गुरुवार, 28 फ़रवरी 2013

विदा साँझ


विदा साँझ  -
पंछी लौट रहे
काले बादल घुमड़ रहे 

विदा दिन   -
लाल सूरज का अंतिम छोर सरक रहा पहाड़  के पीछे 
बैल-बकरी-गाय-कुत्ते-भेंड़-सूअर
उतर रहे पहाड़ से तराई में

विदा दिन की थकान –
लौट रहा मवेशी हँकाता निठल्ला-मगन पहाड़िया बगाल
पगडंडियों के रास्ते
सिर पर ढेर सारा आसमान लिए
बांसुरी से कोई लोक-धुन छेड़ता हुआ   

विदा साँझ का स्वागत -
पहाड़ी कन्याएँ पहाड़ी गीत गुनगुनाती 
डूबते साँझ का आदर करती 
लौट रहीं सखियों संग कतार में 
जंगल से टोले की ओर   
टोकनी-भर महुआ का सफेद फूल समेटे

साँझ विदा –
साँझ गहरा गई पहाड़ पर -
डूब गई पूरी पहाड़ी बस्ती घुप्प अंधेरे में –
महुआ-हड़िया के खुमार में

रात गिर रही तराई पर पोर-पोर -
उधर ओस-भिंगी अमावस में 
बेबस पहाड़न 
काली रात का आलिंगन कर रही  

यह सब देख-सुन मौन है पहाड़ 
हृदय में  दुस्सह पीड़ा सहता 
जंगल-जीव-नदी-जल-वायु-पत्थर-जड़ी-बूटियों की 
विदा-साँझ की पश्चात-कथा का दंश झेलता
मानों साँझ को गीले मन से विदाई देता
भीतर-भीतर टूटकर बिखरता 
नई भोर की प्रतीक्षा में|

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6 टिप्‍पणियां:

  1. कविता में शब्दों के माध्यम से खूबसूरत चित्र-संयोजन है! बधाई !

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  2. AAP KEE KAVITA JAADU BIKHER RAHEE HAI . BHAVON

    AUR SHABDON KAA KHOOBSURAT TAAL-MEL HAI .

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  3. sir , aapki kavita padh kar aisa laga jaise main gaon me pahuch gaya hoo aur apni ankho ke samne aapke har ek shabd ko jiwant roop me dekh raha hoo. aap ki kavita bahut hi achchi hai. next kavita ka intzaar rahega.
    manoj kumar.
    latehar

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  4. शब्दों का जादू, मनोभावों की पराकाष्ठा. बेहतरीन प्रस्तुति.

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