मित्रवर, इस साईट पर अब तक आप मेरी कविताओं से रु-ब-रु हैं | कविता के संदर्भ में अपनी समझ को संपुष्ट और विकसित करने के लिए यह निहायत जरूरी है कि हम उसके सौंदर्यशास्त्र और उसकी समालोचना-विधा से भी भलीभाँति वाकिफ़ हों | इसी उत्प्रेरणा से मैंने अपने ब्लॉग पर सृजन का आत्मपक्ष नाम से एक लेखमाला शुरू करने का मन बनाया है जिससे गुजरकर आपको न सिर्फ प्रसन्नता होगी बल्कि हम आपके सार्थक संवाद, विचार-विनिमय और साहित्य-सृजन के इस उपक्रम से लाभान्वित होकर आगे अपेक्षाकृत बेहतर सृजन पाठकों तक संप्रेषित कर पाने में सफल होंगे| आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियों की सदैव प्रतीक्षा रहेगी, अगर आप चाहें तो पोस्ट किए गए प्रासंगिक विषयों पर यहाँ स्वतंत्र रूप से अपना आलेख भी भेज सकते हैं जिसे आपके नाम-पते-फोटो इत्यादि के साथ यहाँ पोस्ट कर दिया जाएगा ताकि सार्थक संवाद का मार्ग और भी सरल रूप में प्रशस्त हो सके | रचना-प्रेषण हेतु हमारा ईमेल पता है - sk.dumka@gmail.com
(रचना यूनिकोड मंगल फॉन्ट में ही कृप्या भेजी जाय ताकि उसे पोस्ट करने में तकनीकी दिक्कत न हो)| तो प्रस्तुत है इस कड़ी में पहला लेख - कविता की सही समालोचना
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आप इस बात से लगभग सहमत होंगे कि साहित्य के साथ-साथ साहित्यालोचना भी ज़रूरी है। दीगर है कि एक अच्छी आलोचना रचना से कमतर नहीं होती
जिसे पढ़कर सृजनप्रेमी न केवल अघाते और फूले नहीं समाते बल्कि उससे बेहतर सृजन के
गुर भी सीखते हैं। वस्तुत: ये ही वे आँखें हैं जो राह दिखाती हैं कि हमें किधर
जाना है, वर्ना हमारे
लिये अमूर्तन
के अँधेरे में गुम हो जाना और भटक जाना बहुत
आसान है। लेकिन कटाक्ष करने के बजाय निस्पृह
होकर कविता की समीक्षा करना कम कठिन कार्य
नहीं। जहाँ तक सृजनात्मक और रचनाधारित आलोचना का प्रश्न है, सामान्यतया हमारे आलोचकों की अध्ययन-परम्परा भी गहन-गंभीर और संदर्भमूलक नहीं रही
है, इतिहास इसका गवाह है, जिनकी रही भी है तो उनके द्वारा नए रचनाकारों के व्यक्तित्व-कृतित्व को माँजने और
गुनने के बजाय उनके संबंध में अपनी नकारात्मक टिप्पणियाँ
और निष्कर्ष ही अधिक दिये जाते रहे हैं। जो काव्य के पारखी-आलोचक हैं उनमें से भी कई
अपने यशस्वी मायालोक से इतने ग्रस्त होते हैं कि उनका आलोचना-विवेक लगभग
आलोचना-अहंकार का पर्याय बन जाता है। अपने-अपने पूर्वग्रह, विवाद, सुविधाओं के लालच और दुराग्रहों के कारण वे आलोचना की खास ज़मीन और
वज़ह खोजते हैं, इस कारण
तटस्थ नहीं रह पाते। संभवत: इन्हीं कारणों से हिन्दी काव्य-संसार का अब तक न तो
समग्र मूल्यांकन हो पाया है, न कवियों की प्रतिष्ठा ही हिंदी साहित्य में उस तरह से हो पायी है जिसके वे सही
मानो में हक़दार थे या हैं। यह अभिलक्षण अन्य भाषा-साहित्य की तुलना हिन्दी में अधिक दृष्टिगत होता है जो यह इस साहित्य का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा| पर अब शायद आज़ादी के छ:
दशकों के बाद समालोचकों की नींद शनै:-शनै: खुल रही हैं। पुराने धाक़ वाले आलोचक की
जगह नये आलोचक ले रहे हैं, इस क्षेत्र
में संप्रति कई प्रतिष्ठित हस्ताक्षरों का अभ्युदय हुआ हैं (संख्या की दृष्टि से यहाँ नाम गिनाना उचित न होगा ) जिनकी समीक्षा-कृति न तो कहीं से यांत्रिक
है, न उबाऊ। लोक में इनकी गहरी आस्था है, इसलिये जीवन को बेहतर बनाने की दिशा में
इनकी समालोचनाएँ सतत क्रियाशील दिखती हैं। इन सबकी अपनी–अपनी ज़मीन हैं पर बहुत उर्वर, जहाँ हम कुछ सीख सकते हैं, समझ सकते हैं और उससे लाभ उठाकर अपनी रचना का प्रसन्न विकास भी कर सकते हैं। कई
कवि भी ऐसे हैं जिन्होंने अपने आलेखों के माध्यम से कविता का समुचित मार्गदर्शन
किया है अथवा कहें, इनके आलेख क्लासिक आलोचकों की तुलना में अधिक ग्राह्य और पठनीय
भी बन पड़े हैं जिन्होंने जीवन-पर्यन्त कवि-कर्म का निर्वाह करते हुए अपने विचारों में कविता के
सौंदर्य-शास्त्र और उसके आत्म-पक्ष पर गहरी और बुनियादी बातें कही हैं।
इन कवि-लेखकों में सार्वजनीन अभिलक्षण यह है कि लोकधर्मिता और जनपदीय चेतना का
संस्पर्श इनकी समीक्षा का मूल है जो रूपवादी नव्य समीक्षा की तुलना में हमारे
आभ्यांतर को बाह्य-जगत से मात्र मन-बुद्धि के स्तर पर ही नहीं जोड़ता बल्कि
क्रियाशील जीवन के ऐन्द्रिक बिम्ब, विचार-खनिज
और जीवन-द्रव को ठीक से आत्मसात करने के लिये हमारे इन्द्रिय-बोध को ज्यादा प्रखर
बनाये रखने के लिये सदैव सचेष्ट रहने के उपाय पर भी बल देता है । साथ ही हमें आशान्वित
करता है कि आने वाले समय में प्रतिबद्ध कवियों के साथ न्याय हो सकेगा।
हमें यह भी नहीं भूलना चाहिये कि कविता
की कोई ‘एकोअहम द्वितीयोनास्ति’ आलोचना
पद्धति नहीं होती। एक सुप्रसिद्ध समालोचक और हिंदी साहित्य के पुरोधा का मत यहाँ ध्यातव्य है। जवाहरलाल विश्वविद्यालय, नई दिल्ली के प्रथम पुनर्नवा पाठ्यक्रम में दि. 14 अक्तूबर, 1993 को उन्होंने
भाषण देते हुए कहा था कि -
"किसी
सिद्धांत का सहारा लेकर यदि कविता को जाँचेगे तो खतरे हैं। चूक हो सकती है।
गलतियाँ हो सकती है।....निष्कर्ष के रुप में मैं यही कहूँगा कि कुल मिलाकर मैंने
आपको कोई निष्कर्ष नहीं दिया है। आपको कोई 'केनन' नहीं दिया है। मैंने सिर्फ़ यह कहना चाहा है कि
कविता के परख के जो निकष हैं, वह चाबी नहीं है कि हम आपको दे दें कि ताला खोल
लीजिएगा। यह हस्तांतरित नहीं किया जाता। अर्जित किया जाता है। हर पाठक अर्जित करता
है। यह टिकट 'नॉन
ट्रांसफरेबल' है। फिर भी हमलोग ट्रांसफर कर दिया करते हैं ।
कविता का निकष 'नॉन
ट्रांसफरेबल ’ होता है। हर
पाठक, हर सहृदय
पाठक स्वयं अर्जित करता है। और वह जजमेंट अपना हुआ करता है। दूसरों की दी हुई चाबी
से खोले जाने वाले कमरे और होते हैं और ताले भी और हुआ करते हैं। कविता वह ताला है
जिस ताले में हर आदमी किसी दूसरे की दी हुई चाबी नहीं लगाता है। बल्कि खुद अपने-आप
खोलता है। अर्थ, रस, भावबोध प्राप्त करके और अपना जजमेंट देता
है कि मुझे ऐसा लगता है कि हर जजमेंट इस मामले में निहायत इंडीभिडुअल (व्यक्तिगत)
होता है । और उस जजमेंट में, अपनी साधना में जितनी ताकत होती है उतनी ही
उसको सामाजिक स्वीकृति प्राप्त होगी।
पर इस बात की कद्र तभी होगी जब समालोचक जैसा कहते हैं वैसा करें भी। यानि उनकी
कथनी और करनी में भेद न हो। पर होता यह आया है कि स्वार्थपरता और अन्यथा कारणों (
जिनका जिक्र लाज़िमी न होगा) से हमारे कुछ समालोचक संवाद की ज़गह विवाद को ही प्रश्रय दे
जाते हैं। इस कारण बड़े-बड़े कवि भी गुमनामी के अँधेरे में चले जाते हैं। मसला यह है कि अगर हमारे नामचीन आलोचकगण (जिन्हें हम जानते हैं,) कविता के विषय में इतने ईमानदार, सहृदय और उदार रहे हैं तो फिर उनके द्वारा क्यों त्रिलोचन, नागार्जुन, विजेन्द्र, कुमारेन्द्र, केदारनाथ
अग्रवाल ,गोरख पाण्डेय, धूमिल, पंजाबी कवि अवतार सिंह संधु `पाश' जैसे बड़े कवियों को समीक्षा की केन्द्र में लाना भूला दिया गया। उनके
काव्य-सौष्ठव की व्याख्या से क्यों परहेज किया गया और सिर्फ़ भूलाया ही नहीं, बल्कि रुपवाद और उपभोक्तावाद को प्रश्रय
देने और अपने किये को उचित ठहराने के लिये निरंतर विचलित करने वाले स्पष्टीकरण भी
दिया जाता रहा है, जिससे उन आलोचकों के आलोचना-कर्म के प्रति हिंदी-प्रेमियों
में आशंकायें दिनानुदिन गहनतर होती चली गयी क्योंकि छोटे और मँझोले कवियों को जो
दर्ज़ा उनके द्वारा हासिल हुआ वह बड़े और कालजयी रचना के रचनाकारों को नहीं। हिंदी
के आधुनिक काल में उनके रुपवादी
झुकाव की त्रासद स्थिति यह रही कि कविता की एक धारा सहज और संश्लिष्ट न होकर
दु्र्बोध और जटिल हो गयी। निश्चय ही हमारे लब्ध-प्रतिष्ठ समालोचकों के
द्वारा भी कवितालोचना के क्षेत्र में जाने-अनजाने कहीं-न-कहीं चूक बरती गयी है जिसे वे भी अब स्वीकारते
हैं पर इसका मतलब यह नहीं कि उनका हिंदी साहित्य को अवदान कम है। उनके व्यापक
अध्ययन और समालोचना-दृष्टि से अवश्य ही कवियों को आगे आने में सहायता मिली है। पर
समालोचना आज साहित्य के जिस चौराहे
पर खड़ी है वहाँ कविता और कवि-कर्म को बहुत गंभीर होने की जरुरत है। इस पर बहस
हमेशा अपने भारतीय परिवेश में ही होनी चाहिये। कविता को सबसे बड़ा खतरा आयातित रूपवाद
और रीतिवाद से है क्योंकि यहाँ चमत्कार-प्रदर्शन, वाकपटुता और ‘सपाटबयानी’ का
आधिक्य होता है जो कविता को सरस बनाने के बजाय बोझिल बनाते हैं और उसकी लय और उसके
बुनावट को बिगाड़ते हैं जिससे कविता के पाठक एक ओर जहाँ बिदकने
लगते हैं, वहीं दूसरी ओर जीवन-तत्व का सांगोपांग समाहार नहीं होने से कविता अन्यतम
होने से चुक जाती है और काव्य-तत्वों की अनुभवहीनता का शिकार होकर कवि नकली और
किताबी कविता को ही लिखकर अपने कवि-कर्म की इतिश्री मान लेता है, फलत: परिदृश्य
में फालतु कविताओं की बाढ़-सी आ जाती है। आज रोज़ थोक में लिखी जा रही कविताएँ इसका
प्रमाण है जो साहित्यिक पत्रिकाओं के पृष्ठ बरबाद करते हैं, और पाठकों का समय भी। कई ब्लॉगों और सोशल-नेटवर्किंग वेबसाईटों पर भी ऐसी फालतू किस्म की कविताएँ क्षण-क्षण छपती रहती हैं |
उपर्युक्त बातों से यह स्पष्ट है कि समालोचना और समीक्षा सदैव अनंतिम रहने
वाली यात्रा है, बिल्कुल कविता की
तरह ही। अतएव कविता पर कोई जजमेन्ट नहीं थोपा जाना चाहिये। समालोचना कोई तुला या
निकष नहीं कि अमूक रचना ठीक है या अमूक ख़राब और कमजो़र। समालोचक किसी दूसरे
उपग्रह का वासी नहीं, इसी रचे-बसे लोक का हिस्सा है, इसलिये समालोचकों
का मूल मक़सद अपने कवियों से सार्थक संवाद करना होना चाहिये, उनका उत्साह-वर्द्धन करना
होना चाहिये। न कि विवाद और बहस खड़ा कर उनका हौसला कम करना। अर्थात उनसे हम कवियों
को कुछ सीखना है, आगे बढ़ना
है।
अगर समालोचक कविता की दुनिया पर आसीन होकर उसका सामंत बन जाय और बिना कारण
बताये ही कवियों की रचना पर अपनी लेखनी के चाबुक जड़ें तो कवियों को भी यह समझने की जरुरत है कि ऐसे राजसी-तामसी-सामंती-उपभोक्तावादी-पाश्चात्यवादी
समालोचकों को नकार कर उन अध्ययनशील-श्रमशील भारतीय चित्त और माटी की गंध से जुड़े समालोचकों
से अपने तार जोड़ें जो कविता को सही ज़मीन देने की दिशा में कारगर काम कर रहे हैं।
कविता में आलोचना के निष्पक्ष और प्रसन्न विकास के लिये नये और विकासशील कवियों के मन में यह विचार फलित होना चाहिये ताकि नकारात्मकता के योग का प्रकटीकरण भी समालोचना में संतुलित और
सकारण युक्ति के साथ ही गोचर हो
जिससे कवितालोचना की स्वस्थ और आदर्श परम्परा एवं दशा-दिशा तय की जा सके।
मैं समझता हूँ, इस तरीके को अपनाकर संप्रति कविता पर किये जा रहे निगेटिव आलोचना-कर्म
के खतरे से युक्तियुक्त रीति से निपटा जा सकता है।
मसलन, लोकतंत्र में पुलिस अपराध पर नियंत्रण रखने की एक संस्था मानी जाती है,
पर पुलिस कितनी ईमानदार है, इसे देखने का जितना हक़ शासन और न्यायपालिका को है उतनी
ही जनता को भी। बंदिशें तो सब पर लागू करनी होगी ताकि सब अपने अनुशासन के दायरे
में रहें और अपना काम नि:शंक करें। तभी साहित्य या कहें, कविता की समालोचना की सही
संकल्पना विकसित हो पायेंगी।
आह-आह,वाह-वाह, बेहरतरीन, मर्मस्पर्शी, मनभावन, इत्यादि
शब्द पाठकों के होते हैं। कविताओं को पढ़कर उनके दिल में भावनाओं का जो गुबार उठता
है, उन्हें वे
व्यक्त करने की कोशिश करते हैं। हालकि वे समीक्षक की तरह नहीं कह पाते पर उनकी ही
प्रतिक्रियाओं का ही महत्व अहम होता है क्योंकि उनकी अभिव्यक्तियाँ प्रायोजित नहीं
होतीं। समीक्षा में तो कविता के कारण-विधान किये जाते हैं कि अमूक रचना की
श्रेष्ठता और लोकप्रियता के कौन-कौन से कारक व तत्व विद्यमान हैं। पर समीक्षक ही संप्रभु नहीं है,
वे मात्र साहित्य के जनतन्त्र में उस सरकार की तरह हैं जिसे प्रबुद्ध पाठक का मत
हासिल होता है क्योंकि कविता उनके खातिर ही रची जाती है।•
nice
ReplyDeleteबहुत ही बढिया।
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