Saturday, November 24, 2012

प्लेटफॉर्म पर बच्चे

चित्र :साभार: गूगल 

प्लेटफॉर्म पर छोरों की जिन्दगियाँ
ट्रेनों की आहट पर चलती हैं

 यात्रियों से उनींदी 'बारह डाउन'
`एक नंबर`  पर आकर लगी है 
दनादन छोरे घुस रहे बोगियों में

कोई 'जनरल नॉलेज' की किताबें बेच रहा
कोई फर्राटेदार अँग्रेजी बोलने की
या फिर किस्म-किस्म के हीरो-हीरोईनों की तस्वीरें दिखला रहा 

तेज कदम से कोई
खोमचे का टीन टनटनाते
`झालमुढ़ी`, `मूँगफली` चिल्ला रहा

स्प्रिंग के खिलौने चलाकर कोई-कोई
उसे 'इम्पोर्टेड' माल बता रहा तो
कोई 'पें-पें' बजाकर अपने  बाजे की नुमाईश कर रहा

कोई-कोई तो कोकशास्त्र की
किताबें भी चुपके से
बाबू लोगों  को दिखा रहा

मुसाफिरों की नींद में खलल डालती
कठपुतलियों सी हिलती-डुलती
जोकरों के पहनावे में
अबोध मलिन बेढब
भूख से कातर

ये आकृतियाँ ट्रेन में
जमूरे सी बोली बोलती
मुसाफिरों को लुभाने का
बहत्तर करतब करते नज़र आ रहीं

-(दो)-

दो बजे की रात है -
 - पूस की -
सिहरन भरी,
सन्नाटे में डूबी
                     
लंबी सीटी देकर ट्रेन हौले-हौले
गहरी धुंध को
चीरती सरक रही 
घुप्प  अँधेरे की ओर

दाँत किटकिटाते छोरे
अपनी दुकान कँखियाये
उतर रहे डब्बों से धड़ाधड़

और छितरा रहे इधर-उधर -
यात्री-शेडों में, ढ़ाबों में
बंद दुकानों के ओटे पर
या पेड़ों की ओट में

पसर रहे गमछे बिछा
अपने बटुए टटोलते
पेट में पैर डाल
आधी नींद में 
अगली गाड़ी की प्रतीक्षा में

सपनों में भागते सुख
का पीछा करती
रोज़ कितनी ही जोख़िम भरी रातें
इन बच्चों की
यूँ ही कट रही प्लेटफॉर्म पर
इंजन की कर्कश घर्घराहटों के बीच

प्लेटफार्म पर सोते-जागते, खाँसते-कुहरते
बीमारियों से लड़ते
मौत के साये में जैसे-तैसे पलते-बढ़ते।
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8 comments:

  1. अपनी दुकान कँखियाये
    उतर रहे डब्बों से धड़ाधड़


    गज़ब कर डाला भाई मेरे...अभी न जाने कितनी बार और पढ़ूँगा चू छू कर हर शब्द को!!

    हद करते हैं दिल छू लेने में आप...भयंकर बधाई!

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  2. एक ज़िन्दगी यह भी है .....

    जिसे बखूबी शब्दों में ढाल दिया आपने ....

    बधाई सुशिल जी ....!!

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  3. ऐसे बच्चे रेलों में हमें खूब दिखाई देते हैं। आपने अपनी संवेदना को उनसे जोड़ा और कविता में अभिव्यक्ति दी, यह आपके सरोकार को इंगित करता है। अच्छी कविताएं !

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  4. आपने सही कहा भाई सुभाष नीरव जी |

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