शनिवार, 4 जनवरी 2014

‘शब्द और संस्कृति’- हमारे समय, लोक और संस्कृति का अर्थपूर्ण अवगाहन

डा. जीवन सिंह के अब तक के किये-धरे को लक्ष्य करके यह कहने में तनिक भी संशय न होगा कि उनकी आलोचना-दृष्टि सदैव लोक के पक्ष मेंसमय के सापेक्ष और जीवन-गतिकी के रचनात्मक क्रियाशीलनों से भासमान रही है जहाँ एकांगीअधूरेनिष्कर्षमूलकखंडित और वक्र विचारों को कभी स्पेस’ नहीं मिली। उनकी आलोचना में विषय-वस्तु और विचार सहजता किंतु समग्रता से प्रवेश पाते हैं और एक उदार विकसित जीवन के पक्ष में बड़ी दृढ़ता और निष्पक्षता से अपनी बात पाठकों के समक्ष रखते हैं। यह उनकी आलोचना-विधा का एक विशेष गुण समझा जाना चाहिए जो पाठकों को पाठ के दरम्यान उस वितृष्णा और ऊब से उबारता है (जो प्रायः किसी गंभीर लेख के शास्त्रीयता और विचार-विथियों के अध्ययन-क्रम में अनुभवनीय होती है) औरपाठक लेख के अंत तक आलोच्य विषय-रस के आस्वादन में अपने को बँधे पाते हैं। कहना न होगा कि श्री सिंह आलोच्य-वस्तु के भीतर बड़े निस्पृह भाव से अपनी पैठ बनाते हैंउसको गुनते और तरल बनाते हैंफिर अपने मानसपत्र पर सोखकर हमारे समय,लोक और संस्कृति के निकष पर उसे धार देते हैं और जब वह उनकी अपनी वस्तु बन जाती है तो बड़ी सहजता से कागज पर रख देते हैंजो अध्येताओं को सहज स्वीकरणीय होती है। परंतु ऐसा करते हुए उनमें अपनी विद्ता का लेशमात्र भी अहमन्य भाव नहीं झलकता। इसी कारण डा सिंह की कृतियाँ मात्र आलोचना न होकरएक रचना का भी आभास दे जाती है जिसमें कविता की-सी सरसता और बोधगम्यता भी होती है। संप्रेषणीयता के इस गुण के कारण पाठक के मन में उनके आलोच्य-वस्तु का विचार गहरे उतरता है और आत्मसात हो जाता है। यही वजह है कि इनकी काव्यालोचना और वैचारिकीदोनों पाठकों-कवियों को न सिर्फ गहरी समझ प्रदान करते हैं,अपितु क्लासिकी और शैली-शिल्प के स्तर पर भी उसकी समझ को परिमार्जित कर उसे समृद्ध बनाते हैं। निश्चय हीयह उनके सतत आलोचनाभ्यासगंभीर अध्ययनशीलता और अप्रतिम हुनर का परिणाम है जो उनके श्रमफल के रूप में उनकी कृतियों में उद्भासित होता है।
एक ऐसे समय मेंजब संप्रति रची जा रही आधी-अधूरी और खंडित आलोचना से साहित्य का भला नहीं हो रहाबल्कि अपूरणीय क्षति हो रही हैविचार-बोध की सकारात्मक आलोचना परंपराजिसमें जनपदीय संस्कार और लोकजीवन के प्रति अटूट आस्था होकी महती आवश्यकता महसूस की जा रही है क्योंकि देखने वाली बात यह है कि हिन्दी आलोचना का रचना-संबंध ज्यादातर आज व्यक्ति-संबंध में बदल चुका है जिसे आलोचना की गिरोहबन्दी भी कहना अत्युक्ति न होगा! पहले आलोचना व्यक्ति-आच्छन्न न होकर रचना के गुण-दोषों पर केंद्रित होता था। पर आज अधिकतर यह प्रायोजित होती है जिसके पीछे या तो बाजार और पूँजी का गणित काम करता है या फिर सबके अपने-अपने पूर्वग्रहआत्ममोह और अपने कृतित्व के प्रति सम्मोहन होते हैं। इसलिये दूर-दराज के इलाकों मेंजनपदों में जो लेखक-कवि यदि महत्वपूर्ण भी सिरज रहे हैं तो उनकी रचनाओं की कद्र नहीं। वे उपेक्षाओं की टोकरी में पड़े रहते हैं। फलतः चीजे शिनाख्त के अभाव में धीरे-धीरे अपनी पहचान खो देती हैं और रचनाकार भी निराश और शिथिल हो बैठने लगते हैंउसकी रचनाशीलता भी क्रमशःखराब होती चली जाती है। ऐसा इसलिये होता है क्योंकि सुविधाओं की तृष्णा बड़े लेखकों -आलोचकों को नगरों-महानगरों में खींच लाती है जहाँ वे जनपदीय चेतना और स्पन्दन से दूर रहते हैंअतएव जनपदों में रचे जा रहे महत्वपूर्ण साहित्य के प्रति अन्यमनस्क होते हैं। इसलिये डा. जीवन सिंह के शब्दकर्म की उपादेयता स्वयंसिद्ध हैकारण कि वे प्रधानतः जनपद के ही आलोचना परंपरा से सरोकार रखते हैं और उसी को अपनी आलोचना का आधार बनाते हैं। साथ ही उन विचारधाराओं का तर्कसंगत प्रतिवाद भी करते हैं जिनसे जीवन और लोक का अहित हो रहा हो। श्रम के भावलोक की प्रतिष्ठा और पूँजी के प्रभाव से फलित रूपवाद और निरा कलावाद को जीवन का प्रतिपक्ष मानते हुए उसका विरोध इन प्रतिवादों में आसानी से लक्षित किया जा सकता है।
शब्द और संस्कृति (आलोचना-पुस्तक)
आलोचकः डा. जीवन सिंह, 
पुनर्नवा प्रकाशन
१/१४अरावली विहारअलवर, (राज.)
मूल्य   :  सजिल्द - २८० रूपये
         पेपर बैक - १५० रूपये
पृष्ठ    :  दो सौ
फोन- ०१४४ २३६०२८८ मो.-०९८२८६९४३९५
और 09785010072 


कविता की लोकप्रकृति’ और कविता और कविकर्म’ के बाद डा.जीवन सिंह की नई आलोचना-कृति शब्द और संस्कृति’ आयी है जो आलोचना-साहित्य के एक सुखद भविष्य की आश्वस्ति देती है। दो सौ पृष्ठों की इस आलोचना-कृति में कुल इक्कीस विचारालेख हैंजो विभिन्न अवसरों पर उनके द्वारा दिये गये साहित्यिक-वैचारिक व्याख्यान हैंजिसे यहाँ एक माला के रूप में सिलसिलेवार गुँथकर प्रस्तुत किया गया है। समय और संस्कृति को परत-दर-परत खोलते हुएभारतीयता से जुड़े अनेक महत्वपूर्ण सवालों और उसकी अस्मिता की गहराई से पड़ताल करते हुएमानवपक्षीय सत्य की निरंतर टटोल जारी रखते हुएश्रम की भावभूमि पर जनगण के जीवन-संघर्ष की कथा का मर्म बतलाते हुएवैश्वीकरण के सर्वग्रासी विचार से हजारों सालों की चिंतनपरम्परा से निःसृत अपनी संस्कृति के विनष्ट हो जाने के आसन्न संकटों से सावधान करते हुए और मनुष्यता की संस्कृति का सबल पक्ष उद्घाटित करते हुए डा. सिंह ने जिन मूल्यों की स्थापना इस आलोच्य-पुस्तक में की हैउनकी नींव पर ही अब तक की मानव सभ्यताएँ नफासत से टिकी हुई है और उसका अस्तित्व हर समय वजूद में होना जीवन के लिये अनिवार्य है जिससे जुड़े सवालों का सूक्ष्मता से अवगाहन करने की जरुरत है क्योंकि अब हम एक गुलामी से निकलकर दूसरी गुलामी की ओर चल रहे हैं। यह परतंत्रता इतनी प्रच्छन्न और (अपनी भाषा में कहें तो) कपटपूर्ण इंद्रजाल की माया है कि हमें अहसास तो होता है कि इस दौर में हम सबसे ज्यादा उन्मुक्त हो गये हैंपर काम करने की जगह से लेकर बिस्तर और अत्यंत निजी अंतरंगता की जगह तक भी वह हमें अपने लपेटे में ले चुकी है। वैश्वीकरण की कोख से उद्भूत उदारीकरण के नाम पर सारे संसार में फैलाया गया भ्रमपूर्ण विचारजाल ही वस्तुतःवह उत्तर-आधुनिकता है जिसने मानव जीवन के चंद्रमा को राहु की तरह आज ग्रस लिया है। इसलिये डा. सिंह ने पुस्तक के आमुख में ही कहा है कि - पूँजी का पक्ष इतना निरंकुश होकर हमारी छाती पर बैठ चुका है कि कवितासंस्कृति और स्वभाषायें जिन्दगी के सरोकारों से लगभग बाहर होते जा रहे हैं। हम उत्तर-आधुनिक समय के एक ऐसे चक्रव्यूह में घिर गये हैं कि इससे मुक्ति के उपाय ढूँढ पाना कठिन हो रहा है। सारे वैकल्पिक जबाब वस्तुस्थिति की आलोचना से आगे नहीं बढ़ पा रहे हैं। जो भी उत्तर निकलकर आते हैंउनमें आगत से ज्यादा विगत की गंध होती है। यदि विकल्प की सोच को कोई टेक मिलती है तो ले-देकर मार्क्स और गाँधी की विचार परंपराओं ं। कुछ लोग दोनों को मिलाक भी सोचते हैं। फिर भी मनुष्यता के लिये भविष्य का कोई स्पष्ट उत्तर नहीं बन पा रहा है। न देशीन विदेशी। एक संभ्रम जैसी स्थिति है।
इस पुस्तक में अध्ययन के दृष्टिकोण से आलेख तीन खंडों में विभाजित किया गया है। हरेक का अलग नाम भी है, - कवितासंस्कृति और भाषा। प्रथम खंड में आठ लेख हैं जिनमें एक को छोड़कर शेष मध्यकालीन संत-कवियों पर हैं। द्वितीय खंड संस्कृति’ में छः और भाषापर सात आलेख हैं।
दूसरे और तीसरे खंड के अध्ययन से प्रथम खंड में कबीरसूरतुलसीबिहारी और सुभद्रा कुमारी चौहान के ऊपर लिखे विचार का उद्देश्य स्वयमेव उजागर हो जाता है जिसकी चर्चा मैं अंत में करना चाहूँगा जिससे बात को रखने में सुविधा होगी।
संस्कृति के विविध विषयों पर केंद्रित दूसरे खंड के सभी आलेख इतिहास और संस्कृति-निर्माण की प्रक्रिया का उद्भेदन करते हुए अपनी संस्कृति के तत्वसंकट और उसके सतीत्व के रक्षार्थ उन क्रियाशीलनों को समझने की अंतरदृष्टि देता है जिसके मूल में लोक की वे परंपराएँ और जीवनोंन्मुख गतिविधियाँ हैं जो मनुष्य की आंतरिक उन्नति के द्वार खोलती है और मानवता की संस्कृति रचने में सहाय्य और अग्रगामी होती है। इस खंड का पहला अध्यायप्रकृतिदर्शन और संस्कृति’ है। यहाँ संस्कृति की रचना -प्रक्रिया को समझाते हुए जीवन जी ने प्रकृतिधर्मपरंपराएँ और विकास से उसके अंतर्संबंधों और द्वंद्वों को इतनी बारीकी और सघनता से चित्रित किया है कि पूरा आलेख ही एक शोध-आलेख सा लगता है। एक उदाहरण देखिए संस्कृति और परंपरा के अंतर्संबंधों पर -
 “परंपरा का काम तो बस इतना है कि वह संस्कृति के अपने शिशु को वर्तमान को सौंप देती है। इसके बाबजूद संस्कृति के क्षेत्र में प्रायः यह देखा जाता है कि प्राचीनता के प्रति हठ की हद तक अनुराग होता हैजो उस बन्दरिया में भी दिखाई देता हैजो अज्ञानतावश अपने मृतशिशु के ठठरी को अपने वक्षस्थल से चिपकाये घूमती है। कहने का मतलब यह है कि हम संस्कृति के कर्मकांड से बचकर ही उसके जीवित और स्वस्थ पक्ष का विकास कर सकते हैं। कर्मकांड और अनुष्ठानसंस्कृति के बाहरी परिधान होते हैं उसकी आत्मा नहीं। मनुष्य को सदैव आत्मिक विकास की जरुरत होती हैन कि बाहरी वैचित्र्य की।
इस आलेख की बड़ी खूबी यह है कि यहाँ संस्कृति को आदमी के अंतस-विकास की प्रक्रिया से जोड़कर देखा गया है जिसमें प्रकृति के सहयोग और संघर्ष के अवदान और साथ ही भूमंडलीकरण के नकारात्मक भूमिका को भी लक्षित किया गया है। बकौल समालोचक मानव-जाति का ध्यान मानव-संस्कृति पर केंद्रित न रहकरवस्तु और उसके उपभोग पर केंद्रित हो गया है। पूँजी का महत्व हर समय रहा है लेकिन वह पहले कभी मनुष्य की स्थानापन्न नहीं बन पायी थीजबकि अब वह उसका स्थान लेती दिखाई दे रही हैयह संस्कृति-प्रेमियों के लिये सबसे बड़ी चिंता की बात होनी चाहिए। भविष्य का संघर्ष पूँजी और संस्कृति का ही संघर्ष होगा।” देखा जाय कि इस संघर्ष में मनुष्य कितना विजीत और कितना पराजित होता है!
 ‘संस्कृति’ खंड के आलेख इतिहास की प्रक्रिया को समझने के लिये बहुमूल्य विचार प्रस्तुत करते हैं। यहाँ मै एक दिलचस्प बात यह कहना चाहता हूँ कि मैं खुद भी इतिहास का विद्यार्थी रहा हूँ और मुझे आयोग की परीक्षा-तैयारी के दिनोंसांस्कृतिक इतिहास का विवरणात्मक अध्ययन भी करना पड़ा था। परंतु मुझे इतिहास-वेत्ताओं की मोटी-मोटी किताबों से उस समय उतना लाभ नहीं हुआ जितना कि फिलवक्त इस छोटी सी पुस्तक के संस्कृति’ खंड के आलेखों सेपर अफसोस कि उस वक्त तक यह पुस्तक प्रकाश में नहीं आयी थी। इन आलेखों के पढ़ने के उपरांत अगर कोई भारत के सांस्कृतिक इतिहास का अध्ययन करे तो मेरे विचार से वह इसके उद्भव और विकास की जटिल-संश्लिष्ठ प्रक्रिया को अधिक गहराई से समझ पायेगा क्योंकि इन आलेखों में निहित विचारसंस्कृति के आधुनिक भावबोध को चेतना के स्तर पर जाग्रत कर हमें उस सत्यांवेषण की ओर मोड़ते हैं जहाँविवाद की परिधि से अलगइतिहास अपने मूल रूप में घटित हुआ है। इसलिये पुस्तक का यह खंड मात्र साहित्य-सचेताओं के लिये ही नहींसंस्कृति और इतिहास के शोधार्थ - विद्यार्थी के लिये एक महत्वपूर्ण पुस्तक (a manual to understand the cultural heritage in India) साबित होगी।
इनमें संस्कृति के ऊपर धर्म और संस्कृति’ र भूमंडलीकरण और संस्कृति’ नाम से दो विशद आलेख तो हैं ही, ‘भारतीयता के ज्वलंत और बेहद विवादितउलझे हुए मुद्दे पर भारतीयता का सवाल’ शीर्षक से लिखा गया एक मात्र इतना गहन-गंभीरबहुप्रस्तरीय (multi layered) और बहुआयामी (multi dimensional) विचारालेख भी है कि इसे इस पुस्तक का मेनिफेस्टो’ भी कहा जा सकता है जो पुस्तक को सर्वजन हिताय’ और कीमती बनाते हैं क्योंकि बकौल समालोचक यह एक ऐसा सवाल है जो आसानी से पीछा नहीं छोड़ता। हजारों सालों की परम्पराओं का बल हमारे पीछे जो है। कैसी विडम्बना है कि आज की भारतीयता’ में राम की उस संस्कृति को उलटा जा रहा हैजिसमें कुर्सी लेने के बजाय कुर्सी छोड़ देने की होड़ रही है।
इक्कीसवीं सदी की दहलीज पर कदम रखने के साथ ही समय की गति इतनी तीव्र हो गयी है कि अब स्वगतिस्वावलंबन और आत्मनिर्भरता जैसे विचार पिछड़ेपन के द्योत्तक हो गये हैं जिसमें गाँधी की मूल अवधारणा के अंत कर देने का भी बिगुल फूँक दिया गया है क्योंकि डा. सिंह के अनुसार अर्थव्यवस्था में अब सब कुछ इतना गड्ड-मड्डा है कि देशी-विदेशी,राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीयजातीय और विजातीय शक्लों की पहचान की सूक्ष्म रेखाएँ तक मिटने को हैं। ... इससे किसी समाजदेश और राष्ठ्र की भावसत्ता की कोई इकहरी और एकरेखीय पहचान नहीं होती... इसलिये इस क्षेत्र में जो केवल भारतीय मनीषा ने रचा है वह उसका अपना है। वही हमारी भारतीयता है।” वास्तव में इस शोधालेख के माध्यम से भारतीयता की जो खोजबीन की गयी हैउसमें यहाँ के दर्शनऋषि-चिंतन परम्परासंस्कृति की समरसता का आत्मसाती चारित्रिक पक्षमानव-व्यवहार और संबंध-भावना को बखूबी सामने रखा गया है। इसके सुफल के रूप में भारतीयता का जो प्रतिमान यहाँ प्रस्तुत हैवह इस अर्थ में अन्यतम है कि वह ही काल के प्रवाह में टिक सका तो टिक पायेगाबाकी सब ऐसा प्रतीत होता हैतथाकथित उत्तराधुनिकता के प्रबल वेग में बह जायेंगेइतिहास जिसका सदियों से साक्षी रहा है।
यह डा. जीवन सिंह की अत्यंत महत्वपूर्ण स्थापना है कि अनेक झंझावातों के बावजूद भारतीयता के मूल में करुणा’ रही है जो हमारी समस्त दर्शन-परम्परा का निचोड़ भी है पर जो वैश्वीकरण की छ्द्म संस्कृति के पास नहीं है उल्टेउदारवाद की आड़ में शोषण और क्रूरता का गन्दा खेल चन्द बहुराष्ट्रीय कंपनियों के द्वारा खेला जा रहा है। साथ ही यहाँइस बाहरी बयार में भारतीयता की करुणाधारा के क्षीण हो जाने के संकट पर गहरी चिंता व्यक्त की गयी है।
इसी भाँतिइसके बाद के आलेख धर्म और संस्कृति’ में धर्म के प्रति मार्क्सवादी दृष्टिकोण में संप्रति फलित हो रहे विवेकहीनभ्रामक विचारों को आड़े हाथों लेते हुए जीवन जी ने धर्म के मूल और सत्तात्मकदोनों पक्षों का विश्लेषण किया है क्योंकि धर्म के मूल में मानवीय करुणासचाईनिश्छलतासंवेदनशीलताआशा जैसे हृदय के आत्मिक भाव हैं पर जब कोई भी धर्मडा. सिंह के अनुसार सत्तात्मक स्थिति में तब्दील हो जाता है तो अपनी उस मानवीय पहुँच से दूर होने लगता हैजो मानव जाति के एक समूह के लिये एक समय शांति का सन्देश लेकर आयी थी। तब रह जाती है उसकी आनुष्ठानिकताउसका कर्मकांडउसका शरीर। धीरे-धीरे उसकी आत्मा नष्ट जाती है और वह एक ढाँचा मात्र बनकर रह जाता है।” इस रहस्य को कोई जीवन सिंह सरीखे समालोचक की कुशाग्रबुद्धि ही जान सकती है कि मार्क्स ने धर्म की इसी उल्टी प्रकृति को जनता के लिये अफीम बताया था जो धर्म की मानवीय भूमिका के विपरीत हैन कि उस धर्म को जो क्षुद्रतम प्राणी के लिये भी करुणा और शील का व्यवहार लेकर संसार के कल्याणार्थ अवतरित होता है। यहाँ धर्म के सांस्कृतिक पक्ष के उद्‌घाटन में समालोचक की मेधा अतुलनीय प्रतीत होती है जो आदमी के विश्वास को धर्म से डिगने से बचाती भी है।
     ‘भूमंडलीकरण और संस्कृति’ नाम के आलेख मेंजैसा कि शीर्षक से स्पष्ट भी है,वैश्वीकरण से संस्कृति’ पर आसन्न खतरों की बहुकोणीय पड़ताल की गयी है। यहाँ लेखक ने यह संधान और संकेत करने की कोशिश की है कि यदि बाजारतकनीक इत्यादि आधुनिक शोधों का उपयोग मानवीय गुणवत्ता के लिये किये जायें तो स्थिति बदल सकती है जो कि एक विचारणीय स्थापना है।
आलेख कला की मूल्य प्रक्रिया’ कवि-पाठकों के लिये विशेष लाभकारी है क्योंकि इसमें काव्य-कला के जिन मूल्यों को महान बताया गया है,वह गहन मानवीय प्रक्रिया के मार्ग से होकर जाता है। किस तरह जाता हैयह सुधी पाठक आलोचना पढ़ कर आसानी से समझ सकते हैं। इस पाठ से गुजर कर ऐसे कलावाद और रूपवाद से मोहभंग भी होता है जो जीवन की प्रक्रिया से बाहर है।
जैसा कि ऊपर बताया गया है, ‘भाषा’ पर इस पुस्तक पर सात आलेख है। ये आलेख विश्वविद्यालयी छात्रों और प्रतियोगी परीक्षाओं में अपने वैकल्पिक विषय हिन्दी साहित्य चुनने वालों को विशेषोपयोगी पठनीय सामग्री उपलब्ध कराता है जो उनके भाषा संबंधी सिलेबस पर गहरी पकड़ बनाने के काम आ सकता है। साथ ही यहाँ हिन्दी जाति’ की संकल्पना को वृहत्तर,उदारवादी परिप्रेक्ष्य में विवेचित किया गया है जो हिन्दी क्षेत्र के अलावा अहिन्दी क्षेत्रों में हिन्दी के विकास और प्रसार की नई संभावनाएँ और दिशाएँ खोलती हैं। साथ ही सभी जातीय भाषाओं के उन्नयन और आत्म-गौरव का मार्ग प्रशस्त करती है, ‘हिंग्लिश’ के प्रभाव में दिन-दिन निष्प्राण हो रही जनभाषा हिन्दी को अक्षुण्ण रखने के निहितार्थ भारतीय आत्मबल को सही दिशा और सोच प्रदान करती है।
इस प्रकार यह साफ है कि द्वितीय और तृतीय खंड में संस्कृति और भाषा के सन्दर्भ में डा. जीवन सिंह द्वारा भारतीय समय और लोक को समझने का सराहनीय और अभिनव प्रयास किया गया है जिसमें उन नवाचारी विचारों का प्रतिफलन हुआ है जो भारतीय लोक और जीवन के पक्ष में है। इसी लक्ष्य की प्राप्तिकविता खंड के आलेखों का भी अभिप्रेत है। अतएव अब मैं पहला खंडजो कविता विषयक पाठों पर आधृत है पर आता हूँ। इस खंड में आठ विचार हैंजिनमें पाँच मध्यकालीन संत -कवियों के कृतित्व परएक रीति-कवि बिहारीएक स्वतंत्रता के गायक स्त्री-कवि सुभद्रा कुमारी चौहान और एक कविता के गद्य-रूप पर है।
डा. सिंह कबीरसूरतुलसी और मीरा को लोक जीवन के अत्यंत प्रतिभावान कवि के रूप में देखते हैं। यहाँ लोक और भक्ति पृथक-पृथक नहीं है। इन संत-कवियों का सबसे विलक्षण गुण यह है कि ये भक्ति में योग-साधना के पक्ष को जीवन और लोक की गहराई में उतर कर प्रतिपादित करते हैंन कि उसकी अवहेलना कर। और एक प्रेममयभावपूर्ण संसार की रचना करते हैं। आदिकाल की कवियों की तरह इनमें भक्ति का पक्ष जीवन और लोक से कटा हुआ नहीं है। समालोचना में इस विचार को प्रतिष्ठा मिली है कि आज के कवियों की रचनाधर्मिता भले ही उन संत-कवियों की रचनाधर्मिता से आगे की होपर उनके सृजन के गहन मानवीय अर्थों को अभी समग्र रूप से समझना बाकी है क्योंकि उनकी कविताओं का लोक-समय अब के कवियों से कहीं अधिक समृद्ध है। इन लेखों का सबसे महीन और सघन पहलू है उनमें व्यैक्तिक भिन्नता ((individual difference), जो बहुत रोचक भी है। जीवन जी की स्थापना है कि कबीर संस्कृति की बुनियाद पर खड़े हैं जबकि तुलसी उसके कंगूरों पर।...दरअसलकबीर हमारे आधुनिक भावबोध के बहुत नजदीक हैंइस मामले में तुलसी उनसे पीछे हैं।..इसलिये तुलसी सामंजस्य और समन्वयवाद के पोषक हैं। वे टूटे-फूटे को जोड़ने का काम ज्यादा करते हैं.....कबीर समन्वयवाद के पोषक नहीं हैं। वे संस्कृति को अंतर्वस्तु में बदलते हैं और पहले से चली आती हुई खंड-संस्कृति में उपेक्षित को शामिल करते हैं। किंतु जब संस्कृति के स्तर परस्त्री’ का मामला आता है तो कबीर भी पिछड़ जाते हैं। कबीर के व्यापक जीवनानुभवों में स्त्री की पीड़ा नहीं समा पाती। इस मोर्चे को सँभालती हैं मीरां।” सूर पर लिखे गये आलेख ये ब्रज के लोग’ में वे सबसे महत्वपूर्ण बात कहते हैं कि सूर ने नागर सभ्यता के ऊपर ग्राम्य सभ्यता को प्रतिष्ठित किया है जिनमें प्रेम और जीवन के राग हैं। पर कैसेयह सब जानने के लिये सिंह जी के प्रिय पाठकों को पूरे आलेख से गुजरना होगासब उद्धरण यहाँ देना समीचीन नहीं क्योंकि यह तो पुस्तक-चर्चा है जिसमें मैंने मात्र अपनी पाठकीय समझ ही अभिव्यक्त की है।
हाँएक बात और क्तिकालीन कवियों परवह यह कि प्रेम-रस के अत्यंत महत्वपूर्ण कवि मलिक मो. जायसी की कमी इस खंड में खलती हैजो मध्यकालीन संत-कवियों की लड़ी को पूरी होने से रोकती हैं। परंतु पुस्तक के आमुख में डा. सिंह की स्वीकारोक्ति है कि जायसी पर कोई मौका नहीं मिल पाया तो वे चाहते हुए भी छूट गये।” पर उनसे आशा की जानी चाहिए कि इस पुस्तक के आगामी संस्करण में इस कमी को दूर कर लिया जायेगा।
 ‘शब्द और संस्कृति’ को पूरा पढ़ लेने के उपरांत जब मैंने कृतिकार डा. जीवन सिंह जी से फोन पर जिज्ञासावश पूछा कि इतना अच्छा और तात्त्विक ढंग से कैसे लिख लेते हैंतो वे सहजता से मुस्कुराकर टाल गये। लगा कि स्वमुख प्रशंसा से बचना चाहते थे। पर उनको सांगोपांग पढ़कर स्वयं यह अनुभव किया जा सकता है कि उनकी सोच में प्रगाढ़ पार्थिवता विद्यमान है जो उनकी आलोचना को श्रेष्ठ और अर्थवान बनाती है। ठीक ही कहा है किसी ने कि शौक-ए-दीदार‘ गर है तो नज़र पैदा कर।” उनमें यह नज़र अर्थात आलोचना -दृष्टि इसी पार्थिवता से उत्पन्न होती है।
मैं समझता हूँसाहित्य के गद्य और पद्यदोनों पाठकों के लिये अपने लोकवर्तमान और भारतीय संस्कृति के समझ को विकसित करने की एक अनूठी और अनिवार्य पुस्तक साबित होगी- शब्द और संस्कृति’ जो उनके सन्दर्भ-ग्रंथ के रूप में सहायक हो सकती है।
हमारे यहाँ जनपदीय स्पन्दन और लोकचेतना से सम्पन्न गंभीर समालोचकों की बड़ी कमी है। कुछ ही हैं जिन्हें उँगलियों पर गिनाया जा सकता है। ऐसी स्थिति में जीवन सिंह एक ऐसे लोकधर्मी समालोचक हैं जिनके लेखन को देखकर लगता है कि आलोचना की दूसरी परम्परा न सिर्फ जन्म ले चुकी हैबल्कि साहित्य-परिसर में अपना पाँव पसारने लगी है जो साहित्यालोचना के स्वस्थ परम्परा के विकास के उज्ज्वल भविष्य की आश्वस्ति देती है।
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