मेरी मुट्ठी में डाल थी माँ ने
कलेवा के संग करुणा के कुछ दाने
और संभालकर रखने की ताकीद की थी।
बाबूजी ने रख दिये थे उसमें
थोड़े रुपये और थोड़ी- सी समझ
जो वक्त-बेवक्त अपने काम आये।
दीदी को खुशहाल घर ब्याहने का सपना,
छोटु को आदमी बनाने का जिम्मा
मेरी तंग मुट्ठी में अपनी-अपनी जगह काबिज़ थे।
पत्नी के उदास चेहरे से झाँकती उम्मीदें,
बच्चों की तुतलाती वर्तनी में फँसी इच्छाएँ
कहीं- न- कहीं मुट्ठी में पुलक रहे थे।
मित्रों के चंद सुझाव,
पड़ोसन की मीठी गालियाँ,
अपने-पराये के दर्द का एक कतरा भी
मुट्ठी में दुबके पड़े थे किसी कोने
और सुगबुगा रहे थे।
पर हर दिन ढीली पड़ रही थी मेरी मुट्ठी।
उँगलियों के खुलते कसाव के बीच
फिसल रही थी जतन से रखी एक-एक चीज़।
कोई तोड़ रहा था चुपके-चुपके
मुट्ठी के अहाते में बने
मेरे सपनों के घरौंदे।
मैं कालचक्र में फँसा, घूमता हुआ
तोल रहा था फिर भी अपनी चीज़ें
और सहेजने का यत्न कर रहा था
मैं कोई कविता नहीं कर रहा भाई,
मैं तो लड़ रहा हूँ आज भी
इस सदी के हत्यारे विचार से
जो मेरी मुट्ठी में घुसपैठ कर रहे हैं
और बटोर रहा हूँ
समय की उल्टी बयार में छितराये--
माँ की करुणा
पिता का भरोसा और
रिश्तों-नातों की गर्माहटें।
सुशील भाई,
जवाब देंहटाएंयह आपकी बेहद व्यक्तिगत कविता है जो निज़ी से ग्लोबल तक की यात्रा करती है। इस विपर्यय के कालचक्र मे अपनो के भरोसे और अपनी जनता पर विश्वास के सहारे ही जिया जा सकता है।
बधाई
अपने जीवन के अनुभवों और संघर्षों को आज के सामाजिक परिपेक्ष्य में इस कविता के माध्यम से खूबसूरती से कह गए हैं आप
जवाब देंहटाएंमैं कोई कविता नहीं कर रहा भाई,
जवाब देंहटाएंमैं तो लड़ रहा हूँ आज भी
इस सदी के हत्यारे विचार से
जो मेरी मुट्ठी में घुसपैठ कर रहे हैं
bahut behtareen tarike se aapane apani bat kahi hai.prabhavotpadak hai.
और बटोर रहा हूँ
समय की उल्टी बयार में छितराये--
माँ की करुणा
पिता का भरोसा और
रिश्तों-नातों की गर्माहटें।
mere kyal se kavita ko ye panktiyan poori tarah se kolati hai jisase isaka prabhav kamjor ho raha hai.kavita ka ant is tarah se nahin hona chahiye.
yah meri rai hai.
main undertone ki bat kar raha hoon.
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जवाब देंहटाएंSushil ji ki is kavita me antarjagat aur bahirjagat ka dwandwa hai.Jeevan ki visangatiyan aur vidambanaon ka marmsparshi chitran bhi..
जवाब देंहटाएंuttam
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