किसी प्रसवघर
या अस्पताल में
नहीं जन्मा हूँ मैं,
वह तो
एक कोख़ है
एक नि:शब्द प्रेम-कुटिया सी
जिससे
अपनी आयु की पहली तिथि को
नख-शिख तक पूरा ज़िन्दा
एक आदमी बनकर
निकला था मैं
पर जरायु से अलगते ही
अपने को सीधे
तुम्हारी भाषा की दुनिया में
अपने हाथ-पाँव पटकते पाया
जहाँ शब्दों के साँचे में
नवजातों को
पिघलाकर
ढाला जा रहा था।
यह देखकर
रो पड़ा था मैं,
शायद
माँ ने देखा होगा
प्रसव-पीड़ा झेलती हुई
अचककर मुझे
कि कहाँ आ गया हूँ मैं !
कोख़ में
बंद मेरी आँखों ने
नींद में
एक माँ की पथरायी आँखों में
सपने भी
ज़रुर देखे होंगे।
मगर तुम्हारे शब्द-विन्यासों के
पेशेवर आदतों में शुमार
कूँथते अपने हाथों ने
माँ के सुख-स्वप्न सब
मारकर
काली भाषाओं के कफ़न से
(उसे) ढककर
समय की
कभी न खुलने वाली दराजों में
रख दिये हैं
जहाँ तुम्हारे अक्षरों की
खुफिया साज़िशों के
शिकार होकर
अपने दिमाग़ में मैं
इस शताब्दी के कचड़े
भर रहा हूँ,
माँ ने मुझे
आदमी जना था
पर यह मैं क्या बन रहा हूँ !
तुम्हारी पाठशाला में
पढ़ते हुए
दुनियाभर की इतनी गुत्थियाँ,
इतनी कुत्सित प्रवृतियाँ
जान ली है मैंने कि
चरित्र का बहुरुपिया,
विचारों का दुभाषिया
हो गया हूँ,
और व्यक्तित्व के
अनगिनत संस्करणों में
छपता हुआ
'एक' से 'अनेक'। हाँ, मैं
कोख़ से अलग होकर
अब नित नये रुप
पहन रहा हूँ,
वस्तुओं - कलाओं
के मूल्य और अर्थ
बदल रहा हूँ।
इसलिये
माँ की आँखों में अब
न सागर लहराते हैं
न सपने।
शताब्दी की धूसरित दीवार से
टँकी हुई
वह
केवल एक जीवित तस्वीर है
जिसके उदास चेहरे पर
तुम्हारे शब्दों से अलग
इतिहास के पन्ने
फड़फड़ाते हैं
तुम्हें आगाह करते कि
माँ
पृथ्वी है घूमती हुई
अँधेरों को उजास में
बदलती हुई
जिसकी गुफाओं में
एक सूर्य टिका है
समय और गति के मेल से
उपर उठता हुआ
तुम्हारे शब्दों और
भाषाओं की गहरी काली
रात हरता हुआ।
धन्यवाद संध्या जी।
जवाब देंहटाएंअक्षरों को रंग बनाएं
जवाब देंहटाएंहोली की रंगकामनाएं।
होली की हार्दिक शुभकामनाएँ
जवाब देंहटाएंएक आदमी बनकर
जवाब देंहटाएंनिकला था मैं
पर जरायु से अलगते ही
अपने को सीधे
तुम्हारी भाषा की दुनिया में
अपने हाथ-पाँव पटकते पाया
जहाँ शब्दों के साँचे में
नवजातों को
पिघलाकर
ढाला जा रहा था।
Atyant marmik panktian.
Jeevan ki kadvi sachchai.Ek aur achchi kavita ke liye badhai swikaren.
सुशील कुमार की यह कविता मानवविरोधी सामाजिक-राजनैतिक परिवेश मे इन्सान बने रहने की मुसलसल जद्दोज़हद का आख्यान रचती है। एक अजीब सी किंकर्तव्यविमूढ़ता का शिकार सुशील कुमार का कवि इस युग के बुद्धिजीवी जन के आत्म्सन्घर्ष को रूपायित करता है।
जवाब देंहटाएंकथ्य के अनुरूप गझिन भाषा और शिल्प कविता मे नई व्यन्जना भरते है।
किसी प्रसवघर
जवाब देंहटाएंया अस्पताल में
नहीं जन्मा हूँ मैं,
वह तो
एक कोख़ है
एक नि:शब्द प्रेम-कुटिया सी
जिससे
अपनी आयु की पहली तिथि को
नख-शिख तक पूरा ज़िन्दा
एक आदमी बनकर
निकला था मैं....
Sushil ji bhot acchi kavita... kmal ki sabdavali aur kmal ki soch hai aapki...bhot acche...dil se ....!!
kafi sunder rachana.... dil ko chhoo gayi..
जवाब देंहटाएं"इसलिये
माँ की आँखों में अब
न सागर लहराते हैं
न सपने।
शताब्दी की धूसरित दीवार से
टँकी हुई
वह
केवल एक जीवित तस्वीर है
जिसके उदास चेहरे पर
तुम्हारे शब्दों से अलग
इतिहास के पन्ने
फड़फड़ाते हैं.."
is kavita ne kafi kuchh sochne ko majbur kiya hai.... aapko bahut-bahut dhanyavaad.
shushil aapaki kavita man ko bha gayi..... aap shabdon se khelana achhi tarah jaanate hai.
जवाब देंहटाएंagar faaltu samay ho to yaha bhi aakar kuchh sughaaw is naachij ko de sakate hai..
markrai.blogspot.com
thanks...
सुशील जी, बहुत अच्छी कविताएं और बहुत ही अच्छा ब्लॉग आपने बनाया है। मेरे ब्लॉग पर भी आएं और संभव हो तो अपने ब्लॉग पर उसका लिंक भी दें। मैं चाहता हूं कि झारखंड में आपसे जुड़े नेटवर्क तक भी मेरी बात पहुंचे। धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंSushil ji
जवाब देंहटाएंbahut gehra chitran hai.
kiran rajpurohit nitila