गुरुवार, 16 जनवरी 2014

कविता किन तत्वों से महान बनती है ?


साहित्य से जुड़े कई गूढ़ प्रश्नों में एक यह भी है कि कविता किन तत्वों से महान बनती है। प्रश्न गंभीर ही नहीं, मतभिन्नतायुक्त भी है क्योंकि यह विषय जितना काव्य-तत्व से संबद्ध है उतना ही उसके सौंदर्य-पक्ष और रचना-प्रक्रिया से। सामान्यतया हम उन कविताओं को अच्छी कहते हैं जिनका सरोकार जन से हो, जो जीवन के पक्ष में खड़ी हो और ऐसे कारकों का विरोध करती हो जो लोक, संस्कृति और मानवीयता का तिरस्कार करती है। इस संबंध में जाने-माने लोकधर्मी समालोचक डा. जीवन सिंह का विचार है कि "कविता महान बनती है अपनी तात्विकता से। जीवन-तत्वों की खोज में वह जितनी गंभीर, व्यापक, सहज और अनुभव-समृद्ध होगी,वह उतनी ही महान होगी। उसका दायरा जितना संकुचित और रुढ़िपोषक होगा,वह उतनी ही सीमित,हल्की और संकीर्ण होगी। वही कवि महानता की ओर गया है जो प्रचलित रुढ़ियों से टकराता हुआ इस संसार-सागर से वास्तविकता और सत्य के मोती ढूंढकर लाता हो और अपनी पैठ आभिजात्य से साधारण जीवन में बनाता हो,जिसमें लोकरक्षण और लोकरंजन की संतुलित शक्ति एक साथ हो,जो अपने ज़मीन का पता देती हो और अपने समय की संस्कृति को रुपायित करने के केंद्र में हो।"


डा. जीवन सिंह के उक्त विचार को केंद्र में रखकर यदि रीतिकालीन कवियों के कविता-कर्म की परीक्षा करें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि उनके अपने सीमित सरोकार और लोक-तत्व की अनदेखी के कारण कविता में कला- वैशिष्ट्य के उत्कर्ष के बावजूद इन कवियों को नकार दिया गया और अब इनकी कृतियां मात्र इतिहास की वस्तु बनकर रह गयी हैं,क्योंकि काव्यधारा के विकास की कहानी निरंतर कला के पराजय और जीवन के विजय की कहानी रही है। यही साहित्येतिहास का मूल भी है। जीवन की पलायनवादी प्रेरणाओं से एकात्मीकरण के कारण छायावादी कवियों में भी बाद में काव्य के व्यंजनाशक्ति क्षीण पड़ गयी जिस कारण यह काव्य-धारा पतनोन्मुख हो गयी।


अतएव समय के साथ काव्य के प्रतिमान बदलते रहे हैं क्योंकि युग-प्रवृत्तियों का ही सदैव काव्य- प्रवृत्तियों में आत्मसातीकरण हुआ है जिसमें जीवन ही प्रमुख विषय रहा है। इसके बरअक्स जो कविताएं जीवन और जन के बेहतरी के लिये काम नहीं करती,वे कालक्रम में भुला दी गयीं। जीवन-तत्व के इसी खोज में उद्धत होने के कारण छायावाद के ढ़लान पर कई काव्य-प्रवृतियां दृष्टिगोचर हुईं जैसे- नई कविता,अकविता,सपाटबयानी,प्रयोगवाद, भूखी पीढी की कविताएं इत्यादि,पर सब-की-सब आगे चलकर मुक्तछंद की भावधाराओं में समाहित हो गयी क्योंकि आज जीवन में सामंजस्य से अधिक द्वंद्व ही है जो मुक्त-छंद में ही सर्वाधिक समर्थ ढंग से मुखर हुई है। यह भी कि,परिवेश की वास्तविकता कवि को गहरी चुनौती देते हैं जिससे कवि के हृदय में तनाव का वातावरण सिरजता है।यह तनाव ही कविता के रुप और वस्तु दोनों की संरचना में बदलाव के लिये कवि को बेचैन करता है। इसलिये कवि एक ओर जहां तत्व के लिये संघर्ष करता है वहीं दूसरी ओर अपनी अभिव्यक्ति को समर्थ बनाने के लिये भी। इस संघर्ष में वह जितना सफल हो पाता है,उसी अनुपात में उसकी रचना समाजोपयोगी और महान बन पाती है।


कवि के इस शब्दकर्म पर हमारे समय के प्रतिबद्ध कवि-समालोचक मुक्तिबोध का विचार अत्यंत प्रासंगिक और महत्वपूर्ण है।उन्होंने सृजन-प्रक्रिया को तीन चरणों में बांटकर इसको समझाया है। कवि जब किसी बाहरी वस्तु या विचार के संपर्क में आता है तो उसके मन में विचार की तरंगे उठने लगती हैं और कल्पना का कार्य प्रारंभ हो जाता है,और बोधपक्ष यानी ज्ञानवृत्ति सक्रिय हो उठती है। मुक्तिबोध ने इस उदघाटन-क्षण को काव्य-कला का प्रथम-क्षण माना है। इसके अनंतर, उसके अंत:करण में पूर्व से संचित ज्ञान और जीवन-मूल्यों के अनुभव से उस तत्व का समागम और प्रतिक्रिया होता है। इसे सोखकर वह अंतस्तत्व जीवन के मार्मिक पक्ष से न्यस्त हो जाता है और एक संश्लिष्ट जीवन-बिंब-माला को उपस्थित कर देता है। इसे मुक्तिबोध ने कला का दूसरा क्षण माना है जिसमें हम अपनी अभिव्यक्ति के लिए छटपटाने लगते हैं। इस छटपटाहट को जब हम शब्द,रंग तथा स्वर में अभिव्यक्त करने लगते हैं तब कला का तीसरा क्षण शुरु हो जाता है। कला का यह क्षण दीर्घ होता है। इस क्षण में अभिव्यक्ति के स्तर तक आते-आते हमारे मनोमय तत्व-रुप बदलने लगते हैं। चूंकि भाषा हमारी सामाजिक संपदा है,अत:यह जहां रूप-तत्वों को घटाने-बढ़ाने का कार्य करती है और नवीन तत्व-रुप को मिला भी देती है वहीं नवीन शब्द-संयोग,नवीन अर्थवत्ता, नई भंगिमाएं और व्यंजनाएं भी प्रकट हो जाती हैं। यही वह समय है जब तत्व के अनुरूप कवि भाषा भी सिरजता है। समय और व्यवस्था की आंतरिक पेचीदगियों और सत्य की गहराई से टटोल के कारण इसीलिये भाषा कहीं- कहीं जटिल और वक्र भी हो जाती है।यह स्वाभाविक है। ऐसी कविताओं से आसानी की मांग करना उचित नहीं क्योंकि कविता का भी अपना काव्यशास्त्रीय अनुशासन होता है जिसको जाने-समझे बिना कविता का आसानी से समझ में आने की बात बेमानी लगती है। किन्तु कलात्मक प्रदर्शन के खयाल से जान-बूझकर दुरुह और जटिल बनायी गयी कविता निंदनीय है क्योंकि इससे लोक और जीवन का पक्ष क्षीण हो जाता है।


सृजन की उपर्युक्त प्रक्रिया से जो महत्वपूर्ण निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं वह यह है कि जिस कविता में ये तीनों क्षण पूर्ण नहीं होते अथवा उनमें शिथिलता आ जाती है वह कविता चूक जाती है और उनमें निखार नहीं आ पाता। सृजन के दूसरे क्षण में कवि यदि अपने वस्तुगत आत्मभाव को देखकर आत्मग्रस्तता का शिकार हो जाता है और अपने जीवन के अर्जित अनुभवों और मूल्यों को रचना में प्रतिबिंबित नहीं कर पाता है तो उसका दूसरा क्षण निरर्थ हो जाता है,अथवा जिन कवियों के पास सीमित जीवनानुभव है उनका इंद्रिय-बोध संवेगात्मक नहीं होने के कारण दूसरे क्षण से शीघ्र ही मुक्ति पा लेते हैं और उनके काव्य-तत्व में संवेदना का यथोचित सम्मिलन नहीं हो पाता। फलत: कविता नीरस हो जाती है। अत: मुक्तिबोध आगाह करते हैं कि "मनोमय तत्व के संवेदना-पुंजों को प्राप्त करना कवि का आद्य- प्राथमिक-कर्तव्य है। सच तो यह है कि सृजन- प्रक्रिया में कवि निराला जीवन जीता है। उसे उस जीवन को ईमानदारी से ,आग्रह्पूर्वक और ध्यानलीन होकर जीना चाहिए। नहीं तो बीच- बीच में सांस उखड़ जायगी,और उसके फलस्वरुप काव्य में खोंट पैदा होगी। "सृजन -प्रक्रिया के दूसरे क्षण से जुड़ी एक और महत्वपूर्ण बात है उन जीवन- मूल्यों और जीवन-दृष्टियों का मनस्तत्व के साथ संगम होना। प्रश्न उठता है कि वे जीवनादर्श किसके हैं,जो कि स्वाभाविक प्रश्न है। वह सौंदर्य-प्रतिमान किस वर्ग के सौदर्याभिरुचि ने उत्पन्न किया है? उसका औचित्य, उसकी सीमाएं क्या है? आदि,आदि। ये प्रश्न हमें समाजशास्त्रीय आलोचना और चिंतन की ओर ले जाते हैं।


यहां उपर्युक्त प्रश्नों के आलोक में उन वर्गीय रुढ़िवादी काव्य-रुचियों को भी समझ लेना होगा जो अच्छी रचनाओं को भी एक सिरे से खारिज़ कर देते हैं। तथाकथित आधुनिकतावादी संस्कारों में पगी और महानगरीय जीवन-शैली से प्रसूत एकांगी समालोचना-परंपरा माटी के गंध से पूरित और जनपदीय झाड़- झांखड़ से सने पूरे काव्य-संसार की ही अनदेखी करती है,हिंदी प्रदेश के श्रमशील श्वांसों में धड़कते जीवन के वैविध्य और गली-कूचों की धूल-धुसरित मिट्टी के बदरंग तस्वीर जिनमें खरा-पवित्र जनपदीय चरित्रों का वास है,को दरकिनारकर सिर्फ़ नागर जीवन के कृत्रिम,दोहरे-कुत्सित चरित्रों को ही अपना वर्ण्य-विषय बनाकर आलोचना का स्वरुप निर्धारित करती है। इस आतंक से जो कवि बच नहीं पाते या जो इनका ही साथ देते हैं उनकी रचनाओं में युगबोध की सत्यान्वेषी प्रवृतियां गोचर नहीं होती। उनसे हम कालजयी रचना की कभी उम्मीद नहीं कर सकते। अपने वर्गीय सामंती सोच और जड़ीभूत सौंदर्याभिरुचि के कारण इनके महारथियों ने अब तक जनपद के कवियों में अविश्वास,अरुचि और वैराग्य ही प्रकट किया है। जहाँ-जहाँ भी ऐसे कलावादी विचारक-कवि मौजूद हैं, आज पृथक गुट का सृजनकर सहित्य में गुटबाजी को जन्म दे रहे हैं। ये शब्दों के संसार में रहकर शब्दों से खेलते हैं, जनपद की सच्चाइयों से इनका दूर का भी वास्ता नहीं। सुविधाओं की लालच इन्हें महानगरों में खींच लाता है,न कभी ये सामाजिक संचेतना और जनसरोकार के कवि-लेखक रहे। बाजारवाद के कारण आज यह सेंसर (रोक) अत्याधिक सक्रिय है जिससे मानव जीवन की मूल संवेदना यानी लोक-संवेदना को कुंठित हो जाने का खतरा है क्योंकि उसे पूरी वाणी नहीं मिल पा रही है। जो कोई उस पर लिख रहा है उसे उपेक्षा का दंश झेलना पड़ रहा है। एक लंबे अरसे तक बाबा नागर्जुन,केदारनाथ अग्रवाल, मुक्तिबोध और त्रिलोचन की उपेक्षा की गयी है। मुक्तिबोध के जीवनकाल में तो उनका एक भी काव्य-संग्रह नहीं निकल पाया। आज भी वरिष्ठ कवि विजेंद्र जनपद और गांव-गिरांव का मह्त्वपूर्ण साहित्य रच रहे हैं पर उस अनुपात में उनकी सराहना नहीं हुई हैं। अशोक सिंह जो जनपद में काफी अच्छा लिख रहे हैं, और भी दर्जनों ऐसे कवि-लेखक हैं जो साहित्य के सेंसर,उपेक्षा और खंडित आलोचना के शिकार हैं। फ़िर भी प्रतिबद्ध कवि सृजन के दूसरे क्षण में इस तरह के सेंसर की बिना परवाह किये एकीभाव से लगातार अब सृजनरत तक है। 


देश-काल पर कभी किसी का एकाधिकार नहीं रहता। जब ऐसा होता है तो इस तरह के सृजन के समानांतर एक दूसरी आलोचना-परंपरा जन्म लेती है, और ले चुकी है। डा. जीवन सिंह,चंद्रबलि सिंह, रेवती रमण, एकान्त श्रीवास्तव, विजेन्द्र,रमाकांत शर्मा इत्यादि आज अनेक ऐसे सशक्त हस्ताक्षर हैं जिन्होंने उस आलोचना-परंपरा की मजबूत नींव डाल दी है और वह दूर-दराज,जनपद के कवियों की रचनाओं का सच्चा गुणानुवाद कर रही है जिससे आशा की जानी चाहिए कि उपेक्षित कवियों-अनुवादकों के साथ सही न्याय हो सकेगा। अत: इससे भयभीत होने की जरुरत नहीं। मुक्तिबोध ने तो इसके विषय में पहले ही विशद चर्चा कर दी है और जड़ीभूत सौंदर्याभिरुचि के आसन्न खतरे का संकेत भी दे दिया है। वे कहते है कि "जड़ीभूत सौंदर्याभिरुचि एक विशेष शैली को दूसरे शैली के विरुद्ध स्थापित करती है। गीत का नई कविता से कोई विरोध नहीं है।...किंतु जड़ीभूत सौंदर्याभिरुचि जबर्दस्ती का विरोध पैदा करा देगी। वह स्वयं अपनी धारा का विकास भी कुंठित करेगी,साथ ही पूरे साहित्य का भी। नई कविता के विभिन्न कवियों की अपनी-अपनी शैलियां हैं। इन शैलियों का विकास अनवरत है। आगे चलकर जब वे प्रौढतर होंगी,नई कविता विशेष रुप से ज्योतिर्मान होकर सामने आयेंगी।महत्व की बात है कि नई कविता में स्वयं कई भाव-धाराएं हैं,एक भाव-धारा नहीं। इनमें से एक भाव-धारा में प्रगतिशील तत्व पर्याप्त है। उनकी समीक्षा होना बहुत-बहुत आवश्यक है। मेरा अपना मत है कि आगे चलकर नई कविता में प्रगतिशील तत्व अधिकाधिक बढ़ते जायेंगे और वह उत्पीड़ित मानवता के समीपतर आयेंगी।" यह विचार मुक्तिबोध ने सहृदय पाठकों के समक्ष आज से लगभग पांच दशक पूर्व ही रखा था,पर आज कितना प्रासंगिक है,हम समझ सकते हैं!


उपर्युक्त विचार-विथियों को समेकित करते हुए हम कह सकते हैं कि कवि की संवेदन-क्षमता,कल्पना की संश्लेषण-शक्ति,बुद्धि की विश्लेषण-शक्ति और अभिव्यक्ति-सामर्थ्य की उंचाई से लोक के लिये लिखी गयी कविता जो पूंजी के मह्त्व को नकार कर मनुष्यता का संस्कृति रचती है और उत्पीड़ित मानवता के पक्ष में खड़ी है,महान कविता की श्रेणी में गिनती की जायेगी,की जा रही हैं। तभी तो एकांत श्रीवास्तव अपनी एक कविता में कहते हैं-
वे रास्ते महान हैं जो पत्थरों से भरे हैं
मगर जो हमें सूरजमुखी के खेतों तक ले जाते हैं
वह सांस महान है
जिसमें जनपद की महक है
वह हृदय खरबों गुना महान 
जिसमें जनता के दु:ख हैं।
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4 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
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    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज शुक्रवार (17-01-2014) को "सपनों को मत रोको" (चर्चा मंच-1495) में "मयंक का कोना" पर भी है!
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. एक विचारणीय आलेख सोचने को विवश करता है

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  3. GYAAN VARDDHAK LEKH HAI . BADHAAEE AUR SHUBH KAMNA .

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