जनवादी मुखौटे में उदय प्रकाश का हिपोक्रिटिक
सामंती चेहरा
(उदय प्रकाश और शुभम श्री की कविताओं को पढ़ते हुए )
[ यह समालोचना कोलकाता से प्रकाशित पत्रिका 'लहक' (संपादक-निर्भय देवयांश) के अंक अक्तूबर -नवंबर , 2016 में प्रकाशित हुई है। ]
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जन्म : 1 जनवरी 1952, सीतापुर, शहडोल, मध्य प्रदेश
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भाषा : हिंदी
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विधाएँ : कहानी, कविता, निबंध, पटकथा
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मुख्य कृतियाँ
कविता
संग्रह : सुनो कारीगर, अबूतर-कबूतर, रात में
हारमोनियम, एक भाषा हुआ करती है, कवि ने कहा
कहानी
संग्रह : दरियायी घोड़ा, तिरिछ, और अंत में
प्रार्थना, पॉल गोमरा का
स्कूटर, पीली छतरी वाली लड़की, मेंगोसिल, दिल्ली की दीवार, अरेबा परेबा, दत्तात्रेय के
दुःख, मोहनदास
निबंध
: ईश्वर की आँख, नई सदी का
पंचतंत्र
अनुवाद
: इंदिरा गांधी की आखिरी लड़ाई, कला अनुभव, लाल घास पर नीले घोड़े, रोम्यां रोलां का
भारत, इतालो काल्विनो, नेरूदा, येहुदा अमिचाई, फर्नांदो पसोवा, कवाफ़ी, लोर्का, ताद्युश रोज़ेविच, ज़ेग्जेव्येस्की, अलेक्सांद्र
ब्लाक आदि रचनाकारों के अनुवाद
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सम्मान
भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार, ओमप्रकाश सम्मान, श्रीकांत वर्मा पुरस्कार, मुक्तिबोध सम्मान, वनमाली पुरस्कार, साहित्य अकादमी
पुरस्कार, साहित्यकार सम्मान, द्विजदेव सम्मान, पहल सम्मान,
अंतरराष्ट्रीय पुश्किन सम्मान, SAARC Writers Award, PEN grant for translation of The Girl with the Golden
Parasol (Trans. Jason Grunebaum), कृष्ण बलदेव वैद सम्मान, महाराष्ट्र
फाउंडेशन पुरस्कार, ('तिरिछ अणि इतर कथा' अनु. जयप्रकाश सावंत)
कविता जब चरित्र
चमकाने और चर्चा में आने की लत और शौक बन जाती है तो मुझे धूमिल की ये पंक्तियाँ
बरबस याद आती हैं : “कविता क्या है ? / कोई पहनावा है ? / कुर्ता-पाजामा
है ?' / ना, भाई ना, / कविता- / शब्दों की अदालत में / मुजरिम के
कटघरे में खड़े बेकसूर आदमी का / हलफ़नामा है।'/ क्या यह व्यक्तित्व
बनाने की / चरित्र चमकाने की --/ खाने-कमाने की--
/ चीज़ है ?'/ 'ना, भाई ना, / कविता / भाषा
में / आदमी होने की तमीज़ है।' भाषा उस तिकड़मी दरिंदे का कौर है / जो सड़क पर और है / संसद
में और है इसलिये बाहर आ! / संसद के अंधेरे से निकलकर / सड़क पर आ! / भाषा को ठीक
करने से पहले आदमी को ठीक कर।“
ऊपर की कविता से यह भान होता
है कि साठोत्तरी कवि सुदामा पांडे ‘धूमिल’ को अपने समय के कवियों की सियार-चाल और
चारित्रिक कमजोरियों का अहसास हो चुका था। तभी तो उन्होंने भाषा और कविता पर इतनी
जली-कटी बातें कही। दरअसल स्वतांत्र्योत्तर भारत में जो ‘कैरियरिस्ट’ कवि-लेखकों का सिलसिला शुरू हुआ, उसने साहित्य में अवसरवाद और जुगाड़वाद को जन्म दिया और धीरे-धीरे
वह वट-वृक्ष की तरह फैल गया । आप महसूस कर सकते हैं कि बाज़ार और पूँजी के साथ साहित्यकारों का जो जादुई गठजोड़ नजर
आ रहा है,
उसके चलते जनवाद के मुखौटे लिए घूमते सामंती चरित्र के
लिक्खाड़ों की शिनाख़्त अब आसान नहीं रह गई। लेखक के रचनात्मक चरित्र
और उनकी असली मनसा जाने बिना आप उनके रचनातल में गहरे नहीं उतर सकते। इससे सृजन के मूल्यांकन में चूक की
प्रबल संभावना बनी रहती है। ऐसे लेखक बहुविध हथकंडों से अर्जित पूँजी के बदौलत प्राय: बड़े शहरों में ऐशोआराम में रहते हैं, चारपहिये गाड़ियों में घूमते हैं, दिन में जनवादी
कविताएं बाँचते हैं और शाम होते ही अपने चेले-चटियों के साथ दारू की दुनिया में रम जाते हैं। उनका अपना प्रभामंडल होता है जिनके
प्रकाश से उनका कुनबा दीप्त रहता है। यहाँ छोटे-बड़े, कई लेयर के मित्र होते हैं जिनमें स्त्री-लेखकों को तवज्जो मिलती है। इनके
जरिए वे अपने विरोध के प्रतिकार का भी पूरा बंदोवस्त रखते हैं। फिर भी देर-सबेर उनका भेद खुल ही जाता है । इसके विपरीत, जिन लेखकों की प्रतिबद्धता ठोस और पारदर्शी
होती है, उन पर अगर कोई प्रायोजित लेखकीय हमला करता है तो
उसका प्रभाव नहीं पड़ता, बल्कि हमलावर लेखकों की छवि ही धूमिल
होती है। गोया कि, जब प्रेमचंद की कहानियों पर पाश्चात्य
अनुकरण का आरोप लगाया गया या फिर मुक्तिबोध की कविता को अस्तित्ववाद, रहस्यवाद और गैर-मार्क्सवादी होने का दोष मढ़ने का प्रयास किया गया तो ये
आरोप इस कारण नहीं टिक पाए कि इनका चरित्र खरा था। इनमें बेवजह प्रायोजित कारणों
से उंगली करने से उनमें ‘अंगुलबेढ़ा’
यानि घाव हो गए, जिसकी पीड़ा असह्य रही क्योंकि उनमें अपनी
रचनात्मकता के प्रति प्रतिबद्धताएँ अक्षुण्ण थीं। इनके मानक भारतीय परिवेश के साक्षात
संस्करण थे। न तो प्रेमचंद ने यथार्थवाद को पाश्चात्य दर्शन से सीधे उठाकर
कहानियों में रख दिया था, न मुक्तिबोध ने फैंटेसी के
स्वप्नलोक की कहीं से नकल उतारी थी। सबको मालूम है कि साहित्य के किसी दर्शन और
सिद्धान्त का बीज जब तक उस जगह की माटी की कोख से नहीं जन्मता और वहाँ के परिवेश
का सत्व, जल और वायु ग्रहण नहीं करता,
तब तक वह उधार का या नकल किया हुआ ही कहलाता है। ऐसे साहित्य का जीवन दीर्घ नहीं
होता। बड़ी बात यह है कि आजीवन गहरे तनाव को झेलते हुए भी प्रेमचंद, मुक्तिबोध जैसे लेखकों ने अपनी जीवन-दृष्टि नहीं बदली, न ही रचनात्मक मूल्यों के साथ कोई समझौता किया या
अपनी रचना को कहीं किसी लोभ-लाभ से बाजार के हवाले किया। इस कारण
उनकी रचनाएँ सदैव स्वस्फूर्त रहीं। सीधे जीवन से संपृक्त रहीं। पर आज बड़े
कहाने वाले कई कवियों की कविताएँ स्वस्फूर्त नहीं है। लिखना ही उनका विशिष्ट कर्म हो
गया है जो मात्र लिखने के लिए लिखते हैं। आप देखेंगे कि आदिकाल और भक्तिकाल के
कवियों (यथा बाल्मीकि, गोरखनाथ, सूर, तुलसी, कबीर, जायसी, मीरां, नानक आदि)
ने स्वाभिव्यक्ति के निहितार्थ अपने जीवन के क्रियाओं को मूर्त करने के लिए रचना की।
यह कितनी हैरत की बात है कि उनको पता भी न होगा कि ये कवि हैं। न गोष्ठी, न विज्ञापन, न आलोचना, न काव्यपाठ, न रिसर्च, न कहीं विमोचन समारोह। पर आज उन पर हम यह सब
खूब कर रहे, जबकि आज के
कवि यह सब करवाने
को उद्धत रहते हैं और यश-कीर्ति के पिपासु बने रहते हैं। पुरस्कार बटोरने के हर
छल-छद्म का सहारा लेते हैं। कह सकते हैं कि आधुनिक काल के अधिकतर कवियों की रचना
सोद्दश्य प्रायोजित और स्व के ही निहितार्थ है, स्वप्रेरित और स्वान्तः सुखाय नहीं है। इसलिए वे उतने महान् और बड़े नहीं, जितना ये थे।
यहाँ संदर्भ उदय
प्रकाश जी के साहित्य को लेकर है। उनके प्रशंसकों में इस बात को लेकर भ्रम बना हुआ
है कि वे बड़े कवि हैं या कि बड़े कहानीकार। उनका यह भ्रम भी जल्दी टूट जाएगा
क्योंकि किसी मुगालते की अपनी मियाद होती है। पत्रिका ‘लहक’ के संयुक्तांक:
जुलाई-सितंबर, 2016 में डॉ. अजीत
प्रियदर्शी की समालोचना ‘नई सदी की कहानी’ में उदय प्रकाश की कहानियों की प्रवृत्तियों पर विस्तार से चर्चा की गई
है जिसे हम यहाँ दुहराना नहीं चाहेंगे। पर उन्होंने उनकी कहानियों के जिन अभिलक्षणों
को पाठकों के सम्मुख किया, उनके फलने-फूलने के कारकों पर
विचार करना जरूरी है। पूरे संदर्भ और साक्ष्य के साथ डॉ. प्रियदर्शी ने अपने आलेख
में उनकी कहानियों की जिन प्रवृत्तियों को रेखांकित किया है,
उनमें प्रमुख हैं; 1) जादुई यथार्थवाद 2) सनसनी और चमत्कार
3) जीवन-संघर्ष का अभाव 4) चालू विमर्श और विचारधारा 5) आत्मकेंद्रित उबाऊ कथन
(नैरेशन), 6) सूचनात्मकता और विवरणात्मकता 7) यौन-प्रसंग और लंपटता
का चित्रण 8) दीर्घ आख्यान 9) जीवंत भाषा शैली और संवादों की कमी, 10) किस्सागोई और मानवीय संवेदना का अभाव और 11) तात्कालिकता का दवाब। अगर
डॉ अजीत के उक्त ‘ओब्जेर्वेशन’ पर
ध्यान दें तो अनुभव होता है कि उदय प्रकाश की कहानियों की इन कमजोरियों के पीछे
उनके पात्रों की अपनी जीवन-कुंठा है जो कहानीकार के जीवनानुभव और जनपदीय चेतना से
कटे कथा-युक्ति की ओर संकेत करता है। वे कहानियों की मानिंद कविताओं में भी शब्दों के साथ जगलरी (jugglery) करते हैं, उनमें इनकी प्रतिबद्धता का कोई छाप नहीं होता।
वे जिस समाज का लेखन करते हैं उसीको अपनी अभिव्यक्ति में वायवीय और हल्का बना देते हैं। यदि कवि फैंटेसी या जादुई यथार्थ का प्रयोग सच्चाई के चित्रण के
उद्देश्य से न कर पाठकों की इंद्रिय को गुदगुदाने और चकित करने के लिए करे तो इसका मतलब है – सस्ती लोकप्रियता और स्तरहीन पाठकों
की तालियाँ बटोरना । यहाँ उदाहरण देने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि डॉ. अजित के
लेख में उदय प्रकाश की कहानी के यौन-प्रसंगों में इसकी बेहद चर्चा हो चुकी है। मसलन बक़ौल अजीत प्रियदर्शी, "उदय प्रकाश की कहानी लगता है मानो
उनके कथा पात्र सेक्स कुंठा के शिकार हों। शायद कथाकार उदय प्रकाश खुद सेक्स कुंठा
के शिकार हों। भद्दे-भद्दे चटखारे भरे संवाद ‘सेक्स
को बाजारू’ स्तर पर ला देते हैं। लगता है कि बाजार का दबाव
कहानीकार को ऐसा करने के लिए मजबूर कर रहा है। इस संदर्भ में उनकी कहानियों से कुछ
उद्धरण प्रस्तुत हैं: ”आशा मिश्रा के
अंडरबियर से निकलती हुई बियर की बोतल का शॉट और छाती में बियर उलटते ही आशा मिश्रा
के स्तनों का झाग में रूपान्तरण इतना प्रभावशाली था कि..... इस विज्ञापन के
प्रिव्यू सर्वे के दौरान कम्पनी ने पाया था कि बीस सेकेन्ड के इस विज्ञापन को
देखते हुए हर दस में से सात पुरूषों ने, जिनका आयुवर्ग 15 से
60 वर्ष का था, ‘मास्टर बेट’ की इच्छा
का प्रभाव स्वीकार किया था।“ (‘पॉल गोमरा का स्कूटर’),
“विश्व सुन्दरी ने उसे वियाग्रा की गोली दी, जिसे
निगल कर उसने उसके स्तन दबाये।” “ठीक से सहलाओ! पकड़कर!
ओ.के.!“, ”मुँह में ले लो लोल... माई लोलिट्”, “राहुल के हाथ उसकी (अंजली की) जींस की जिप को खोल चुके थे।.... अंजलि की
आँखें अधमुँदी हो गई थीं।... उसका चेहरा अंगारों की तरह दहक रहा था।... जितनी गहरी
प्रतिहिंसा की तीव्रता के साथ राहुल... प्रत्याघात करता, वह
देखता कि अंजलि की आँखें किसी तृप्ति से सच में मुँद गई हैं और उसके होंठों पर एक
हल्की-सी स्मित की रेखा खिंच गई है....। ‘आह! आह!” (‘पीली छतरी वाली लड़की’)।" - इन प्रसंगों में यह विचारणीय है कि उदय प्रकाश के पात्रों में (अथवा
कहें स्वयं लेखक में) यह जीवन-कुंठा आती कहाँ से है। इसका उत्तर हमें साहित्य के मार्क्स-दर्शन में मिलता है। जब जीवन श्रम से कटकर
पूंजी की प्रेत-छाया के सर्वग्रासी अस्तित्व का ताबेदार हो जाता है, रचना का सौंदर्य जब लोगों की श्रम-संस्कृति की कोख
से नहीं जन्मता तो यह समझना चाहिए कि वह जरूर आवारा पूँजी की अपसंस्कृति से पैदा हुआ
होगा। मसलन, उदय प्रकाश की जीवन-दृष्टि
सामंती और सौंदर्य-दृष्टि बुर्जुआ है। वे जितने बड़े कैरियरिस्ट हैं, उतने बड़े कवि नहीं। न कहानीकार है। जितने गुण (या कहें अवगुण )
अजीत ने उदय प्रकाश की कहानियों में गिनाए हैं, वे सब के सब किसी न किसी रूप में उनकी कविताओं में भी विद्यमान है
क्योंकि विधा बदलने से लेखक का आंतरिक गुण नहीं बदल जाता। उदय प्रकाश फ़िल्मकार हैं, फिल्मों के स्क्रिप्ट लेखक भी हैं। उनका ध्यान,
उनकी प्रतिबद्धता अपने किए से पूँजी और यशकामिता अर्जित करने पर होती है । इस कारण उनकी सम्पूर्ण जीवन दृष्टि ही बदल जाती
है।
उदय प्रकाश के अब तक चार काव्य-संग्रह आ चुके हैं। पहले संग्रह में इनकी ‘सुअर’ सीरीज की छः कविताएँ हैं जो स्वयं कवि द्वारा चयनित प्रतिनिधि कविताओं में (कवि ने कहा: किताबघर प्रकाशन) शुमार है। कथात्मक शिल्प में रची इन कविताओं में न कहीं लय है, न प्रगीतात्मकता। कहन की शैली भी बेहद
सपाट है। अगर वाक्य-विन्यास को बिना तोड़े इन खंड-कविताओं को गद्य-रूप में पाठकों
के समक्ष रख दिया जाए तो समझना मुश्किल हो जाएगा कि यह कोई गद्य-विधा है या कविता।
इस सीरीज की कविताओं में शब्दों की जुगाली करते हुए कवि ने सामंती सत्ता के भावदृश्य
रचने का जो उपक्रम किया है, वह उस सत्ता की क्रूरता का अधिनायक चेहरा है। पहली कविता में
कवि का सुअर जब खुश होता है तो हँसता है, जब उत्पादन बढ़ाने की बात करता है तो वह मोटा होता जाता है, जब मेहनत करने की बात करता है तो दिनभर
सोता है और चूल्हे पर एक बड़ी कड़ाही चढ़ा देखकर डर जाता है। यहाँ कवि ने सुअर के स्वाभाविक
गुणों और दैहिक रचना पर कविता को केंद्रित न कर उसमें बलजबरी आदमीपन की क्रियाओं को
आरोपित किया है। सच्चाई तो यह है कि सुअर न तो हँसता है, न दिनभर सोता है। उसके
हँसने-मुस्कुराने या घबराहट का भाव उसके थूथनों से प्रकट नहीं हो सकता। पब्लिक के
हड़ताल पर चले जाने से चूल्हे पर चढ़ी बड़ी कड़ाही देखकर कवि का सुअर क्यों घबराता है, यह तो कवि ही जाने! सीरीज की दूसरी
कविता में एक ऊँची इमारत से कवि का तंदुरुस्त सुअर मगरमच्छ जैसी कार में बैठकर शहर
चला जाता है। फिर वह अखबार के पन्नों में मुस्कुराता है तो शहर से चीनी और मिट्टी का
तेल गायब हो जाता है। यहाँ कार के साथ मगरमच्छ का प्रतीक कहीं से उपयुक्त प्रतीत नहीं
होता। न रूपाकार में, न स्वभाव में। पूरी
कविता देखिए: एक ऊंची इमारत से / बिलकुल तड़के / एक तन्दरुस्त सुअर निकला / और मगरमच्छ जैसी कार में / बैठ कर / शहर की ओर चला गया / शहर में जलसा था / फ्लैश चमके / जै- जै हुई / कॉफी - बिस्कुट बंटे/ मालाएँ उछलीं / अगली सुबह / सुअर अखबार में / मुस्करा रहा था / उसने कहा था / हम विकास कर रहे हैं / उसी रात शहर से / चीनी और मिट्टी का तेल / ग़ायब थे।
यहां भी कवि का सुअर मुस्कुराता है। इसी प्रकार, सुअर सीरीज की तीसरी कविता में कवि के सुअर को जोरों का जुकाम हो जाता है। गंदी जगहों; नालों आदि में वास करने वाले सुअर को जुकाम यहाँ कवि
ने इसलिए कराया है कि उसे मेमनों की नर्म रोओं और खाल की जरुरत है, अपने नाक पोंछने के लिए और उसकी
खाल की टोपी पहनने के लिए । यह
कवि की कल्पना और फैन्टेसी की हद है जो कविता के कहन में केवल चौंकाने का ही काम करता है। कवि बिना वस्तुजगत और जीवजगत की प्रकृति की स्वाभाविक
गतिकी और क्रियाओं से मेल बिठाए कल्पना की लंबी, बेतुकी उड़ान भरता
है। चौथी कविता में हिरणों ने सुअर से जंगल में घास कम
पड़ने अर्थात् अपनी आजीविका की शिकायत की है। इसमें सुअर महाराज का यह फैसला आया है कि हिरण और घास का अनुपात तय करने
के लिए हिरणों की संख्या ही कम करनी होगी। किन्तु जंगल
का सम्राट शेर होता है, यहाँ
सुअर के साथ कवि की यह बेमेल कविता के बुनावट को कमजोर बनाती है। अगर इन कविताओं में कोई फैंटेसी या
जादू वाला यथार्थ देखता है तो उसे मुक्तिबोध की फैंटेसी देखनी चाहिए। तभी वह इस
कवि के सायास और बनावटी फैंटेसी के रहस्य को जान पाएगा। कविता में कवि की जनपदीय दृष्टि इतनी भोथी और कुंद हो गई है कि वह चीजों की संगति उसकी प्रकृति के अनुरूप
नहीं बिठा सकती। इनके सुअर बाघ-शेर की तरह गुर्राते हैं। सुअर कविता (पाँच) में सुअर की
बीबियों का प्रसंग है। यहाँ सुअर की बहुत सारी बीबियाँ हैं जिनकी तादाद सूअरों के
मुल्क, शहर और रहने वाली इमारतों से अधिक हैं। सुअर गुर्राते
हुए सवाल करते हैं कि – मेरे किसी भी बच्चे का रंग / मेरे जैसा स्याह क्यों
नहीं है / उनकी खाल मेरे जैसी / खरदुरी, कठोर और ठुंठदार क्यों नहीं हैं /
मेरे जैसे तीखे, मजबूत और नुकीले/ खीस कहाँ हैं /
उनकी आँखें खरगोश की तरह/फूहड़ और डरपोक क्यों / दिखाई देती है? / अब उनकी बीबियों ने सुअर को क्या
समझाया, यह देखिए – ‘सुनो हमारे आका, / किसी भी सुअर के बच्चे / शुरू में
/ सुअर नहीं होते / ... धीरे-धीरे रोज / सुअर बनते हैं / - आदमी के सुअर बनने की कथा-प्रक्रिया के सामंती
ढांचे को समझाने का जो तरीका उदय प्रकाश जी ने इस कविता में आख्तियार किया है, वह उनकी सामंती सोच को सामने लाता
है। सुअर सीरीज की सभी छ: खंडों की कविताओं में इन अधिनायक शक्तियों से लड़ने और
विद्रोह करने का जन–माद्दा कहीं दिखाई नहीं देता । कविता में सुअर के चरित्र और
व्यक्तित्व पर कवि ने जितना श्रम किया है, उतना सुअर-वृति के प्रतिकार पर
नहीं। कवि केदारनाथ सिंह की तरह प्रकृति और वस्तुओं के आंतरिक सत्य के साथ खिलवाड़
करते हुए बेहद मनोरंजक तरीके से जादूपन को दिखाने मात्र की कुचेष्टा की गई है। यहाँ
कहना होगा कि कल्पनालोक और स्वप्नलोक की भी अपनी जमीन होती है। लेकिन उदय प्रकाश
की इन गल्पी-कविताओं की कल्पना वायवीय और सतही है जिसका इंद्रियबोध बहुत कमजोर
मालूम होता है। इनमें केवल बौद्धिकता का ज्वार उफनता है। उदय प्रकाश की अतिदृष्टि वाले
सम्मोहित पाठकों (जो कविता की मेरे समझ से सहमत नहीं होंगे) को सुअर पर लिखी जनकवि नागार्जुन
और युवा कवि सुरेन्द्र रघुवंशी की कविता देखनी चाहिए।
नागार्जुन
की कविता - पैने दाँतों वाली- “धूप
में पसरकर लेटी है / मोटी-तगड़ी, अधेड़,मादा
सूअर…/ जमना-किनारे / मखमली दूबों पर / पूस
की गुनगुनी धूप में / पसरकर लेटी है / यह भी तो मादरे हिन्द की बेटी है / भरे-पूरे
बारह थनों वाली ! / लेकिन अभी इस वक्त / छौनों को पिला रही है दूध / मन-मिजाज ठीक
है / कर रही है आराम / अखरती नहीं है / भरे-पूरे थनों की खींच-तान / दुधमुँहे
छौनों की रग-रग में / मचल रही है आखिर माँ की ही तो जान ! / जमना-किनारे / मखमली दूबों
पर / पसरकर लेटी है / यह भी तो मादरे-हिन्द की बेटी है ! पैने दाँतोंवाली…”
या फिर, सुरेन्द्र रघुवंशी की कविता – सुअर
“मदमस्त हैं सुअर/ कि जितना विष्ठा हो/उतना ही अच्छा / उतना ही आनन्द और मस्ती/ सुअर होने की / आत्मस्वीकृति के बीच / विष्ठा खाने की स्वाभाविकता को / मिल चुकी है सामाजिक मान्यता / यह प्रश्न कितना फिज़ूल है / कि सुअर विष्ठा खाते हैं /गली-कूचों में घूमते-घामते / जब सुअर हो गए / दुष्कर मार्गों के चक्रव्यूह भेदने में
सफल / तब वे बना बैठे / दफ़्तरों से लेकर / बड़े-बड़े सचिवालयों में / यहाँ तक कि / संसद तक में अपना स्थान / लगातार इनकी आबादी में बढ़ोत्तरी से भी / नहीं आई है / विष्ठा की उपलब्धता में कोई कमी / अकाल के बीच भी / फ़िलहाल तरोताज़ा है सुअरों की क़ौम / आप यह भी नहीं बता सकते / कि वे कब, कितना और कहाँ खा लेते हैं ? / वे इतनी सफ़ाई से खाते हैं / कि खा भी लेते हैं / और उनका मुँह / विष्ठा से लिपटा भी नहीं देख सकते आप।“
उदय प्रकाश कविता में जनपदीय चेतना से इतने कट गए हैं कि इनकी कविताओं में इसका संस्पर्श बहुत मुश्किल से ही कहीं मिलता है। आप प्राय: अनुभव करेंगे कि उदय प्रकाश के कवि के अवचेतन में बसा हुआ सामंती समाज के चित्र उनकी कविताओं में बरबस प्रकट होते हैं। उनका मन उन्हीं बातों में अधिक रमता है जो नवसामंती सोच को कविता में ला सके और फिर उसका प्रतिकार कर सके जबकि सामंतों की जमींदारी कब की चली गई! इक्कसवीं सदी में सामंती व्यवस्था का कविता के रूप और कथ्य
में चर्चा करना और फिर उसके द्वंद्व और विरोध से अपनी कविता की निर्मिति यह बताता
है कि कवि अपने सोच में समय से कितना पीछे चल रहा है! ये कविताएँ लोकजीवन की
क्रियाओं और उनके आत्म-संघर्ष पर बात नहीं के बराबर करती है। आमजन के संघर्ष और द्वंद्व उनकी कविता में कहीं प्रखर नहीं होते । लोक-स्पंदन, प्रकृति की गतिकी और जन-सरोकार से उनका कोई वास्ता नहीं। कहा जा सकता है कि जब व्यक्ति आत्मबद्ध होकर कवि-कर्म करता है तो उसकी चेतना लोक में नहीं
रमती, वह अंतर्मुखी हो जाती है। ऐसा लगता है कि उदय प्रकाश बंद कमरे में कल्पना का ख्याली पुलाव बनाते हैं क्योंकि उनके पास रचने
जैसा कुछ शेष नहीं है। वस्तुगत को आत्मगत करने में उनकी काव्यात्मक क्षमता
जबाव दे गई है। वह जीवन के गाढ़े वक्त और जन - क्रियाओं को केवल चिंतन और शब्दों की चमत्कृति से कविता में लाना चाहते हैं। पहला संग्रह ‘ सुनो कारीगर’
की एक और कविता देखिए । शीर्षक है-
‘मालिक , आप नाहक नाराज हैं।‘‘ इस कविता में कवि का पात्र अपने
मालिक या सामंत का नौकर या मुलाजिम है। कविता में मध्यकालीन सामंती स्वभाव का जो चित्रण हुआ है, उसमें कवि का रुझान देखते बनता है। नौकर अपने मालिक से कहता है –‘भूल जाइए उन चीजों को
/ जिन पर हुक्म नहीं चलता आपका /
आखिर हवा किसनिया कहारिन तो है नहीं मालिक,
/ जो कराहती हुई / चौका-बासन करे आपका
/ बाल्टी भर-भर पानी /
छत तक चढ़ाए / दो घंटे छोटे बाबू को बहलाए /और फिर आपका /बिछौना बिछाए’ ।
सुरजा की कमीज़ गुस्से में फाड़ देना, गरियाना, पीटना, हुक्का भर कर लाना, सलाम बजाना, ड्योढ़ीदारी करना, इत्यादि क्रियाओं का कविता में आना कवि के सामंती सोच का खुलासा करता है। सत्ता को तोड़ने के व्यतिक्रम में इन शब्दों का अतिरेक कवि मन की आतंरिक तह को खोलता है। कवि का पात्र अपने मालिक की सत्ता पर वार करता हुआ भी उन्हें मालिक और सरकार जैसे संबोधनों से नवाजता है। यही इस कविता के भीतर की काया है जिसमें कवि का पात्र समाज के अभिजन के गुणों का बखान करता दिखता है। दूसरे संग्रह की
एक मशहूर कविता को ही लीजिए , शीर्षक है –
‘एक था अबूतर
एक था कबूतर। ‘ इस कविता में
भी कवि अपने सामंती सोच और कलावादी झुकाव से बाहर नहीं निकल पाया। कवि के ही शब्दों में ‘भेड़िया की मूंछ के दो बाल/ अपने मालिक के पक्के दलाल ।‘ कहने का मतलब है कि सामन्तों की हवा निकालने के मुगालते में वे अपनी मूल प्रकृति से कविता में प्रतिकृत हो जाते हैं। इतनी ठाट-बाट और बुर्जुआ
प्रदर्श आपको अन्य जनवादी कवियों में खोजने से ही कहीं–कहीं मिलेंगे। इसी
तरह ‘बैरागी आया है गाँव’ इस संग्रह की एक लंबी कविता है। इस कविता का भूगोल स्थानीय नहीं है। कवि का बैरागी है तो गाँव का, पर उसे कवि ने कविता में पूरा देश
घूमा दिया। इस कविता को एक विराट फलक की कविता बनाने के उपक्रम में कवि भूल जाता है कि बैरागी
अपने गाँव आया है। अपने परिवेश की बात न कर कवि अपने
पात्र बैरागी से अनेक
नदियों का नाम कहलवाता है – ‘कहेंगें कि वे जागें /
और सरजू, गंगा, कोसी, बागमती, / सोन, नर्मदा, ब्रह्मपुत्र, केन, बेतवा, टमस और ताप्ती
/ के तटों पर उगे बाँस और कटई के / घने- गझिन जंगलों को काटकर घनुष बाण बनाएं /
और चंडी बन जाएं / चामुंडा बन जाएं, काली-महाकाली
/ भैरवी बन जाएं ,/
अजिता बन जाएं।‘ वैश्विकता मूलत: स्थानीयता से गहरे जुड़ी होती है। पर जब कविता
में परिवेश के तनाव की जगह मूल्यों का दबाव काम करता है तो कविता उपदेशपरक हो जाती
है, वहां लोकतत्वों का अभाव पाया जाता है
जो कविता की गतिकी को क्रियाशील नहीं बना पाता।
आप
देखेंगे कि मूल्यों के निरंतर अवगाहन से कविता प्रायः उपदेशपरक और आग्रहशील होने लगती
है जो उसे कमजोर बनाती है। उदय प्रकाश मूल्य-अन्वेषन के क्रियाव्यापार में इतने
लवलीन हो जाते हैं कि उनके काव्य-प्रयत्न में सीधे जीवन से सत्यान्वेषण पर कोई पहल
नहीं होता जिस कारण कविता का संवेग कमजोर हो जाता है और वह विमर्श व आख्यान की
दिशा में चली जाती है। इससे लोक का आंतरिक यथार्थ और उसकी संचेतना सीधे परिवेश से
जुड़ने के बजाए कवि द्वारा ग्रहित जीवन-मूल्यों से जुड़ जाता है । इससे क्षति यह
होती है कि कविता में क्षण की तह की सच्चाई का पता नहीं चल पाता और वह एकदम उबाऊ
हो जाती है। परिवेश से दूर जाने की यह पलायन-वृत्ति हम उन कवियों में अधिक देखते
हैं जिनमें लोक के सत्य को भोगने-सहने का साहस और संघर्ष नहीं होता। उनकी मनोगत
दशाएँ अंतर्मुख और तनाव की वजह से कुंठित होती हैं। यहाँ काव्य-प्रक्रिया कवि के अंदर से बाहर की
ओर गमन करती है, (बाहर
से अंदर की ओर नहीं)। उनमें कमरे में बंद होकर कृत्रिम वस्तुओं और किताबी मूल्यों
का अवगाहन कर बुर्जुआ-सौंदर्य को रचने की आदत-सी पड़ जाती है। कवि का मन खाली रहता
है। कवि जो भी रचना चाहता है, उससे साहित्य में रूपवाद का जन्म
होता है क्योंकि कवि को अपने कहन को बेहतर बनाने की चिंता सताती है। आप देखेंगे कि
छायावादोत्तर काल में पूरा आरम्भिक प्रगतिशील साहित्य ही मूल्यों की आड़ में परिवेश
से कहीं न कहीं कटा हुआ है। इसलिए यह कला या विचार की ओर ज्यादा झुकी हुई है। इसका
प्रमाण यह है कि ‘तारसप्तक’ के
अधिकांश कवियों ने (मुक्तिबोध को छोडकर) 'नई
कविता' या प्रयोगधर्मी कविता' के
रूप में साहित्य-जगत को लोक से कटी हुई, निहायत ही आत्मबद्ध-व्यक्तिपरक
कृतियाँ दीं जिसकी विशद् चर्चा करना इस आलेख का वर्ण्य-विषय नहीं। पर, भारतीय साहित्य ही नहीं, पूरी
दुनिया के चिंतक-लेखक यह महसूस करने लगे हैं कि यथार्थ के अंत:सूत्र खोलने में
परिवेश का देखा-सुना-भोगा सत्य ही कविता के असल काम की चीज है। मूल्य परिवेश की
अभिव्यक्ति का साधन हो सकता है, साध्य नहीं। उदय प्रकाश जिस घराने
और जिस जाति से आते हैं, उसकी प्रकृति सामंती रही है। हम
साहित्य में जब कवि की पृष्ठभूमि की विवेचना उसके पार्श्व-विषयों और क्रियाओं से
करते हैं तो उनके जातीय अंतर्संघर्ष और वर्ग-संघर्ष का भी अध्ययन करते है। इस
दृष्टि से उदय प्रकाश का जीवनवृत्त देखने से यह आभास होता है कि उनको अपने सामंती
पृष्ठभूमि से संघर्ष करना तो जरूर पड़ा है पर उससे संचित अनुभवों को साहित्य में
लाते वक्त केवल वैचारिक दर्शन से काम लिया गया है, उसमें जनपदीय चेतना का नितांत अभाव
परिलक्षित होता है। चिंतन को बिना परिवेश के गहरे लगाव के ठोस आधार नहीं मिल पाता
क्योंकि वही मूल्य हमारी कविता में काम की चीज है जिसका लोक-मूल्य हो और कोई
वक्तव्य या विचार-रूप कविता में न आए बल्कि जीवनधर्मी बिम्ब ही उन मूल्यों को
प्रतिबिम्बित करता हो। उदय प्रकाश की
कविताओं के साथ हुआ यह है कि वे जन के सुख-दुख को लोक से ग्रहण न कर अपनी मान्यताओं
से ग्रहण करते हैं और आकर्षक बनाने के लिए पाठकों को जादुई यथार्थ का चकमा देते
हैं। फैंटेसी के इस प्रयोग में वे सफल नहीं हो पाते क्योंकि उनका अनुभव वस्तुगत
नहीं है, आत्मगत है। अनुभवहीनता की यही
पराकाष्ठा उनकी लंबी कविता ‘बैरागी आया है अपने गाँव’ में देखा
जा सकता है। कवि का बैरागी-मन जन के दु;ख
को स्वीकार नहीं करता, बल्कि वह उससे विचलित हो उठता है।
इसलिए वह इस ‘धरा-धाम’ में ठहरना नहीं चाहता। उसे ठहरने
के लिए फल-फूल, जलाशय और शीतल मृदुल कूप वाली जगह
चाहिए, उजाड़ गाछ-वृक्ष, कटते हुए जंगल और उजाड़ खेत वाली
जगह नहीं। वह जन के दु:ख से दुखी होकर पलायन का रास्ता अपनाता है, जबकि कबीर ने उल्टी बात कही – ‘सुखिया सब संसार, खावे और सोवै, दुखिया दास कबीर जागे और रोवे।‘ कबीर का जगना और रोना दुनिया के
दुखों के निस्तार के निमित्त है। भूख ने उदय प्रकाश के कवि को बैरागी बना दिया। वह
अपने गाँव का ही जोगी है जो शहर-गाँव की ख़ाक छानकर फिर से गाँव लौटा है। वह ‘पुराने
सिरीकमल चावल का भात, अरहर की दाल, घी और आम का अचार’ माँगता है। बैरागी में सुस्वाद भोजन
की यह चाहना साधु-प्रकृति के विपरीत है। पेट की बुभुक्षा बैरागी में कहाँ से आई? यह
कवि के कुलीन सोच को प्रदर्शित करता है। फिर बैरागी अपनी ही बात को उलट देता है और
कहता है- ‘ असल में हम तो / भूख को भगाते हैं / पेट को सुलाते हैं।‘ इन विरोधाभासों के बीच वह समझाता है कि यहीं
यशोदा ने अपने लल्ला को दही-भोग कराया था जहाँ आज भूख नाच रही है
। लोग भूख से बेहाल हैं और तड़प रहे हैं। समाज की भूख, भय और शोषण का वितंडा खड़ाकर कवि के
बैरागी पात्र का अपने गाँव की दारुण स्थिति पर दीर्घ संलाप पाठकों के बीच क्या सन्देश
देना चाहता है ? मूल समस्या पर बात न कर यहाँ एक साथ पूरी जन-समस्याओं की ‘इनसाइक्लोपीडिया’ रचना कविता के रूप को बिगाड़ रही है।
कविता में बैरागी का कोई मूल संदेश परिलक्षित
नहीं होता। वह ग्रामीणों को जगाने के उपक्रम में जो उपदेश देता है, उनमें ‘बिहारी बनवारी’ (कृष्ण) के निर्गुण
प्रेम का जादू है, गोपिकाओं की रास लीला है, उनका जलविहार करना और ‘प्रभु का पुण्य प्रसाद’ भी है। इन सौंदर्य प्रसाधनों
के बीच कवि बिलकुल बनावटी ढंग से जनलोक पर भरोसा करता है कि ‘पहली बार / बरसों-शताब्दियों से सोई / तुम्हारी आत्मा के/ क्रोध ने अंगराई ली है।‘ बैरागी के जागरण में ‘पाप से लदी
हुई धरती दरक रही है’ और ‘जाग रही है वर्ग चेतना की नई ज्वालामुखी ’। बैरागी कैसे यह अपेक्षा करता है कि
ठूँठ पेड़ उनके कहने मात्र से हरे हो जाएंगे, फलों और कोपलों से लद जाएंगे, गोप-गोपियाँ पुष्ट और प्रसन्न हो जाएंगे? शिशुओं से कालियादह पर गेंद खेलने, गउओं के थन दूध से भारी होने, खेत गुद्देदार अन्न से अँट जाने यानी
बैरागी के गा-गाकर कहने, उसके झांझ-करताल बजाकर आवाह्न मात्र से धरती पर
संपन्नता लौट आने की आशा करना कवि की नास्टैल्जिया के सिवाय कुछ नहीं। कवि ने
बैरागी के माध्यम से जो अवधूती सन्देश देना चाहा है, उसमें केवल व्यर्थ का प्रलाप है, शब्दों का जंगल है। कवि का बैरागी जिरीबाम से श्रीकाकुलम, बरौनी से फरीदाबाद, जलपाईगुड़ी से चिरमिरी, भिलाई से जमशेदपुर-धनबाद , बिहार से केरल, त्रिपुरा से बंगाल , तिरुपति से कैलाश, कश्मीर से कन्या कुमारी, मुशहरी से राजहरा , मथुरा-वृंदावन से बद्रीनाथ , इम्फाल से छत्तीसगढ़ तक घूमने का दम्भ
भरता है और इस यायावरी जिंदगी में उसे चारो ओर वैषम्यता और शोषण के प्रति क्रोध की
आग ही दिखाई देती है। पूरे भारत-दर्शन कराकर कवि ने अपनी इस लंबी कविता में पाठकों
को केवल वाकजाल में उलझाने की कोशिश की है। उसमें मुक्तिबोध के ‘अंधेरे में’ या धूमिल की ‘पटकथा’ की तरह न भावोद्वेलन है, न विचारोद्रेक। शब्द-स्फीति से कविता
मूर्छा खा गई है। प्रगीतात्मकता के साथ कवि
का अंतर्द्वंद्व
और उसकी बहुस्तरीयता लंबी कविताओं का प्रमुख गुण माना गया है पर, उदय
प्रकाश की इस लंबी कविता को कंटेंट या विचारतत्व की दृष्टि से भी सबल नहीं कहा जा सकता।
अपनी वाचालता के कारण कविता जनाकीर्ण और अर्थगर्भी होने से चूक गईं है । जहाँ भी कवि
को अभिव्यक्ति का गैप मिला, वहाँ
बैरागी ने कवि-मन के आभिजात्य-सौंदर्य को बखानने में कसर नहीं छोड़ी।
बात अगर यहीं आकार रुक जाती तो कवि के हक में
ठीक होता। औसत दर्जे की लंबी कविता मानकर पाठक संतोष कर सकता था। पर जब कवि पाठक
के ज्ञान-संवेदना के साथ खिलवाड़ करे,
शब्दों का निरर्थ जुगाली करते हुए पाठक को भ्रमित करे तो पाठक को ऊब होती है।
काव्य-संग्रह ‘अबूतर-कबूतर’
(1984) के चौदह साल बाद इनका तीसरा काव्य संकलन ‘रात
में हारमोनियम’ आया। इस संग्रह की एक कविता है –
रात में छुट गया हारमोनियम । यह कविता किताबघर प्रकाशन की इनकी चुनी हुई कविताओं
का संग्रह ‘कवि ने कहा- उदय प्रकाश’
सीरीज में भी उपलब्ध है। इस कविता को स्वयं कवि और उनके पाठक एक बड़ी कविता मानते
हैं। इसलिए यहाँ उस कविता को देखना बड़ा रुचिकर होगा –
“मै हारमोनियम रात के भीतर बजा रहा था
गाना जो था वह अँधेरे में इतनी दूर तक जाता था
कि मै देख नहीं पाता था ,
फिर एक पतली-सी दरार मुझे दिखी
मै उसमें घुस गया
और अँधेरे की दो परतों के बीच नींद में डूबे पानी जैसा
दूर तक दौड़ने लगा ,
वहाँ बीस साल से एक लड़की थी , जो बिना कभी दिखे
सोती जा रही थी
वह जागी तो नहीं लेकिन नींद में ही हँसी ,
अँधेरे में गाना था और पानी जैसा जो बह रहा
वह मैं था ,
फिर तो मैं भी हँसने लगा रात में ही
अँधेरे में छुपा हुआ ,
एक मोटा अधेड़ उम्र का आदमी
साईंबाबा की फोटो के नीचे पिस्ता खा रहा था
उसने बंदूक से मुझे डराया
यों आँखें फाड़कर और मुँह को यूँ -यूँ करके ,
वह तो बाप निकला लड़की का ,जो गुस्से में था
और सो भी नहीं रहा था बीस साल से
लड़की के सपनों की पहरेदारी में
मै क्या करता ? धप्प से कूदकर बाहर निकल आया
और उजाले में डरावने आदमी से नमस्ते करने लगा ,
लेकिन मेरा हारमोनियम तो
रात में ही रह गया था ,बहुत पीछे
और वह बज रहा था
और लड़की हँसे क्यों जा रही थी
यह कहना मुश्किल था ।“
कविता का कंटेन्ट यह है कि कवि रात
में हारमोनियम बजा रहा है। पूरी कविता स्वप्न में है और स्वप्न के भीतर भी स्वप्न
है। पर गाना सुनने की चीज है, देखने की नहीं। कवि का गाना अंधेरे में दूर तक जा रहा है। दीगर है कि संगीत
का प्रसार अंधरे में नहीं होता, सन्नाटे में होता है। शांत वातावरण में स्वर-लहरियाँ गूँजती हैं। पर कवि का
गाना अंधेरे में फैल रहा है। पहली तीन पंक्तियाँ संवेदना की कितनी हास्यास्पद
अभिव्यक्ति हैं! फिर कवि को एक पतली सी दरार दिखी। कवि उसमें घुस गया। खैर, ऐसा स्वप्नलोक में हो सकता है। पर
अंधेरे की दो परतों के बीच नींद में डूबे पानी जैसा कोई कैसे दूर तक दौड़ सकता है ? और वहाँ बीस साल से एक लड़की बिना
कभी दिखे सोती जा रही है । बीस साल तक सोना तो संभव नहीं पर अगर इसका अर्थ
हारमोनियम के सम्मोहन से है तो फिर अगली पंक्ति है कि’ वह जागी तो नहीं लेकिन नींद में ही
हँसी’ । मतलब कि वह प्यार के सम्मोहन में
लंबे समय तक खुश भी रही। इसके आगे कवि कहता है कि ‘पानी जैसा जो बह रहा था वह मैं था।‘फिर तो मैं भी हँसने लगा रात में ही अँधेरे में छुपा हुआ ‘, यहाँ किसी व्यक्ति का पानी जैसी बहने
वाली चीज का पर्याय बन जाना स्वप्न में भी संभव नहीं होता । यह कवि की
वाक्य-वितंडा है। कवि के पात्र का हँसना और अंधेरे में छिपना तो प्रेम-किलोल हो
सकता है, इसलिए चलेगा। किन्तु अधेड़ उम्र के
आदमी का साईं बाबा की फोटो के नीचे पिस्ता खाना और बंदूक से प्रेमी को डराना साईं
के प्रेम-दर्शन का प्रतिलोम है, यानि लड़की का बाप कवि-पात्र के प्रेम के विरोध में है। पर अगली पंक्ति में ‘यों आँखें फाड़कर और मुँह को यूँ -यूँ करके’
-- इसमें ‘यों’ और ‘यूं-यूं ‘ को कवि ने बिम्ब नहीं दिया। इस
कारण उसके शब्द कविता में सार्थक नहीं हुए। बिना बिम्ब के शब्द एक फ़िल्मकार-कवि ही
दे सकता है जो यह भूल जाता है कि यहाँ उसे अभिनय नहीं करना है, बल्कि कविता करनी है। लड़की के
सपने और प्यार की पहरेदारी में उस मोटे, बूढ़े’ अधेड़ व्यक्ति का नहीं सोना
(जागना) प्यार में बाधा है लेकिन उजाले में आकर प्रेमी का उस आदमी को नमस्ते कहना
और यह मजबूरी जताना कि ‘मैं क्या करता’ यानि प्रेम को छोड़ देना उसके डरपोक
होने और प्रेम से पलायन की ओर इंगित करता है जहां कविपात्र अपने प्रेम के प्रति संजीदा
नहीं दिखता कवि का ‘हारमोनियम तो बहुत पीछे अंधेरे में
ही छुट गया था। प्रेम की शुरुआत कविता में रात के अंधेरे में उसी के बजाने से हुई
थी। कवि का कितना खोखला स्वप्न है कि अब भी हारमोनियम बज रहा था। अगर अब कोई दूसरा
व्यक्ति हारमोनियम बजा रहा है तो लड़की फिर क्यों हँस रही, यह कवि का संशय है। यह कवि की ठकुराई
है या शब्दों की पगुराई ? क्या है यह ?? इस
तरह पूरी कविता स्वप्न या फैंटेसी के भीतर कला का असफल प्रयोग है जो कहीं से भी
जनवादी कविता की श्रेणी में नहीं आती। यही कवि का जनवादी मुखौटे में साहित्य
का आभिजात्य चेहरा है। ऐसी कविता को लेखिका सुशीला पूरी अपने ब्लॉग पर चेंप कर कहती है कि ”यशस्वी कवि कथाकार उदय प्रकाश जी
की यह कविता अनगिनत व्यंजनाओं को समेटे अपने समय की बड़ी कविता है और इसी कविता के
शीर्षक से उनकी मशहूर किताब है -- ''रात में हारमोनियम'' !” मुझे कोई बताए कि शब्दों के साथ जुगाली करते कवि का कला के
प्रति नितांत असावधान ‘अप्रोच’ और उच्छृंखलता से बनी इस नादान
कविता में कौन-कौन सी व्यंजनाएँ गुप्त हैं ! मेरी दृष्टि में पूरी की पूरी कविता हवा-महल है। कविता के सचेत पाठ से यह साफ
हो जाता है कि कवि को न तो कविता में संवेदना को सही तरीके से रखने का ख्याल है, न उनकी फैंटेसी ही दोषमुक्त है। यह जानी हुई बात है कि
मुक्तिबोध ने भी अपनी कविताओं में फैंटेसी का प्रयोग किया। पर मुक्तिबोध
की रचनाओं में फैन्टेसी और रहस्यात्मकता उदय प्रकाश के जादुई यथार्थ या केदारनाथ
सिंह की चकमा देने वाली कविताओं से इस मायने में भिन्न है कि उसमें जिंदगी की एक
अनिमेष पुकार है, हाहाकार है, बेचैनी है, निनाद है। मनोरंजन नहीं, मन की किलकार है,
यथार्थ के गहन सन्नाटे की
दुर्दमनीय अबूझ-सी एक चीत्कार है। इसलिए मुक्तिबोध की फैन्टेसी उनकी रचना को अजेय बनाता है, मन के उच्चतम (क्लासिक) भावों का बोध कराता है। उन्होंने
इसका प्रयोग कई प्रकार से किया है। कहीं वह
हल्का है तो कहीं घनीभूत। उनके द्वारा कविता में फैंटेसी-शिल्प का प्रयोग इस अर्थ
में सार्थक है कि वह यथार्थ के अत्यंत सन्निकट है, गोया कि स्वभुक्त सामाजिक यथार्थ की
गहरी छवि के प्रतिबिम्बन के कारण सफल हुआ है जबकि उदय प्रकाश संवेदना आधुनिकी के
नाम पर शब्दों और घटनाओं के साथ खेलते नजर आते हैं। मुक्तिबोध ने संसार के भीषण
अंतर्द्वंद्व और उसकी बहुस्तरीयता को उभारने के लिए फैंटेसी का प्रयोग एक औज़ार के
रूप में किया। फैंटेसी उनका काव्य-साधन है, साध्य नहीं। इसमें
विशेषता यह है कि उनका फैंटेसी धीरे-धीरे कविता में परत-दर–परत
खुलता है, जिसमें सत्य में स्वप्न और स्वप्न में सत्य का भास
होता है। स्वप्न के भीतर स्वप्न में
यथार्थ के प्रतिदर्श का बोध होता है। वह जितना तीव्र है,
उतना ही मर्मभेदी। मुक्तिबोध की कविता ‘सूखे कतार नंगे पहाड़’ इसका एक अप्रतिम उदाहरण हो सकता है, जहां पहाड़
पूंजीवादी व्यवस्था का प्रतीक है। इसी काले विवर-अंधकार में पूंजीवादी विचारधारा
वाले पूंजीपति तांत्रिक के रूप में रहते हैं, जिसने
मानव-आत्मा को श्वानों, स्यारों और चमगादड़ों के तन में बंदी
बना रखा है : देखिए,
“निज अंध गुहा की छत में तांत्रिक ने, असंख्य
आत्माएँ लटका दीं चिमगादड़ के समूह-सी उलटी
लटका नीचे सिर, ऊपर करके घृणित पैर
ढीले फैलाकर रात्रि श्याम
असगुनी पंख
उलटी लटकी हैं पराजिता दयनीया आत्माएँ असंख्य !
भूखे स्यारों की मलिन देह
में अगिन मानवात्माएँ कर दीं, हाय! कैद
जो इधर-उधर पशु रहे घूम
मुख को नत कर, वे श्वान और
अतिवृद्ध सिंह
(सरकस के पशु)
भूखे शृंगाल इत्यादि जीव –
थे एक जमाने में ये भी मनुष्य,
पर थोड़े से आराम हेतु,
अपनी आत्माएँ बेच, हाय !
हो गए आज
काले तांत्रिक की महादुष्ट जागीर घोर
के क्षुद्र जन्तु।“
इस तरह के उदाहरणों से मुक्तिबोध की कविताएं भरी पड़ी हैं, जो उनकी
कविताओं में फैंटेसी के सफल प्रयोग को दर्शाते हैं। उपर्युक्त तुलनात्मक अध्ययन से
उदय प्रकाश की फैंटेसीगत कमजोरियों को आसानी से समझा जा सकता है।
आगे
हम इस सच्चाई के साथ खुलेंगे कि शौक-मौज और सस्ते मनोरंजन के लिए लिखी गई उदय
प्रकाश की ऐसी बे-सिर-पैर की बहुतेरी नकली और बनावटी कविताएं मिलेंगी जिनका
पुनर्मूल्यांकन आवश्यक प्रतीत होता है।
तीसरे संकलन के लगभग ग्यारह साल बाद 2009 में उदय प्रकाश का
चौथा संकलन ‘भाषा जो हुआ करती है’ आया। इसमें ‘राजधानी में बैल’ सीरीज की छह कविता पर प्रकाश
डालना चाहूँगा । ख्यात आलोचक स्व. परमानंद श्रीवास्तव इसे उदय प्रकाश जी की
काव्य-क्षमता और वस्तुगत नवीनता के विस्तार का साक्ष्य मानते हैं और कहते हैं कि “गहरी
ऐंद्रिकता के कारण उदय प्रकाश के लिए राजधानी में बैल की उपस्थिति एक बड़ी दुर्घटना
है। 'बादलों को सींग पर उठाए / खड़ा है
आकाश की पुलक के नीचे / एक बूंद के अचानक गिरने से / देर तक सिहरती है उसकी त्वचा /
देखता हुआ उसे / भीगता हूं मैं / देर तक!' आगे- 'उसकी स्मृतियों में अभी तक हैं खेत
/ अपनी स्मृतियों की घास को चबाते हुए /
उसके जबड़े से बाहर कभी-कभी टपकता है समय/झाग की तरह / . . . यह संकेत है कि उदय
प्रकाश की विश्वदृष्टि से 'चारागाह' 'ढेला' पितर-पुरखे' ओझल नहीं हैं। कविता हमारे समय में एक साथ वैश्विक और
स्थानीय है।“
परमानंद
श्रीवास्तव ने कविता के नए प्रतिमान को प्रमोट करने की दिशा में इन कलावादी कवियों
की संवेदना की नवीनता पर जो आलोचना की है, उसके पुनर्पाठ के साथ-साथ इनके
कवियों की कविताओं के भी पुनर्पाठ की गहरी जरूरत महसूस होती है। आप बैल-शृंखला की
इन कविताओं को खुद ध्यान दें तो आपको पता चल जाएगा कि इन जैसे नामवर आलोचकों ने
कविता को देखने की कितनी स्थूल और अवैज्ञानिक प्रविधि अपनाई है। बारिश की अचानक एक
बूंद के गिरने से बैल की त्वचा देर तक सिहरती है तो यह पुलक या रोमांच बादल में है, न कि आकाश में। पर कवि ने ‘आकाश की पुलक’ के नीचे बैल को लाकर खड़ा कर दिया
है। बैल पहली कविता में बादलों को सिंग पर उठाए हुए है तो दूसरी कविता में आकाश को, तीसरे में सूर्य बैल के सिंग पर
उतरता है। शब्दों की बातुनीगिरी यहाँ तक है कि कवि बैल, आकाश और पृथ्वी को अपने छोटे से
एक छाते से ही भिंगने से बचाना चाहता है। राजधानी में बैल की उपस्थिति को डॉ. परमानंद
श्रीवास्तव एक दुर्घटना मानते हैं (क्योंकि उसे गाँव और खेतों में होना चाहिए जबकि
वह शहर में पड़ा है)। पर कविता में कितना विरोधाभास है कि खेत की ओर लौटने के अभिप्सु
बैल को कवि बारिश से बचाना चाहता है जहाँ उसकी अदम्य चाह है। कवि के ही शब्दों मे, ‘पितरों – पुरखों के गाँव की ओर / जहाँ नहीं बचे हैं अब चारागाह / या फिर कनॉटप्लेस या पालम हवाई अड्डे की
दिशा में / जहाँ निषिद्ध है सदा के लिए / उसका प्रवेश । (बैल-6) ‘उसके कानों में गूँजती रहती है / पुरखों के रँभाने की आवाज़ें / स्मृतियों से बार-बार उसे पुकारती
हुई उनकी व्याकुल टेर ‘ तो फिर कवि क्यों यह कहता है कि ‘मेरा छाता / धरती को पानी में घुल जाने से / बचाने के लिए हवा में फड़फड़ाता है’।‘ एक ओर, बैल की
त्वचा पर गिरी एक बूंद देखता हुआ कवि स्वयं देर तक भिंगता है तो दूसरी ओर वह धरती
को भी जल-सिक्त होने से बचाना चाहता है। प्रत्युत्पन्न विरोधाभास कविता के संवेदन-सृजन
में कवि की भारी भूल है जो डॉ. परमानंद श्रीवास्तव जी को दृष्टिगत नहीं हुई । अब तक उदय प्रकाश ने कविताओं में यही किया है।
कविता में संवेदना की आधुनिकी की सृष्टि में वे इतना खो जाते हैं कि उनकी संवेदना
ज्ञानात्मक होने से चूक जाती है। ऐसा क्यों होता है ? उत्तर
स्पष्ट है - कवि की आभिजात्य प्रवृत्ति कविता पर भारी पड़ती है जो उनकी संवेदना को तहस-नहस
कर देती है। इस कारण कला के अंतिम (तीसरे) क्षण तक आते-आते कविता दम तोड़ देती है।
किताबघर प्रकाशन से ‘कवि ने कहा’ शृंखला के
अंतर्गत कवि उदय प्रकाश के स्वयं के द्वारा चुनी हुई कविताओं का संग्रह आया है। इस
संग्रह की अंतिम कविता ‘हम हैं ताना-बाना’ में कवि का ढोंग देखिए। कवि की उद्घोषणा का भावार्थ यह है कि वे अवधूत हैं, उनकी कविताएँ अवधूती हैं जैसे कि वे कबीर और मुक्तिबोध की समृद्ध परंपरा
का वाहक हों –
हम हैं ताना, हम हैं बाना ।
हमीं चदरिया, हमीं जुलाहा, हमीं गजी, हम थाना
नाद हमीं, अनुनाद हमीं, निःशब्द हमी गंभीरा,
अंधकार हम, चाँद सूरज हम, हम कान्हा हम मीरा ।
हमीं अकेले, हमी दुकेले, हम चुग्गा, हम दाना ।। हम हैं ताना बाना ।।
हमीं चदरिया, हमीं जुलाहा, हमीं गजी, हम थाना
नाद हमीं, अनुनाद हमीं, निःशब्द हमी गंभीरा,
अंधकार हम, चाँद सूरज हम, हम कान्हा हम मीरा ।
हमीं अकेले, हमी दुकेले, हम चुग्गा, हम दाना ।। हम हैं ताना बाना ।।
यह कैसा फक्कड़पन है कि कवि एक ओर कबीर और बैरागी का गीत गाता है तो
दूसरी ओर कविता में उस सोच को लाता है जो उसे बोझिल, उबाऊ, नीरस, रूपवादी और बुर्जूआ बनाता है। इससे कवि के चरित्र पर प्रश्न-चिन्ह खड़ा हो
जाता है। ‘पोएट्री’ को मैनेज करने के
गुण में महारथ हासिल उदय प्रकाश जी को अब तक दर्जन भर से अधिक पुरस्कार मिल चुके
हैं जिनमें भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार (1980), रूस का प्रतिष्ठित अन्तराष्ट्रीय पूश्किन सम्मान (2007) और साहित्य अकादमी पुरस्कार (2010) भी शामिल है। साहित्य अकादमी अवार्ड उनकी विवादित और कमजोर
कृति ‘मोहनदास‘ पर दी गई है, जिसकी अब भी दबी जुबान से आलोचना होती
है। इसमें सबसे दुखद बात यह है कि गोरखपुर वाले योगी आदित्यनाथ के हाथ से पुरस्कार
लेकर उन्होंने अपने जनवादी लेखकीय चरित्र पर स्वयं यह सवाल खड़ा कर दिया कि वे
सम्मान के लिए पात्र-कुपात्र, किसी का ध्यान नहीं रखते। इससे
इनको मिले अन्य पुरस्कारों पर भी यह स्वाभाविक संशय उठता है कि इनको किस परिस्थिति
में और सृजन की किस गुणवत्ता को रेखांकित कर इतने सारे पुरस्कार प्रदान किए गए हैं
। समय सबका फैसला करता है।
अब लगे हाथो भारत भूषण पुरस्कार, जो उदय प्रकाश जी के द्वारा कवयित्री
शुभमश्री को हाल में ही दिया गया है, के ऊपर भी थोड़ी बात कर
लेना प्रासंगिक होगा। कवि भारत भूषण अग्रवाल छायावादोत्तर हिंदी कविता के एक सशक्त
हस्ताक्षर हैं। वे अज्ञेय द्वारा संपादित तारसप्तक के महत्वपूर्ण कवि हैं। उनके
निधन (1975) के बाद उनके नाम से यह पुरस्कार दिया जाने लगा। अब भारत भूषण अग्रवाल
को आप एक कविता से जानिए –
जो लिख चुका
वह सब मिथ्या है
उसे मत गहो !
जो लिखा नहीं गया
घुमड़कर भीतर ही रहा
वही सच है
जो मैं देना चाहता हूँ!
लो, यह दे दिया
सूनी हवा की लहरों पर
वह सब मिथ्या है
उसे मत गहो !
जो लिखा नहीं गया
घुमड़कर भीतर ही रहा
वही सच है
जो मैं देना चाहता हूँ!
लो, यह दे दिया
सूनी हवा की लहरों पर
दिये –सा सिराकर
तुम्हारा नाम ! ( जो लिख चुका / कविता – भारत भूषण अग्रवाल)
तुम्हारा नाम ! ( जो लिख चुका / कविता – भारत भूषण अग्रवाल)
वर्ष-2016 के लिए भारत भूषण अग्रवाल कविता
पुरस्कार से नवाजी गई युवा कवयित्री
शुभमश्री की कविता ‘पोएट्री
मैनेजमेंट’ पत्रिका जलसा
में प्रकाशित हुई है। पुरस्कार समिति के निर्णायक मंडल में अशोक वायपेयी, अरुण कमल, उदय प्रकाश, अनामिका और पुरुषोत्तम
अग्रवाल शामिल हैं जो बारी-बारी से वर्ष की
सर्वश्रेष्ठ कविता का चयन करते हैं। इस बार निर्णायक उदय प्रकाश हैं । साहित्य-जगत में जब इस प्रकरण को लेकर हो-हल्ला होने लगा तो
ख्यात आलोचक डॉ जीवन सिंह से यह जानना अनिवार्य हो गया कि उन्होंने इस 25 वर्षीय कवयित्री
की अब तक कितनी कविताएँ पढ़ी है जो उनकी इतनी प्रशंसा कर रहे। समालोचक जीवन सिंह ने
आजीवन कविता में लोकधर्मिता की वकालत की (हाल में ही शहीद लोकधर्मी कवि मानबहादुर
सिंह की कविताओं पर लंबा संपादकीय लेख लिखा ), शहरी मध्यमवर्गीय सोच और
सौंदर्य-चिंतन से पगी कविताओं की हमेशा से लानत-मलामत करते हैं, श्रम-सौंदर्य के कविता-निकष को ही मार्क्सवादी हलकों में लेकर युवा
कवियों का विश्लेषण करते हैं। पर इस कवयित्री के प्रति पक्षधरता इनके सारे किए-धरे
पर प्रश्न-चिन्ह बनकर खड़ा हो जाता है। शुभमश्री की कविताओं को आज की रूढ़िग्रस्त
कविता से अलग तरह की कविता बताते हुए जीवन सिंह जी कहते हैं कि “शुभम श्री
की इन कविताओं को पढ़ने से मालूम होता है कि वे वस्तु और रूप दोनों स्तरों पर काव्य
रूढ़ि को कितने प्रभावी तरीके से तोड़ना जानती हैं। उनकी प्रतिबद्धता भाषा के किसी
बाहरी रूप से नहीं, बल्कि उसकी
आन्तरिक चारित्रिक स्थितियों में झाँकती है। उनकी कविता सच में ही आज की
रूढ़िग्रस्त कविता से अलग तरह की कविता है । “ साथ ही,
कवयित्री की काव्यभाषा और शैली के संबंध में इनका तर्क है कि “जहाँ तक
मौजूदा जीवन यथार्थ का सवाल है, वह बहुत
प्रभावी और आज के मध्य वर्ग की शैली में शुभम श्री की कविता में आता है। यही उसकी
ताकत है।“ पर धूमिल जैसे कवि की काव्यभाषा और उनके
रचनात्मक यथार्थ को लेकर आज तक उन्होंने एक भी स्वतंत्र लेख नहीं लिखा । धूमिल को
मात्र चुटकुलेबाज़ी और मुहावरेबाजी का कवि कहकर टाल गए और सपाटबयानी कवि की संज्ञा से नवाजकर उनकी
महत्ता पर अपने विचारों के धूल रख दिए। आखिर इतना विचलन क्यों? इसकी कोई खास वजह तो होगी ! शुभमश्री की कविताओं को पढ़कर मुझे कोई यह
बताए कि इनकी किस कविता में लोकजीवन का अंतर्द्वंद्व और वर्ग-संघर्ष मौजूद है। मैं
समझता हूँ कि कविता कम से कम वह ही होती है जिसमें जनलोक की प्रतिबद्धता और उसका
श्रम-सौंदर्य उद्भासित होता हो और जो पढ़ने में मानवीय चेतना को स्पर्श-झंकृत करे।
ऐसा क्या है “पोएट्री मैंनेजमेंट” में ? अगर अराजक होकर बिना नृत्य के नियम के नाचना, बिना राग-लय के चीख-चिल्लाहट को गीत-संगीत मानना और सियारों
की पंचायत को कानूनी जामा पहनाकर उसकी वकालत करना ही कला-साहित्य का अब ध्येय रह
गया है तो फिर ‘पोएट्री मैनेज’ करते रहें और सुअर की आँख की बाल बनते रहें शुभंश्री के पक्षधर, रीढ़विहीन और कविता के कुजात- कुसंस्कारी, ग्लोब्लाइजेशन की आकंठ महिमा गान करने वाले साहित्य-च्युत
लोग ! अपनी राय जाहिर करने से पहले हम शुभमश्री की कुछ कविताओं से बावस्ता हों और
यह जानें कि इस कवयित्री के क्या काव्यगत गुण हैं जिन पर हमारे मठाधीश और पुरोधा
इतने लट्टू हो रहे। इनकी एक कविता है - बूबू-1, देखिए :
दूदू
पिएगी बूबू
ना
बिकिट
खाएगी
डॉगी
देखेगी
ना
अच्छा
बूबू गुड गर्ल है
निन्नी
निन्नी करेगी
ना
रोना
बन्द कर शैतान, क्या
करेगी फिर ?
मम्मा
पास ।
जीवन
और समय का कौन सा आंतरिक यथार्थ प्रच्छन्न है इस कविता में जो हमें दिखाई नहीं
देता ? शुभम श्री का रोता हुआ बच्चा चुप तो नहीं हुआ पर मन
में गुदगुदी पैदा कर गया ! क्या आपको बुर्जूआ सौंदर्य के परिहास का एक अन्यतम
नमूना भर नहीं लगती यह कविता ? इसी प्रकार इनकी एक कविता है
- मेरा बॉयफ्रेंड। यह एक निबंध-शैली की कविता है। कवयित्री एक “अनमैच्युर
सेक्स” के आकर्षण से बिंधी हुई इस कविता में कहना क्या चाहती है, यह हमारे विज्ञ आलोचक ही बताएँगे- मेरा बॉयफ्रेण्ड एक दोपाया लड़का
इन्सान है/उसके दो हाथ, दो पैर और एक पूँछ है.../ मैं एक अच्छी गर्लफ्रेण्ड हूँ / मैं उसके मुंह में घुस रही
मक्खियाँ भगा देती हूँ / मैंने उसके पेट पर मच्छर भी मारा है/ मुझे उसे देख कर
हमेशा हँसी आती है/ उसके गाल बहुत अच्छे हैं/ खींचने पर 5 सेण्टीमीटर फैल जाते हैं/
उसने मुझे एक बिल्लू नाम का टेडी दिया है/ हम दुनिया के बेस्ट कपल हैं/
मध्यवर्गीय सोच
के पाठकों के बीच सराही गई इनकी एक अन्य कविता का जिक्र करना चाहूँगा - मेरे हॉस्टल
के सफ़ाई कर्मचारी ने सेनिटरी नैपकिन फेंकने से इनकार कर दिया है। कविता को गौर से पढ़ें तो यह समाज के पुरुष वर्चस्ववाद को
इंगित करने वाली बेहद घटिया और कुसंस्कारी सोच से पगी हुई कविता लगती है। “हॉस्टल
के सफ़ाई कर्मचारी ने सेनिटरी नैपकिन /फेंकने से कर दिया है इनकार / बौद्धिक बहस
चल रही है/ कि अख़बार में अच्छी तरह लपेटा जाए उन्हें /ढँका जाए ताकि दिखे नहीं
ज़रा भी उनकी सूरत/करीने से डाला जाए कूड़ेदान में”/ कि छोड़ दिया जाए/ 'जहाँ-तहाँ' अनावृत .../ पता नहीं क्यों?/ यहाँ सवाल
यह है कि मासिक धर्म तो स्त्रियों की प्राकृतिक कुदरती क्रिया है, वह भी हर महीने। पर जिस प्रसंग को उठाकर
पुरुषवादी सोच और वर्चस्व को कविता में रूपाकार देने की कोशिश की गई है, उसकी अंतर्वस्तु इतनी उच्छृखलित है कि इस कविता का गहन अर्थ हमें यहाँ तक
पहुंचा देता है कि स्त्रियॉं को समान दर्जा देने के लिए उनके मासिक धर्म के
लत्ते से भी हमें प्यार होना चाहिए, चाहे वह करीने से
डस्टबिन में न भी रखी गई हो और अनावृत्त भी क्यों न हो ! यही सौंदर्य है शुभम
श्री की कविताओं का जिस पर हमारे विद्वान आलोचकगण फिदा हो रहे हैं! लेकिन जब
धूमिल लिखते है कि - “औरतें / योनि की सफलता के बाद/ गंगा का गीत गा रही है / देह के अंधेरे
में/ उड़द और अजवाईन के सपनों का पौधा/ उग रहा है/” तो धूमिल की कविताओं का स्त्री-विरोधी
ब्रह्म-ज्ञान आलोचकों में जागृत हो उठता है। धूमिल ने भी जिस वक्त यह सब लिखा, शुभम श्री के ही लगभग समवयस्क ही थे ! यहाँ यह बात शिद्दत से गौर की जानी
चाहिए कि शुभम श्री की काव्य-प्रतिभा में कौन सा आलोचकीय पराज्ञान कविता को भविष्य
की अनुभूति से सिक्त कर रहा है। यहाँ कहना सही होगा कि इस विद्रूप समय में कविता को खराब करने का काम केवल
रूपवादियों और सुविधाभोगियों ने ही नहीं किया है, बल्कि कई मार्क्सवादियों और लोकवादियों ने भी अपनी आलोचकीय
मिथक, हठ और स्वार्थपरता के कारण उसकी अस्मिता-हरण
करने में कोर-कसर नहीं छोड़ी- ‘सभ्यता की संयत-नकली भाषा में’। इसलिए कविता की दशा-दिशा मात्र उसके सौन्दर्य-शास्त्र और
चिंतन से नहीं तय की जा सकती ! इससे प्रबल चुक होने की सम्भावना बनती है। बदलते
समय में पूँजी और उदारीकरण से ही हमारा सामना और विरोध नहीं, इनके विरोधियों के उस सियार-चाल से भी है जो मौका पाकर कभी
भी अवसर भुनाने से नहीं चुकते और सामान्य कवियों को भी अपने कैरियर व यशोलाभ के
लिए महान बनाकर प्रस्तुत करते हैं जिससे उनका पूरा कविता-समय ही सवालों के घेरे
में आ जाता है। नयी सदी की कविता की दशा-दिशा का यह पाठ बहुत रुचिकर, किन्तु सचमुच गंभीर है और यह समय कविता के लिए बेहद कठिन और
कवियों के लिए अत्यन्त सचेत होकर चलने का समय है। इसका सबसे टटका उदाहरण शुभमश्री
की 'पोएट्री मैनेजमेंट' कविता को लब्धप्रतिष्ठित कवि उदय प्रकाश के द्वारा 'भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार' से सम्मानित करने की घोषणा है। यह जहां एक ओर उदय प्रकाश
जैसे कवि के काव्य-मेधा पर प्रश्न-चिन्ह खड़ा करता है, वहीं दूसरी ओर हिन्दी भाषा और साहित्य को
विरूपित करती कविता-भाषा पर भी सवालिया निशान लगाता है । शुभम की कविता हिन्दी के
बजाय ‘हिंगलिश’ भाषा की कविता
है। इस भाषा को विज्ञापनवादियों ने अपने मतलब से चुना। यह साहित्य की भाषा नहीं हो
सकती । भारत भूषण अग्रवाल कविता पुरस्कार से नवाजी गई कवयित्री शुभम श्री की कविता
‘पोएट्री मैनेजमेंट’ यहाँ सुधी पाठकों के निमित्त दिया जा रहा है :
कविता लिखना बोगस काम है!
अरे
फालतू है!
एकदम
बेधन्धा
का धन्धा!
पार्ट
टाइम!
साला
कुछ जुगाड़ लगता एमबीए-सैमबीए टाइप
मज्जा
आ जाता गुरु!
मने
इधर कविता लिखी उधर सेंसेक्स गिरा
कवि
ढिमकाना जी ने लिखी पूंजीवाद विरोधी कविता
सेंसेक्स
लुढ़का
चैनल
पर चर्चा
यह
अमेरिकी साम्राज्यवाद के गिरने का नमूना है
क्या
अमेरिका कर पाएगा वेनेजुएला से प्रेरित हो रहे कवियों पर काबू?
वित्त
मंत्री का बयान
छोटे
निवेशक भरोसा रखें!
आरबीआई
फटाक रेपो रेट बढ़ा देगी
मीडिया
में हलचल
समकालीन
कविता पर संग्रह छप रहा है
आपको
क्या लगता है, आम
आदमी कैसे करेगा सामना इस संग्रह का?
अपने
जवाब हमें एसएमएस करे
अबे, सीपीओ (चीफ पोएट्री ऑफिसर) की तो शान पट्टी हो जाएगी!
हर
प्रोग्राम में ऐड आएगा
रिलायंस
डिजिटल पोएट्री
लाइफ
बनाए पोएटिक
टाटा
कविता
हर
शब्द सिर्फ़ आपके लिए
लोग
ड्राईंग रूम में कविता टाँगेंगे
अरे
वाह बहुत शानदार है
किसी
साहित्य अकादमी वाले की लगती है
नहीं
जी, इम्पोर्टेड
है
असली
तो करोड़ों डॉलर की थी
हमने
डुप्लीकेट ले ली
बच्चे
निबन्ध लिखेंगे
मैं
बड़ी होकर एमपीए करना चाहती हूँ
एलआईसी
पोएट्री इंश्योरेंस
आपका
सपना हमारा भी है
डीयू
पोएट्री ऑनर्स, आसमान
पर कटऑफ
पैट
(पोएट्री एप्टित्युड टेस्ट) की परीक्षाओं में
फिर
लडकियाँ अव्वल
पैट
आरक्षण में धांधली के खिलाफ
विद्यार्थियों
ने फूँका वीसी का पुतला
देश
में आठ ने काव्य संस्थानों पर मुहर
तीन
साल की उम्र में तीन हज़ार कविताएँ याद
भारत
का नन्हा अजूबा
ईरान
के रुख से चिंतित अमेरिका
फ़ारसी
कविता की परम्परा से किया परास्त!
ये
है ऑल इण्डिया रेडिओ
अब
आप सुनें सीमा आनंद से हिंदी में समाचार
नमस्कार!!
आज
प्रधानमन्त्री तीन दिवसीय अंतर्राष्ट्रीय काव्य सम्मेलन के लिए रवाना
इसमें
देश के सभी कविता गुटों के कवि शामिल हैं
विदेश
मंत्री ने स्पष्ट किया है कि भारत किसी भी कीमत पर काव्य नीति नहीं बदलेगा
भारत
पाकिस्तान काव्य वार्ता आज फिर विफल हो गई
पाकिस्तान
का कहना है कि इक़बाल, मंटो, और फ़ैज़ से भारत अपना दावा वापस ले
चीन
ने आज फिर ने काव्यलंकारों का परीक्षण किया
सूत्रों
का कहना है कि यह अलंकार फ़िलहाल दुनिया के सबसे शक्तिशाली
काव्य
संकलन पैदा करेंगे
भारत
के प्रमुख काव्य निर्माता आशिक़ आवारा जी का आज तड़के निधन हो गया
उत्तरप्रदेश
में आज फिर दलित कवियों पर हमला
उधर
खेलों में भरत में लगातार तीसरी बार
कविता
अंत्याक्षरी का स्वर्ण पदक जीत लिया है
भारत
ने सीधे सेटों में ६-५, ६-४, ७-२ से यह मैच जीता
समाचार
समाप्त हुए!
आ
गया आज का हिंदू, हिंदुस्तान
टाइम्स, दैनिक जागरण, प्रभात ख़बर
युवाओं
पर चढ़ा पोएट हेयर स्टाइल का बुख़ार
कवयित्रियों
से सीखें ह्रस्व दीर्घ के राज़
३०
वर्षीय एमपीए युवक के लिए घरेलू, कान्वेंट एजुकेटेड, संस्कारी वधू चाहिए
२५
वर्षीय एमपीए गोरी, स्लिम, लम्बी कन्या के लिए योग्य वर सम्पर्क करें
गुरु
मज़ा आ रहा है
सुनाते
रहो
अपन
तो हीरो हो जाएँगे
जहाँ
निकलेंगे वहीं ऑटोग्राफ़
जुल्म
हो जाएगा गुरु
चुप
बे
थर्ड
डिविज़न एम ए
एमपीए
की फ़ीस कौन देगा?
प्रूफ़
कर बैठ के
ख़ाली
पीली बकवास करता है!”
कविता में भाषा
का यह नवाचार नहीं, कवयित्री
बाबूषा कोहली की भाषा की तरह महज एक खिलंदरीपन है जो साहित्य के बाहर की और टपोरी
भाषा है। यह बात अब पूरी तरह समझने के लायक है कि काव्यभाषा के प्रति नव आधुनिकतावादी
दृष्टिकोण को प्रतिबद्धता की भाषा कहना इसकी सच्चाई को जानबूझ कर नकारना है
। यह कविता कितनी मूर्त है या कितनी वायवीय, कितनी सपाट है या बिम्बात्मक, कितना जनवादी है, कितना अभिजनवादी या कला-उन्मुख, कितनी मध्यमवर्गीय संचेतना और कितना रचनात्मक आत्मसंघर्ष से
युक्त है,
कितना भाषाई सच हैं और कितनी वंचनाएँ, कितना आत्मगत है और कितना बाह्यगत ...इन सब उपादानों तक इस कविता
में मात्र प्रयुक्त भाषा से ही हम प्रथमतः पहुँच सकते हैं जो यह सिद्ध करती है कि
यह किसी कवि की भाषा नहीं हो सकती, यह मदारी भाषा जमूरे या विज्ञापन की बेहद चलताऊ भाषा है जो हर तरह से
गैर-साहित्यिक बोली-बानी की श्रेणी में आती है। कवयित्री की रचना का इस भाषाई जेनेटिक
लक्षण की तारीफ करना कविता की भाषा का फौरी तौर पर बेड़ा-गर्क ही करना माना जाएगा ।
‘पोएट्री मैनेजमेंट’ कविता में पचासों
अँग्रेजी शब्दों को रखकर, हिन्दी के साथ उसका घालमेल कर न
केवल हिन्दी भाषा को बदसूरत और अपमानित करने की कोशिश की गई है बल्कि कविता के रूप
और व्यंग्य की भाषाई चालबाजियों में डूबी कविताओं की अंतर्वस्तु और उसका रूप-सौंदर्य
किसी भी तरह से जनवाद के दायरे में नहीं आता, न लोक की रूपाभा से कहीं प्रतिकृत ही होता है। यह पूरी तरह बुर्जुआ
मानसिकता और सुविधाभोगी संस्कार से उपजी भाषा-कविता का अन्यतम नमूना है। युवा
आलोचक उमाशंकर सिंह परमार ने इस पूरे पुरस्कार प्रकरण से दुखी होकर लिखा है कि “उन्हे क्षमा कर दो भारतभूषण अग्रवाल ।
वो जानते हैं वे क्या कर रहे हैं। जिस हिंसक इमानदारी के बूते वो आज बन बैठे हैं
उसी हिंसक इमानदारी से समझदारी का खतरनाक खेल रचा जा रहा है । हे भारत भूषण तुम
नही हो लेकिन तुम्हारी ये दुर्दशा कविता खत्म करने का कलंक बनकर इतिहास मे चीखती
रहेगी। “ इसी प्रकार युवाकवि
और आलोचक भरत प्रसाद ने इस प्रकार जीवन सिंह के विचारों का प्रतिवाद करते हुए उनसे
कहा कि – “आपके प्रति सम्मान रखते हुए, आपके इस निष्कर्ष का पुरजोर विरोध करना आवश्यक हो गया है। शुभम्
की कविता में कविता है कहाँ? बस बेतरतीब , खिलंदड़ी सोच के वशीभूत फैली हुई मनमानी शब्दों औऱ भावों की
इस अराजकता को यदि आप नयापन कहते हैं, तब तो हर युवा कवि ऐसी महान कविता रचने में परम समर्थ है। नएपन
के नाम पर मनोहर कहानियां टाइप कविता का समर्थन करना, साहित्य को संकट में डालना है।“ लेकिन जीवन सिंह जी ने उसका बहुत हल्के में जवाब दिया है
कि “उसमें इस समय के यथार्थ की बुनियादी और गहरी समझ प्रकट हुई है जो
प्रचलित ढर्रे से बहुत भिन्न है इसलिए अटपटी लगती है। “
डा जीवन सिंह का तर्क निराधार है क्योंकि उनकी
यह समझ अन्य मेधावी कवियों के विषय में भी आनी चाहिए थी जो कभी नहीं आई, इसलिए इसे प्रायोजित सोच की कुंठित
मानसिकता मानने से कतई इनकार नहीं किया जा सकता ! खैर, यही
शुभंश्री की कविता और उसकी भाषा की स्वायत्तता है जो कविता को काव्य-जगत की अंधेरी
गली में ले जाती है –
साथ
देगा मन
असंख्य
कल्पनाएँ करूँगी
अपनी
क्षमता को
आख़िरी
बून्द तक निचोड़ कर
प्यार
करूँगी तुमसे
कोई
भी बन्धन हो
भाषा
है जब तक
पूरी आज़ादी है । (जब तक भाषा देती रहेगी शब्द / शुभम श्री)
यही है उदय
प्रकाश के द्वारा भारत भूषण अग्रवाल कविता पुरस्कार से नवाजी गई युवा कवयित्री
शुभंश्री की कविता का तत्व-दर्शन।
कहना न होगा कि उदय प्रकाश ने अपने सामंती और
हिपोक्रिटिक सोच के तहत अब तक कविता में जो कुछ भी रचा या सराहा, वह जन के सरोकार और संघर्ष से विलग तो है
ही, अपनी गद्यात्मकता, कुरूपता, वायवीयता, कलाहीनता,
अवैज्ञानिक दृष्टि और ज्ञान जनित संवेदना के अभाव में सही तरीके से अभिजन की भी
कविता नहीं कहला सकती। उनका सारा शब्दकर्म पूंजी, सत्ता और बुर्जूआ चरित्र का अन्यतम नमूना है जिस पर कविता की युवा पीढ़ी सावधानी से गौर
करेगी। ★:
सुशील कुमार
संपर्क : सहायक
निदेशक, प्राथमिक
शिक्षा निदेशालय,
स्कूली शिक्षा एवं साक्षरता विभाग,
एम डी आई भवन, धुर्वा, रांची –
834004
मोबाईल (0 90067 40311 और 0 94313 10216)
बहुत ही प्रभावकारी विश्लेषण। आंख खोल देने वाले इस आलेख में आपका गहन अध्ययन झलक रहा है।
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