Saturday, December 29, 2012

दियारा में रेत होती ज़िन्दगी

[दियारा का नजारा - चित्र साभार गूगल ]
दुमका में बैंक में नौकरी करते हुए 1988 से 1996 के मध्य  नियमित रूप से मेरा कटिहार (बिहार)  जाना होता था | इसके लिए मुझे साहेबगंज से गंगा पार कर मणिहारी घाट उतरकर वहाँ से दियारा-क्षेत्र में डेढ़-दो कोस पैदल चलना होता था | तब जाकर  कोई गाड़ी मिलती थी| उस अवधि में दियारा क्षेत्र के जनजीवन को काफी करीब से देखने-गुनने का मौक़ा मिला| प्रस्तुत कविता इसी अनुभव का उपजीव्य है जो हिन्दी अकादमी, दिल्ली की मानक पत्रिका इंद्रप्रस्थ भारती (त्रैमासिक) के जुलाई-सितंबर 2007 अंक में छ्पी थी | उसके बाद कई और प्रिंट पत्रिकाओं ने इसे अपने यहाँ स्पेस दिया | अब तक यह मेरे साईट पर पोस्ट नहीं हुई थी , सो आज आपके लिए हाजिर है - दियारा में रेत होती जिंदगी |


दियारा - (एक) :

न शहर न गाँव है
न ठाँव है कहीं न छाँव है
रेत से पटा दयार है
दूर तलक पसरा सन्नाटा है
निस्पंद गंगा के कछार का
हाँ, यह दियारा इलाका है

ठौर-ठौर जल-जमाव है
छिछली नदी में एक – दो नाव हैं
नाव में चढ़ते-उतरते दियारा के लोग
और लोगों को टेरते मल्लाह
खेते जाते हैं अपनी पतवार,
मगन होकर गुनगुनाते जाते हैं
दु:ख से भींजे कोई गीत 

मौन दियारावासी खुले आसमान के नीचे
कभी ठुठ्डियों पर
अपनी उंगलियाँ टिकाये,
कभी घुटनों के बल टिके
तो कोई निर्निमेष निहारता जाता
क्षितिज पर अनंत शून्य
तो कोई नाप रहा होता
जल-राशि के अपार विस्तार के साथ
मन ही मन अपनी घनीभूत पीड़ा

समय मानो ठहर गया हो यहाँ !
न जाने किस दुश्चिंता में ऊब-डूब
कांतिम्लान इन चेहरों पर उछरी
कितनी-कितनी लकीरें
कहती हैं दियारा के दर्द की अनगिन गाथाएँ !

समय के प्रवाह में बहता जीवन की
नाव, फिर हिचकोलें खाती है
केवट का स्वर-लय टूटता है 
नदी का मौन भंग हो जाता है
आ जाता है घाट
और पथ

उतारता है नाविक यात्रियों को
उस पार हौले-हौले
जहाँ मयस्सर है सिर्फ़
गंगोटी का बलुआही सफ़र -
रेत की सर्पिल पगडंडियाँ -
जहाँ देखता हूँ कुली-पिट्ठूओं का दल
जो घाट पर न जाने कब से उनकी बाट जोह रहे हैं !

मौसम के सिवा यहाँ कुछ भी खुशग़वार नहीं
रेत होती दियारावासियों की ज़िन्दगी में
खुशियाँ कम हैं ग़म ज़्यादा
विकास की आखिरी किरण से महरुम
जनपद-मुख्यालय से कटा
दियारा में सुविधाओं का नामोनिशान नहीं ;
झोपड़पट्टियों में बेहाल लोग
न सड़कें  न बिजली  न पेयजल
न पक्के मकान  न दुकान
हाथ हज़ार पर रोजगार नहीं
अर्द्धनग्न या लंगोट पहने
थिगड़ों में लिपटे पुरुष
दीखते हैं दियारा में कहीं तो
स्त्रियाँ फटे बसन अपनी देह चुरातीं
बच्चे भी नंग-धड़ंग
जो स्कूल जाने के बजाय गृहस्थी में हाथ बटाते –
मछलियाँ-केकड़े-घोंघे की खोज में 
चहबच्चों में कमर तक कीचड़ गहडोरते,
कितना हृदयविदारक है –
उन बाल-गोपालों के हाथ
कभी कलम नहीं गहे

ले-देकर बस एक खेती है गुजर-बसर को
और खेत भी ज्यादातर रेत-सने हैं !

फसल के साथ इलाके में
अपराध भी खूब फलते हैं
बोता कोई है, काटता कोई है
फसल-कटाई के दिनों कई बार
पसीने की जगह खू़न टपकते हैं खेतों में
हत्याएँ और लूट तो सरेआम है

दियारा - (दो) :

साँझ गहराते ही
बच्चों की आँख की तरह
बंद हो जाते हैं दियारा के रास्ते
दूर-दराज गाँवों में कहीं
जुगनुओं की तरह टिमटिमाती हैं लालटेनें
बाकी सारा दियारा निमग्न होता है
घुप्प अँधेरे में,
झिंगुरों की आवाज़ में
टोडों की टर्राहट में
तेज हवाओं की सरसराहट में

लाचार हो या बीमार कोई
राशन - पानी का इंतजाम करना हो
या दवा - दारु का,
कोसों पैदल चलकर ही
तय होती है दियारा में
बाज़ार-अस्पताल की दूरियाँ

दियारा :(तीन)

आषाढ़ के आते - आते नदी फूलने लगती है
तब राई-सी मुसीबत भी पहाड़ बन जाती है
दियारावासी लहरों पर अपनी आँख बिछाये
नदी-माँ से कोप बरजने की प्रार्थनाएँ करते
कोशी-बलान-कमला-गंडक भी उफनती
गंगा से गले मिलती हैं सावन में
पर सँभाल नहीं पाती गंगा अपनी बहनों की बाढ़
नेपाल का बैराज खुलते ही
बेतरह खौलने लगती है 
और तटबंध भहराने लगते हैं

लोग घर-बार छोड़ भागने लगते हैं
लील जाती है कई बार हहराती गंगा
पूरा का पूरा दियारा
बह जाते हैं कई जानें-माल–मवेशी
और किसानों के सालों सँजोये सपने

जो बच पाते इस विभीषिका से
उनकी आँखों में होता है
दु:खों के अंतहीन जंगल
और सिर पर उनके खुला आसमान


दियारा : (चार)

जब मेघ उतर आते है खाड़ी में
नई जलोढ़ मिट्ट्याँ पट जाती है समूचे दियारा पर
और मृण्मय श्मशानी चुप्पियां फैल जाती है दूर तक

फिर होती है कई सरकारी घोषणाएँ
और राहत के नाम पर एक बार फिर
लूट का बाज़ार गर्म होता है
कुछ सेर मोटे अनाज और कुछ रुपये
मुआवज़े के बतौर बाँटकर
दियारावासियों को फुसला लिया जाता है
हर बरसात में

घर-दुआर, माल-मवेशी, खेत-खलिहान
ओसारों में चहकते छोरे
खेतों में लहलहाते धानों की बालियाँ
चौपालों में गूँजते गीत
पागुर करती गायों के स्वर
यानि कि विस्थापन का पूरा स्मृतिचित्र ही
दिन-रात तिरता है बेबस आँखों में
और हरदम एक हूक-सी
उठती रहती है दियारावासियों के दिल में।

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3 comments:

  1. बहुत सुन्दर पठनीय कविताएं हैं। बधाई !

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  2. बहुत सुंदर कवितायेँ अनुपम भाव.

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