वरिष्ठ हिंदी-साहित्यकार डॉ. रमाकांत शर्मा (जोधपुर) को उनकी आलोचना-कृति 'कविता की लोकधर्मिता' पर 'सूर्यनगर शिखर सम्मान' |
मित्रों , हिन्दी की लब्धप्रतिष्ठ प्रिंट पत्रिका वर्तमान साहित्य के दिसंबर, 2012 अंक में लोकधर्मिता : हिन्दी कविता का एक जरूरी प्रतिमान शीर्षक से मेरा एक आलेख प्रकाशित किया गया है जो हिन्दी के वरिष्ठ साहित्यकार रमाकांत शर्मा (जोधपुर) की चर्चित आलोचना-कृति कविता की लोकधर्मिता के शब्द-कर्म पर आधृत है | अंतर्जाल पर साहित्य के सुधी पाठकों के लिए मूल आलेख को मैं अपने साईट पर पोस्ट कर रहा हूँ | आशा है इससे गुजरकर आपको प्रसन्नता होगी |
अगर यह मान लिया जाय कि कविता के परख का कोई निकष नहीं होता जैसा कि डा. नामवर
सिंह ने कहा, तब भी एक सवाल सचेत पाठक और कवियों के मन में उठता है कि वह कौन-सी
कविता होती है या हो सकती है जो देश-काल को लाँघकर अपना प्रभाव छोड़ती है यानि किस
तरह की कविता युग-मूल्यों के परिवर्तन हो जाने और उसके रीता हो जाने पर भी पढ़ी
जाती है क्योंकि कविता के लिये अब तक के रचे गये अधिकांश प्रतिमानों के अनुसरण का
परिणाम यह रहा कि स्वातंत्र्योत्तर भारत
में प्रगतिशीलता के नाम पर लद्धड़, गद्यात्मक और किताबी कविता लिखने वाले बौद्धिक कवियों
की बड़ी फौज-सी खड़ी हो गयी जिनकी
कविताएँ पढ़कर कविता के प्रति जनमानस का रुचि भंग हुआ। उन रचनाओं को जनसाधारण
का स्नेह और समर्थन उतना नहीं मिला।
अतएव गंभीरता से विचारने का वक्त आ चला है कि वे कौन-कौन से कारक हैं जिसने कविता को आमजन से
दूर किया है जिसने संचार-तकनीक की नित्य बदलती और मायावी दुनिया में आदमी के लिये कविता
की जगह निरंतर संकीर्ण किया है। इतना तो अवश्य है कि कविता में बोझिलता, उबाऊपन और नीरसता के जो अक़्स
आये हैं उससे पाठकों में वह चाव नहीं रहा जो आज से दो-तीन दशक पहले
हुआ करता था। इस कारण जितनी तेजी से आज यह लिखी-पढ़ी जाती है उतनी ही
गति से विस्मृत भी हो जाती हैं। खुद कवियों तक को अपनी कवितायें याद नहीं
रहती। मैं बात मंच पर गाने वाली कविता की नहीं कर रहा बल्कि देश की विभिन्न
साहित्यिक पत्रिकाओं मे प्रकाशित हो रही कविताएँ ही इसके चर्चा-विन्दु पर हैं।
दूसरी ओर निराला, जयशंकर प्रसाद, दिनकर, महादेवी, पंत, मुक्तिबोध, नागार्जुन,त्रिलोचन आदि की कविता की पंक्तियाँ हमारे जेहन
में आज भी गाहे-ब-गाहे आ जाया करती हैं। इसके क्या कारण है? क्या आज कविता अपने
मूल स्वभाव से विलग हो गयी है? क्या हमने अपनी बुद्धि-विस्तार में कविता की भावपरायणता को इतना दरकिनार कर दिया है? विचार-बोध के
प्राबल्य से रची कविता में वह लोच क्यों नहीं आ पा रही जो पहले की कविता में
हुआ करती थी?
उक्त कारणों की पड़ताल और उसके निराकरण पर चिंतन ही इस आलेख का वर्ण्य-विषय है।
मेरे विचार से निम्नांकित कुछ कारण हो सकते हैं जिसने कविता की रूपाभा को बिगाड़कर
उसे पूरी तरह गद्यात्मक और स्मृतिहीनता की जद में आने पर मजबूर किया है-
क)
कविता में
लयविहीनता
ख)
कविता में
प्रगीतात्मकता का न होना
ग)
क्रियाशील जीवन के
ऐन्द्रिक बिम्ब-ग्रहण का तिरस्कार
घ)
इन्द्रिय-बोधात्मकता
का अभाव
ङ)
व्यक्तिपरक
आत्मबद्धता
च)
रचना के समाजीकरण
का अभाव
छ)
कविता में भावमयता
की जगह विचार-बुद्धि तत्व का प्राबल्य
ज)
लोक-संवेदना और
लोक-भाषा से दूराव
झ)
जनपदीय चेतना का
कवि में न होना
ञ)
आधुनिक कृत्रिम
जीवन-शैली
ट)
कविता के भारतीय
चित्त और अपनी परम्परा से विमुखता
ठ)
प्रकृति और
पर्यावरण से विच्छिन्नता, इत्यादि ।
उपर्युक्त कारणों से आज हिन्दी कविता स्मृति और साहित्यिक
परिदृश्य में देर तक टिक न पाती और निरंतर अपने पाठक भी खो रही
है। कुल मिलाजुलाकर कहा जा सकता है कि काव्य-समीक्षा की वर्तमान शास्त्रीयता भी अराजक
स्थिति में आ गयी है। इन पर व्यापकता और गहराई से विचार करने के लिये सीधे
लोकधर्मी आलोचकों से सम्पर्क साधना होगा क्योंकि वहाँ उपर्युक्त कारणों और उसके
परिहार का वास्तविक हल प्रस्तुत किया गया है। ऐसे ही लोकधर्मी आलोचकों की प्रथम
पंक्ति में डा. रमाकांत शर्मा आते हैं जिन्होंने “कविता की लोकधर्मिता” नाम से आलोचना-पुस्तक
रचकर एक ऐसी समझ हमारे अन्दर विकसित करने का प्रयास किया है जिससे कविता की पृष्ठभूमि
में हम अपने जीवन, प्रकृति, समाज और सांस्कृतिक प्रश्नों को बेहतर ढंग से समझ-परख
सकते हैं।
इस समीक्षा-कृति की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसने दूर-दराज के जनपदों के
कवि, कविता-पाठक और काव्य-प्रेमियों में कविता के प्रति स्वाभाविक आकर्षण पैदा
किया है। यहाँ पहले निराला, त्रिलोचन, नागार्जुन, मुक्तिबोध, केदारनाथ अग्रवाल,
विजेन्द्र, शमशेर, ज्ञानेन्द्रपति, शंभु बादल आदि कवियों की श्रेष्ठ काव्यसाधना को
विश्लेषण की परिधि में लाया गया है और उनमें निहित काव्य-तत्वों की विवेचना की गयी
है जो कविता के जरूरी उपादान हैं। साथ ही युवा और प्रगतिशील लोकधर्मी कवियों की
रचना को आगे लाकर उन्हें काव्य-यात्रा में फलने-फूलने के जरूरी सूत्र बताये गये
हैं जिससे इन कवियों के कवि-कर्म को जहाँ एक ओर प्रोत्साहन मिला है वहीं दूसरी ओर
कविता के सही प्रतिमानों से वंचित कवियों के संशय को दूर करने में सहायता मिली है।
इस काव्यालोचना को पढ़कर हमारे एक भी कवि-मित्र ने इसमें उद्घाटित विषयों पर अपनी
अप्रसन्न्ता या असहमतियाँ जाहिर नहीं की , बल्कि लेखक का सही मार्गदर्शन के लिये उनका
आभार व्यक्त किया। हालाकि इस आलेख को लिखने में मुझे निजी कारणों से काफी विलंब
हुआ, पर पर इस बात की मुझे बेहद खुशी है कि इस काव्यालोचना-कृति से आम-जन और
नवोदित कवियों का परिचय कराकर उन्हें कविता की बंद गलियों जहाँ बे जाने–अनजाने जा गिरते हैं, उन्हें एक सिग्नल देने में मदद कर सकता हूँ कि उनका सही
रास्ता क्या है या होना चाहिए।
कविता के जरुरत के
कुछ महत्वपूर्ण सवालों से इस पुस्तक का विषय-प्रवेश होता है। यहाँ कविता के
प्रयोजन की विशद चर्चा हुई है। इस प्रयोजन का केन्द्र-विन्दु वह जीवन-तत्व और
मानवीयता है जहाँ जीवन जीने के लायक एक बड़ा स्वप्न आकार लेती है, उसके सहारे
संवेदित अनुभवों का विस्तार होता है जहाँ कवि निजबद्धता से उपर उठकर अपने को शेष
दुनिया से संपृक्त करता है और कविता व्यापक जीवन से जुड़कर लोक-जीवन के मार्मिक
पक्षों को उद्घाटित करने में सक्षम हो जाती है।
दूसरे, तीसरे और
चौथे आलेख से गुजरते हुए पाठक को कविता में लोक-संवेदना, जनपदीय संस्पर्श और
लोकधर्मिता के गुणधर्म पर व्याख्या मिलती है। डा. रमाकांत कहते हैं, “लोक-संवेदना में व्यक्ति-अनुभूति के साथ समाजनुभूति का रसायन घुला होता है
जिससे बौद्धिक संवेदना की जगह कविता में कवि की सचेतनता और सजगता को अपेक्षाकृत
ज्यादा प्रश्रय मिलता है और रचना ‘समय की शिला पर अपने चिन्ह अंकित’ करने में
कामयाब होती है। ...जन और जनपद का संस्पर्श कविता की भाषा और संवेदना को निखारता
और निथारता है।...कविता में जब तक जनपद की धड़कनें सुनाई देती है , तब तक वह समाज
के लिये प्रयोजनीय रह पाती है। ... हमारे बड़े से बड़े कवि ने लोक को कभी रचना से विलुप्त
नहीं होने दिया। बाल्मिकि, भवभूति, कबीर, तुलसी, निराला, मुक्तिबोध की कालजयी
रचनाएँ इसी तथ्य के जीवन्त साक्ष्य हैं।” इन विचार-आलेखों में आलोचक ने पूरी सच्चाई से कविता के लोकधर्मी तत्वों का
विश्लेषण किया है और यह बताने का प्रयत्न किया है कि कैसे कविता लोक से जुड़कर महान
बनती है और उससे कटकर सिर्फ़ किताबी/नकली कविता बनकर रह जाती है। आलोचक शास्त्रीय
विवेचना को मात्र चिंतन का स्वरूप न देकर बड़े कवियों के कवितांश से जगह-जगह अपने
कथन की पुष्टि करता चलता है जो आलेख के पाठक का मार्गनिर्देश करते हैं और आलेख
में प्रत्युत्पन्न विचार
या लेख में रखी बातों में समझने में लेशमात्र भी कठिनाई नहीं आती। लेखक के शब्दों
में “कविता समय के सवालों से आँखें चार करती
हैं.. मलयज ने ठीक लिखा है कि – कविता की नब्ज़ को
छूकर हम महसूस कर सकते हैं कि उसमें हमारा कितना रक्त, कितने ताप और दवाब का
प्रवाह दौड़ रहा है। ...कविता का स्वभाव शब्द और कर्म की सन्धि पर दूब की तरह उगे
रहना है। आज के कठिन समय में मनुष्य और पृथ्वी को कविता की यह हरियाली ही बचा सकती
है।”
आगे के विषयों में अपनी समृद्ध काव्य-परम्परा,
उसके नये प्रतिमान, बिम्ब-रचाव की महत्ता, लोक-शब्द के विधान, हमारा कविता-समय, साम्राज्यवाद
से संघर्ष, कविता से उपजी संभावनाएँ, उसके चरित्र और सांस्कृतिक संघर्ष, कविता-विचारधारा,
आलोचना से उसका द्वंद्वात्मक संबंध, छंद से अंतर्संबंध और कविता के भारतीय चित्त
पर सांगोपांग प्रकाश डाला गया है। इस कृति में कवि-कर्म और कविता के सौष्ठव-आधार
को जिस गंभीरता और स्पटष्टता से उठाया गया है कि उससे यह साफ हो जाता है कि कविता
के सही मानक क्या-क्या हो सकते हैं और किन-किन गलतियों से हमें बचने की जरुरत है।
इन चर्चाओं की खासियत यह है कि समस्त विचार भारतीय परिवेश के संदर्भ में उठाई गई
हैं। रूपवाद के पश्चात अब नवरूपवाद और नवरीतिवाद से पूरे साहित्य विशेषकर कविता के
सम्मुख जो खतरा आन पड़ा है यहाँ उसके प्रतिरोध के लिये सार्थक विकल्प का संकेत
मौजूद है। कविता किन बिम्बों से संप्रेषणीय बनती है और सपाटबयानी कविता को कैसे
दोयम दर्जे में ले जाती है, इसकी दुर्लभ व्याख्या भी इस पुस्तक में मौजूद है।
वरिष्ठ कवि विजेन्द्र ने स्वयं इसके आमुख पर लिखा है कि “ यह समीक्षा-कृति कवि के लिये बेजा आतंक नहीं, खुला किन्तु यह बड़ा ही आत्मीय,
बेलाग संवाद है।... इस विश्लेषण से कवि-कर्म और कविता दोनों का मान बढ़ा है।”
इस समीक्षा-कृति की
सबसे प्रमुख विशेषता यह है कि यहाँ हिन्दी के कुछ उन लोकधर्मी कवियों के रचना-कर्म
की शीर्षक-बार व्याख्या की गयी है जो भारतवर्ष की प्रमुख साहित्यिक पत्रिकाओं में
लिखते-पढ़ते रहे हैं और कविता की जो सही और मूल्यबोध की दिशा है, उस पर चलकर अपना बहुमूल्य
योगदान दिया है। कौन-कौन से काव्य-अभिलक्षणों ने उनकी कविता को अन्य कवियों की
तुलना में सुघड़ और पाठकों को प्रभावित करने वाला बनाया है, उन काव्य-प्रतिमानों की यहाँ
बेबाक मीमांसा की गई है और इन्हें उदहरण बनाकर हिन्दी काव्य-जगत में यह संदेश
प्रेषित की चेष्टा की गई है कि इन प्रतिमानों का वैश्विक साहित्य और हिन्दी
साहित्य में क्या सार्थक महत्व है या हो सकता है। इस दृष्टि से इस कृति में वरिष्ठ
कविगण शमशेर बहादुर सिंह, नागार्जुन, त्रिलोचन, केदारनाथ अग्रवाल, विजेन्द्र, शंभु
बादल के अतिरिक्त युवा कवि सुशील कुमार, केशव तिवारी, सुरेश सिंह निशांत, अच्युतानंद
मिश्र, राघवेन्द्र, महेश चन्द्र पुनेठा, शैलेय, शंकरानंद, राम मेश्राम, नरेश मोहन,
भोलानाथ कुशवाह, शैलेन्द्र चौहान, शैलेन्द्र, अजेय, विजय सिंह, कुमार वीरेन्द्र, मीठेश
निर्मोही, रमेश प्रजापति, नरेश चन्द्रकर, दिनेश सिंदल, आश्विनी कुमार शर्मा,
गोविन्द माथुर, भरत प्रसाद, तेजराम शर्मा और शशि भूषण द्विवेदी की कवि- कर्म पर
सूक्ष्म मंत्रणा करते हुए उनमें निहित काव्य-तत्व की बड़ी ही नैतिक सजगता, सहृदयता
और ईमानदारी से डा. रमाकंत शर्मा ने समालोचना की है और उनकी कविताओं की
रचना-प्रक्रिया के वस्तु-पक्ष और आत्म-पक्ष को उद्घाटित कर कविता के क्षेत्र में
काम कर रहे युवा लोकधर्मी कवियों का न केवल मान रखा है (क्योंकि आज के इस कठिन
कविता-समय में बिना लोभ-लाभ के चिंतक-आलोचक युवा कवियों की रचनाओं को मुड़कर देखने
तक को तैयार नहीं) बल्कि आलोचना के इस अंध-भ्रमित युग में जब कवितालोचना चंद मुठ्ठी
भर आलोचकों के मायालोक की वस्तु बन कर रह गयी है, इस समीक्षा-कृति के माध्यम से कविता
के वास्तविक और सच्चे प्रतिमानों की ओर सुधी पाठकों-कवियों का ध्यान आकर्षित करने
का श्रमसाध्य और प्रशसंनीय कार्य किया है।
यही नहीं, कृति में उज्बेक की आधुनिक कवयित्री जुल्फिया, रूसी कवि अनातोली
साफ्रोनोव, किर्गीस्तान के कवि सुयुन बाई एरालीयेव और तुर्की कवि नाजिम हिकमत के
भाब-बोध, शैली, कला-अनुशासन, जनप्रियता और काव्य-संवेदना की विस्तार से वस्तुपरक
चर्चाकर उन्हें भारतीय शैली और चित्त के कवियों से जोड़कर उनकी रचनाशीलता और
कविता-संघर्ष को सूक्षमता से रेखांकित किया गया है जो हमें यह बताने में सक्षम हैं
कि हमारी माटी से उद्भूत कविताएँ इन रचनाओं के कितने करीब और लोकधर्मी आधुनिक
काव्य –धारा से कितने अविच्छेद्य हैं और समदर्शी
प्रकृति के इन कवियों की रचनाओं से कितना कुछ सीख-समझ सकते हैं।
सही
मानों में डा. रमाकांत शर्मा कृत “कविता की लोक-धर्मिता” जनपदीय चेतना और लोक से जुड़े कवियों के लिये आलोचना-मानक तय करने वाली एक जरूरी
समीक्षा-कृति है जिसका अवगाहनकर पाठक और कवि कविता के भ्रम की दुनिया से उबर कर उसकी
उस वास्तविक और सच्ची दुनिया में प्रवेश पा सकता है जो आज की मुक्तबाज़ार और
उपभोक्तावादी समाज के बीच कविता का प्राण है और इस टूटती दुनिया में अपने जीवन को
बेहतर बनाने की अनिवार्य शर्त भी। •
ईमेल पर प्राप्त प्रतिक्रिया -
ReplyDeleteभाई सुशील जी
आपने रमाकान्त शर्मा जी की पुस्तक 'कविता की लोकधर्मिता' के बहाने कविता को विशेषकर आज की दिग्भ्रमित कविता को लेकर जो सवाल उठाये हैं, वे विचारणीय हैं। वर्तमान हिंदी कविता के परिदृश्य में जो कुहासा है, जब तक वह नहीं छंटेगा, कविता जन से नहीं जुड़ पाएगी और उसकी सम्प्रेषणीयता पर जो खतरा छाया हुआ है, वह बरकरार रहेगा। एक विचारणीय आलेख के लिए आपको बधाई !
सुभाष नीरव