1
सौ-सौ फीट चौड़ी सड़कें
तुम्हारी छातियों पर दौड़ती हुई
पहुँच जाती हैं सीधे
खदानों से कल-कारखानों तक
बाज़ारों को नापती हुई उन दहानों तक
जहाँ सागर पर बेड़े खड़े हैं
और देखते ही रह जाते हो तुम
विकास की बाढ़ में लीलते
अपने गाँव-घर,खेत-बहियार सब
बेदख़ल कर देते हैं तुम्हें तुम्हारी दुनिया से
थोड़ी-सी ज़मीन और कुछ रूपये देकर वे
मुआवज़े के बतौर
लौट आते हो तुम यातना के सरकारी शिविरों में
जुते हुए बैलों की चाल की तरह भारी मन लिए
घर-दुआर, खेत-खलिहान, गाँव की हर चीज़.....
यानि कि विस्थापन का पूरा भूगोल ही
तिरता है दिन-रात तब तुम्हारी लाचार आँखों में
और दिल में हरदम हूक सी उठती रहती है।
2
एक शहर अब तुम्हारा इंतज़ार कर रहा है, देखो --
गाँव के किसान-कारीगर सभी
अपनी बहु-बेटियाँ, बच्चे और सरो-सामान से लदे
ट्रक-ट्रैक्टरों से वहाँ कूच कर रहे हैं
यह दुनिया देखो, कितनी जगजग है !
कहते हैं, इस शहर की कभी आँख नहीं लगती
न रात होती है यहाँ न सूरज उगता है
पक्षियों की चहचहाहटों और पत्तों की सरसराहटों से महरूम
शहर का अपना संगीत है
जिसके कनफोड़ शोर में बेसुध रहते हैं नागरिक यहाँ
किसी को खुलकर बतियाने की फुर्सत नहीं,
रोबट सी चलती है ज़िन्दगी यहाँ|
3
शवदाह-गृहों से निकली जली अपनी अस्थियाँ
फैक्ट्रियों के कचड़ों से नदी-जल में एकमेक होकर
एक दिन यहीं कहीं
'ग्लोबल-विलेज' का हिस्सा बन जायेंगी
और हमारी-तुम्हारी संस्कृति का एक भरा-पूरा
अध्याय भी समाप्त हो जायेगा !
4
अपनी ज़मीन से अनज़ान नईं पीढ़ियाँ
मन बहलाने गाहे-ब-गाहे पहूँच जाया करेंगी संग्रहालयों में
और अपनी आँखें फाड़-फाड़ देखेंगी
हल-फाल, ढेंकी, चाक, लालटेन, सिलौटे, जाँते, बैलगाड़ी
टमटम, हुक्के, पालकी, सेवार की चटाईयाँ, तीलियों के बने पिंजड़े
बाँस की आरामकुर्सियाँ, मेज वगैरह
भूले-बिसरे भित्ति-चित्रों में तुम्हें नाचते-गाते, ढोल बजाते...
और कहकहे लगायेंगी --
" ऐसे भी होते थे लोग कभी !"
अपनी ज़मीन से छूटती यह दुनिया
कहाँ चली जा रही है
बता पायेंगे कभी क्या अंतरिक्ष में गोता लगाते वैज्ञानिकगण ?
गाँव के किसान-कारीगर सभी
अपनी बहु-बेटियाँ, बच्चे और सरो-सामान से लदे
ट्रक-ट्रैक्टरों से वहाँ कूच कर रहे हैं
यह दुनिया देखो, कितनी जगजग है !
कहते हैं, इस शहर की कभी आँख नहीं लगती
न रात होती है यहाँ न सूरज उगता है
पक्षियों की चहचहाहटों और पत्तों की सरसराहटों से महरूम
शहर का अपना संगीत है
जिसके कनफोड़ शोर में बेसुध रहते हैं नागरिक यहाँ
किसी को खुलकर बतियाने की फुर्सत नहीं,
रोबट सी चलती है ज़िन्दगी यहाँ|
3
शवदाह-गृहों से निकली जली अपनी अस्थियाँ
फैक्ट्रियों के कचड़ों से नदी-जल में एकमेक होकर
एक दिन यहीं कहीं
'ग्लोबल-विलेज' का हिस्सा बन जायेंगी
और हमारी-तुम्हारी संस्कृति का एक भरा-पूरा
अध्याय भी समाप्त हो जायेगा !
4
अपनी ज़मीन से अनज़ान नईं पीढ़ियाँ
मन बहलाने गाहे-ब-गाहे पहूँच जाया करेंगी संग्रहालयों में
और अपनी आँखें फाड़-फाड़ देखेंगी
हल-फाल, ढेंकी, चाक, लालटेन, सिलौटे, जाँते, बैलगाड़ी
टमटम, हुक्के, पालकी, सेवार की चटाईयाँ, तीलियों के बने पिंजड़े
बाँस की आरामकुर्सियाँ, मेज वगैरह
भूले-बिसरे भित्ति-चित्रों में तुम्हें नाचते-गाते, ढोल बजाते...
और कहकहे लगायेंगी --
" ऐसे भी होते थे लोग कभी !"
अपनी ज़मीन से छूटती यह दुनिया
कहाँ चली जा रही है
बता पायेंगे कभी क्या अंतरिक्ष में गोता लगाते वैज्ञानिकगण ?
ज़िन्दगी के पांव ही सतहहीन हो गए ...
ReplyDeleteगाँव पर हावी होते जा रहे शहर के कारण कुचलते जा रहे जीवन के दर्द को आपने बडे सुंदर रूप में प्रस्तुत किया है.
ReplyDeleteबहुत उम्दा रचनायें...
ReplyDeleteएक गंभीर समस्या पर गहन चिंतन.
ReplyDeleteमहाशिवरात्रि की हार्दिक शुभकामनाएँ.
सोचने के लिए मजबूर करती रचनाएँ ....बहुत सुन्दर ...
ReplyDeleteIt,s A Heart touching and realistic poetry .I became admirer of you and your poetry for the whole Life. It can't possible without God gifted sense of special feeling thanks
ReplyDeletesir bye for now
have a nice evening
chandan
यह कविता अपने समय की विभीषिका को अपने भीतर समेट एक ऐसा सवाल खड़ा करती है जिसका उत्तर शायद ही हमें मिले।
ReplyDeleteविकास की परिभाषा ही विकृत हो जाए तो उम्मीद कब तक जीवित रह सकती है ....
ReplyDeletebehtreen
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