चुप्पियाँ कभी क्यूँ नहीं टूटती?●

आनंद  गुप्ता
जन्म-19 जुलाई 1976, कोलकाता
शिक्षा- कलकत्ता विश्वविद्यालय से हिन्दी साहित्य में स्नातकोत्तर
प्रकाशन-वागर्थ, परिकथा, कादम्बिनी, जनसत्ता, इरा, अनहद (कोलकाता), बाखली एवं  कुछ अन्य पत्रिकाओं में कविताएं प्रकाशित।कुछ कहानियाँ एवं आलेख भी प्रकाशित।
आकाशवाणी कोलकाता केंद्र से कविताएं प्रसारित।
सांस्कृतिक पुनर्निर्माण मिशन द्वारा कविता नवलेखन के लिए शिखर सम्मान। 
कविता केन्द्रित अनियतकालीन पत्रिका 'सृजन प्रवाह' में संपादन सहयोग।
सम्प्रति- पश्चिम बंगाल सरकार द्वारा संचालित विद्यालय में अध्यापन।
पता- गली नं -18,मकान सं- 2/1, मानिकपीर, पो. - कांकिनारा, जिला- उत्तर 24 परगना, पश्चिम बंगाल-743126
मोबाइल नं - 09339487500
ई-मेल- anandgupta19776@gmail.com

15 टिप्‍पणियां:

  1. आनंद भाई, पिछले दिनों मैं आपको वागर्थ में छपी कविताओं के लिए बधाई देना चाहता था लेकिन फिर भूल गया ! इन कविताओं के साथ उन कविताओं के लिए भी बधाई लीजिए।

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  2. मेरी कविताओं को यहाँ प्रस्तुत करने के लिए उमाशंकर सिंह परमार जी एवं सुशील कुमार सर के प्रति आभार व्यक्त करता हूँ ।

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  3. आनंद भाई आपकी बेहतरीन कविताओं पर उमाशंकर जी महत्वपूर्ण टिप्पणी की है आप दोनों को बधाई ।

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  4. आनंद भाई आपकी बेहतरीन कविताओं पर उमाशंकर जी महत्वपूर्ण टिप्पणी की है आप दोनों को बधाई ।

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  5. आनंद भाई आपकी कविताएँ बहुत अच्छी हैं। बधाई। आपसे बहुत उम्मीद है। शुभकामनाएं

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  6. इन कविताओं में कवि की पक्षधरता,संवेदनशीलता, स्पष्टता के साथ भाषा का सही बर्ताव सामने है। प्रेम में पड़ी लड़की और चुप्पियां उपलब्धि सी है। कवि को बधाई। इस प्रस्तुति को अच्छे शब्द परमार जी के मिले हैं , उनका भी आभार!

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  7. प्रेम में पड़ी लड़की मेरी प्रिय कविता है।इस स्वयं वर्जित समय में कविता समय का इतिहास लिखती एक जरुरी कविता है। जो निश्चित ही समय के इतिहास में तानाशाह के असल चेहरे को दुनिया के सामने नंगा करेगी। ऐसे समय में जब जोखिम लेने से कविता के महापुरुष कतरा रहे हैं । एक युवा अपने शहीदों के लिए कलम तान कर खड़ा है

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  8. लगभग सारी कविताएं पहले भी पढ़ीं हैं. प्रेम में पड़ी लड़की अद्भुत है.चुप्पियां झिंझोड़ती है.

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