कविता -पुस्तक 'जनपद झूठ नहीं बोलता' से उद्धृत |
पहाड़ी नदी के बारे में
अपनी बाँहों में
कलसियाँ
होठों पर
वीरानियों से सनी
घिर आयी साँझ की
कोई विदागीत
गुनगुनाती पहाड़न
उस बूढ़ी नदी के
सीने पर
छोटी-छोटी
कटोरियाँ
बनाती है
रेत से
रेत को
अलग करके
क्षण में उस वृद्धा के
विलाप से
कटोरियों का तल
पसीज जाता है
और अँजुरी समाने भर
पारभासी नीर
पात्र में
थिराने लगता है
पहाड़न
उलीच-उलीच कर उसे
वियोगिनी नदी माता के
आँचल में
डाल देती है
यज्ञ के अनल-कुंड में
पूजित भाव से प्रक्षेपित
हव्य की तरह
तब स्नेहिल
वात्सल्य का
स्वच्छ
पारदर्शी
प्रशांत जल
पात्र में
ठहरने लगता है और
पहाड़न का रूप,
नदी का अर्थ उसमें
गोचर होने लगता है
पहाड़ की मिट्टी से बनी
कलसियों में
पहाड़ का दुःख
नदी का ममत्व भरकर
विरह की कोई पहाड़ी गीत
फिर गुनगुनाती,
अंधेरे होते
अपने गेहों को
लौटती पहाड़न के
पदचाप
और स्वर
तब सिर्फ़
नदी और पहाड़ ही
सुन पाते हैं
उस सुनसान उजाड़ दयार में |
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प्रियवर सुशील कुमार जी,
सात माह आस्ट्रेलिया-प्रवास के बाद घर लौटा तो आपका नया कविता-संग्रह 'जनपद झूट नहीं बोलता' मिला, पाकर बेहद खुशी हुई। मेरी हार्दिक बधाई स्वीकार करें और हिन्द-युग्म के श्री शैलेश भारतवासी को भी मेरा आभार व्यक्त करें कि उन्होंने इसको इतने सुंदर और सटीक रूप में प्रस्तुत किया है। बहरहाल,
बहुत दिनों से आपसे संवाद नहीं हो सका, इस बहाने संवाद भी हो जाएगा। अपने आसपास फैले हुए विस्तृत जीवन-व्यवहार और कौशल से आपका कवि अपना जीवन लेता है। इससे हिन्दी-कविता को विविधता का वैभव हासिल होता है तथा भाषा को नई ऊर्जा एवं शक्ति मिलती है। आपका यह संकल्प मेरे मन को राहता देता है कि आप प्रिया से प्रेम करते हुए उसी में डूब-विभोर होकर नहीं रह जाते, वरन् मनुष्यता की ओर सरकना चाहते हैं। दुनिया में चंद्रमा, मंगल पर बस्ती बनाकर रहने लगना बहुत आसान है। एक ही काम मुश्किल होता है- निरंतर मनुष्यता को पाते जाना। कवि लोग कविता के शब्दों में तो 'मनुष्यता' को आसानी से पा लेते हैं। मजा जब है, जबकि यह हमारी ज़िंदगी में उतरती-सरकती चली जाय, यह होगा तो कविता के पाठकों का अभाव नहीं रहेगा। पुनः बधाई-डॉ. जीवन सिंह
डॉ. जीवन सिंह अलवर, राजस्थान से लब्ध-प्रतिष्ठ लोकधर्मी आलोचक हैं |-----------------------
वागर्थ ( भारती भाषा परिषद, कोलकाता ) के दिसंबर 2012 अंक में हमारे समय के वरिष्ठ कवि और चिंतक तथा 'कृतिओर' कविता-पत्रिका के संस्थापक-संपादक विजेंद्र जी का 'लॉन्ग नाईनटीज' जैसे एक नवगठित टर्म पर प्रकाशित चर्चित और सुविचारित आलेख आज की हिन्दी आलोचना में भी सुशील कुमार के काव्य-पुस्तक की चर्चा आई है | आलेख के उस अंश को हम यहाँ अवलोकन हेतु मूल रूप में रखना चाहते हैं -
सुशील कुमार (जनपद झूठ नहीं बोलता , 2012) ने इधर अच्छी-ख़ासी पहचान बनाई है | उनकी कविताओं में जनपदीय चेतना मुखर है| क्रियाशील मनुष्य के सहज चित्रों से बातें कही गई है| सुशील अपने यहाँ की बोली से अपनी काव्य-भाषा को बराबर पुष्ट करते
पूरा आलेख इस लिंक पर मौजूद है - http://pahleebar.blogspot.in/2013/01/blog-post_1926.htm
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नीचे नवीनतम काव्य-संग्रह 'जनपद झूठ नहीं बोलता' के फ्लैप पर वरिष्ठ कवि दिनेश कुशवाह द्वारा लिखा गया ब्लर्ब है|आप इसे क्लिक कर zoom करके पढ़ सकते हैं| (सुविधा के लिए नीचे स्क्रिप्ट टाईप कर दिया गया है |)
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नीचे नवीनतम काव्य-संग्रह 'जनपद झूठ नहीं बोलता' के फ्लैप पर वरिष्ठ कवि दिनेश कुशवाह द्वारा लिखा गया ब्लर्ब है|आप इसे क्लिक कर zoom करके पढ़ सकते हैं| (सुविधा के लिए नीचे स्क्रिप्ट टाईप कर दिया गया है |)
सुशील कुमार ने अपने जनपद के पहाड़, नदी, पेड़, जंगल, पशु, फूल, फल,
विरह, संयोग, संघर्ष, आदिवासी, उनकी अंत:क्रियाएँ, परंपरायें और अपरिमित
दुख को इस तरह आत्मसात किया और रचा
है, जैसे उनकी कविताएँ भीतर ही भीतर सुलगती अंगीठी का निर्धूम ताप हो।
पहाड़ी अंचल की धड़कनों की वेदना भाषायी तरलता में ढलकर हर पंक्ति से हमें भिंगोती है
और कवि-सामर्थ्य की
शीर्ष-मेधा से अपने साथ बहाये लिये चलती है,
इस भरोसे को सौंपते हुए कि कविता दरअसल ऐसी होनी चाहिए। जीवन के भावप्रवण अतल गहराइयों से बावस्ता कवि ने अपने अनुभव
संसार से चुनकर लोक-विषयों
की जो घनीभूत बानगी पेश
की है उससे पाठक का सहज ही गहरा तादात्म्य स्थापित हो जाता है, जैसे हम अपने ही अन्तस्थल में कहीं
गहरे दबे आवेग को मुखरित होते हुए देख रहे हों। वे कहते हैं - मैं कोई कविता नहीं कर
रहा भाई/ मैं तो लड़ रहा आज भी/ सदी के हत्यारे विचार से/ जो मेरी मुट्ठी में घुसपैठ कर रहे हैं/ और बटोर रहा / समय की उल्टी बयार में छितराये/ माँ की करुणा/ पिता का भरोसा और/ रिश्तों-नातों की गर्माहटें ।
शब्दों की विपुल स्थानीयता और आंचलिकता से सुशील जी ने अभिव्यक्ति को जबर्दस्त पैनापन प्रदान किया है।
जनपद की उपेक्षाओं, प्रताड़नाओं,
अनियमितताओं, विडंबनाओं का आब्जर्वेशन
जो सार्वजनिक तौर पर हमें दिखती तो हैं पर हम अचेतन-मन और भावशून्य बने रहते हैं - जैसे
प्लेटफार्मों
और
ट्रेनों से गुजर करने वाले बच्चे या थकी-हारी गंगा, या फिर शोकाकुल कोशी, या फिर दियारा अथवा परदेस कमाने गये सुकल के लौट आने की बाट जोहती फूलमनी, कवि के यहाँ इस प्रकार से मार्मिक कविताई-दृश्य
में रूपांतरित होते हैं कि उनके शब्दकर्म को जनसरोकार की सार्वभौम
अनुभूति से संपन्न बना देते हैं|
– दिनेश कुशवाह , रीवा , म. प्र.
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पुस्तक के अंतिम पृष्ठ पर (बैक फ्लैप पर) प्रख्यात आलोचक डा॰ रमाकांत शर्मा, जोधपुर की आलोचना-पुस्तक ‘कविता की लोकधर्मिता’ से उस टिप्पणी को साभार संक्षिप्त रूप में प्रकाशित किया गया है जो कृति के 26 वें आलेख के रूप में 'ऊँघते जंगल को जगा रही कोयल' शीर्षक से सुशील कुमार के कवि को केंद्र में रख कर लिखी गई थी:
सुशील कुमार की कविताओं से रू-ब-रू होने
पर मुझे लगा कि यह कवि लोक-चेतना और लोक-सौंदर्य का कवि है| अपनी सहज काव्य-भाषा में जीवन के क्रियाशील
बिम्बों को रचने में समर्थ है| प्रकृति, लोक और जीवन-जगत से इस कवि का गहरा आत्मीय रिश्ता है| श्रमशील लोक की अनेक भावदशाएँ यहाँ काव्यानुशासन के साथ बिंबित-चित्रित
होती हैं| समाज और प्रकृति की गतिकी और द्वंद्व वहाँ मौजूद
है| इस कवि का भावबोध इंद्रियबोध की राह से गुजरता है|
बतौर
बानगी सुशील कुमार की अनेक अच्छी कविताओं में से एक कविता है – ‘महुआ के फूलने के मौसम में’| इस कविता में नयी सौंदर्य-दृष्टि का साक्षात्कार होता है| प्रकृति-सौंदर्य के साथ-साथ श्रम-सौंदर्य का घुलाव देखने योग्य है| सुशील कुमार कविता में केवल प्रकृति का सौंदर्य ही नहीं निहारते – बल्कि
पहाड़, पेड़ और पहाड़िया(लोग) के हर्ष, संघर्ष
और दर्द को भी देखते-अनुभव करते हैं| जनपदीय चेतना का यह
स्पर्श कविता के रसायन को अधिक आस्वादनीय बनाता है| सौंदर्य, श्रम और शोषण की छवियों को कवि ने बड़े ही पुरअसर ढंग से कविताबद्ध किया
है – टपकेंगे फिर सफेद
दुधिया/ महुआ के फूल दिन–रात/ पहाड़ी स्त्रियाँ, पहाड़ी बच्चे बिनते
रहेंगे/ पहाड़ के अंगूर/ भरी साँझ तक टोकनी में|
इस कविता
में प्रयुक्त जनपदीय शब्द कविता की भाषा के पाट को विस्तार देते हैं और लोकरंग में रंगते हैं जो नई ऊर्जा और चमक देते
हैं| अतएव सुशील की कविताएँ जीवित
कविताएँ हैं – किसी किताबी कवि की किताबी कविताएँ नहीं|
– डा.
रमाकांत शर्मा , जोधपुर
(साभार : पुस्तक ‘कविता की
लोकधर्मिता’ से)
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काव्य - संग्रह 'जनपद झूठ नहीं बोलता' के पूर्व कथन के रूप में कवि सुशील कुमार का आत्म-वक्तव्य भी यहाँ द्रष्टव्य है जो इसके रचना की सोद्देश्यता पर गंभीरता से प्रकाश डालता है , आप स्वयं देखना चाहेंगे :
वैसे कविताओं की पुस्तक को पूर्वकथन की आवश्यकता महसूस नहीं होती क्योंकि कवि
को जो कहना है वह तो उसकी कृति में स्व-अभिव्यक्त है, पर
उसके रचना-काल, उसकी सोद्येश्यता और रचना-प्रक्रिया पर
प्रकाश डालने के लिहाज से कवि का वक्तव्य प्रामाणिक और प्रासंगिक होता है|
प्रस्तुत संग्रह में कुल सैंतीस
कविताएँ हैं जो सन 2006 से 2011 के मध्य लिखी गई हैं | ये
कविताएँ दूसरे काव्य संग्रह ‘तुम्हारे शब्दों से अलग ‘ की कविताओं के लगभग समानान्तर-काल की हैं पर इन
कविताओं में जनपदीय चेतना और लोक-संस्पर्श को अपेक्षाकृत आसानी से लक्ष्य किया जा
सकता है|
आज हिन्दी कविताएँ जिस दौर से
गुजर रही है उसकी चर्चा के केंद्र में वाद की जगह विवाद और सहमति की जगह बहस अधिक छिड
गये हैं | अहम सवाल यह है कि जनवादी लेखक आचरण और स्वभाव से कितने
जनवादी हैं| दूसरा महत्वपूर्ण
सवाल पाश्चात्य नव्य काव्य प्रतिमानों के पक्षधर कवि-लेखकों को लेकर है जो हमारी
जातीय साहित्य-संस्कृति की दहलीज लांघकर पश्चिम से विचार और व्यवहार, विकास-गतिशीलता और उदारीकरण के मुखौटे ओढ़ अपनी रचनाओं के माध्यम से हममें
समाते जा रहे हैं, उनमें नव-उपनिवेशवाद की ‘बू’ है जो हमारी देशज और प्राकृतिक विरासत को नष्ट
कर देने पर तुला है, ( इन नष्टप्राय होती चीजों में अपनी
माटी से उपजने वाली खरी कविता भी शामिल है| ) और एक गुलामी
से निकलकर दूसरे गुलामी की ओर हमारे गमन का मार्ग खोल रहा है क्योंकि वह आदमी के
काव्यात्मक तरीके से सोचने की सम्पूर्ण प्रक्रिया को ही उजाड़ देना चाहता है|
अस्तु , जन–चेतना से प्रसूत कविताएँ हमेशा इस संवेदनहीनता के विरोध में खडी़ रहेगी। वे इस जीवन के समानांतर एक अलग, विलक्षण और सुंदर संसार रचती हैं जिसमें सुविचारों को बचाने की, जीवन की अच्छाईयों को अक्षुण्ण रखने की
ताक़त है जो उन शब्दों से ग्रहण करती है जो समाज के श्रमशील पवित्र श्वांस से निस्सरित होता है, सक्रिय होकर सच्चाई को प्रतिष्ठित करता है और मनुष्यता की संस्कृति रचता है।
झूठ को जीवन से विलगाता है एवं अन्याय, शोषण और उत्पीड़न से प्रतिवाद करता है।
इसलिये अत्यंत दुरुह और जटिल होते इस समय में कवि-कर्म त्याग, आत्म-संघर्ष और जोखिम से
ज्यादा भरा दीखता है जहाँ नए किस्म की चुनौतियाँ उठ खड़ी हुई हैं| इसकी फलश्रुति यह रही कि रूपवाद और लोकधर्मिता दृश्य में अब आमने-सामने
और पहले से अधिक मुखर हो गये हैं| इसमें आयातित कलावाद का
खतरा और भी आसन्न है (जिसका प्रभाव आज के कई युवा कवियों के सृजन में स्पष्ट रूप
से गोचर हो रहा है)| पर इन दो विपरीत काव्य-धाराओं की प्रतिस्पर्धा
में सीधे-सादे कवि के लिए शब्द-कर्म का कोई अभिप्रेत निकाल पाना कठिन हो जाता है जिसकी प्रतिच्छाया में सृजन का नुकसान होता है, उसके रूपाकार
प्रभावित होते हैं, रचना की प्रभावन्विति कमज़ोर होती है और कभी –कभी कवि अपने मूल लक्ष्य से भटक भी जाता है। पर इतना तो तय है कि बिना
अपनी धरती, अपनी जनता, प्रकृति और अपनी जातीय काव्य-परंपरा को जाने-गुने कोई उधार की सोच से बड़ा
विजन, बड़ा संकल्प नहीँ बना सकता| शायद इसके
अनेक कारणों में से एक कारण है हमारे चित्त की शून्यता जो पैदा होती है अपने
इतिहास, अपनी परंपरा और अपनी जनता से बहुत दूर चले जाने से| बिना इस काव्य-विवेक, देशज प्रकृति और लोकधर्मी
दृष्टि के कोई कवि सर्वसाधारण का कवि नहीं बन सकता | इसके
लिए कवि को जनपद की पाठशाला तक की दूरी तय करनी होगी| वस्तुत:
इसी सर्वहारा सोच से इस संग्रह की कविताएँ उद्भूत हुई हैं जिसके केंद्र में वह
लोक-हृदय है जो सृजन के लिए सदैव मुझे उद्वेलित करता रहा है , बाकी सोच-विचार सुधी पाठकों पर छोड़ता हूँ |"
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- अशोक सिंह , जनमत शोध संस्थान, केवटपाड़ा, दुमका (झारखंड) |
- अशोक सिंह |
NVYUG MEIN NAYEE CHETNA KE KAVI HAIN SHREE
ReplyDeleteSUSHEEL KUMAAR .
I really impressed on your poetry .How you write It beside doing your tedious job in present context. It,s really imitating
ReplyDeletechandan HM UMS MURUP Latehar
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