यानि कि इस अवधारणा में पश्चिम के बाज़ारवाद की ही मूल
अवधारणा गुप्त है जो संसार की हर चीज़ खरीदने और बेची
जाने में विश्वास करती है | पूरी
धरती को ही यह बाज़ार के रुप में प्रस्तुत करती है जो अपने मकसद से हमारे घर-बिस्तर तक दाखिल होता है| यह एक ऐसा सर्वग्रासी विचार है जिसके
अंतर्गत सिर्फ़ वही वस्तु दुनिया में बचेगी या टिकेगी जो बिक
सकती है। जो नहीं बिकेगी, उसका हश्र यह होगा कि वह गाफिल और नेस्तोनाबूद कर दिया जाएगा| उसका नाम तक लेने वाला संसारभर में खोजने से नहीं मिलेगा| दु:ख इस बात की है कि मनुष्य
जीवन के नितांत व्यक्तिगत विषय – यथा: यौन-अभिरुचियों से लेकर प्रेम, अंतरंगता, यश और ईमान भी अब बाज़ारवाद और वैश्वीकरण का हिस्सा बन रहे हैं। साहित्य से संवेदना
तक इसका प्रसार हो चुका है। बाज़ार
के द्वारा आदमी की संवेदना को जीवन में नहीं, उन चीज़ों पर केंद्रित किया जा रहा है जो उनकी स्वार्थ-पूर्ति
कर सके। तभी तो
आज का आदमी, आदमी को
नहीं, चीज़ों को
जुटाने की जुगत में लवलीन है ! मार्क्स ने सही कहा था - "पूँजीवाद उपभोक्ता
वस्तुओं के प्रति ऐसी आसक्ति रचता है जहाँ संसार में वस्तुएँ ही प्रेरक तत्त्व बन
जाती है और जीवित मनुष्य केवल आर्थिक श्रेणियाँ भर बनकर रह जाते हैं। मानवीय
संबंधों में जो कुछ ठोस और स्पंदनशील है, वह भाँप
बनकर उड़ जाता है और बेज़ान चीज़ें सबसे महत्वपूर्ण होकर बची रह जाती है।"
समय बहुत बदल गया पर मार्क्स का यह विचार आज भी कितना प्रासंगिक है अपने लोगों
के संदर्भ में !
आखिरकार वे कौन सी
परिस्थितियाँ और कारक हैं
जिसने विकास और आधुनिकता के नाम पर इस मिथ्या अवधारणा को अंतर्राष्ट्रीय फलक
पर इतनी हवा दी है? इतिहास
बताता है कि पश्चिमी राष्ट्रों की संस्कृति उद्योगों से उद्भूत संस्कृति रही है। वहाँ की परंपराएँ औद्योगिक क्रांति के प्रभाव में पहले ही नष्ट हो चुकी
है और जो शेष बची थी उसे दो विश्व युद्धों ने तहस-नहस कर दिया। दूसरे महायुद्ध के
बाद साम्यवाद, शीतयुद्ध, एशिया-अफ़्रीका में उभरता
राष्ट्रवाद, उपनिवेशों की समाप्ति के कारण संसाधनों की कमी, श्रम -
बाज़ार की बढ़ती कीमत, हड़ताल, तालाबंदी, छात्र-आंदोलन
और पेट्रोल की बढ़ती कीमत के साथ उर्जा का गहराता संकट पूँजीवादी औद्योगिक व्यवस्था के लिये भयावह सिद्ध हुए। इन
स्थितियों में एक नयी व्यवस्था जिसमें उत्पादन की नयी प्रणाली हो, नये संसाधन आये और वैकल्पिक उर्जा के स्रोत खोजे जायँ, इस आवश्यकता
पर बल दिया क्योंकि पूँजीवादी और साम्यवादी दोनों ही तरह के देश आर्थिक मंदी के
दौड़ से गुज़रने लगे थे। फलत: इसका समाधान
हुआ इलेक्ट्रॊनिक्स, डिजिटल-शोध
, चिप्स, कंप्युटर के क्षेत्र में की गयी खोजो, प्रयोगों और इनकी बढ़ती उपयोगिता में। इस तरह उत्तर-औद्यौगिक की सभ्यता की नींवें पड़ी
जिसके उदर से भूमंडलीकरण का प्रादुर्भाव
हुआ। उल्लेखनीय है कि इसके विचार और संरचना के फैलाव में सूचना-संचार क्रांति का विशिष्ट योग है। साथ ही सोवियत संघ और
पूर्वी योरोप में साम्यवादी विचारों को 'सेटबैक' लगने के कारण विश्व का राजनीतिक संतुलन पूँजीवादी राष्ट्रों
के पक्ष में एक तरफ़ा हो गया। विचारधारा के टकराव के स्थान पर साम्यवाद और पूँजीवाद, दोनों एक-दूसरे के निकट आ गये जो एक प्रकार से साम्यवादी सिद्धांतों का पराभव भी कहा जा सकता है, परिस्थिति-जन्य ही सही पर सच है। अस्तित्व की रक्षा के लिये, लगता है उनमें एक प्रकार का संगम (कनवर्जेंस) हो गया। ऐसे हालात ने
बीसवीं सदी के अंत में उभरने वाले भूमंडलीकरण की ठोस पूर्व-पीठिका तैयार की। हमारे देश
में विज्ञान और प्राद्यौगिकी की धीमी विकास का होना स्वाभाविक है क्योंकि हमारा देश कृषि आश्रित अर्थव्यव्स्था पर टिकी
है। लेकिन इस अर्थव्यवस्था की अपनी जीवन-शैली है, अपनी
परम्पराएँ हैं। उनसे नि:सृत लोककला और् संस्कृतियों में रमते हुए लोग यहाँ साधारण
किंतु सुखद और पवित्र जीवन जीते हैं। भारत के बाज़ार
के रुप में खुल जाने पर साम्राज्यवादी राष्ट्र अपने
ईलेक्ट्रॊनिक मिडिया के माध्यम से हमारे परिधानों, साज-सज्जा, खान-पान, तथा भाषा यानि संपूर्ण परंपरागत
जीवन-शैली पर हमला बोल रहे हैं। भविष्य में यह हमला और भी कई गुणा तेज होने की
संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता। इस हमला में साम्राज्यवादियों का अमोघ हथियार संचार है। बाज़ार संचार का उपयोग कर ही हमारे उपर डोरे डालती है। संचार
विविध समाचारों, संदेशों, सूचनाओं, विविध मनोरंजक कार्यक्रमों
को आम आदमी तक पहुँचाता है। ये समाचार, संदेश, सूचना, मनोरंजक कार्यक्रम
व विज्ञापन कैसे हों ,ये वे
शक्तियाँ तय करती हैं जिनके आधीन संचार होता है। संचार उन्हीं विषय-वस्तुओं को
लेकर आम आदमी तक ,श्रोता-दर्शक
तक पहुँच रहा है जिससे पश्चिम का हित सिद्ध हो सके। उनका हित-सिद्धि तभी संभव है, जब
उपभोक्तावादी मन:स्थिति का सृजन हो।
ज्ञातव्य है कि बाज़ार को ग्राहक मनुष्य चाहिए। भोगवादी मनुष्य चाहिए। ग़ैर-ज़रुरी
साधनों का क्रयाकांक्षी मनुष्य उन्हें चाहिए। ऐसे उपभोक्तावादी ग्राह्क मनुष्य का सृजन तभी संभव है जब मानव-समाज से, विचार ,सहानुभूति, संवेदन, सरोकार ,प्रेम ,दया, करुणा, ममता, परस्परता बेदखल कर
दिया जाय। आज संचार के ज़रिये बाज़ारवाद यही कर
रहा है।
साहित्य का ताना-बाना
सच पर बुना जाता है। एक ऐसे समय में जब समाज संकट में हो और अपनी अस्मिता के लिये
संघर्षरत हो, जब बाज़ार समाज के हर व्यक्ति को एक
उपभोक्ता में बदल देने पर आमादा हो और जीवन-संस्कृति के हरेक कर्म, वाक्य, शब्द और
परिणाम को एक बिकाऊ उत्पाद में, तो भारतीय
साहित्य के देशज चरित्र के नष्ट -भ्रष्ट हो जाने का खतरा स्वाभाविक है। यह बात कविताओं के साथ महत्तर रुप में लागू होती है। आज का अधिकतर साहित्य जीवन-संघर्ष के साहित्य नहीं है।
इनमें सिर्फ़ बाहरी तड़क-भड़क है। इन साहित्यों को पढ़कर कभी मुक्तिबोध और पॉब्ला
नेरुदा का अहसास नहीं होता। 'सामान्यीकरण' ( generalisation) और 'एकरुपता' (uniformity) इनका सार्वत्रिक लक्षण रहा है। एक ही
मुहावरे, वाक्य-विन्यास और
भाषा-शिल्प में ढले हुए। अनगढ़ और कला का निरा,शुष्क रुप। बस| घोर
वैयैक्तिक भी। समाजीकरण का नितांत अभाव। पलायनवादी प्रेरणाओं से एकात्म भी। वैश्वीकरण के प्रभाव में हिंदी-अँग्रेजी का मिला-जुला एक ऐसा रुप 'हिंग्लिश' सामने आ रहा है कि उनमें सही ज़मीन की पहचान और वैशिष्ट्य खोज पाना मुश्किल कार्य है।
यह भी सत्य है कि भूमंडलीकरण कोई नया समाज नहीं गढ़ रहा। उल्टे विरासत में मिली बहुमूल्य चीज़ों को नष्ट कर रहा, मौजूदा भाषा और समाज को भी विरुपित कर रहा। कंप्युटर, वेबसाईट्स, इंटरनेट, मोबाईल फोन आदि उपकरण और उसके सॉफ्टवेयर पर अंग्रेजी भाषा का ही दबदबा कायम है| भाषा के घालमेल से भाषा का एक ऐसा संकर मॉडल प्रस्तुत किया जा रहा है जो बाजार और विज्ञापन की भाषा है| सृजन, विचार और भावना की भाषा नहीं है। देवनागरी लिपि को रोमन अपदस्थ करने पर तुली है। सही कहा है धूमिल ने कि
यह भी सत्य है कि भूमंडलीकरण कोई नया समाज नहीं गढ़ रहा। उल्टे विरासत में मिली बहुमूल्य चीज़ों को नष्ट कर रहा, मौजूदा भाषा और समाज को भी विरुपित कर रहा। कंप्युटर, वेबसाईट्स, इंटरनेट, मोबाईल फोन आदि उपकरण और उसके सॉफ्टवेयर पर अंग्रेजी भाषा का ही दबदबा कायम है| भाषा के घालमेल से भाषा का एक ऐसा संकर मॉडल प्रस्तुत किया जा रहा है जो बाजार और विज्ञापन की भाषा है| सृजन, विचार और भावना की भाषा नहीं है। देवनागरी लिपि को रोमन अपदस्थ करने पर तुली है। सही कहा है धूमिल ने कि
"अपनी आवाज़ का चेहरा टटोलने के लिये/ कविता में/ अब कोई शब्द छोटा नहीं पड़ रहा है:/लेकिन तुम चुप रहोगे/तुम चुप रहोगे और लज्जा के/उस निर्रर्थ गूंगेपन से सहोगे-/यह जानकर कि तुम्हारी मातृभाषा/उस महरी की तरह है, जो/महाजन के साथ रातभर/सोने के लिये/ एक साड़ी पर राजी है।"
हमें आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी की यह बात बराबर ज़ेहन में रखनी चाहिए कि
"भाषा ही
किसी जाति की सभ्यता को सबसे अधिक झलकाती है। यही उसके भीतरी कल-पूर्जे का पता देती है। किसी जाति को अशक्त करने का सबसे सहज उपाय है उसकी भाषा को नष्ट
करना।" इसलिये हमारे साहित्य -समालोचकों और
भाषाविदों को 'हिंग्लिश' का कड़ा विरोध करना चाहिए ताकि भाषा के सही
कलेवर और रुप की पहचान हिंदी में अक्षुण्ण रह पाये।
आज दुनिया भर में आदमी और उसकी संस्कृति को नहस-तहस कर देने की षडयंत्र रचा जा रहा है। लेकिन इतना होने के बाबजूद अभी नैतिक मूल्यों से हमारा विश्वास डिगा नहीं है। हमें विरासत में योग की संस्कृति मिली है, भोग की नहीं। हमारे पर्व-त्योहार, संयम, सदाचार, संस्कार, संयुक्त-परिवार के आदर्श-त्याग, समर्पण-ये सब हमारी यानि देशज संस्कृति के लक्षण हैं। अनेक विद्रुपताओं, विविधताओं और टकराव के बाबजूद इसी कारण हम टूटकर भी हमेशा जुटते रहे हैं और अभिनव सामाजिक मूल्य भी स्थापित करते रहे हैं। अत: आस्था की किरण अब भी बाक़ी है। यहाँ हम परम्परावादी बनने की बात नहीं कर रहे हैं। हो सकता है, वहाँ की कई बातें रूढ़ और अंधविश्वासी हों जो हमें पसंद न आये पर उन्हें छानकर उनका सत्व तो हम ले ही सकते हैं। योरोप के आयातित विचारों से मुक्त होने के लिये हमें अपनी जड़ें तलाशनी होगी, वरना हमारे लिये भटकाव का मार्ग खुला हुआ है जहाँ गुम हो जाना हमारे लिये बिल्कुल आसान होगा | 'कृति ओर' के संपादक और वरिष्ठ कवि-चिंतक विजेंद्र जी के इस विचार से मैं पूर्णत: सहमत हूँ कि
आज दुनिया भर में आदमी और उसकी संस्कृति को नहस-तहस कर देने की षडयंत्र रचा जा रहा है। लेकिन इतना होने के बाबजूद अभी नैतिक मूल्यों से हमारा विश्वास डिगा नहीं है। हमें विरासत में योग की संस्कृति मिली है, भोग की नहीं। हमारे पर्व-त्योहार, संयम, सदाचार, संस्कार, संयुक्त-परिवार के आदर्श-त्याग, समर्पण-ये सब हमारी यानि देशज संस्कृति के लक्षण हैं। अनेक विद्रुपताओं, विविधताओं और टकराव के बाबजूद इसी कारण हम टूटकर भी हमेशा जुटते रहे हैं और अभिनव सामाजिक मूल्य भी स्थापित करते रहे हैं। अत: आस्था की किरण अब भी बाक़ी है। यहाँ हम परम्परावादी बनने की बात नहीं कर रहे हैं। हो सकता है, वहाँ की कई बातें रूढ़ और अंधविश्वासी हों जो हमें पसंद न आये पर उन्हें छानकर उनका सत्व तो हम ले ही सकते हैं। योरोप के आयातित विचारों से मुक्त होने के लिये हमें अपनी जड़ें तलाशनी होगी, वरना हमारे लिये भटकाव का मार्ग खुला हुआ है जहाँ गुम हो जाना हमारे लिये बिल्कुल आसान होगा | 'कृति ओर' के संपादक और वरिष्ठ कवि-चिंतक विजेंद्र जी के इस विचार से मैं पूर्णत: सहमत हूँ कि
"हमें अपनी धरती, अपने
लोगों और अपने जनपदों से जुड़ना होगा। अपनी भाषा और उपभाषाओं से जीवन-रस ग्रहण करने
की प्रक्रिया शुरु करनी होगी।...हमें अहसास होना चाहिए कि हमारे स्वतंत्रता का संग्राम अभी समाप्त नहीं हुआ है। हमारी
नीयति उन देशों के साथ आज भी जुड़ी है जो आर्थिक और राजनीतिक शोषण से मुक्त होने को
संघर्षरत हैं। हमें नया एशियाई मन बनाना होगा।"
ये हमारे सामने नई चुनौतियाँ हैं जिनसे साल-दर–साल हमें जूझना है | अब नया साल दस्तक देने की
तैयारी में है | हमारी सरकारें घोटालों और देश की संपदाओं को
बाहर भेजने के लिए विगत कई वर्षों से विश्व में मशहूर रही हैं| इधर के दो दशकों में हमने अपने घर – बार को एक तरह से नीलाम कर रखा है| हमारे गीत-संगीत-साहित्य से लेकर लोककला-संस्कृति भी कनवरजेंस के नाम पर
विकृत की जा रही हैं | हमारी बहनों को रैम्प पर उतारकर उनकी इज्जत
को पुरस्कारों से नवाजने का साजिश कर उनकी देह को खुलेआम बेचने का उपक्रम जारी है | आजादी के इतने वर्ष बाद भी हम उन्हीं मूल समस्याओं से रु-ब-रु हैं जिससे कबका निजात मिल जाना चाहिए था!
एक तरह से हम यह सोचें कि हमारे
सपनों का भारत अब तक हमारी नींद में ही ऊबासियाँ ले रहा है|
आइए, नए साल में हम जगें तो सही, जगाएँ भी जितना बन पड़े और बीते वर्षों के गलतियों की खुमारी
उतार पूर्ण चेतन-मन से अपनी तक़दीर उकरने की तदबीरें करने का संकल्प लें व प्रयत्न करें| इसके लिए हम STOP फार्मूले पर चल सकते हैं -
S - STEP BACK (यानि पीछे हटें)
T - THINK DEEPLY (जरा सोचें)
O - OBSERVE (मंथन करें)
P - THEN PROCEED. (आगे बढ़ें)
Admirable
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