मंगलवार, 19 जुलाई 2016

लोक के मुखौटे में कविता का फर्जीवाड़ा - उमाशंकर सिंह परमार (पत्रिका "लहक" संयुक्तांक मई-जून-2016 में प्रकाशित ,साभार)


               ( कविता से कथा तक – एकांत श्रीवास्तव और ज्ञानरंजन )
हिन्दी कविता की एतिहासिक स्वीकृति लोकधर्मी कविता के रूप मे रही है । जब से कविता का जन्म हुआ कविता अपनी इस मूल चेतना से कभी भटकी नहीं है । यह सच है कि विभिन्न युगों में राजनैतिक शक्तियों , सामन्ती ताकतों के प्रभाव बस कभी कभी लोकचेतना की धारा कमजोर पड गयी पर कभी रेखा के इधर तो उधर प्रवाहित रहकर हिन्दी कविता ने हमेशा अपनी पहचान बरकरार रखी और आम जनता की पीडाओं को समाज के समक्ष रखती रही है । आज तो लोकधर्मी कविता का युग है । हर कोई स्वयम को लोकधर्मी कवि कहलाना पंसद करता है । लोकधर्मी होना एक फैशन बन गया है । इस फैशनपरस्ती के कारण लोकधर्मी कविता की मूल धारा बाधित हुई है । बहुत से लोग खुद को लोकधर्मी कह रहें हैं लेकिन उनके पास न तो लोक की मूल अवधारणाओं की समझ है न लोक के अन्तर्विरोधों व संघर्षों को देखने की दृष्टि है । लोक का सवाल केवल गाँव व महानगर का सवाल नहीं है । दृष्टि और वैचारिक पक्षधरता का सवाल है । यदि लोक दृष्टि में आम जन के संघर्षों व उनके जीवन के विभिन्न सन्दर्भों की अनुपस्थिति है तो ऐसी कवि को लोकधर्मी कहना व उनकी कविता को लोकवादी कविता कहना घोर नासमझी व दुराग्रह है । लोक से आशय उस समुदाय से है जो किसी भी प्रकार की सम्पत्ति व स्वामित्व से रहित होता है।या बहुत कम सम्पत्ति का स्वामी होता है । और  अपने जीवन का यापन श्रम से करता है । लोक श्रम प्रधान है धन प्रधान नही है । ऐसे वर्गों में किसान मजदूर आदिवासी दलित महिला अल्पसंख्यक सभी आते है़ । शहरों और महानगरों के श्रमजीवी समुदाय भी लोक के अन्तर्गत आते हैं । कविता को शहर और गाँव से जोडकर देखना और उसे इसी आधार पर लोकधर्मी कहना लोक के प्रति गलत नजरिया है । लोक और अभिजात्य का विभाजन वर्गीय दृष्टि का तकाजा है । लोकधर्मी कविता के इस अर्थ के विपरीत अर्थ लेने वाले कवियों की भारी भरकम भीड है । जो शहरों और महानगरों में रहते है़ या जिनका नाता गाँव से कम से कम तीन पीढी से नही है । जिनके पास विचारों का अकाल व वर्गीय दृष्टि की समझ नही है । आर्थिक रूप से कभी कष्ट व दुखों का सामना नही करना पडा । गाँव और खेतों का नाम किताबों मे पढ्कर और यह अनुमान करके कि गाँव पर लिखने से लोग बडे कवि हो जाते हैं उन्होने कविता की कंठीमाला धारण कर ली ।  रहन सहन का स्तर अभिजात्य व नवाबी ठाठ का रहा है । पर उन्हे कवि होने की अदम्य लालसा ने लोकधर्मी फैशन अपनाने को बाध्य कर दिया । ऐसे लोगों ने गाँव को देखा पर गाँव के जीवन को नही देखा गाँव के उत्सव व वहां की खुशनुमा हवा देखी , चाँद तारे देखे , उछल कूद करती चिडिया देखी , गाँव बाला के रुप व यौवन को देखा पर संघर्ष . पीडा , यन्त्रणा , दुख एकदम नही देखा । भावुकता , रौमैन्टिसिज्म , अतीतवादिता इनकी कविताओं के बुनावटी तत्व है । इन लोगों की सुखवादी दृष्टि  व पिकनिक स्पाट जैसे लोक में न तो मनुष्य रहते है़ और न उनके जीवन होता है क्योंकी मनुष्य के पास यदि जीवन होगा तो जीवन के बहुत से सन्दर्भ होंगें जीवन की पीडाएं होंगी । पर ऐसा कुछ नही होता उनकी कविता ने लोक के नाम पर अति भावुकता ,पलायनवादिता , अतीतवादिता , कायरता , सुखभोग की कामना का नया रीतिशास्त्र गढ़ लिया है । बहुत से कवि इसी रीतिशास्त्र का अनुकरण कर रहे है़ । धडल्ले से कविता लिख रहे हैं । खूब पुरस्कृत हो रहे हैं । और सबके सब लगभग एक जैसा लिख रहे हैं । यदि चार पांच कवियों की कविताएं एक साथ रख दी जांए तो कोई नही बता सकता किसकी कविता कौन सी है । सबकी कविता सबकी है और किसी की कविता किसी की नही है । ऐसे कवियों मे अधिकांश या तो बडे बडी पत्रिकाओं के सम्पादक रहे या किसी संस्थान या पुरस्कारदाता संस्था के निदेशक रहे जिसके कारण उन्हे पालतू किस्म के फालतू अनुचरों की कमी नही रही जिससे उनकी अपनी चर्चा व परिचर्चा भी होती रही  और जमकर लोकधर्मी कविता की टाँग तोडते रहे और खुद को लोकधर्मी कवि कहलाने के लिए तमाम पुरस्कार झटकते रहे हैं । ऐसे कवियों मे कइ बडे नाम हैं बद्रीनारायण , एकान्त श्रीवास्तव , विजय सिंह , विमलेश त्रिपाठी , बोधिसत्व  यहां तक कि सूत्र सम्मान से पुरस्कृत कई कवि इसी गडबडझाले मे फँसे हैं । सूत्र सम्मान विजय सिंह जी का है जो पिछले कुछ सालों से गलत व्यक्ति को पुरस्कृत करने के कारण विवादित भी रहा है । इसके विरोध मे कुछ पुरस्कृत कवियों ने इस पुरस्कार को वापस भी किया है । सूत्र सम्मान जैसे पुरस्कारों ने लोकधर्मी कविता की समझ को रसातल मे पहुँचाने का काम किया है ।यदि हिन्दी कविता की साख बचाकर रखना है तो ऐसे पुरस्कारों और फैसनेबुल कवियों की घोर निन्दा होनी चाहिए ।
सूत्र सम्मान व केदार सम्मान आदि जैसे लगभग दर्जन भर पुरस्कारों से नवाज़े जा चुके एक तथाकथित लोकधर्मी कवि एकान्त श्रीवास्तव भी हैं । लोक की अभिजनवादी रीतिशास्त्रीय शाखा के सबसे अकाट्य  उदारहण के रूप मे इनकी कविता रखी जाती है । अतिभावुकता , काल्पनिकता , यथार्थ विरोध , अतीतप्रियता , अवैज्ञानिक मिथक , कोरी कलावादिता , असंगत विधान , इनकी कविताओं के लक्षण हैं । जाहिर है ये सारे उपलक्षण लोक के नाम पर रचे जा रहे बुर्जुवा रीतिशास्त्र के हैं । जिन लोगों को लोक के वास्तविक स्वरूप व सामाजिक संरचनाओं में व्याप्त असंगतियों की कोई पहचान नहीं है या वो लोग जो अपनी भरी  पूरी आलौकिक जिन्दगी के सुखों से बाहर निकल कर इह लौकिक समस्याओं को देखने की फुर्सत नहीं निकाल पाते ऐसे लोगों के लिए एकान्त श्रीवास्तव जैसे कवि बहुत पसंद हैं । एकान्त श्रीवास्तव  भाषा परिषद कोलकाता की पत्रिका वागर्थ के सम्पादक रहे हैं | इसी कारण मौकापरस्त चारण जमातों ने इनकी खूब प्रसंशा की और ये कवि हिन्दी के तथाकथित लोकधर्मी कवियों में तेजी के साथ शुमार लगा । वागर्थ से जुडना इनके कैरियर के लिए बडा वरदान साबित हुआ । यदि वागर्थ से ना जुड़े होते तो शायद कवि के रूप में इनकी कोई पहचान भी न होती | किसी बडी पत्रिका का सम्पादन मिलना हिन्दी साहित्य मे स्थापित होने के लिए हमेशा वरदान ही रहा है । ऐसे बहुत से लेखक और कवि हैं जिनकी रचनात्मक उपलब्धियां किसी मतलब की नही हैं पर बडी पत्रिका का सम्पादक होने के कारण जबरदस्ती उनको महान बनाने की सैन्य शिविरबाजी की जाती है । आलोचकों की पूरी टीम प्रकाशकों व उनके द्वारा पोषित मीडिया , मठों आदि के द्वारा कृपा की बरसात की जाती है। ज्ञानरंजन  एकान्त श्रीवास्तव , विष्णु खरे , अशोक बाजपेयी  आदि ऐसे ही कवियों के उदाहरण हैं । पर आज का पाठक बेहद सजग और होशियार है वह सब समझता है कि एकान्त श्रीवास्तव जैसे कवि क्या लिखते है़ और कितना समझते हैं । इनके लोक मे कितना फर्जीवाडा है और कितनी सच्चाई आज का पाठक सब जानता है ।एकान्त श्रीवास्तव स्वयं को लोकधर्मी कहते हैं और उनके निजी आलोचक भी उन्हे इसी पंथ का अनुयायी बताते हैं । हम सब जानते है़ं कि लोकधर्मी काव्यधारा के आदर्श कवि केदारनाथ अग्रवाल और बाबा नागार्जुन हो सकते हैं । केदारनाथ सिंह नहीं हो सकते हैं । एकान्त श्रीवास्तव केदारनाथ अग्रवाल का अनुकरण व आदर्श नहीं लेते वो लोक की अव्यवहारिक अभिव्यंजना करने वाले कवि केदारनाथ सिंह का अनुसरण करते हैं । केदारनाथ सिंह में यथार्थ का घोर विरोध है तो उनका अनुसरण करने वाले कवि मे क्यों  न होगा । फिर भी एकान्त श्रीवस्तव न केदार बन पाए न लोकधर्मी बन पाए वो आदर्श और मुलम्मे के फेर मे ऐसे उलझे कि कुछ और बन  गए हैं । एकान्त की कविता सम्बन्धी समझ उनकी कविताएं ही बता देती हैं उनकी कविता का प्रतिपाद्य व बोध क्या हो सकता है उनका लेखन व कविता सम्बन्धी अवधारणाएं देखने के बाद पता चल जाता है देखिए कविता की जरूरत को वो किस तरह परिभाषित करते हैं  । “जिस समय बीज / खेतों में बोए जा चुके होंगे / जिस समय एक नाव / नदी की सबसे तेज़ धार को / काट रही होगी /  उसी समय / पैदा होगी /  कविता की ज़रूरत” | प्राचीन काल से अब तक कविता का एक ही लक्ष्य था जनहित लोकमंगल लोकहित आदि । इन मूल्यों के तहत ही कविता को आम आदमी आह कहा गया । कविता हमेशा संघर्षों से जन्म लेती है ।और फिर लोकधर्मी होने का आशय ही है लोक की वर्गीय अवस्थितियो के कारण उत्पन्न स्थितियों का मूल्यांकन व रेखांकन । लेकिन इस उदाहरण मे  एकांत बता रहे हैं कि कविता की जरूरत तभी होती है जब सब कुछ निबट चुका होता है । मतलब कविता की जरूरत संघर्षों और जीवन की  जटिल अवस्थितियों में नही होती एकदम फुर्सत मे होती है । जब नाव तेज धार को काट रही होगी मतलब नाव धार पर प्रभावी हो चुकी होगी तब कविता की जरूरत होगी । खेत बोए जा चुके होंगे तब जरूरत होगी । क्यो़की खेत बोने तक ही किसान की मेहनत है और एकान्त श्रम से कविता को जोडना ही चाहते वो तो कविता को एकदम फुर्सत की चीज मानते है़ । कविता फुर्सत का मनोरंजन है । इस उदाहरण से यही बात ध्वनित होती है । जो व्यक्ति रीतिकालीन राजाओं और सामन्तों नवाबों की तरह कविता को मनोरंजन समझे जो कविता को श्रम से दूर रखने का दुराग्रह प्रस्तुत करे उसे लोकधर्मी कैसे कहा जा सकता है । एकान्त की ये कविता लोकविरोधी और अभिजात्यवादी है । इस कविता को पढकर एकान्त की वैचारिक स्थिति का भी पर्दाफास हो जाता है । इतना ही नही कविता की जरूरत नामक कविता में एकान्त कविता-सामग्री की लिस्ट बनाते हुए कहते हैं “सबसे पहले / सारस के पंखोंसा / दूधिया कोरा काग़ज़ दो / फिर एक क़लम / जिसकी स्याही में घुला हो / असँख्य  काली रातों का अँधकर”  इस कविता से इनकी कमजोर समझ और साफ हो जाती है । एकान्त खुद को जिस लोक का कहते हैं उस लोक को पूरा उलट देते हैं । सारस के पंख जैसा कागज इन्हे चाहिए और फिर लिखने के लिए काली रातों का अन्धकार घुली स्याही चाहिए  इसका आशय है कि धरती मे सहजता से उपलब्ध वस्तुओं व संसाधनों से कविता नही लिखी जा सकती है । यही नहीं अन्त में कहते हैं  “थोड़ा सा जल आँखों का / जो सपनों की जड़ों में भी बचा हो मुझे दो / कविता लिखने के लिए” | इस पंक्ति मे कह रहे हैं आँखों का जल चाहिए और ऐसा जल जो सपनों की जड मे होता है । मतलब की संसार में जो दुख हैं वो सब स्वप्न हैं । दुख होते ही नही हर जगह सुख है । सुख मे डूबकर जीने वाला कवि  ही दुखों को अमूर्त कर सकता है । जिस कवि को जगत मे सुख सुख ही दिखे और दुख उसे स्वप्न लगें तो समझ लेना चाहिए यह वही कहावत हो गयी  “सावन के अन्धे को हरा हरा दिखना”। ऐसा कवि जो सर्वदा चाँदी की छतरी के नीचे रहकर भोग और सुख की नीद सोया हो वह जीवन मे थोडा सा भी संकट उपस्थिति होने पर दृढता के साथ डटकर खडा नही होता वह संघर्षों से भयभीत हो जाता है कायरों की तरह संघर्षों से भागकर  जीवन के प्रति पलायनवादी हो जाता है | एकान्त श्रीवास्तव की कविता  संघर्षों की अनुपस्थिति के मामले मे बुरी तरह बदनाम है । लेकिन संघर्षों का न होना कोई बुरी बात नही है बहुत से अच्छे कवि भी हैं जहां संघर्ष अनुपस्थित है । पर संघर्षों का व्यंजनागत आग्रह उनमे जरूर प्राप्त होता है । सीधे संघर्ष का आवाहन कोई करे या न करे पर संघर्षों से भागना नही चाहिए । जीवन की जटिल परिस्थितियों से भागना जीवन को संकटपूर्ण बना देता है । प्राचीन काल से लेकर अब तक हर कवि ने जीवन का दर्शन जीवन के संघर्षों मे खोजा है । जीवन से पलायन करना सुविधाभोगी  मौकापरस्त उच्चमध्यमवर्गीय कवियों की परम्परा है । वही कवि समझौतापरस्त होता है जिसकी वैचारिक स्थिति बेपेंदी के लोटे जैसी होती है । ऐसे लोग परम स्वार्थी और आत्ममुग्ध होते हैं जो खुद को बचाने के लिए बुर्जुवा और सत्ताधारी शक्तियों से समझौता कर लेने के लिए बेचैन हो उठते हैं  देखिए एक उदाहरण जिसमे एकान्त श्रीवास्तव का पलायनवाद कविता मे उतर आया है और अपने समझौतावादी स्वार्थपूर्ण बचाव के लिए कवि तडप रहा है । कवि की यह तडपन लोकधर्मी कवि मे तो बिल्कुल नही शोभा देती ऐसी तडपन बुर्जुवा शोषक जमातों की कव्य शोभा होती है | “किस ऋतु का फूल सूँघूँ / किस हवा में साँस लूँ / किस डाली का सेब खाऊँ / किस सोते का जल पियूँ / पर्यावरण वैज्ञानिकों! कि बच जाऊँ / किस बात पर हँसूँ / किस बात पर रोऊँ / किस बात पर समर्थन / किस पर विरोध जताऊँ / हे राजन! कि बच जाऊँ”  इस कविता का शीर्षक नागरिक व्यथा है पर ये नागरिक व्यथा नही है । नागरिक संघर्षी और परमार्थी भी होते हैं । यह नागरिक केवल  एकान्त श्रीवास्तव है । ऐसा पलायनवादी समझौतापरक नागरिक वही हो सकता है जो संघर्षों और श्रम को कविता के दायरे से बाहर समझता हो । एकान्त ऐसे ही नागरिक हैं । और अन्त मे उन्होने राजा से भी पूँछ लिया कि आप ही बताओ किसका समर्थन करूं और किसका विरोध करूं । मतलब राजसत्ता जो तय करेगी वही एकान्त श्रीवास्तव के भीतर का नागरिक करेगा । इनके लिए शक्तिशाली की गुलामी बुरी बात नही हैं । इनके लिए जनसंघर्ष  बुरा है क्योंकी वह सत्ता का विरोधी होता है । मैं आलोचकों से पूँछना चाहता हूं कि सत्ता की गुलामी व स्वार्थी मनोवृत्ति का महिमामंडन करने वाला कवि कैसे लोकधर्मी है? यदि एकान्त लोकधर्मी है तो आजकल नेताओं के चुनावी मंचों पर चढकर चालीसा पढने वाले कवि भी लोकधर्मी होने चाहिए । यदि ऐसे कवि भी लोकधर्मी हैं तो मुझे यह कहने मे कोई संकोच नहीं कि हिन्दी कविता का नुकसान फर्जी कवियों ने उतना नहीं किया जितना नुकसान चापलूस आलोचकों ने किया है ।एकान्त श्रीवास्तव को केदार सम्मान मिला है । एक ऐसा कवि जो केदार की विचारधारा व उनकी कविता में व्याप्त संघर्षों के आवाहन से कोसों दूर हो केवल दूर भर न हो बल्कि ठीक उल्टा हो उस कवि को केदार के नाम का सम्मान मिलना पाने वाले का तो कुछ नही बिगाडता पर सम्मान की अहमियत कम कर देता है । जिस व्यक्ति की कविता मे केदारबाबू की कविता का सौंवा अंश भी मौजूद नही है उसे सम्मान के कबिल पता नही कैसे समझा गया और क्यों समझा गया । एकान्त को अमूर्तन मे महारथ हासिल है । अमूर्तन एक ऐसा शब्दच्छल है जो यथार्थ को नकारकर पाठक को भरमाने के काम मे लाया जाता है। अमूर्तन के द्वारा ही सफेद को काला और काला को सफेद किया जाता है । एक तो एकान्त जी संघर्षों और जमीनी यथार्थों से घोर नफरत करते हैं और उस पर भी अमूर्तन व हाई फाइ हवा हवाई कल्पनाओं का बँधा हुआ मायाजाल फेंक देते हैं । इससे कविता और भी ज्यादा सुखपीडित दिखने लगती है । इतनी सुखपीडित दिखने लगती है कि  कवि के बेमतलब फर्जीवाडे को देखकर जी ऊबने लगता है । कविता की भाषा व विषय मे कोई सन्तुलन ही नही रह जाता विषय कुछ और है पर मायावी भाषा उसे कुछ और सिद्ध कर रही है | देखिए एक कविता  “दंगे के बाद”   “बचा रहता है /  गर्भ में वीर्य की तरह / आकार लेता / बची रहती है / एक रोते हुए बच्चेच की लार में / दूध की जिंदा महक / जो उठती है / और सारी धरती बेकाबू हो जाती है” | अब आप ही  बताइए दंगे फसाद के बाद कोई कवि ऐसी उडनछू कल्पनाओं से लदी कविता लिखता है ? दंगों की पीडा व मुल्क मे व्याप्त अराजकता देखकर कोई कवि इतना बेपरवाह हो सकता है । दंगों पर बहुत सी कविताएं हैं पर एसी कविता किसी ने पढी होगी । बुर्जुवापन की भी हद होती है बुर्जुवा कवि भी  मिथ्या का सहारा कम लेता है  पर एकान्त श्रीवास्तव ने इसी सीमा का भी अतिलंघन किया है यह कविता जता रही है कि एकान्त ने कभी द़ंगे नही देखे केवल सुने होंगें वैसे भी बडे लोगों पर दंगों का कोई प्रभाव नही पडता दंगों के भुक्तभोगी तो छोटी मोटी आजीविकाओं के लोग रहते है़ । यदि एकान्त ने दंगों की भयावह मार काट खून खराबा देखा होता तो उन्हे गर्भ मे पडे वीर्य की याद नही आती बच्चे की लार मे दूध न सूंघते फिरते । वह मुल्क की गंगा यमुनी तहजीब को बचाने के लिए विलाप करते । ऐसे कवि सडक पर चलते समय आँखों में पट्टी बाँध लेते हैं ताकि सडक के किनारे बैठे भिखारियों को न देख सकें । किसानो और मजदूरों पर उनकी नजर न पडे रिक्सा वाले , ठेले वाले सब आँखों से ओझल रहें यही कारण है एकान्त की कविता में इन सबके बिम्ब नही मिलते । हां वो गाँव जरूर पहुँचते है और गाँव इसलिए पहुँचते हैं क्योंकी उन्हे रचनात्मक भ्रम है कि गाँव पर किसान पर कविता लिखकर मै बडा लोकधर्मी कवि बन सकता हूं । जबकि लोक गाँव और शहर का प्रश्न नही है यह वर्गीय संघर्षों का प्रश्न है । जब एकान्त अपने शहर व अपने परिवेश के यथार्थ को नही देख पा रहे तो गाँव का यथार्थ देखना इनके बस की बात नही है । एकान्त जब गाँव पहुँचते हैं तो उन्हे वो सब दिखता है जो इस लोक से सम्बन्धित नही है अर्थात इस लौकिक जगत मे घटित होने वाली घटनाएं उन्हे नही दिखती हैं । वो नभचारी विमान में बैठकर धरती का दूर से अवलोकन करते हुए गुजरते हैं । इसलिए श्रम के संघर्ष , भुखमरी , कर्ज , किसानों की आत्महत्याएं मेहनतकश लोगों की मजबूरियां उन्हे कुछ भी नही दिखता उल्टे वो इन सब में भी रौमैन्टिक सौन्दर्यबोध खोज लेते हैं । उनकी एक कविता है “सिला बीनती लडकियां” इस कविता मे देखिए उनका नजरिया पानी की तरह साफ है कि खुद को लोकधर्मी कहने वाला कवि खुद को सबसे बडा परलोकधर्मी कवि सिद्ध कर रहा है | “धान.कटाई के बाद / खाली खेतों में / वे रंगीन चिडि़यों की तरह उतरती हैं / सिला बीनने झुण्ड ब झुण्डी  और एक खेत से दूसरे खेत में /  उड़ती फिरती हैं” | इस कविता में जनता के दुखों के प्रति बुर्जुवा व सामन्ती रवैया है । जनता के दुख जब किसी कवि के लिए सौन्दर्य बन जांए तो कविता कितनी जनविरोधी हो जाती है शायद कवि इस तथ्य से परिचित नही है। सीला कोई मौज मे आकर नहीं बीनता मजबूरी मे बीनता है फसल कट जाने के बाद खेतों मे बिखरे एक एक दाना बीनकर अपना पेट पालने वाले लोगों को यहां कवि धरती का जीव ही नही मानता लडकियों को आसमान से उतरता दिखा रहे हैं उनकी भाग दौड मेहनत परिश्रम को उडने की संज्ञा दे रहे हैं । धन्य है एकान्त का  सौन्दर्य बोध और धन्य हैं वो आलोचक जो इस जनविरोधी सौन्दर्यबोध की वकालत करके पुरस्कृत कर रहे है़ । यदि कवि सीला बीनने वाली लडकियों को धरती मे पैदल चलकर आना लिख  देता तो क्या कविता खराब हो जाती ? दूसरी बात यहां श्रम करने वाली कोई और नहीं है । स्त्री हैं कम कम से स्त्रियों की श्रमशील प्रवृत्ति व उनके चतुर्दिक व्याप्त सामन्ती परिवेश की चर्चा करना चाहिए कि स्त्री खाली व कटे कटाए खेत पर क्यों दाना बीनने आ रही है उसके साथ कौन सी मजबूरी है कि वो खेतो खेतों मे भटक रही है । यह कविता श्रम शक्ति का अपमान है । जहां तक स्त्री विरोध की बात है तो एकान्त श्रीवास्तव अतीत के सामन्ती मूल्यों व पौराणिक आस्थाओं का पक्ष लेते हैं । वो खुद एक कविता पुराने रस्ते में कहते हैं| इन पुराने रास्तों को / हाय! मैं आज तक नहीं भूला / जो नये रास्तों / में भी लगातार / मेरे साथ चलते रहे”  मै पुराने रास्तों को एकदम नहीं भूला वो आज भी मेरी यात्रा मे मेरे साथ सफर कर रहें हैं । दर असल यहां एकान्त खुद को नये रास्तों के साथ जोडकर आधुनिक और प्राचीनता का संगम बताने की कोशिश कर रहे हैं पर कविता में व्यक्त साक्ष्यों से वो अतीत प्रेमी ही सिद्ध होते हैं। उनकी कइ कविताओं मे अतीत प्रेम झलक जाता है । मैं एकान्त जी से पूँछना चाहता हूं कि पुराने रास्तों की आपको जरूरत क्यों है ? क्या समाज की नयी संरचनाएं आपकी कविता का विषय नहीं दे सकती हैं ? क्या अतीत का जबर प्रेमी लोकधर्मी हो सकता है ? यदि अतीतवाद से इतना मोह है तो खुद को लोक से मत जोडिए इससे लोकधर्मी कविता की विशाल परम्परा बदनाम होती है । अतीत के सम्मोहन मे एकान्त इतना डूब जाते हैं कि उन्हे स्त्री के प्रति सामन्ती परम्पराओं की वैधता का भी ख्याल नही रहता और वो स्त्री विरोधी पुरुषवादी सोच को महिमामंडित कर देते हैं । एक त्योहार है कातिक स्नान का इसे लडकियां एक माह तक सुबह सुबह स्नान करके मनाती हैं और शिव की पूजा करती हैं । कातिक की कुनकुनी ढंड स्नान करना वो भी खुले आसमान के नीचे  कष्टदायी है | फिर भी एकान्त इसमे सौन्दर्य बोध खोजकर महिमामंडित कर देते है़ देखिए कविता कातिक “स्नान करने वाली लडकियां” तालाब के गुनगुने जल में / नहाती हुई लड़कियाँ हॅंसती हैं / छेड़ती हैं एक.दूसरे को / मारती हैं छींटे / और लेती हैं सबके मन की थाह / इतना-इतना सोना चढ़ाकर मुँह अँधेरे / अपने भोले बाबा से /क्या  माँगती हैं” | सब कुछ तो ठीक है पर भोले बाबा के पास जाकर मांगना कवि को अखरता नही है वह बडी उत्सुकता से जानना चाह रहा है कि लडकियां क्या माँग रही हैं । ऐसा लगता है कवि को पूरा विश्वास है कि भोले बाबा पूजा पाठ से खुश होकर कुछ न कुछ देते हैं । कवि का अतीत प्रेम जब अस्मिता की बात आती है तो पौराणिक मिथकों में उतर आता है एकान्त ऐसी स्थिति मे पौराणिक अविश्वासों की दुहाई देने लगते हैं । सभी समझते हैं कि मनुष्य का जन्म किस प्रक्रिया से होता है और उसके विकास का क्रम क्या रहा पर एकान्त श्रीवास्तव इतने अतीत मोही हैं कि उन्हे आज की तमाम वैज्ञानिक उपलब्धियां झूठी प्रतीत होती हैं | उनके लिए पुराणों का सच और पुराणों का युगबोध ही यथार्थ है देखिए एक कविता “तिलचट्टों की तरह” इस कविता में उन्होने मनुष्य के पैदा होने का कारण मनु को प्रमाणिक बताया है | “उस आदिम स्त्री की कोख में / मनु का पुआर बनकर गिरे हम / और धरती पर आए” / आज का समय वैश्विक आवारा पूँजी का समय है विकास और विज्ञान के तमाम स्तरों को पार करके आज का मनुष्य चाँद और मंगल तक पहुँच गया है । पर एकान्त आज भी ईसा पूर्व की सदियों में जडवत बैठकर युग का नजारा कर रहे है़ और मजे की  बात है कि खुद को लोकधर्मी भी कह रहे हैं । इतना ज्यादा अतीत प्रेम मनुष्य को अवैज्ञानिक व सम्वेदनहीन बना देता है यही एकान्त के साथ हुआ है वो इतने आत्मग्रसित व सम्वेदन हीन हैं कि कही कहीं वो खुद को ईश्वर की कटेगरी मे खडा कर देते हैं इससे बडी बिडमबना क्या होगी एक कवि के साथ ? एकान्त श्रीवास्तव आत्मश्रेष्ठता के मिथ्या भ्रम से ग्रसित हैं । सम्भव है इसका कारण अतीत की मिथक प्रियता हो या फिर बडी पत्रिका का सम्पादक होने के नाते छपास ग्रसित लोगों की चिरौरी विनती हो । कुछ भी हो खुद को श्रेष्ठ मानने का भाव इनकी कविता मे गहरे से उतर गया है । जब कोई कवि इतना बडा हो जाए कि वह अपने को दीन जगत से दूर आलौकिक समझ ले तो इस मनोवृत्ति का समापन व्यक्ति के ईश्वर होने मे ही होता है । एकान्त श्रीवास्तव का मिथ्या भ्रम इतना बढा हुआ है कि वो कई  कविताओं मे खुद को ईश्वर की तरह पूजापाठ कराने का उपक्रम रचते है़ “दुख” कविता मे कहते है़ कि “आकाश के थाल में / तारों के झिलमिलाते दीप रखकर / उतारो  मेरी आरती”  । यहां एकान्त आरती उतारने की बात कह रहे है़ क्योंकी इस कविता के अनुसार उन्होने दुख भोगा है । एकान्त का अहं भाव इतना बढा है कि उन्हे अपना दुख संसार का सबसे बडा दुख प्रतीत हो रहा है । उन्हे लाखों करोडों जनता के दुखों की कोई चिन्ता नही है क्योंकी वो साधारण लोगों का दुख है । और एकान्त जी आलौकिक महापुरुष है़ उनका दुख सृष्टि का महान दुख है | ऐसे महान सुकोमल कवि द्वारा दुख भोगना एक बडा त्याग है इसलिए एकान्त जी खुद की आरती उतारने के लिए प्रेरित कर रहे हैं । एकान्त आलौकिक देव पुरुष है इसलिए अपनी एक कविता “जन्मदिन” में सामन्ती व पौराणिक मूल्यों व राजसी ठाठ को अपने ईश्वरत्व मे उतारते हुए धूप दीप नौवेद्य द्वारा अपनी पूजा भी करवा रहे हैं । दूध मोंगरा का सफ़ेद फूल / धरो मेरे सिर पर / गुलाल से रंगे सोनामासुरी से / लगाओ मेरे माथ पर टीका / सरई के दोने में भरे / कामधेनु के दूध से जुटआरो मेरा मुँह” | एकान्त श्रीवास्तव की दिव्यता अन्दाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि मोगरा का फूल शंकर जी पर चढाया जाता है । जो कवि इतना आत्मग्रसित हो कि उसे यह विस्मृत हो जाए कि मै इंसान हूं । और वह अपने आप को खुदा समझ बैठे इससे बडा अपमान लोकधर्मी कविता का क्या होगा । एकान्त की कविताएं मनुष्यता का निषेध करती हैं । यथार्थ का विरोध करती हैं और लोकधर्मी तो बिल्कुल नही हैं । लोकधर्मी कवि की पहचान होती है कि वह श्रम के प्रति संवेदनशील होता है और अपने आस पास के परिवेश व अपनी जमीन का बिम्ब बडी शिद्दत से कविता मे उकेर देता है । यदि कविता से कवि की जमीन न पहचान मे आए तो काहे का लोकधर्मी कवि ? एकान्त की अपनी कोई जमीन नही है क्योंकी वो आलौकिक दिव्य है़ वो हिन्दुस्तानी जमीन से यहां की आबोहवा से खुद को अपरिचित कह रहे हैं उनकी एक कविता है “विस्थापन” देखिए इसमे एकांत विस्थापन के बहाने अपनी पहचान का निषेध कर रहे हैं | विस्थापन भोग रहे कवि को अपनी जमीन का स्मरण तो होना ही चाहिए | “मैं बहुत दूर से उड़कर आया पत्ता हूं / यहां की हवाओं में भटकता / यहां के समुद्रए पहाड़ और वृक्षों के लिए / अपरिचित,  अजान, अजनबी”  मतलब कि मैं बहुत दूर से आया हुं यह सच है । मै भी यही मानकर चल रहा हूं कि एकान्त जमीन से कटे हुए दिव्य कवि हैं । जिस कवि ने अपनी जमीन से इंकार कर दिया हो तो फिर उसे लोकधर्मी कहने की कोई जरूरत नहीं रह जाती है। रही बात श्रम के प्रति संवेदनशील होने की तो एकान्त श्रीवास्तव की एक भी कविता श्रम के प्रति संवेदनशील नही है । श्रम का सम्मान छोडिए एकान्त श्रम का मजाक न बनाएं यही बहुत है । वो श्रम को मजाक बनाने से नहीं चूके । यथार्थ जीवन मे भी श्रम के प्रति संवेदन शील नही है जिस भाषा परिषद से वागर्थ निकलती है वहां दस बीस साल से लोग तीन  चार हजार रुपए की तनख्वाह मे काम कर रहे है़ । आप लाखों रुपये खर्च कर आयोजन करेगे पुरस्कार  बांटेगे पत्रिका निकालेगे और कर्मचारी  को चार हजार का महीना देगें ।एकान्त जी ने इन कर्मचारियों के लिए क्या किया ? क्या एकान्त जैसा कवि चार हजार महीने मे गुजर बसर कर सकता है ? बिल्कुल नही कर सकता जिस दिन चार हजार मे गुजर करनी पडेगी तो उसी दिन कविता की जमीन याद आ जाएगी | और आज जिनके बूते खुद की आरती उतरवा रहे हैं पूजा करवा रहे हैं वो सब साथ छोडकर चले जाएंगे तब न लोक याद रहेगा न कविता याद रहेगी ।
पत्रिका सम्पादन के कारण साहित्य में स्थापित दूसरे साहित्यकार  ज्ञानरंजन हैं जिनकी चर्चा किए वगैर यह आलेख अधूरा रहेगा । सम्पादक दो तरह के होते हैं एक सम्पादक वह होता है जो अपने समकालीन लेखकों में से अपने विचारों व लक्ष्य के अनुरूप लेखक खोजता है और अपने सिद्धांतों के अनुरूप उनसे लिखवाता है । यदि उसे लेखक नही मिलते तो वो अपनी मेहतन व प्रतिबद्धता से नये लेखक तैयार करता है ।  आज भी हिन्दी बहुत सी पत्रिकाएं हैं जिनके सम्पादक अपने सिद्धांतों से इतर कहीं भी कोई समझौता या व्यूह नहीं रचते और और चुपचाप अपना काम करते हुए नये लेखकों की पौध व अपने सिद्धांतों की नयी पीढी तैयार कर रहें हैं । दूसरी कोटि के सम्पादक वो हैं जो अपने लेखन को पर्याप्त चर्चा न मिलने के कारण वगैर किसी पक्षधरता व प्रतिबद्धता के बाजार के साथ कदमताल करते हुए प्रगतिशीलता की आड में प्रतिक्रियावाद , रूपवाद और उठापटक की राजनीति का खेल खेलते हैं | उनके गुणगान कर्ता मात्र उनके सम्पाकत्व के कारण तमाम तरह का गौरवगान करते रहते हैं । ऐसे सम्पादकों में ज्ञानरंजन प्रमुख हैं । ज्ञानरंजन कथाकार है और प्रगतिशील हैं ।  उनकी प्रतिनिधि कहानियों में और  सम्पादन में कहीं भी प्रगतिशीलता खोजना आकाश कुसुम जैसा मिथ्या अन्वेषण साबित होता है । एक दौर था जब प्रगतिशील होने का मतलब “लेखक” होने से लिया जाता था संगठन की सदस्यता ही प्रगतिशील होने के लिए अनिवार्य थी बाकी लेखन चाहे प्रगतिविरोधी और मध्यमवर्गीय हो पर संगठन का सदस्य है तो वह प्रगतिशील है । ज्ञानरंजन ऐसे ही कथाकार हैं जिनकी रचनाएं  शहरीमध्यमवर्गीय मनोविज्ञान की अभिव्यक्ति करती हैं । कथाओं में वर्गीय द्वन्द की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और समाज की पूँजीकृत संरचनाओं का आपसी द्वन्द शिरे से गायब है । पढने लगिए तो प्रतीत ही नही होता कि अज्ञेय को पढ रहे हैं या ज्ञानरंजन को पढ रहे हैं । प्रगतिशील कथाकारों मे ये अन्तर्विरोध बहुत पाए जाते हैं ये अन्तर्विरोध समकालीन पीढी तक आते आते देहवाद , प्रतिक्रियावाद में बदल गए हैं निर्णय कठिन हो गया है कि प्रगतिशील के चोले मे आवेष्ठित कथाकार भाजपाई है या कांग्रेसी कुछ भी पता नही चलता । इन प्रगतिशीलों ने सब कुछ गड्ड मड्ड कर दिया है। ज्ञानरंजन की प्रसिद्ध और बहुचर्चित कहानी पिता है। इस कहानी को हद से ज्यादा प्रसंशा मिली है । आलोचक महानुभावों ने जमकर चढाया है । उनकी कहानी पिता मध्यमवर्गीय परिवारों की मध्यमवर्गीय अक्खडता व कुंठाओं की कहानी है यदि पिता कहानी के नायक को महिमामंडित किया जाए जैसा कि कुछ आलोचक करते हैं तो यह मंडन सरासर गलत है क्योंकी पिता किसी मजबूरी में घर से बाहर नहीं सोते हैं वो अपने मिथ्या मध्यमवर्गीय संस्कारों के कारण सोते हैं । कहानी शहरी परिवार की है गाँव का परिवार नहीं है हलाँकि आम का बाग और बिल्ली की आवाज का उल्लेख है । सम्भव है लेखक ने गाँव के जीवन का जीवन्त चित्र न देखें हो क्योंकी घर के बगल मे सडक भी है जिसमे रात को निकलने वाले वाहनों की आवाज नींद मे खलल डालती है । क्या गाँव मे ऐसा बिम्ब सम्भव है ? दूसरी बात घर पक्का है क्योंकी गर्मी का जिस तरह से उल्लेख हुआ है वह शहरी कालोनियों मे ही सम्भव है मैं बचपन से गाँव मे रह रहा हूं घरों आँगन होता है जिसमे परिवार के पूरे सदस्य सोते है़ कमरे कच्चे होते है़ जो दिन मे ठंढे होते हैं पर एक कमरे की खिडकी से दूसरे कमरे की आहट लेना पक्के घरों मे ही सम्भव है न कि कच्चे घरों में क्योंकी कच्चे घरों मे खिडकी नही होती | अगर होती भी है तो आस पास कोई कमरा नही होता है । इस कथा के  कथानक का ताना बाना शहरी मध्यमवर्गीय परिवार का है और कथा का विकास मनौवैज्ञानिक झटपटाहटों व कशमकश द्वारा होता है जो प्रयोगधर्मी लेखकों की विशेषता थी जो मन को ही प्रमुखता देते थे यथार्थ को नकारते थे । इस कहानी की सबसे बडी गडबडी फालतू प्रसंगों की भरमार है जो इस कहानी को प्रगतिविरोधी ही तय कर रहे हैं  यदि  कथा का निहितार्थ  पिता का नायकत्व है तो देवा के कूल्हों को सहलाने से और उस पर भी उत्तेजित न होने से नायकत्व में कौन सी बढोत्तरी होती है ? यह प्रसंग बिल्कुल वैसा ही प्रतीत होता है जैसे फिल्मनिर्माता फिल्मों के बीच आईटम संग ठूँस देते हैं आईटम सांग के आकर्षण से दर्शक खिंचे चले आते हैं । यह प्रसंग भी आईटम सांग है । दूसरी बात पिता का नायकत्व ही कथा को अप्रगतिशील बना रहा है । बच्चे यदि पिता को कपडे देते हैं मिठाई देते हैं तो उन्हे इस स्नेह को स्वीकार करना चाहिए ये सोच कि मै अपने जीते जी अपने सिद्धांत नही तोडूंगा यह सामन्ती सोच के पक्ष मे चला जाता है । क्योंकी पिता की सोंच अतीतधर्मी है यदि पिता ही नायक है तो कहानी भी आतीत के सामन्ती मूल्यों का प्रचार कर रही है। जहां पारिवारिक अदब को बचाने के लिए तमाम शोषण के उपकरण गढ लिए गये थे । ऐसा प्रसंग भी इस कथा मे आया है । एक महिला को डकार आती है पर वह डकार को नहीं आने देती दबा ले जाती है क्योंकी “वे आ गये थे” । महिलाओं का डकारना आज भी पुरातनपंथी समाजों मे गलत माना जाता है । कहानी का  कथानक , कहानी के प्रसंग व कहानी मे पिता का नायकत्व सब कुछ मध्यमवर्गीय निष्कर्षों की प्रतिष्ठा कर रहा है ।  फिर भी आलोचक इन्हे प्रगतिशील कहते है़ क्योंकी लेखक खुद को प्रगतिशील कह रहा है । प्रगतिशीलता संगठनों की सदस्यता से नहीं बल्कि रचनात्मकता से तय होती है जब ज्ञानरंजन की कहानियां मध्यमवर्गीय मूल्यों की वकालत कर रही हैं तो किस कारण से उन्हे प्रगतिशील कहा जाए ? प्रगतिशील ज्ञान जी की एक कहानी मुझे और याद आ रही है  इसमे भी उन्होने प्रगतिशीलता की भद्द पीट दी है वो कहानी  “फेंस के इधर और उधर” है  इसका कथा नायक प्रगतिशील लेखक नही है जो मैं के रूप मे आया है बल्कि स्त्रियों के प्रति आसक्त कुंठित व्यक्ति है | क्योंकी  कथा मे पडोसी का पूरा परिवार आता है और उस पूरे परिवार में  लडकी ही कथा का केन्द्रीय पात्र बनकर उभरती है  मैं जब भी फेंस के उधर देखता था तो उसे लडकी दिखती थी उसके हाव भाव  दिखते हैं यहां तक कि उसके उरोज भी । हलाँकि कहानी का निकष परम्परा के विरुद्ध है शादी व्याह की शाहखर्ची के खिलाफ है । फिर भी इस प्रगतिशीलता को धकियाकर दूसरी तरह के प्रतिक्रियावाद मे बदल दिया गया है । क्योंकी शादी आपसी समर्पण व प्रेम सम्बन्धों से न करके वाकायदा आर्यसमाज के मन्दिर में वैदिक मन्त्रोच्चार के बीच सम्पन्न करायी गयी है । यदि लडकी और लडका आपसी सहमति से कोर्ट मे या निजी रूप से शादी कर लेते उसके माँ बाप सहमत थे ही तो कहानी जरूर प्रगतिशील हो जाती । ज्ञानरंजन की बहुत सी कहानियां ऐसे अन्तर्विरोधों से ग्रसित हैं जब भी प्रतिक्रियावाद और प्रगतिशीलता मे एक चुनना होता है तो उनकी कथा के नायक प्रतिक्रियावाद के पक्ष मे चले जाते हैं । सर्वहारा की बात ही छोडिए उच्च मध्यमवर्गीय परिवेश व नायकों से ज्ञान जी बाहर निकलना ही नही चाहते हैं । इसी तरह अमरूद का पेढ़ शीर्षक की एक कहानी है इस कहानी में को लेखक ने संस्मरण के शिल्प मे लिखा है । इसमे भी अन्धविश्वास और निजी स्वतन्त्रता के वीच टकराव दिखाया गया इस कहानी मे भी अन्य कहानियों की तरह कथा प्रवाह बिल्कुल कम है मध्यमवर्गीय शहरी परिवार का है । अधिकांश मध्यमवर्गीय समूहों पर लिखीं औसत दर्जे की कहानियो  का अन्त नैतिक आदर्शवाद मे होता है वही हाल  इस कहानी का भी है । इसमे भी वर्ग और चेतना नदारत है। मध्यमवर्गीय आदर्शों और नवीनताओं का परम्परागत संघर्ष कहानी को प्रगतिशील कतई नही बना रहा है । यही हाल इनके सम्पादन कार्य का है । सम्पादक के रूप मे इनसे बडा पूर्वाग्रही और प्रगतिविरोधी सम्पादक मैने जीवन मे नही देखा है | पहल के किसी भी अंक को उठाकर देखा जाय तो इनकी प्रगतिशीलता की हद पता चल जाती है पर पहल के सौंवें  अंक ने इस मामले मे सारे रिकार्ड ध्वस्त कर दिए है । शताब्दी मनाने के फेर मे ज्ञान जी इतना उत्साहित हो गये कि उन्हे कविता की पहचान व व्यक्ति की पहचान करने का भी ख्याल नही रहा । इस अंक मे छपी दो चार कविताओं को छोड दिया जाय तो एक भी कविता ऐसी नही है जिसे प्रगतिशील कहा जाए  ।सर्वाधिक घटिया व विचार विहीन कविताओं का अंक है ये । इसमे छपे लेखक कवियों मे भी अधिकांश का प्रगतिवाद से कोई वास्ता नही वरन उनमे प्रगतिविरोधी भी छपे है । बाद के अंकों मे तो  और भी घटिया कविताएं देखी गयी। अशोक कुमार पांडेय की कविता तो घोर वामविरोधी कविता है । इस कविता का एक खंड देखिए जिसमे प्रशंशा करती हुई टीप भी लगाई गयी है  “तो तुम्हारा घर ? घर छोड़ दिया था मैंने / मुझे घरों से नफ़रत थी / मैंने सबसे पहले अपना घर उजाड़ा / मुझे नफरत थी छोटे छोटे लोगों से मुझे ग़रीबी से नफरत थी ग़रीबों से नफ़रत थी / मुझे मुश्किल से जलने वाले चूल्हे की आग से नफरत थी / मुझे उन सबसे नफ़रत थी जो मेरे लिए नहीं था / जो मेरे लिए था मुझे उससे भी नफरत थी” ( पहल १०० ) इस कविता में नफरतों की आग में झुलसते हुए कवि ने नफरत के दायरे में गरीबों को भी समेट लिया है | जब कोई व्यक्ति गरीबों से नफरत करने लगे तो वह कैसे प्रगतिशील होगा ? प्रगतिशीलता गरीबों और मजलूमों के प्रति कारुणिक संवेदना का नाम है | पर पहल के सम्पादक को गरीबों  से नफ़रत में भी प्रगतिशीलता दिखाई देती है और वो कविता को छापकर प्रसंसा भी करते हैं | ऐसी घटिया कविताओं पर प्रशंसात्मक टीप देने का कारण जो भी है वह भी स्पष्ट है कि अशोक पांडेय दिल्ली जैसे महानगर मे रहते है़ लोकविरोधी हैं और पहल कभी भी लोकधर्मी वाम लेखन की पक्षधर नहीं रही है । अब इधर तो वो राजधानी केन्द्रित पत्रिका बन गयी है । उनके कुछ प्रिय लेखक है उनके कुछ प्रिय कवि हैं जिनके खिलाफ वो अपनी पत्रिका मे नही छाप सकते | और उनके प्रिय मगर घटिया लेखक या कवि की आप चर्चा नही करते तो आपका लेख छाप भी नही सकते हैं | कहने की यह कोई जरूरत नही कि उनके प्रिय सभी राजधानी के हैं । लोक से उन्हे घृणा है नही तो पहल के इसी सौवें अंक पर सुरेश सेन निसान्त की बेहतरीन लोकधर्मी कविता पर निन्दापूर्ण  टिप्पणी न करते । इस पत्रिका ने अपना वैचारिक स्तर कभी नही उठाया हमेशा विचारविहीन लेखन को ही तवज्जो देती रही सौवें अंक की व्यापक आलोचना हुई इस आलोचना का जवाब ज्ञानरंजन जी ने एक सौ एक अंक मे दिया है यह जवाब गम्भीर संपादक की तरह बिल्कुल नही दिया है । वो ऐसे जवाब देते नजर आते है़ कि जैसे कोई आत्ममुग्ध लेखक देता है आलोचको को कौवा और खुद को गरुड कहकर अपनी श्रेष्ठता साबित करने मे लगे रहते है़ । आप संपादक है तो पत्रिका की कमिया स्वीकार करनी ही चाहिए क्योंकी मामला विचार धारा का है । पर ज्ञानरंजन को विचारधारा से क्या मतलब उनका लेखन वैचारिक रूप से कमजोर है ही संपादन कर्म भी विचारधारा से अनासक्त रहता है । और पत्रिका संपादन पर अभिमान इस कदर है कि इसके कारण वो उचित अनुचित का ख्याल किए बगैर बेवजह का शिगूफा छोड देते है़ । एक मित्र ने फेसबुक मे लगाया था भाषा परिषद कोलाकाता के एक कार्यक्रम मे ज्ञानरंजन जी ने कहा था कि  “पहल पर लोग अपनी रचना बायोडाटा चमकाने के लिए भेजते है़”  मतलब कि पहल मे छपना स्टेटस सिंबल है ? पहल मे छपना ही बडे होने की गवाही है ? यह गलत बात है । पहल अपनी विचारधारा आज तक स्पष्ट नही कर पायी । ये बडी कैसे हो सकती है । दूसरी पहल से ज्यादा छपने वाली ज्यादा बिकने वाली ज्यादा वैचारिक पत्रिकाएं आज छप रही है़ और ज्यादा लोगों द्वारा पढी भी जा रही हैं । यदि पहल जैसी पत्रिका मे छपकर लोग बडे होने लगे तो आज तक जितना कूडा करकट ज्ञानरंजन छापा है सब इतिहास मे अमर हो होते । ज्ञानरंजन इतना ही बता दें कि उनके सम्पादन काल मे पहल ने हिन्दी को क्या दिया है ? सिवाय घटिया कविताओं व कथाओं के । जब पत्रिका एक भी लेखक नही दे सकती विचारधारा मे सहायक नही हो सकती तो क्या केवल अपनी उपस्थिति  दर्ज करने के लिए है | कुछ भी हो प्रगति की दुर्गति करने के लिए इन दोनों संपादकों का नाम  आने वाली पीढ़ी हमेशा याद रखेगी |

                                           उमाशंकर सिंह परमार
                                           जनपद बाँदा 9838610776







2 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल गुरूवार (21-07-2016) को "खिलता सुमन गुलाब" (चर्चा अंक-2410) पर भी होगी।
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    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. अत्यन्त मूर्खतापूर्ण आलेख। प्रतिमाभंजन आपका पैशन हो सकता है लेकिन उसे पुनर्मूल्यांकन मानकर आप आत्ममुग्ध लगते हैं। आप आलोचक की तरह नहीं शास्ता की तरह लिखते हैं। विवाद के चक्कर में संवाद का छोर स्वयं आपसे पूरी तरह छूटा हुआ है।

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