कौन है तुम्हारे घट्ठाये हाथों का ख़सम
जो नहीं जानता कि
इन हाथों की कठुआयी खाल के नीचे
जज़्बातों की अविरल नदी बहती है
जिसमें रुई के नरम फाहे-सा छुवन है
जो विकल आत्माओं का संताप हरती है?
किसे पता नहीं कि
इन खुरदुरे हाथों में सृजन के हुनर हैं
जिससे समूची पृथ्वी टिकी है
पूरी नफ़ासत से
इनकी कलावंत उँगलियों पर?
इन चट्टानी हाथों का लोहापन
कौन नहीं जानता?
कौन नहीं जानता कि
जिंदगी का हर फ़न है इनमें?
फिर भी ये हाथ
विदा-गीत की तरह उदास क्यूँ हैं,
चाबुक खाये घोड़ों की तरह कराहते क्यूँ है,
कंगाल के भूखे चेहरों की तरह क्यूँ डरावने, काले हैं?
क्यूँ न
दग्ध, चुप इन हाथों के चंद सवाल
चनक शीशे के घरों में फेंक
आराम फरमा रही मोम-सी गुलफ़ाम हथेलियों को
नींद से जगाया जाय?
और उनके गुलामफ़रोशी के खिलाफ़ गोलबंद
हो रही मुट्ठियों का मिजा़ज बताया जाय?
जो नहीं जानता कि
इन हाथों की कठुआयी खाल के नीचे
जज़्बातों की अविरल नदी बहती है
जिसमें रुई के नरम फाहे-सा छुवन है
जो विकल आत्माओं का संताप हरती है?
किसे पता नहीं कि
इन खुरदुरे हाथों में सृजन के हुनर हैं
जिससे समूची पृथ्वी टिकी है
पूरी नफ़ासत से
इनकी कलावंत उँगलियों पर?
इन चट्टानी हाथों का लोहापन
कौन नहीं जानता?
कौन नहीं जानता कि
जिंदगी का हर फ़न है इनमें?
फिर भी ये हाथ
विदा-गीत की तरह उदास क्यूँ हैं,
चाबुक खाये घोड़ों की तरह कराहते क्यूँ है,
कंगाल के भूखे चेहरों की तरह क्यूँ डरावने, काले हैं?
क्यूँ न
दग्ध, चुप इन हाथों के चंद सवाल
चनक शीशे के घरों में फेंक
आराम फरमा रही मोम-सी गुलफ़ाम हथेलियों को
नींद से जगाया जाय?
और उनके गुलामफ़रोशी के खिलाफ़ गोलबंद
हो रही मुट्ठियों का मिजा़ज बताया जाय?
सुशील जी , आपकी कविताएँ पढ़ रही हूँ, आपका रचना संसार एक ऐसा लोक रच रहा है, जो सबका होते हुए भी अछूता है। आपकी कविताएँ खुद बोलने लगी हैं, जो कवि के लिए भी प्रसन्नता की बात है।
जवाब देंहटाएंआप बड़ी तेजी से काम कर रहे है, जो मन को आश्वस्त करता है।
susheel ji bahut hi bhavmay kavita hai bdhai
जवाब देंहटाएंकिसी भी सोए हुए को
जवाब देंहटाएंनींद से जगाना है पाप
सुशील जी
यह क्यों नहीं समझते हैं आप।
बिना नींद से जगाए
उसके माथे पर चिपका दो
पीठ पर लिख कर लटका दो
जो उसे या उसे जानने वालों को
चाहते हैं आप बतलाना
वो इतनी तरह जान जाएगा
कभी न आपको
न आपकी बतलाई बात को
ताजिंदगी भूल पाएगा
जबकि आप उसे नींद से जगाएंगे
तो वो खूब गुस्सा खाएगा
हो सकता है गुस्से की उल्टी भी कर दे
वो न आपको अच्छा लगेगा
न किसी देखने जानने वाले को
पर गुस्सा करने वाला भी मजबूर है
जिसे भी जगाओ वो यह करता जरूर है
।
आपको भी अगर नींद से जगाया जाए
तो आपको भी गुस्सा आता होगा
मुझको भी आता है
सबको आता है
नींद में जिसको जगाया जाता है
उसे उसकी कमियों को ही बताया जाता है।
कर रहा हूं टिप्पणी पर
बन रही है कविता जैसी
छोड़ता हूं यहीं पर न हो
जाए कहीं ऐसी तैसी
जैसी वैसी टिप्पणी है।
बहुत सुंदर रचना.....पढकर अच्छा लगा।
जवाब देंहटाएंबहुत खूबसूरत भावाभिव्यक्ति है आपकी.
जवाब देंहटाएंयुवा शक्ति को समर्पित हमारे ब्लॉग पर भी आयें और देखें कि BHU में गुरुओं के चरण छूने पर क्यों प्रतिबन्ध लगा दिया गया है...आपकी इस बारे में क्या राय है ??
क्यूँ न
जवाब देंहटाएंदग्ध, चुप इन हाथों के चंद सवाल
चनक शीशे के घरों में फेंक
आराम फरमा रही मोम-सी गुलफ़ाम हथेलियों को
नींद से जगाया जाय?
और उनके गुलामफ़रोशी के खिलाफ़ गोलबंद
हो रही मुट्ठियों का मिजा़ज बताया जाय?
yah kavita bhi bahut achchhi hai.
kamal kiya hai aapane
ek bahot hi kaamyaab aur steek
जवाब देंहटाएंrachna...ek-ek lafz khud poori
haqiqat bayaan kar rahaa hai...
aapki rachnaa-sheelta kalpana-lok
se ythaarth tk pahunchne mei sahaayak ho jaati hai....
badhaaee svikaarein .
---MUFLIS---
वाह.... अच्छी कविता के लिये बधाई स्वीकारें..
जवाब देंहटाएंShram ki garima,asmita jis par puri prithvi tiki hai ke sath-sath samajik varg vishamta ki vidambna ko bakhubi chitrit kiya hai Sushil ji ne.Badhai.
जवाब देंहटाएंUrdu kaa ek shabd hai--Aamad
जवाब देंहटाएंarthaat bhaav kaa svata aanaa.
Anya kavitaaon kee tarah aapkee
ye kavita bhee aapke hriday se
niklee huee hai.Chhandmukt hote
hue bhee kavita chhandyukt hai.
Shabdon ke saath-saath bhaav kaa
pravah mun ko baandhe rakhta hai.
Sunder kriti ke liye meree badhaaee
sweekar kijiye.
पहले तो देर के लिये क्षमा।
जवाब देंहटाएंनाज़िम हिक़मत की जिस कविता से प्रभावित होकर आपने यह कविता लिखी है वह ही अपने आप मे अद्भुत है।
जन की क्षमताओं पर अपार विश्वास और पूँजीवादी सहजबोध से अलग सौन्दर्यबोध ही कवि को एक बेहतर समाज का स्वप्न न केवल दिखाता है बल्कि इस पर विश्वास करना और इस और उद्धत होना भी ।
फिर भी ये हाथ
विदा-गीत की तरह उदास क्यूँ हैं,
चाबुक खाये घोड़ों की तरह कराहते क्यूँ है,
कंगाल के भूखे चेहरों की तरह क्यूँ डरावने, काले हैं?
यह चिन्ता हर जेनुईन कवि की होनी चाहिये। हाँ कई बार कविता के अन्त मे अपने आप आ गया आशावाद सूट नही करता। अच्छा है कि आप उपदेश देने या आशावाद के तीर चलाने की जगह एक जन्सम्बद्ध कवि के फ़रायज की ओर इशारा करते हैं । यह कविता को विश्वसनीय बनाता है।
अच्छी कविता के लिये बधाई।