शनिवार, 28 दिसंबर 2013

काव्य-वर्जनाओं के विरूद्ध कविता के नये प्रतिमान

बिसात बिछी है
गोटियाँ नाच नहीं रही हैं
बादल घुमड़ रहे हैं
बरसात हो नहीं रही है
नदी के तेवर समझ नहीं आते
धार सागर से उलटी भाग रही है

केनवास बिछा पड़ा है
रंगों की प्यालियों में
तड़क रही है
तस्वीरों की प्यास

जीभ पर टिकी कविता
सरक जाती है गले में
जन तैयार हो रहा है
फिर एक संघर्ष के लिए "
[कविता- जनसंघर्ष/ रति सक्सेना]

कविता में डा. रति सक्सेना  का आत्मसंघर्ष लगभग ढाई दशक पूर्व तब प्रारंभ हुआ जब उन्होंने मलयालम साहित्य का हिन्दी-अनुवाद करना शुरु किया था। यहीं से कविता के बीज उनके मन में अपनी गहरी जड़ें जमाने लगे। इसलिये उनकी रचना-प्रकृति पर मलयालम की महान कवयित्री बालामणियम्मा और कवि अय्यप्पा पणिक्कर का छाप सघनता से लक्ष्य किया जा सकता है। गोया कि उनकी कविता का संघर्ष जितना बाह्य रहा है उतने ही आंतरिक। कृतियों में एक ओर जहाँ भाषा और शिल्प के स्तर कवयित्री का संघर्ष दिखलाई देता है वहीं दूसरी ओर कविता की अंतर्वस्तु और रूपमयता को लेकर भी यह जद्योजहद बरकरार है क्योंकि यह हिन्दी में उनके लिये प्रचलित वर्जनाओं और बंधनों से मुक्ति का समय है जिसके प्रभाव से सामान्यतया हिंदी की अन्य कवयित्रियाँ अछूता न रह पायीं। यूँ कहें कि आईसोलेशन (अकेलापन) रति जी कोकविता-कर्म के नये और वृहत्तर आयाम से जोड़ता है और कविता में उनके लिये संभावनाओं की नई दिशाएँ भी खोलता है। साथ ही स्त्री-मनोदशा को देखने की यहाँ एक नवदृष्टि भी मिलती है। इनकी कविताओं में स्त्री की मुमुक्षा का स्वर बेहद भिन्न किस्म का है जो अन्य कवियित्रियों की मुक्ति-चेतना के स्वर से हमें अलगाता है जिसके लिये उन्होंने अभिव्यक्ति का अपना एक खास मुहावरा विकसित किया जिसका ऐतिहासिक महत्व है। यही कारण है कि उनके यहाँ मध्यमवर्गीय स्त्रियों के घुटन और व्यथा को जो वाणी मिली है वह अन्य कवयित्रियों से अलग और बिरला है- “उसने कहा/"माँ, मैं सच में बड़ी हो गई हूँ"/बादल का एक टुकड़ा /छितरा लिया /चेहरे पर/घबरा गई मैं/झट से लाल चूनर ओढ़ा दी /उसने कहा/" मैं बड़ी हो गई, माँ/देख चाँद का टुकड़ा/मेरा स्तन चुभला रहा है" /ठिठकी रह गई मैं/असमंजस में/अब मैं चाह रही हूँ/एक बार फिर से /वह छोटी हो जाए ।” 


यह नारी-मनोदशा को देखने का एक अभिनव आयाम है जहाँ पीढियाँ प्रकृतित: संस्कार के आवरण को खोल सीमाओं को तोड़ना चाहती है, पर चित्त में जो भारतीयता की महक़ बसी है, वह उसे बचाना चाहती है । यहाँ शब्द ही नहीं, रति का कवि भी मुक्ति को उन स्थितियों से अलगकर देखता है जो अब तक अछूता रहा है। वह कविता की प्रकृति के उन गुणों का पक्षधर रही हैं जो कविता को वाद और विवाद के घेरे से विलग करती है। दरअसल मध्यमवर्गीय कुंठा और जकड़न से रति का कवि उन्मुक्त होने को बेचैन है। पर अभी वहाँ विवशता है, बंधन है, समय की अनगिन बेडियाँ पड़ी हैं!


केरल में रहते हुए ऊब और अकेलेपन से उबरने की कोशिश में लिखी उनकी कई कविताओं पर वर्गीय तनाव और संत्रास की छाया मँडराती नज़र आती है जो लगभग ‘ट्रांस-स्थिति’ में लिखी गयी प्रतीत होती है पर जो समय और समाज के सच की एक जीती-जागती मिसाल बन पड़ी है। पर रति की काव्य-साधना में तनाव के वातवरण में भी प्रेम की उत्कट अभिलाषा पोर-पोर तक विद्यमान है-“जानते हो, साधारण सा ही है? ‘कल मेरे पैर, जानते हो/मेरे पैर हमेशा गीले रहते है/मीठे पानी में खड़े खड़े/इंतजार में गीले/तुम्हारे इंतजार में, दोस्त! ”


रति जी की काव्य-रचना प्रक्रिया से गुज़रते हुए मुझे यह भास होता है कि उन्होंने कविता की स्थापित क्लासिकी पर अपना ध्यान ज्यादा केन्द्रित नहीं किया, बल्कि खुद की अपनी क्लासिकी विकसित की और समकालीन कविता में बिना लाग-लपेट के प्रवेश किया, जिस कारण हिंदी समालोचकों की दृष्टि उधर नहीं गयी, या कहें कि जब-तब वक्र दृष्टि ही रही। पर उनकी कविताओं में उनके जीवनानुभव और स्वानुभूति पर ही विशेष बल मिला है। लेकिन हिंदी समालोचना का यह दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि ऐसी मूर्द्धन्य कवयित्री पर अब तक कुछ खास नहीं लिखा गया। जहाँ तक सृजनात्मक और रचनाधारित आलोचना का प्रश्न है, हमारे आलोचकों की अध्ययन-परम्परा भी गहन-गंभीर और संदर्भमूलक नहीं है। यहाँ रचनाकारों के व्यक्तित्व-कृतित्व को माँजने और गुनने के बजाय आलोचकों द्वारा उनके संबंध में अपनी नकारात्मक टिप्पणी और निष्कर्ष ही अधिक दिये जाते हैं। जो काव्य के पारखी-आलोचक हैं वे भी अपने यशस्वी मायालोक से इतने ग्रस्त रहते हैं कि उनका आलोचना-विवेक भी लगभग आलोचना-अहंकार का पर्याय बन जाता है। अपने-अपने पूर्वग्रह, विवाद और सुविधाओं के लालच और दुराग्रहों के कारण वे आलोचना की खास ज़मीन और वज़ह खोजते हैं, इस कारण तटस्थ नहीं रह पाते। संभवत: इन्हीं कारणों से रति सक्सेना के काव्य-संसार का अब तक न तो समग्र मूल्यांकन हो पाया है, न उनकी वह प्रतिष्ठा ही हिंदी साहित्य में हो पायी है जिसकी वे सही मानो में हक़दार हैं। 


यहाँ यह बताते चलें कि अब तक हिंदी में इनकी चार किताबें आ चुकी हैं- माया महाठगिनी, अजन्मी कविता की कोख से जन्मी कविता, सपने देखता समुद्र और एक खिड़की आठ सलाखें। इसके अतिरिक्त अंग्रेजी में दो और मलयालम में एक ( अनूदित ), इतालवी में एक कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं । (हिन्दी में दो और कविता संग्रह तथा अंग्रेजी में एक कविता संग्रह शीघ्र प्रकाशित होने वाले हैं ) देश की करीब- करीब सभी भाषाओं में रति सक्सेना की कविताएँ अनूदित हुईं हैं। कई कविताओं के अनुवाद अंग्रेजी में अन्य देशों की पत्रिकाओं में भी प्रकाशित हुए है । ईरान की Golestaneh नामक पत्रिका में रति सक्सेना की कविताओं और जीवन को लेकर एक विशेष अंक निकाला गया है। अँग्रेजी पत्रिका andwerve www.andwerve.com में रति सक्सेना से विशेष भेंटवार्ता प्रकाशित की गई है। रति सक्सेना ने कविता और गद्य की 11 पुस्तकों का मलयालम से हिन्दी में अनुवाद भी किया है जिसके लिए उन्हें वर्ष 2000 में केन्द्र साहित्य अकादमी का अवार्ड मिला। मलयालम की कवयित्री बालामणियम्मा को केन्द्र में रख कर एक आलोचनात्मक पुस्तक भी उन्होंने लिखी ( बालामणियम्मा- काव्यकला और दर्शन )। पर रति सक्सेना का सबसे महत्वपूर्ण कार्य है- अथर्ववेद को आधार बनाकर लिखी पुस्तक " ए सीड आफ माइण्ड‍ - ए फ्रेश अप्रोच टू अथर्ववेदिक स्टडी" जिसके लिए उन्हें "इन्दिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केन्द्र " फेलोशिप मिली । रति सक्सेना की दो पुस्तकें‍ अथर्ववेद के प्रेमगीत, जिनमें वेदों के अनजाने पक्ष को प्रस्तुत किया गया है, प्रकाशित एवं चर्चित हुई हैं । इन्हें इटली के मोन्जा( Monza) में छह महिने तक चलने वाले सांस्कृतिक कार्यक्रम Poesia presente 2009 in Monza में विशेष रूप से आमन्त्रित किया गया है, रोम में of Mediterranea Festival में विशेष कवितापाठ का भी आमन्त्रण मिला है। अभी वे नोर्वे के Stavanger नोर्वे दिवस के उपलक्ष्य में भारतीय कविता पर बोलने के लिए भी आमंत्रित हैं। पर यह कैसी विडंबना है कि भारतीय आलोचकों की नज़र अबतक उस ओर उपेक्षा से ही गयी है!


कहना न होगा कि कविता का खनिज इन्हें अपने जीवन से ही प्राप्त हुआ है और भाषा भी इनकी अपनी और वक्र है, इकहरी नहीं, भावों के कई स्तरों को अपने में गुंथे हुए, इसलिये कहीं-कहीं कविताएँ जटिल हो गयी है और भाव संश्लिष्ट भी (मुक्तिबोध और धूमिल की तरह)। पर इनकी कविताओं का अपना आस्वाद है। कविता में प्रयुक्त शब्द-चयन पर स्वयं रति जी का विचार है - “सवाल यह उठता है कि क्या शब्द अपनी शक्ति खो सकता है? क्योंकि व्यवहार में हम देखते हैं कि सभी शब्द प्रभावशाली नहीं होते और कविता के नाम पर लिखी गई हर पंक्ति कविता नहीं होती। अब हम सोचने को बाध्य हैं कि क्या शब्द भी अपनी शक्ति खो सकते हैं? यदि ऐसा है तो वैदिक दर्शन से लेकर एमिली डिकेन्सन तक की सोच पर सवाल उठेगा।”


“शब्द उस पत्थर या ईंट की तरह हैं, जिनका सही चुनाव न किया जाए, और सही तरीके से नहीं चिना जाए तो उनसे बनने वाली इमारत खण्डहर बनने में देर नहीं लगती। कविता शब्द को शक्ति में परिवर्तन करने का उपाय है। पर समकालीन परिवेश में कविता के बारे में इतनी बड़ी घोषणा करने में भी संकोच होता है।”


अगर उनकी इन विचार-विथियों के आलोक में उनकी कविता में प्रयुक्त शब्द-शिल्प पर गौर करें तो यह विश्वास करने का पर्याप्त कारण हो जाता है कि कवयित्री ने भाषा-शिल्प की बेहतरी पर अपना विशेष ध्यान केन्द्रित किया है जो इन्हें अन्य समकालीन कवयित्रियों, और एक हद तक कवियों से भी अलग आलोचना की मांग करता है, देखिये कुछ उदाहरण-


1. कल तक तुम यहीं थे
पत्तियों के किनारों पर झाँकती पीलेपन में
मेरी उंगलियों में फँसी कलम में
कागज पर खिंची लकीरों में
पंखे की चक्रवाती हवा में
रसोई में मसाले के डिब्बे में
तुम आज भी यही हो
किन्तु
कलमदान खाली है
पत्तियाँ सूख कर झड़ चुकीं है
रसोई से मसालों की खुशबू खत्म हो गई है -(कविता-कवि की चिता पर)



2. गिद्ध हूँ मैं प्रेम पाखियों के शिकार में रत
उनके टूटे पंखों मे डूबी मैं
बुहार रही हूँ
साँप के बिल में बिलाते अपने अक्सों को -(कविता-तुफान के तले)



3. परछाइयों के बीज
कुछ इस तरह बिखर गए
पिछवाडे़ 

कि खड़े हो गए रातो-रात
अंधेरों के दरख्त
फूल खिले फिर फल
टपक पड़े बीज फट

दरख्तों से उगे पहाड़
पहाड़ों से परछाइयाँ
पौ फटनी थी कि
छा गया अंधेरा पूरी तरह। -(कविता-अंधेरों के दरख्त)


4. क्या तुम मुझ से बात करोगी/पहले की तरह/अपनी कब्र पर रखे पत्थर को उतार कर/कंकाल पर माँस पहन कर/तुम मुझसे बात करोगी/पहले की तरह/उसने पूछा/" कैसे?"/मैंने कहा/"माँस की बात करते हो/हड्डियाँ गल कर/बन गई हैं बुरादा/जीभ झड़ गई/आवाज आसमान में उड़ गई/" बात तो करो/सब कुछ आ जाएगा/माँस, हड्डियाँ, जीभ/और तो और/आवाज"/मैंने दरख्त की जड़ से जीभ बनाई/पत्तियों से दाँत/घाटियों में घूमती आवाज को पकड़ा/सागरी लहरों से देह बनाई/लो . अब मैं तैयार हूँ,/बतियाने के लिए/अरे अब तुम कहाँ गए? -(कविता- क्या तुम मुझ से बात करोगी) 


5. रेत की लहरों पर बिछी/काली रात है ज़िन्दगी/मौत है/लहराता समुन्दर/समुन्दर के सीने पर/तैरती लम्बी डोंगी है ज़िन्दगी/मौत है/फफोलों से रिसती समुन्दर की यादें- (कविता-मौत और ज़िन्दगी)


इस तरह रति सक्सेना के काव्यलोक में भाव अपने साथ उन मुहावरों को भाषा में रचते चलते हैं जो कविता को जरूरी रूपाकार प्रदान करने में सहायक सिद्ध होते हैं। इनमें भाव, विचार से इतने सन्निबद्ध और एकमेक होते हैं कि वह गंभीर पाठकों को इन्द्रियबोध की गहराई तक ले जाते हैं जहाँ कविता के सघन (और प्रच्छन्न) अर्थ खुलने लगते हैं। हिन्दी की अन्य कवयित्रियों में इतना भाषाई पैनापन और मुहावरा का प्रयोग अपेक्षाकृत कम ही गोचर होता है। सहजता सर्वत्र काव्य का विशिष्ट गुण नहीं होता। सहजता और सरलता भी जब तक संश्लिष्टता और सघन भावबोध के स्तर तक पाठक को प्रभावित नहीं करती तब तक वह कविता छिछला और सतही ही कही जाती है। अत: कहा जा सकता है कि कवयित्री रति सक्सेना ने अपनी रचना में जो भाषाई खिलंदड़ीपन और जादू पैदा की है उसके तार हमारे अग्रज कवि निराला, मुक्तिबोध और धूमिल जैसे कवियों की भाषाई शिल्प से कहीं -न- कहीं जुड़े हैं। पर यह भी सच है कि कवयित्री ने कविता के जिन प्रतिमानों को तोड़ आगे आने की साहस की है उसके रास्ते पत्थरों से भरे हैं फूलों से नहीं। हिन्दी काव्यजगत को इसे स्वीकारने में हर्ज तो नहीं पर जैसे गोरख पाण्डेय और धूमिल की कविता को भूला देने की कोशिश कविता में जारी है उसी प्रकार श्रीमति सक्सेना को भी कालक्रम में खो देने का उपक्रम जाने-अनजाने किया गया है पर समय सबका हिसाब बराबर कर देता है। 


रति की कवितायें जिन्दगी का सीवन उधेड़ कर उसके अंतस को महसूसने की कोशिश करती है। यह किसी सुख की तलाश में दुख को नकारने की कोशिश नहीं है, बल्कि दुख में सुख खोजने की अदम्य जिजीविषा है। यहाँ विडम्बनाओं और तनाव के बीच जीवन की अनेकोनेक स्वीकारोक्तियाँ भी मौजूद हैं जिसमें कविता उन्हीं के शब्दों में ‘कोई लौंडी नहीं जिसका काम मात्र मनोंरजन करना हो।’ एक ओर जहाँ वह अपनी उस आन्तरिक व्यथा से उबरने की यत्न में हैं जिसके कांटे समय ने बो दिये हैं तो दूसरी ओर वैदिक ऋचाओं के आह्वान का असर भी यत्र-तत्र कविता में प्रकट हो उठता है। 


आगे उनकी कविताओं में अभी और भी अनगिन संभावनाओं का पारावार हिलोरें ले रहा है। प्रसंगवश उनकी कविता संग्रह “अजन्मी कविता के कोख़ से जन्मी कविता” की एक कविता ‘कुंडली मारे बैठी स्त्री देह’ का जिक्र करना इस दृष्टि से यहाँ लाजमी होगा। रति सक्सेना पर लिखते हुए यदि उनके नारी व्यथा-भाव के संसार में हम भीतर तक उतरें तो इस अकेली कविता में उसके कई सूत्र मिल जायेंगे - 
“फिरकनी सी चरखनी लेते/ गेन्द सी कुदकनी मारते/ मालुम ही कहाँ पड़ा था कि/ एक स्त्री देह कुंडली मारे बैठी है उस पर/ वर्जनाएँ फुत्कारती/ वह- खाली निक्कड़ में घूम नहीं सकती/ बरसात की बूँदें उसे पुकारती/...हर बार स्त्री देह की तर्जनी हिल जाती/हर बार वह साथियों से / एक कदम पिछ्ड़ जाती/ सीने पर कसाव होने तक/ पेडु में चक्रवात मचने तक/...” 



यानी यहाँ पूरी कविता स्त्री की शारीरिक यंत्रणा को मानसिक यंत्रणा में तब्दील करती हुई पुरुष प्रधान मंत्रित शासन के विरुद्ध स्त्री के विडंबित भाग्य को कोसती हुई चित्कार करती दिखती है। उसके लिये सपने, बादल, पंछी, आकाश सब मात्र कल्पनाओं के पेंगे हैं। मित्र, मितवा मृगतृष्णाएँ हैं, सच्चाई बस एक स्त्री-देह है। प्रस्तुत कविता में स्त्री देह की विवशता का एक अलग ही ढंग दिखलाई देता है। यहाँ वह बाहर से संवरती है और भीतर से सीझती है। पर अनवरत अपने अस्तित्व की तलाश में भटकती भी रही है- “अनुगूंजी चित्कार कहीं जन्म ले रही होंगी/ वह अपने को खोज रही है अपने में/ अपनी देह में .../ स्त्री देह में....।” 


किन्तु न तो यह संधान ही इतना आसान है न रति-सक्सेना की शब्द-यात्राएँ ही, क्योंकि जितनी बाधा समाज और साहित्य की इस बनती-बिगड़ती दुनिया में चीज़ों की शिनॉख़्त और मूल्यों को लेकर अभी बनी हुई है उतना ही विरोधाभास नारी-स्वातंत्र्य के विचार को लेकर है। फिर भी शब्द की दुनिया में इन मूल्यों को लेकर रति के कवि का किये गये हस्तक्षेप कई दृष्टि से शलाध्य है और हिंदी काव्य-चिंतन के नये द्वार खोलता है।
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